भाजपा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई-शाह

चरमोत्कर्ष आना अभी बाकी- शाह ने अपने गणित को सही साबित कर दिखाया  अमित शाह को यह कह कर नकारा गया कि वो राज्य स्तर के रणनीतिकार हैं, जो केवल पश्चिमी भारत के एक हिस्से तक सीमित हैं; उन्हें हिंदी बोलने वाले क्षेत्रों व उससे परे के इलाकों की समझ नहीं है। लेकिन शाह की रणनीति ने दर्शाया कि जमीनी स्तर के राजनीतिक मानस के साथ उनका गहरा जुड़ाव है। जब कांग्रेस पार्टी शाह को गुजरात से तड़ीपार करने का षड्यंत्र कर रहे थे, तो वे वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर अपने खुद के अंत की घोषणा कर रहे थे। शाह अक्सर बताते हैं कि वे चाणक्य और वीर सावरकर से प्रेरणा लेते हैं। उनका कहना है कि अगर कोई भारतीय राजनीति को समझना और भारत पर शासन करना चाहता है, तो उसे इन दो युग-निर्माताओं के दर्शन को आत्मसात करना होगा।

(www.himalayauk.org) Web & Print Media; CS JOSHI- Editor.

भुवनेश्वर में आयोजित भाजपा की दो-दिवसीय राष्ट्रीकय कार्यकारिणी की बैठक में शनिवार को पार्टी के राष्ट्रीय अध्य्क्ष अमित शाह ने कार्यकर्ताओं को संबोधित करते हुए कहा कि उन्होंने कार्यकर्ताओं से आह्वान किया कि यह कहा गया कि साल 2014 की जीत के बाद भाजपा अपने चरमोत्कर्ष पर पहुंच गई, लेकिन भाजपा का चरमोत्कर्ष आना अभी बाकी है. आज हमारे 13 मुख्यमंत्री हैं, लेकिन हमारी कल्पकना है कि देश के हर राज्यज में हमारे मुख्यममंत्री हों. 2019 में हमें दोबारा नरेंद्र मोदी को देश का प्रधानमंत्री बनाना है. पंचायत से लेकर पार्लियामेंट तक हर स्तोर पर भाजपा का शासन होना चाहिए.
डॉ अनिर्बान गांगुली लिखते हैं कि 
 भाजपा अध्यक्ष अमित शाह का जब राष्ट्रीय भूमिका में उनका पदार्पण हुआ तब अपने कार्यकाल के आरंभिक दिनों में भाजपा अध्यक्ष अमित शाह ने एक बिंदु को बारंबार उठाया कि पार्टी को दक्षिणी, पूर्वी और पूर्वोत्तर क्षेत्रों में पैठ बनाने-बढ़ाने की जरूरत है। इस रणनीतिक विस्तार के लिए शाह ने संगठन की जड़ों को गहरा करने और आधार को विस्तृत बनाने की बात कही। उनके मुताबिक इस गहराई और विस्तार से पार्टी को संगठनात्मक स्थिरता मिलेगी और साथ ही उसकी देशव्यापी अपील बनेगी। इससे भाजपा का जमीनी आधार और मजबूत होना सुनिश्चित होगा। उनके इस तर्क पर विविध प्रकार की प्रतिक्रियाएं मिलीं, कुछ ने सवाल खड़े किए तो कुछ ने उनकी बातों को खारिज कर दिया, किंतु अपने कार्यकाल के एक ही साल में शाह ने अपने गणित को सही साबित कर दिखाया। उनके प्रबंधन और अथक प्रयासों से ही यह संभव हो पाया है कि आज भाजपा ने अपना आधार दक्षिण से लेकर पूर्व तक और उससे भी आगे पूर्वोत्तर तक बढ़ा लिया है।
जब शाह ने कहा था- कन्याकुमारी से लेकर लद्दाख तक और कच्छ से लेकर कामरूप तक, तब वो ठिठोली नहीं कर रहे थे। यह वो विस्तार था, जिसके लिए शाह खुद काम कर रहे थे और उन्होंने स्वयं इस तानेबाने को बुना। लंबे समय से भाजपा को उत्तर भारतीय पार्टी कहा जाता था, ऐसे में पूर्वी और दक्षिणी भारत में पार्टी का विस्तार उल्लेखनीय है। पार्टी पर सीमित पहुंच का जो झूठा मुलम्मा बाहरी लोगों ने लगाया था, उसे अब तमाम सफलताओं ने उतार दिया है।
पनपते रुझान और बदलाव के अहम संकेत केरल व पश्चिम बंगाल में 2016 में हुए चुनावों में भाजपा के प्रदर्शन से मिले। वोट प्रतिशत में वृद्धि, केरल में पहली बार विधानसभा सीट जीत से खाता खुलना और पश्चिम बंगाल में ज्यादा मत प्रतिशत के साथ पुनः जीत प्राप्ति – ये शाह की रणनीति की एक बानगी है। वास्तव में पार्टी दक्षिण व पूर्व में भी विस्तार कर रही है। असम की शानदार सफलता, उड़ीसा के स्थानीय निकाय चुनावों में भारी विजय, जहां भाजपा ने न केवल विरोधी गढ़ों में अच्छा प्रदर्शन किया बल्कि सबसे कठिन इलाकों व जिलों में भी छाप छोड़ी। यह वो क्षेत्र थे, जिनकी अनदेखी की गई थी व जहां माओवादी उगाही किया करते थे। हाल ही में मणिपुर में मिली जीत ने साफ संकेत दिया है कि शाह की रणनीति काम करने लगी है। अमित शाह को यह कह कर नकारा गया कि वो राज्य स्तर के रणनीतिकार हैं, जो केवल पश्चिमी भारत के एक हिस्से तक सीमित हैं; उन्हें हिंदी बोलने वाले क्षेत्रों व उससे परे के इलाकों की समझ नहीं है। लेकिन शाह की रणनीति ने दर्शाया कि जमीनी स्तर के राजनीतिक मानस के साथ उनका गहरा जुड़ाव है।
जब अमित शाह ने बताया कि उन्होंने वास्तव में उत्तर प्रदेश के 398 विधानसभा क्षेत्रों का दौरा किया और वहां के लोगों व कार्यकर्ताओं से मुलाकात की तो इससे जाहिर होता है कि पूरे राज्य से वह कितनी अच्छी तरह जुड़े थे। यह जुड़ाव कायम करना और स्वयं समीक्षा करना वे खासियतें हैं, जो उन्होंने गुजरात में आजमाई है; वहां कई वर्षों तक उन्होंने राज्य परिवहन की जर्जर बसों में पूरे प्रदेश की यात्रा कर के पार्टी को जमीनी स्तर पर संगठित किया है। इस तरह शाह ने गहरी बुनियाद वाला एक अभेद्य व बेमिसाल राजनीतिक ढांचा खड़ा किया। शायद कुछ लोगों को ध्यान हो कि जब कांग्रेस पार्टी और उसके प्रथम परिवार शाह को गुजरात से तड़ीपार करने का षड्यंत्र कर रहे थे, तो वे वास्तव में राष्ट्रीय स्तर पर अपने खुद के अंत की घोषणा कर रहे थे।
निर्वासन के उन्हीं दिनों में शाह ने उत्तर प्रदेश में खूब यात्राएं कीं, विभिन्न वर्गों से मिलने व बातचीत करने में अपने दिन व हफ्तों बिताए, मठों में रात्रि प्रवास के माध्यम से लोगों को जोड़ा, ग्रामीण क्षेत्रों का सफर किया, अभिलेखीय रिकॉर्ड व गज़ट पढ़े। उनकी याददाश्त इतनी प्रखर है कि औपनिवेशिक काल के उन गज़टों, रिकॉर्ड व दस्तावेजों के सटीक ब्यौरे उन्हें अब भी याद हैं। अपने गृह-राज्य से राजनीतिक निर्वासन ने शाह के लिए एक नया अध्याय खोला। तो इस प्रकार कांग्रेसी साजिश ने शाह की राष्ट्रीय समझ व दृष्टिकोण को पैना करने का मार्ग प्रशस्त किया। यह एक जबरदस्त लगन थी, जिसने उन्हें इस काबिल बनाया कि वह हिंदी भूमि की आात्मा, चरित्र, गणित व मानस को आत्मसात कर सके। कांग्रेस के प्रथम परिवार को शायद ही यह भान हुआ होगा कि शाह को निष्कासन दिलवा कर वे वास्तव में अपने खुद के राजनीतिक भविष्य का निर्वासन कर रहे हैं।
भारतीय राजनीति के एक ख़ास दल के शहज़ादे उनके विरुद्ध आदतन बिगड़े बोल बोलते रहे, लेकिन शाह बीते एक वर्ष से भी अधिक समय तक चुपचाप उ.प्र. में और देश भर में भाजपा को जमीनी स्तर का संगठन बनाने के लिए काम करते रहे। लेकिन, जिस तरह से भौतिक रूप से पुनर्संगठन और पुनर्संरचना अहम है, वैसे ही वैचारिक पुनरोद्धार भी महत्वपूर्ण होता है। शाह ने निरंतर वैचारिक आधार की पुनर्खोज व पुर्नअभिव्यक्ति पर बल दिया और मूल-कार्यकर्ता में प्रतिबद्धता, समर्पण उत्पन्न करने की दिशा में काम किया; क्योंकि यही वो तत्व हैं जो ’बूथ स्तर’ पर प्रभावी होते हैं। विचारधारा के व्यापक ह्रास के समय में वैचारिक पुनरोद्धार – यह भाजपा अध्यक्ष अमित शाह के उन सबसे महत्वपूर्ण योगदानों में से है, जो उन्होंने बीते कुछ सालों में पार्टी के लिए किए हैं।
उत्तर प्रदेश का फैसला ममता बनर्जी जैसे लोगों के मुंह पर एक जोरदार तमाचा है, जो अपनी राजनीति की इमारत तुष्टिकरण की बुनियाद पर खड़ी करते हैं। पूरे चुनाव प्रचार के दौरान शाह ने बारंबार इस बात पर जोर दिया कि यह चुनाव जातिवाद, परिवारवाद एवं तुष्टिकरण की राजनीति पर निर्णायक प्रहार सिद्ध होगा। वास्तव में, उत्तर प्रदेश के परिणाम और अन्य राज्यों के नतीजों ने साफ तौर पर इन तीन बीमारियों को दरकिनार कर दिया है, जिन्होंने हमारे देश की राजनीति को बहुत लंबे समय से पंगु बना रखा है।
अमित शाह और नरेन्द्र मोदी ने एक और लक्ष्य की रचना की है, जो इन चुनावों में खासा प्रमुख रहा और वह है एक नए भारत का सपना। दोनों ने ही ’सेवा की राजनीति’ पर जोर दिया है, जैसा कि सामाजिक दार्शनिक रामस्वरूप ने इसे, ’आत्म अलगाव की राजनीति’ के खिलाफ स्वीकृति दी है। रामस्वरूप लिखते हैं, ’’सेवा की राजनीति सत्ता की राजनीति से अलग है। इसके लिए आम लोगों के बीच देखने की क्षमता, गरीबी के बीच भी एक नई गरिमा व सुन्दरता, दिल और दिमाग के नए गुण, का होना आवश्यक है। केवल इसी वजह से हमें उन्हें वह आदर और सम्मान देना चाहिए जिसके वे हकदार हैं। केवल यही चीज हम में विनम्रता, सहनशीलता व समझ के गुणों को विकसित करती है, जो किसी भी गहन कार्य के लिए जरूरी हैं।’’ सेवा की राजनीति का यह फलसफा ही अंततः विजयी हुआ है और विभिन्न विभाजनों के मध्य भी अपनी अहमियत कायम कर रहा है और स्वीकारा जा रहा है।
शाह अक्सर बताते हैं कि वे चाणक्य और वीर सावरकर से प्रेरणा लेते हैं। उनका कहना है कि अगर कोई भारतीय राजनीति को समझना और भारत पर शासन करना चाहता है, तो उसे इन दो युग-निर्माताओं के दर्शन को आत्मसात करना होगा। अमित शाह की राजनीति व कामकाज में इन व्यक्तियों की प्रेरणा को स्पष्ट देखा जा सकता है। दिलचस्प बात है कि जिन लोगों को चाणक्य के बारे में कोई ज्ञान नहीं है और जिन्होंने सावरकर को नकारा, निंदा की, दुर्जन करार दिया वही लोग आज शाह की राजनीति से मात खा रहे हैं।
(लेखक डॉ श्यामा प्रसाद मुखर्जी रिसर्च फाउंडेशन के निदेशक हैं)

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