एक रहस्य था ; विजेता चीन ने युद्धविराम की घोषणा क्यों की?

चीन ने 22 नवंबर को अचानक ही  युद्धविराम की घोषणा कर दी. इस युद्ध का अंत भी इसकी शुरुआत की ही तरह एक रहस्य था ;  दतियां सथित मॉ पीताम्‍बरी के दरबार में पहुंचे थे नेहरू जी- तभी चमत्‍कार हुआ एक रहस्य था ; विजेता चीन ने युद्धविराम की घोषणा क्यों की?  सन 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद भारतीय राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने कहा कि “नेहरू की सरकार अपरिष्कृत और तैयारी के बारे में लापरवाह थी”  ; 

भारत-चीन युद्ध 20 अक्टूबर, 1962 को लड़ा गया था। दोनों देशों के बीच ये युद्ध क़रीब एक महीने तक चला, जिसमें भारत को काफ़ी हानि उठानी पड़ी और उसकी हार हुई। इस युद्ध के कारण जो सबसे बड़ी चीज़ दोनों देशों ने गंवाई, वह उनका आपसी विश्वास था। इस युद्ध में भारत ने अपनी वायुसेना का इस्तेमाल नहीं किया था, जिसके लिए तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की कड़ी आलोचना भी हुई। भारत-चीन युद्ध कठोर परिस्थितियों में हुई लड़ाई के लिए उल्लेखनीय है। इस युद्ध में ज़्यादातर लड़ाई 4250 मीटर (14,000 फीट) से भी अधिक ऊँचाई पर लड़ी गयी थी। इस प्रकार की परिस्थिति ने दोनों पक्षों के लिए रसद और अन्य लोगिस्टिक समस्याएँ प्रस्तुत कीं। यह युद्ध चीनी और भारतीय दोनों पक्ष द्वारा नौसेना या वायु सेना का उपयोग नहीं करने के लिए भी विख्यात है।

 

 1962 के मई-जून में अचानक सीमा पर गोलीबारी की घटनाएं बढ़ गईं. चीनी सेना की कई टुकड़ियां भारतीय सीमा के भीतर घुस आईं. भारतीय सेना के पास इनका मुकाबला करने के लिए न तो पर्याप्त हथियार थे और न ही सैनिक. युद्ध के बीच में ही जनरल कौल छाती में दर्द होने के कारण सीमा से लौट कर दिल्ली आ गए. बिना किसी नेतृत्व के सेना के जवान पांच दिनों तक लड़ते रहे जिसके बाद नेफा के तवांग के इलाके पर भी चीन कब्ज़ा हो गया. रक्षामंत्री मेनन को आखिरकार मंत्रिमंडल से निकाल दिया गया और भारत अब अमरीकी मदद लेने की दिशा में बढ़ने लगा. अब तक चीनी सैनिक नेफा में इतना आगे बढ़ चुके थे कि जल्द ही असम के भी उनके हाथ में जाने का खतरा पैदा हो गया. उधर दिल्ली और मुंबई के भर्ती केन्द्रों पर हजारों युवा सेना में भर्ती होने को तैयार थे. लेकिन 22 नवंबर को अचानक ही चीन ने युद्धविराम की घोषणा कर दी. इस युद्ध का अंत भी इसकी शुरुआत की ही तरह एक रहस्य था नेफा में चीन ने अपने सैनिकों को मैकमोहन लाइन से पीछे कर लिया और लद्दाख क्षेत्र में भी वह उस स्थिति में वापस लौट गए जो युद्ध से पहले थी. चीन ने अचानक ही अपने सैनिकों को वापस बुलाकर युद्धविराम की घोषणा क्यों की?

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भारत-चीन के इस युद्ध के लिए हिमालय की विवादित सीमा एक मुख्य बहाना था, लेकिन अन्य मुद्दों ने भी इसमें प्रमुख भूमिका निभाई। चीन में वर्ष 1959 के तिब्बती विद्रोह के बाद जब भारत ने दलाई लामा को शरण दी तो भारत-चीन सीमा पर हिंसक घटनाओं की एक शृंखला की शुरुआत हो गयी। भारत ने ‘फ़ॉरवर्ड नीति’ के तहत ‘मैकमोहन रेखा’ से लगी सीमा पर अपनी सैनिक चौकियाँ रखीं, जो 1959 में ‘चीनी प्रीमियर झोउ एनलाई’ के द्वारा घोषित वास्तविक नियंत्रण रेखा के पूर्वी भाग के उत्तर में थी। चीनी सेना ने 20 अक्टूबर, 1962 को लद्दाख में और ‘मैकमोहन रेखा’ के पार एक साथ हमले करने प्रारम्भ किये। चीनी सेना दोनों मोर्चों पर भारतीय सुरक्षा बलों पर उन्नत साबित हुई। चीनी सेना ने पश्चिमी क्षेत्र में चुशूल में रेजांग-ला एवं पूर्व में तवांग पर कब्ज़ा कर लिया। जब चीनी सेना ने 20 नवम्बर, 1962 को युद्ध विराम और साथ ही विवादित क्षेत्र से अपनी वापसी की घोषणा की, तब यह युद्ध समाप्त हुआ।
सन 1962 में देश का राजनीतिक नेतृत्व यह पूरी तरह से समझ नहीं पाया कि सेना का इस्तेमाल कहाँ और कैसे किया जाए। उस समय सेना को पुलिस की तरह इस्तेमाल किया गया। सेना को आदेश दिया गया कि वह सीमा पर जाए और हर सौ गज पर या एक वर्ग किलोमीटर पर नाकेबन्दी कर दे। इस अचानक मिले आदेश का पालन करते हुए भारतीय सेना के जवान जब वहाँ पहुँचे तो न वहाँ सड़कें थीं, न उस क्षेत्र के नक्शे उनके पास थे, न ही वे जरूरी हथियारों से लैस थे, और न ही उस बर्फीले क्षेत्र में लड़ने और रहने के लिए उनके पास उचित कपड़े थे। सैनिक उस कड़कड़ाती ठण्ड में ठिठुरते हुए वहाँ तक पहुँचे थे। अत्यधिक ऊँचाई और ठंड की स्थिति से सैन्य और अन्य लॉजिस्टिक कार्यों में भारतीय सैनिकों को कई कठिनाइयों का सामना करना पड़ा। यहाँ तक की कई सैनिक जमा देने वाली ठण्ड से मर भी गए।
इस युद्ध में 1383 भारतीय सैनिक मारे गए, जबकि 1047 घायल हुए थे। इतना ही नहीं क़रीब 1700 सैनिक लापता हो गए और 3968 सैनिकों को चीन ने गिरफ्तार कर लिया। वहीं दूसरी ओर चीन के कुल 722 सैनिक मारे गए और 1697 घायल हुए थे। इस युद्ध की सबसे बड़ी बात यह भी थी कि भारत की तरफ़ से मात्र बारह हज़ार भारतीय सैनिक चीन के 80 हज़ार सैनिकों का मुकाबला कर रहे थे। दोनों सेनाओं के मध्य यह एक बहुत बड़ा अंतर था।
भारतीय सैनिकों ने वीरतापूर्वक चीनी सेना का सामना किया, किंतु राजनीतिक और सैन्य नेतृत्व की अक्षमता के कारण सैनिकों की बहादुरी व्यर्थ चली गई। उस समय भारतीय वायुसेना चीनी वायुसेना के मुकाबले बहुत आगे थी, लेकिन भारतीय सैन्य और राजनीतिक नेतृत्व ने वायुसेना को कोई काम नहीं दिया, और न ही उसे लड़ाई में आगे लाया गया। यदि भारत अपनी हवाई शक्ति का प्रयोग करता तो जो चीनी सेना बहुत नपे-तुले आकलन के साथ अपनी शक्ति का सही उपयोग करते हुए आगे बढ़ रही थी, उसे रोका जा सकता था। वायुसेना का इस्तेमाल न करने का परिणाम भारत की हार के रूप में सामने आया।
भारत-चीन युद्ध के मुख्य रूप से दो कारण थे-
पहला बड़ा मसला तिब्बत का था, जो मध्य एशिया का मशहूर पठार है। यह दोनों देशों के बीच विवादित विषय भी रहा है। सन 1950 में चीन ने तिब्बत पर क़ब्ज़ा कर लिया। प्रारम्भ में भारत सरकार इसके ख़िलाफ़ खुलकर नहीं बोल पाई, लेकिन जैसे-जैसे वहाँ से दमन की खबरें आने लगीं, भारत ने इसका विरोध करना शुरू किया।
इस परिस्थिति में आग में घी डालने जैसा काम 1959 में तिब्बती धर्मगुरु दलाई लामा को भारत में शरण देना रहा। चीन ने भारत पर चीन विरोधी गतिविधि चलाने का आरोप लगाया।
युद्ध का दूसरा कारण हिमालय क्षेत्र का सीमा विवाद था। भारत मानता था कि सीमा का निर्धारण ब्रिटिश सरकार के समय सुलझाया जा चुका है, किंतु चीन इससे इनकार करता रहा। उसने भारतीय सीमा के महत्त्वपूर्ण क्षेत्र जम्मू-कश्मीर के लद्दाख वाले हिस्से के अक्साई-चिन और अरुणाचल प्रदेश के कई हिस्सों पर अपना दावा जताया। पंडित जवाहरलाल नेहरू और माओत्से तुंग के बीच कई वार्ताओं के बाद भी मसला नहीं सुलझा, जिसका परिणाम युद्ध के रूप में सामने आया।
नेहरू की आलोचना
सन 1962 के भारत-चीन युद्ध के बाद भारतीय सेना में व्यापक बदलाव आये और इसने भविष्य में इसी तरह के संघर्ष के लिए तैयार रहने की ज़रूरत महसूस की। युद्ध से भारतीय प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू पर दबाव आया, जिन्हें भारत पर चीनी हमले की आशंका में असफल रहने के लिए जिम्मेदार ठहराया गया। भारतीयों में देशभक्ति की भारी लहर उठनी शुरू हो गयी और युद्ध में शहीद हुए भारतीय सैनिकों के लिए कई स्मारक बनाये गए। भारत पर चीनी आक्रमण की आशंका की अक्षमता के कारण जवाहरलाल नेहरू को चीन के साथ शांतिवादी संबंधों को बढ़ावा देने के लिए सरकारी अधिकारियों से कठोर आलोचना का सामना करना पड़ा। भारतीय राष्ट्रपति राधाकृष्णन ने कहा कि “नेहरू की सरकार अपरिष्कृत और तैयारी के बारे में लापरवाह थी”। पंडित जवाहरलाल नेहरू ने भी यह स्वीकार किया कि भारतीय अपनी समझ की दुनिया में रह रहे थे। भारतीय नेताओं ने आक्रमणकारियों को वापस खदेड़ने पर पूरा ध्यान केंद्रित करने की बजाय रक्षा मंत्रालय से कृष्ण मेनन को हटाने पर काफ़ी जोर दिया। भारतीय सेना कृष्ण मेनन की नीतियों की वजह से विभाजित हो गयी थी और कुल मिलाकर 1962 का युद्ध भारतीयों द्वारा एक सैन्य पराजय और एक राजनीतिक आपदा के संयोजन के रूप में देखा गया।
उस समय उपलब्ध विकल्पों पर गौर न करके, बल्कि अमेरिकी सलाह के तहत भारत ने वायु सेना का उपयोग चीनी सैनिको को वापस खदेड़ने में नहीं किया। ‘अमेरिकी गुप्तचर संस्था’ ने बाद में कहा कि उस समय तिब्बत में न तो चीनी सैनिको के पास में पर्याप्त मात्रा में ईधन थे और न ही लम्बी हवाईपट्टी थी, जिससे वे वायु सेना का प्रभावी रूप से उपयोग करने में असमर्थ थे। अधिकांश भारतीय चीन और उसके सैनिको को संदेह की दृष्टि से देखने लगे। कई भारतीय युद्ध को चीन के साथ एक लंबे समय से शांति स्थापित करने में भारत के प्रयास में एक विश्वासघात के रूप में देखने लगे। जवाहरलाल नेहरू द्वारा “हिन्दी-चीनी भाई-भाई” वाक्य के उपयोग पर भी सवाल शुरू हो गए। इस युद्ध ने नेहरू की इन आशाओं को खत्म कर दिया कि भारत और चीन एक मजबूत एशियाई ध्रुव बना सकते हैं, जो शीत युद्ध गुट महाशक्तियों की बढ़ती प्रभाव प्रतिक्रिया होगी।

www.himalayauk.org (HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND)

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