ऐतिहासिक तपस्या की गवाह देता बालेश्वर मंदिर

baleshwarmahadev#इस पावन मंदिर के दर्शन से  अश्वमेघ यज्ञ के समान फल पुण्‍य #पावन तीर्थों में एक है ऋषेश्वर महादेव का मंदिर#कुर्मांचल नामक पर्वत श्रेणियां ;जनपद चम्पावत   #ऐतिहासिक तपस्या की गवाह देता बालेश्वर मंदिर  #भगवान विष्णु के कुर्मू अवतार व उनके चरणों से चिन्हित होने के कारण इस नगर का नाम कुर्मांचल #स्कंद पुराण के मानस खण्ड में वर्णन #ऋषि पुलस्त्य के पुत्र व लंकापति रावण के लघु भ्राता कुंभकर्ण ने बाल्यकाल से ही महाबलशाली शरीर को प्राप्त किया तथा सत्रह वर्ष तक भगवान शिव की घोर आराधना के पश्चात अनेक वर प्राप्त किये। जिनमें से एक वर यह था कि मेरी मृत्यु के समय मेरा सिर लंका में न गिरकर ऐसे पवित्र स्थान पर गिरे जहां साक्षात शिव का वास हो तथा वह स्थान जलमग्न हो #ऋषि-मुनियों की यह तपःस्थली #इसी भूमि पर महाबली कुंभकर्ण, महावीर घटोत्कच व उनकी माता हिडिम्बा को परम शांति प्राप्त हुई थी   वानरराज बाली ने यहां के पर्वतों में भगवान शिव की घोर आराधना के पश्चात उनसे वरदान स्वरूप अपार बल प्राप्त किया     Execlusive Article: www.himalayauk.org (UK Leading Digital Newsportal) 

हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल के लिए एक्‍सक्‍लूसिव आलेख- राजेन्द्र पंत ’रमाकांत‘/मनोज जोशी

अलौंकिक विरासत को समेटे कुर्मांचल पर्वत पर विराजमान देवालयों की महिमा का वर्णन बडा ही मनोहारी है। रामायण, महाभारतकाल व उससे पूर्व से भी ऋषि-मुनियों की यह तपःस्थली कभी कैलाश मानसरोवर यात्रा पथ का प्रथम पडाव थी। इसी भूमि पर महाबली कुंभकर्ण, महावीर घटोत्कच व उनकी माता हिडिम्बा को परम शांति प्राप्त हुई थी। वानरराज बाली ने यहां के पर्वतों में भगवान शिव की घोर आराधना के पश्चात उनसे वरदान स्वरूप अपार बल प्राप्त किया। ऐतिहासिक तपस्या की गवाह देता बालेश्वर मंदिर के प्रति आज भी लोगों में अगाध श्रद्धा है। कुर्मांचल नामक पर्वत श्रेणियां जनपद चम्पावत के धार्मिक महत्व की गाथा को उनके तीर्थों के रूप में प्रकट करती हैं। इन्हीं पावन तीर्थों में एक है ऋषेश्वर महादेव का मंदिर।
ऋषेश्वर महादेव जी का मंदिर भगवान शिव की ओर से अपने भक्तों के लिए अनुपम भेंट है। ऐसी मान्यता है कि जो मनुष्य एक बार इस पावन मंदिर के दर्शन कर लेता है वह अश्वमेघ यज्ञ के समान फल का भागी बनता है। प्राचीन समय में शिव भक्त जब कैलाश यात्रा पर जाते थे तो सर्वप्रथम ऋषेश्वर के चरणों में ही अपनी आराधना के श्रद्धापुष्प अर्पित करते थे। मन्दिर के समीपस्थ ही बहती लोहावती नदी में स्नान करने के पश्चात आगे की यात्रा सम्पन्न होती थी।

ऋषेश्वर के रूप में भगवान शिव की आराधना करके ही भीम ने अपने पुत्र घटोत्कच का उद्धार किया। इस संबंध में कहा जाता है कि महाभारत युद्ध में घटोत्कच के मारे जाने के पश्चात उसकी आत्मा भटक गयी। स्वप्न में प्रकट होकर अपने पिता भीम को उसने यह व्यथा सुनायी तथा कुर्मांचल की पहाडी को अपने लिए सर्वश्रेष्ठ स्थान बताया। तब भीम ने यहां पहुंच कर ऋषेश्वर महादेव की घोर आराधना के पश्चात उनकी कृपा से अखिल ब्रह्माण्ड की नायिका मां अखिलतारिणी को प्रकट किया। कहा जाता है कि ऋषेश्वर महादेव की कृपा से योगमाया रूपिणी भगवार शंकर को प्रिय लगने वाली संसार का उद्धार करने वाली भगवती पृथ्वी का भेदन कर प्रकट हुई तब भीम ने शिव कृपा से देवी से ’कुंभकर्ण‘ के सिर को तोडकर इस क्षेत्र के वन में परिणित होने का वर मांगा, तब भीम ने अपनी गदा से कुंभकर्ण के गण्डस्थल को तोडकर गण्डकी नदी प्रवाहित की और साथ में लोहावती नदी भी प्रवाहित की।  इन दोनों के संगम पर अपने पुत्र घटोत्कच को स्थान दिलाया। चम्पावत मुख्यालय से लगभग दो किमी. की दूरी पर शिव कृपा से स्थापित घटोत्कच मंदिर भक्तों की मनौती पूर्ण करने में सहायक माना जाता है। यहीं पास में हिडिम्बा का मंदिर भी है।
शिव कृपा से किस प्रकार महाबली कुंभकर्ण को यहां स्थान प्राप्त हुआ, इस विषय में स्कंद पुराण के मानस खण्ड में वर्णन मिलता है कि ऋषि पुलस्त्य के पुत्र व लंकापति रावण के लघु भ्राता कुंभकर्ण ने बाल्यकाल से ही महाबलशाली शरीर को प्राप्त किया तथा सत्रह वर्ष तक भगवान शिव की घोर आराधना के पश्चात अनेक वर प्राप्त किये। जिनमें से एक वर यह था कि मेरी मृत्यु के समय मेरा सिर लंका में न गिरकर ऐसे पवित्र स्थान पर गिरे जहां साक्षात शिव का वास हो तथा वह स्थान जलमग्न हो। चिरकाल के बाद दशरथ पुत्र श्री रामचन्द्र जी ने जब सुग्रीव की सहायता से लंका पहुंच कर उसका सिरोभेदन कर दिया तब भगवान शंकर ने वरदान का स्मरण कर रामचन्द्र जीी ने वानरश्रेष्ठ हनुमान से कुंभकर्ण के सिर को कुर्मांचल ले जाने को कहा। यहां सिर पडते ही उसने परम गति को प्राप्त किया और यह स्थान सरोवर में तब्दील हो गया। बाद में भगवान ऋषेश्वर की कृपा व माता अखिलतारिणी से वरदान प्राप्त रकने के पश्चात भीम ने इसके टुकडे-टुकडे कर इसे अपने पुत्र घटोत्कच के लिए समर्पित कर दिया।
भगवान विष्णु के कुर्मू अवतार व उनके चरणों से चिन्हित होने के कारण इस नगर का नाम कुर्मांचल पडा। यह भूमि सप्तऋषियों की आराधना स्थली भी कही जाती है। इसी पावन भूमि पर महर्षि वशिष्ठ मुनि ने अनेक ऋषियों सहित भगवान शिव की लंबे समय तक तपस्या की। उनकी तपस्या से प्रसन्न होकर ऋषेश्वर में भगवान शिव ने वशिष्ठ मुनि को दर्शन दिए और शिवलिंग के रूप में जगत के कल्याण के लिए यहीं पर स्थित यह मंदिर चम्पावत जनपद के लोहाघाट नगर में लोहावती नदी के किनारे स्थित है। प्राचीन काल में जंगल के बीच इस शिवलिंग की पूजा बारह गांव के लोग करते थे। सन् १९६० के लगभग १०८ श्री बालक बाबा जी ने इस मंदिर से नदी पर उतरने के लिए सीढयां बनवाई। इसके बाद सन् १९७० श्री श्री १०८ बाबा हीरानंद ने भक्तजनों का सहयोग लेकर धर्मशाला का निर्माण करवाया। इन्हीं की प्रेरणा से इस समय यहां पर अनेक मंदिर बने हैं, जिनमें राम मंदिर, लक्ष्मण मंदिर, काली मंदिर, हनुमान मंदिर, देवी मंदिर, गणेश मंदिर एवं भैरव मंदिर स्थापित हैं। वर्ष भर इस मंदिर में श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है लेकिन श्रावण मास में यहां भक्तों की विशेष चहलकदमी रहती

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