बीजेपी का राजनीतिक हिंदू आधार और मज़बूत होगा?

सीऐऐ ओर एनआरसी पर मोदी जी अभी तक प्रदर्शनकारियों का भरोसा क्यों नहीं जीत पाये है? क्‍या बीजेपी का राजनीतिक हिंदू आधार और मज़बूत होगा वही डॉ. वेद प्रताप वैदिक लिखते हैकि पार्टी के लिए कहीं भस्मासुर न बन जाए यह क़ानून-

अपूर्वानंद  दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं लिखते है कि भारत के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे विरोध-प्रदर्शन के पर्यवेक्षकों का कहना है कि इनका मुसलमान स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के लिए मुफ़ीद है। इससे हिंदुओं में इनके ख़िलाफ़ विद्वेष भरना और बढ़ना आसान होगा और बीजेपी का राजनीतिक हिंदू आधार और मज़बूत होगा। 

नागरिकता संशोधन क़ानून का मूल उद्देश्य तो बहुत अच्छा है कि पड़ोसी मुसलिम देशों के शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जाए लेकिन उसका आधार सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न हो, यह बात भारत के मिजाज से मेल नहीं खाती। उत्पीड़न किसी भी तरह का हो और वे उत्पीड़ित सिर्फ तीन पड़ोसी मुसलिम देशों के ही क्यों, किसी भी पड़ोसी देश के हों, भारत के द्वार उनके लिए खुले होने चाहिए। हर व्यक्ति के गुण-दोष परखकर ही उसे भारत का नागरिक बनाया जाए– डॉ. वेद प्रताप वैदिक

नागरिकता संशोधन क़ानून लगभग वैसी ही भयंकर भूल है, जैसी मोदी सरकार ने नोटबंदी करके की थी। इन दोनों कामों को करने के पीछे भावना तो बहुत अच्छी रही लेकिन इनके दुष्परिणाम भयावह हुए हैं। नोटबंदी से सारा काला धन सफेद हो गया। काले धनवालों ने उल्टे उस्तरे से सरकार की मुंडाई कर दी। सैकड़ों लोगों को अपनी जान से हाथ धोना पड़ा और 30 हज़ार करोड़ रुपये नए नोट छापने में बर्बाद हुए। 

नोटबंदी ने बीजेपी सरकार का ज्यादा नुकसान नहीं किया, क्योंकि लोगों को पक्का विश्वास था कि वह देश के भले के लिए की गई थी लेकिन नागरिकता संशोधन क़ानून मोदी सरकार और बीजेपी की जड़ों को मट्ठा पिला सकता है। यह क़ानून बीजेपी के लिए कहीं भस्मासुरी सिद्ध न हो जाए। इस क़ानून का मूल उद्देश्य तो बहुत अच्छा है कि पड़ोसी मुसलिम देशों के शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जाए लेकिन उसका आधार सिर्फ धार्मिक उत्पीड़न हो, यह बात भारत के मिजाज से मेल नहीं खाती। 

उत्पीड़न किसी भी तरह का हो और वे उत्पीड़ित सिर्फ तीन पड़ोसी मुसलिम देशों के ही क्यों, किसी भी पड़ोसी देश के हों, भारत के द्वार उनके लिए खुले होने चाहिए। हर व्यक्ति के गुण-दोष परखकर ही उसे भारत का नागरिक बनाया जाए। न थोक में नागरिकता दी जाए और न ही थोक में मना किया जाए। इस सिद्धांत का पालन ही सच्चा हिंदुत्व है। लेकिन इस संशोधित क़ानून ने इस सिद्धांत का सरासर उल्लंघन किया है। इसीलिए मुसलमानों से ज़्यादा हिंदू नौजवान इसका विरोध कर रहे हैं। सारे विरोधियों को इस क़ानून ने एक कर दिया है। बांग्लादेश जैसे भारत के अभिन्न मित्र देश ने पिछले कुछ सप्ताहों में अपने मंत्रियों की चार भारत यात्राएं स्थगित कर दीं। कई मित्र-राष्ट्रों ने इस क़ानून को अनुचित बताया है। 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का इतना विरोध हुआ कि कोलकाता में उन्हें शहर के अंदर कार छोड़कर हेलिकाप्टर से यात्रा करनी पड़ी है। अनेक राज्य सरकारें (विपक्षी) इस क़ानून को लागू नहीं करने की घोषणा कर चुकी हैं। इस बेढंगे क़ानून की वजह से ‘नागरिकता रजिस्टर’ जैसा उत्तम काम भी खटाई में पड़ता नज़र आ रहा है।

 (डॉ. वेद प्रताप वैदिक के ब्लॉग www.drvaidik.in से साभार)

अपूर्वानंद  दिल्ली विश्वविद्यालय में हिन्दी पढ़ाते हैं लिखते है कि जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय के छात्रों पर हुए हमले से पैदा हुई राष्ट्रीय उत्तेजना और विक्षोभ ने कुछ समय के लिए नागरिकता संबंधी क़ानून और नागरिकता के लिए पंजीकरण के ख़िलाफ़ चल रहे राष्ट्रव्यापी प्रतिरोध की ओर से ध्यान हटा दिया है। याद रखना ज़रूरी है कि यह प्रतिरोध अभी चल रहा है। कोलकाता जैसा बड़ा शहर हो या मालेगाँव या गया या कोच्चि, लोग अलग-अलग ढंग से इस प्रतिरोध को जारी रखे हुए हैं। जेएनयू पर हुए हुए हमले ने दिलचस्प एकजुटता भी पैदा की है। जामा मसजिद की सीढ़ियों पर जेएनयू के लिए आवाज़ उठाने हज़ारों स्त्रियाँ जमा हुईं। शाहीन बाग़ में भी यह एकजुटता व्यक्त हुई। यह ठीक है कि इस देश व्यापी उभार में उत्साह है। हज़ारों और कुछ जगह लाख-लाख की तादाद में उमड़ी जनता की छवियाँ उम्मीद जगाती हैं। इसके बाद एक बड़ा लेकिन है। क्या इस विक्षोभ को जन आंदोलन कहा जा सकता है? जो सड़क पर हैं, वे भारत के जन ही हैं। फिर भी देखा जा सकता है कि इसमें भारत के एक तबक़े को शामिल होने में अभी भी संकोच है। जो इस जन उभार से कटा-कटा है, वह हिंदू समाज है। बंगाल और केरल को अपवाद माना जाना चाहिए। असम तो सबसे अलग है। वहाँ के आंदोलन को बाहरी विरोधी बताया जा रहा है लेकिन यह सच है कि बंगाली मुसलमान जो असमिया भाषी भी हैं, अपनी जगह के प्रति पूरी तरह आश्वस्त नहीं हैं। क्या बंगाली हिंदू को इस नये क़ानून से उसकी तरह की असुरक्षा है?  असम के मुसलमान महसूस कर रहे हैं, वह और तीव्रता से दूसरे इलाक़ों के मुसलमान अनुभव कर रहे हैं। क़ानून का प्रतीकात्मक अर्थ उन तक पहुँच गया है। इसलिए इस पर कोई हैरानी नहीं होनी चाहिए कि वे एक तड़प के साथ सड़क पर निकल पड़े हैं। उन्होंने किसी नेता, किसी दल का इंतज़ार नहीं किया है। यह विडंबना ही है कि मुसलमान परस्त माने जाने वाले दल फूँक-फूँक कर क़दम उठा रहे हैं। वे ख़ुद तो नेतृत्वकर्ता नहीं ही हैं, इस प्रतिरोध के प्रति उनका समर्थन सांकेतिक ही रहा है। इस वजह से यह प्रमुख रूप से मुसलमानों का आंदोलन बने रहने को बाध्य है। उन्होंने भारतीय नागरिकता की धर्मनिरपेक्ष बुनियाद को बदलने की इस कोशिश का विरोध अपने बल पर करना ठाना है। लेकिन वे आशापूर्वक अपने हिंदू पड़ोसियों की तरफ़ देख रहे हैं कि क्या वे साथ आएँगे। भारत के अलग-अलग हिस्सों में चल रहे विरोध-प्रदर्शन के पर्यवेक्षकों का कहना है कि इनका मुसलमान स्वरूप भारतीय जनता पार्टी के लिए मुफ़ीद है। इससे हिंदुओं में इनके ख़िलाफ़ विद्वेष भरना और बढ़ना आसान होगा और बीजेपी का राजनीतिक हिंदू आधार और मज़बूत होगा। 

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