माँ भगवती यहां नित्यप्रति स्नान करने जाती है

देवी मूर्ति दर्शन नहीं कर सकते # मनौती पूर्ण  होती है यहां-#  टिहरी और गढ़वाल दो अलग नामों को मिलाकर इस जिले का नाम रखा गया है। जहाँ टिहरी बना है शब्‍द ‘त्रिहरी’ से, जिसका मतलब है एक ऐसा स्‍थान जो तीन तरह के पाप (जो जन्‍मते है मनसा, वचना, कर्मा से) धो देता है वहीं दूसरा शब्‍द बना है ‘गढ़’ से, जिसका मतलब होता है किला। सन्‌ 888 से पूर्व सारा गढ़वाल क्षेत्र छोटे-छोटे ‘गढ़ों’ में विभाजित था, जिनमें अलग-अलग राजा राज्‍य करते थे जिन्‍हें ‘राणा’, ‘राय’ या ‘ठाकुर’ के नाम से जाना जाता था। इसका पुराना नाम गणेश प्रयाग माना जाता है।
जनपद टिहरी गढ़वाल की चन्द्रबदनी पट्टी में मां भगवती का पौराणिक मन्दिर है जिसको चन्द्रबदनी के नाम से जाना जाता है। यह सिद्धपीठ देवप्रयाग–टिहरी मोटर मार्ग तथा श्रीनगर–टिहरी मोटर मार्ग के मध्य स्थित चन्द्रकूट पर्वत पर है।
यह चोटी बांज‚ बुरांस‚ काफल तथा देवदार आदि के वृक्षों से घिरे हुए क्षेत्र में पड़ती है। यहां की जलवायु अत्यधिक ठंडी तथा स्वास्थ्यवर्धक है। यहां पहले नरबली‚ तत्पश्चात पशुबली दी जाती थी। किन्तु कुछ समय पहले यह बन्द कर दिया गया। अब यहां पर सात्विक विधि–विधान श्रीफल‚ छत्र‚ फल‚ पुष्प आदि द्वारा पूजा की जाती है।

इस शक्तिपीठ की स्थापना के सम्बन्ध में कहा जाता है कि एक बार राजा दक्ष ने हरिद्वार(कनखल) में यज्ञ किया। दक्ष की पुत्री सती ने भगवान शंकर से यज्ञ में जाने की इच्छा व्यक्त की लेकिन भगवान शंकर ने उन्हें वहां न जाने का परामर्श दिया। मोहवश सती ने उनकी बात को न समझकर वहां चली गयी। पिता के घर में अपना और अपने पति का अपमान देखकर भाववेश में आकर उसने अग्नि कुंड में गिरकर प्राण दे दिये। जब शिवजी को इस बात की सूचना प्राप्त हुई तो वे स्वयं दक्ष की यज्ञशाला में गये और सती के शरीर को उठाकर आकाश मार्ग से हिमालय की ओर चल पड़े। वे सती के वियोग से दुखी और क्रोधित हो गये जिससे पृथ्वी कांपने लगी। अनिष्ट की आशंका से भगवान विष्णु ने अपने चक्र से सती के अंगों को छिन्न–भिन्न कर दिया। भगवान विष्णु के चक्र से कटकर सती के अंग जहां–जहां गिरे वहां शक्तिपीठ स्थापित हुए। जैसे जहां सिर गिरा वहां का नाम सुरकण्डा पड़ा। कुच(स्तन) जहां गिरे वहां का नाम कुंजापुरी पड़ा। इसी प्रकार चन्द्रकूट पर्वत पर सती का धड़(बदन) पड़ा इसलिये यहां का नाम चन्द्रबदनी पड़ा।
यहां पहुंचने के लिये देवप्रयाग–टिहरी मोटर मार्ग पर लगभग २८ किमी आगे एक छोटा सा पहाड़ी कस्बा जामणीखाल पड़ता है जहां से ऊपर की ओर एक कच्ची सड़क निकलती है। यहां से ग्राम जुराना तक एक घण्टे का सफर बस में तथा वहां से मन्दिर के लिये लगभग एक किमी का पहाड़ी रास्ता है। कहीं पहाड़ पर सीधी चढ़ाई है तो कहीं पथरीले और घने बांज‚ बुरांस के जंगलों से होकर गुजरना पड़ता है। लगभग आधा घण्टे की इस पैदल यात्रा के पश्चात मां भगवती के मन्दिर मे पंहुचा जा सकता है। 
जंगल में पशु–पक्षीयों की ध्वनियों से वातावरण संगीतमय बना रहता है। नित्य आरती‚ मंत्रोचारण‚ घृत दीपक प्रज्वलित करने से यहां का वातावरण दिव्य बना रहता है। यहां की स्वास्थ्यप्रद जलवायु शीतल पवन व मधुर शीतल जल मन को प्रफुल्लित करता है।

 

माँ भगवती यहां नित्यप्रति स्नान करने जाती है 

 माँ भगवती अरोड़ा नामक स्थान के समीप एक कुण्ड में नित्यप्रति स्नान करने जाती है। ये अदृश्य कुण्ड भक्तिपूर्वक ही देखा जा सकता है। उत्तराखण्ड का शक्ति सिद्धपीठ है-चन्द्रबदनी ; माँ जगदम्बे  मनौती पूर्ण करती है। मंदिर में माँ चन्द्रबदनी की मूर्ति न होकर श्रीयंत्र ही अवस्थित है ; सती का बदन भाग यहाँ पर गिरने से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है। पुजारी लोग आँखों पर पट्टी बाँध कर माँ चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं। जनश्रुति है कि कभी किसी पुजारी ने अज्ञानतावश अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी, तो पुजारी अंधा हो गया था। विभिन्न नामों से प्रसिद्ध शैल पुत्री ब्रह्मचारिणी, चन्द्रघण्टा, कुष्माण्डा, स्कन्धमाता, कात्यायिनी, कालरात्रि, महागौरी एवं सिधिदात्री देवी की नवरात्रियों में जौ;मवद्ध की हरियाली बोकर इस अवसर पर दुर्गा सत्पसती का पाठ किया जाता है। चैत्र, आश्विन में अष्टमी व नवमी के दिन नवदुर्गा के रूप में नौ कन्याओं को जिमाया जाता है। 

चन्द्रबदनी मंदिर काफी प्राचीन है। जनश्रुति है कि आदि जगत गुरु शंकराचार्य जी ने श्रीनगरपुरम् (श्रीनग) जो श्रृंगीऋषि की तपस्थली भी रही है, श्रीयंत्र से प्रभावित होकर अलकनन्दा नदी के दाहिनी ओर उतंग रमणीक चन्द्रकूट पर्वत पर चन्द्रबदनी शक्ति पीठ की स्थापना की थी। मंदिर में चन्द्रबदनी की मूर्ति नहीं है। देवी का यंत्र (श्रीयंत्र) ही पुजारीजन होना बताते हैं। मंदिर गर्भ गृह में एक शिला पर उत्कीर्ण इस यंत्र के ऊपर एक चाँदी का बड़ा छत्र अवस्थित किया गया है।
पद्मपुरण के केदारखण्ड में चन्द्रबदनी का विस्तृत वर्णन मिलता है। मंदिर पुरातात्विक अवशेष से पता चलता है कि यह मंदिर कार्तिकेयपुर, बैराठ के कत्यूरी व श्रीपुर के पँवार राजवंशी शासनकाल से पूर्व स्थापित हो गया होगा। इस मंदिर में किसी भी राजा का हस्तक्षेप होना नहीं पाया जाता है। सोलहवीं सदी में गढ़वाल में कत्यूरी साम्राज्य के पतन के पश्चात् ऊचूगढ़ में चैहानों का साम्राज्य था। उन्हीं के पूर्वज नागवंशी राजा चन्द्र ने चन्द्रबदनी मंदिर की स्थापना की थी। जनश्रुति के आधार पर चाँदपुर गढ़ी के पँवार नरेश अजयपाल ने ऊचूगढ़ के अन्तिम राजा कफू चैहान को परास्त कर गंगा के पश्चिमी पहाड़ पर अधिकार कर लिया था। तभी से चन्द्रकूट पर्वत पर पँवार राजा का अधिपत्य हो गया होगा। 1805 ई0 में गढ़वाल पर गोरखों का शासन हो गया। तब चन्द्रबदनी मंदिर में पूजा एवं व्यवस्था निमित्त बैंसोली, जगठी, चैंरा, साधना, रित्वा, गोठ्यार, खतेली, गुजेठा, पौंसाड़ा, खाखेड़ा, कोटी, कंडास, परकण्डी, कुनडी आदि गाँवों की भूमि मिली थी। केदारखण्ड के अध्याय 141/27 से स्पष्ट होता है यथा-
दृष्ट्वा तां चन्द्रबदनां विश्वानन्दन तत्पराम्।
उत्न पूर्ण घटस्थां च कोटिबालार्कसान्निभाम्।।
पौराणिक कथाओं के अनुसार माँ सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में दुखी होकर हवन कुण्ड में आत्मदाह कर दिया था। दुखित शिव हवनकुण्ड से माँ सती का कंकाल अपने कंधे पर रखकर कई स्थानों में घूमने लगे। जब शिव कंधे पर माँ सती का कंकाल कई दिन तक लिये रहे तो भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से शिव के कंधे से माँ सती के कंकाल के टुकड़े-टुकड़े कर दिये। इस तरह हिमालय प्रदेश में माँ सती के अंग कई स्थानों पर बिखर गये। जहाँ-जहाँ सती के अंग गिरे वे पवित्र शक्तिपीठ हो गये। ये शक्तिपीठ मानव जाति के लिए पूज्य हैं। चन्द्रमुखी देवी सती का बदन ही चन्द्रबदनी के रूप में विख्यात है।
चन्द्रबदनी माँ सती का ही रूप है। सती का शव ढोते-ढोते शिवजी स्वयं निर्जीव हो गये थे तथा चन्द्रकूट पर्वत पर आने पर शिव अपने यथार्थ रूप में आ गये। वास्तव में शक्तिस्वरूपा पार्वती के अभाव में शिव निर्जीव हो गये थे। पार्वती ही उन्हें शक्ति व मंगलकारी रूप में प्रतिष्ठित कर जगदीश्वर बनाने में सक्षम हैं। दुर्गा सप्तसती के देव्यपराधक्षमापन स्तोत्रम में उल्लेख है-
चिताभस्मा लेपो गरलमशनं दिक्पटधारी
जटाधारी कण्ठे भुजग पतिहारी पशुपतिः
कपाली भूतेशो भजति जगदीशशैकपदवी
भवानी त्वत्पाणिग्रहण परिपाटीफलमिदम्।
ऋग्वेद में ईश्वर के मातृ रूप को अदिति कहा गया है, जो विश्व का समूल आधार है। ऋग्वेद के अनुसार आदिति स्वर्ग एवं मृत्युलोक के मध्य जो धूलोक है, वहाँ भी विद्यमान है। शक्ति का लौकिक अर्थ बल व सामथ्र्य से ही है। आध्यात्मिक जगत में ब्रहम् परमात्मा व चिति आदि शक्ति के ही नाम है। वेदान्त में अविद्या, माया व प्रकृति भी इसी को कहते हैं।
चन्द्रबदनी मंदिर 8वीं सदी का होना माना जाता है। चूंकि उत्तरी भारत के इतिहास में चैथी सदी से 12वीं सदी तक मंदिरों का युग कहा जाता है। गढ़वाल के केदारनाथ, कालीमठ, आदिबद्री, गोपीनाथ, विश्वनाथ, पलेठी, गोमुख आदि प्राचीन मंदिर एक ही शैली के माने जाते है। चन्द्रबदनी के उपलब्ध पुरातात्विक अवशेषों जिनमें शिव-गौरी की कलात्मक पाषाण मूर्ति से प्रतीत होता है कि चन्द्रबदनी मंदिर भी इन्हीं मंदिरों में से एक है। महा घुमक्कड़ी कवि राहुल सांकृत्यायन ने इन्हें सातवीं, आठवीं सदी का ही बताया है तथा डॉ0 शिव प्रसाद डबराल ने इन मंदिरों को गुप्तकाल का होना बताया है।
सन् 1803 ई0 में गड़वाल मण्डल में भयंकर भूकम्प आया था, जिससे यहाँ के कई मंदिर ध्वस्त हो गये थे। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार 1742-43 में रूहेलों ने धार्मिक स्थलों को तहस-नहस कर दिया था। समय काल एवं परिस्थितियों के चलते इन मंदिरों में आमूलचूल परिवर्तन होते गये और आज स्वामी मन्मथन के अथाह प्रयास के फलस्वरूप माँ चन्द्रबदनी का मंदिर एक भव्य मंदिर के रूप में प्रसिद्धी है। यहाँ पर लोगों द्वारा अठ्वाड़ (पशुबलि) दी जाती थी, किन्तु स्वामी जी व स्थानीय समाजसेवी लोगों द्वारा सन् 1969 ई0 में पशुबलि प्रथा समाप्त कर दी गयी। आज मंदिर में कन्द, मेवा, श्रीफल, पत्र-पुष्प, धूप अगरबत्ती एवं चाँदी के छत्तर श्रधालुओं द्वारा भेंटस्वरूप चढ़ाया जाता है।
मंदिर में माँ चन्द्रबदनी की मूर्ति न होकर श्रीयंत्र ही अवस्थित है। किवंदती है कि सती का बदन भाग यहाँ पर गिरने से देवी की मूर्ति के कोई दर्शन नहीं कर सकता है। पुजारी लोग आँखों पर पट्टी बाँध कर माँ चन्द्रबदनी को स्नान कराते हैं। जनश्रुति है कि कभी किसी पुजारी ने अज्ञानतावश अकेले में मूर्ति देखने की चेष्टा की थी, तो पुजारी अंधा हो गया था।
चन्द्रबदनी का नाम चन्द्रबदनी कैसा पड़ा? इसमें कई मतभेद हैं। चन्द्रकूट पर्वत पर सती के बदन की अस्थि गिरने से चन्द्रबदनी नाम पड़ा हो, क्योंकि सती चन्द्रमा के समान सुन्दर थी। या नागों के राजा चन्द्र द्वारा स्थापना करने पर चन्द्रबदनी सार्थक सिद्ध नहीं होता है। मेरी दृष्टि में सती के बदन की अस्थि चन्द्रकूट पर्वत पर गिरने से चन्द्रबदनी नाम पड़ा होगा, क्योंकि माँ सती चन्द्रमा के समान सौम्य व सुन्दर थी।
सिद्धपीठ चन्द्रबदनी जनपद टिहरी के हिण्डोलाखाल विकासखण्ड में समुद्रतल से 8000 फिट की ऊँचाई पर चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित है। स्कन्दपुराण के केदारखण्ड में इसे भुवनेश्वरीपीठ नाम से भी अभिहित किया गया है।
 मंदिर में चोरखोली काफी विख्यात है। इसके अतिरिक्त भोगशाला, सतसंग भवन, पाठशाला, भण्डारगृह, कैण्टीन, सिंहद्वार, परिक्रमा पथ देखने योग्य हैं।
चन्द्रबदनी मंदिर बांज, बुरांस, काफल, देवदार, सुरई, चीड़ आदि के सघन सुन्दर वनों एवं कई गुफाओं एवं कन्दराओं के आगोश में अवस्थित है। चन्द्रबदनी में पहुँचने पर आध्यात्मिक शान्ति मिलती है। अथाह प्राकृतिक सौन्दर्य, सुन्दर-सुन्दर पक्षियों के कलरव से मन आनन्दित हो उठता है। चित्ताकर्ष एवं अलौकिक यह मंदिर उत्तराखण्ड के मंदिरों में अनन्य है। यहाँ से चैखम्भा पर्वत मेखला, खैट पर्वत, सुरकण्डा देवी, कुंजापुरी, मंजिल देवता, रानीचैंरी, नई टिहरी, मसूरी आदि कई धार्मिक एवं रमणीक स्थल दिखाई देते हैं। वन प्रान्त की हरीतिमा, हिमतुंग शिखर, गहरी उपत्यकायें, घाटियां व ढलानों पर अवस्थित सीढ़ीनुमा खेत, नागिन सी बलखाती पंगडंडियां, मोटर मार्ग, भव्य पर्वतीय गाँवों के अवलोकन से आँखों को परम शान्ति की प्राप्ति होती है। श्रधालुओं के लिए नैखरी में गढ़वाल मण्डल विकास निगम को पर्यटक आवास गृह, अंजनीसैंण में श्री भुवनेश्वरी महिला आश्रम के अलावा कई होटल व धर्मशालाएं भी हैं। यहाँ जाने के लिए पहुँच मार्ग ऋषिकेश से 106 किमी0 देवप्रयाग होते हुए व पुरानी टिहरी से 47 कि0मी0 दूरी पर है। काण्डीखाल से सिलौड़ गाँव होते हुए 8 कि0मी0 पैदल यात्रा तय करनी पड़ती है।
 सिद्धपीठ चन्द्रबदनी में जो भी श्रद्धालु भक्तिभाव से अपनी मनौती माँगने जाता है, माँ जगदम्बे उसकी मनौती पूर्ण करती है। मनौती पूर्ण होने पर श्रद्धालु जन कन्दमूल, फल, अगरबत्ती, धूपबत्ती, चुन्नी, चाँदी के छत्तर चढ़ावा के रूप में समर्पित करते हैं। वास्तव में चन्द्रबदनी मंदिर में एक अलौकिक आत्मशान्ति मिलती है। इसी आत्म शान्ति को तलाशने कई विदेशी, स्वदेशी श्रद्धालुजन माँ के दर्शनार्थ आते हैं। अब मंदिर के निकट तक मोटर मार्ग उपलब्ध है। प्राकृतिक सौन्दर्य से लबालब चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित माँ चन्द्रबदनी भक्तों के दर्शनार्थ हरपल प्रतीक्षारत है। हिमालय क्षेत्र उत्तराखण्ड की भूमि, देव भूमि, देवस्थान, देवस्थल, स्वर्ग भूमि, पार्वती क्रीड़ा स्थल, यक्ष किन्नरों का आवास एवं ऋषिमुनियों की तपस्थली आदि नामों से विख्यात समस्त मानव जाति में पूज्य है। अल्हड़ भागीरथी, अलकनन्दा, भिलंगना, बालगंगा आदि का प्रवाह कल-कल का निनाद करती हुई इस क्षेत्र की विशेषताओं को मैदानों में बिखेरती है। धार्मिक, साँस्कृतिक, साहित्यिक, ऐतिहासिक एवं पर्यटन की दृष्टि से उत्तराखण्ड का यह क्षेत्र एक अनन्य स्थानों में से एक है। तीर्थ धाम, मठ, मंदिर एवं शक्ति सिद्धपीठों से भरपूर इस क्षेत्र ने विश्व में अपना नाम प्रतिस्थापित किया है। ऐसे ही सिद्वपीठों में चन्द्रकूट पर्वत पर अवस्थित उत्तराखण्ड का शक्ति सिद्धपीठ है-चन्द्रबदनी।

साभार : डा0 सत्यानन्द बडोनी

श्री बूढ़ा केदार नाथ मंदिर
हमारे देश मे अनेक प्रसिध्द तीर्थ स्थल एवम सुन्दतम स्थान है। जहां भ्रमण कर मनुष्य स्वयं को भूलकर परमसत्ता का आभास कर आनन्द की प्राप्ति करता है। केदारखंड का गढ़वाल हिमालय तो साक्षात देवात्मा है, जहां से प्रसिध्द तीर्थस्थल बद्रीनाथ, केदारनाथ, गंगोत्री, यमुनोत्री के अलावा एक और परमपावन धाम है बूढ़ा केदारनाथ धाम जिसका पुराणो में अत्यधिक मह्त्व बताया गया है। इन चारों पवित्र धामॊं के मध्य वृद्धकेदारेश्वर धाम की यात्रा आवश्यक मानी गई है, फलत: प्राचीन समय से तीर्थाटन पर निकले यात्री श्री बूढ़ा केदारनाथ के दर्शन अवश्य करते रहे हैं। श्रीबूढ़ा केदारनाथ के दर्शन से अभीष्ट फल की प्राप्ति होती है। यह भूमि बालखिल्या पर्वत और वारणावत पर्वत की परिधि में स्थित सिद्धकूट, धर्मकूट, यक्षकूट और अप्सरागिरी पर्वत श्रेणियों की गोद में भव्य बालगंगा और धर्मगंगा के संगम पर स्थित है। प्राचीन समय में यह स्थल पांच नदियों क्रमश: बालगंगा, धर्मगंगा, शिवगंगा, मेनकागंगा व मट्टानगंगा के संगम पर था। सिद्धकूट पर्वत पर सिद्धपीठ ज्वालामुखी का भव्य मन्दिर है। धर्मकूट पर महासरताल एवं उत्तर में सहस्रताल एवं कुशकल्याणी, क्यारखी बुग्याल है। यक्षकूट पर्वत पर यक्ष और किन्नरों की उपस्थिति का प्रतीक मंज्याडताल व जरालताल स्थित है। दक्षिण में भृगुपर्वत एवं उनकी पत्नी मेनका अप्सरा की तपोभूमि अप्सरागिरी श्रृंखला है, जिनके नाम से मेड गांव व मेंडक नदी का अपभ्रंस रूप में विध्यामान है। तीन योजन क्षेत्र में फैली हुयी यह भूमि टिहरी रियासत काल में कठूड पट्टी के नाम से जानी जाती थी, जो सम्प्रति नैल्डकठूड, गाजणाकठूड व थातीकठूड इन तीन पट्टियों में विभक्त है। इन तीन पट्टियों का केन्द्र स्थल थातीकठूड है। नब्बे जोला अर्थात 180 गांव को एकात्माता, पारिवारिकता प्रदान करने वाला प्रसिध्द देवता गुरुकैलापीर है, जिसका मुख्य स्थल (थात) यही भूमि है। श्री बूढ़ा केदारनाथ से महासरताल, सहस्र्ताल, मंज्याडाताल, जरालताल, बालखिल्याश्रम भृगुवन तथा विनकखाल सिध्दपीठ ज्वालामुखी भैरवचट्टी हटकुणी होते हुऐ त्रिजुगीनारायण केदारनाथ की पैदल यात्रा की जाती है। स्कन्द पुराण के केदारखंड में सोमेश्वर महादेव के रूप में वर्णित भगवान बूढ़ा केदार के बारे में मान्यता है कि गोत्रहत्या के पाप से मुक्ति पाने हेतु पांडव इसी भूमि से स्वर्गारोहण हेतु हिमालय की ओर गये तो भगवान शंकर के दर्शन बूढॆ ब्राहमण के रूप में बालगंगा-धर्मगंगा के संगम पर यहीं हुऐ और दर्शन देकर भगवान शंकर शिला रूप में अन्तर्धान हो गये। वृद्ध ब्राहमण के रूप में दर्शन देने पर सदाशिव भोलेनाथ बृध्दकेदारेश्वर के या बूढ़ाकेदारनाथ कहलाए। श्रीबूढ़ाकेदारनाथ मन्दिर के गर्भगृह में विशाकल लिंगाकार फैलाव वाले पाषाण पर भगवान शंकर की मूर्ती, लिंग, श्रीगणेश जी एवं पांचो पांडवों सहित द्रोपती के प्राचीन चित्र उकेरे हुए हैं। बगल में भू शक्ति, आकाश शक्ति व पाताल शक्ति के रूप में विशाल त्रिशूल विराजमान है। साथ ही कैलापीर देवता का स्थान एक लिंगाकार प्रस्तर के रूप में है। बगल वाली कोठरी पर आदि शक्ति महामाया दुर्गाजी की पाषाण मूर्ती विराजमान है। यहीं पर नाथ सम्प्रदाय का पीर बैठता है, जिसके शरीर पर हरियाली पैदा की जाती है। बाह्य कमरे में भगवान गरुड की मूर्ती तथा बाहर मैदान में स्वर्गीय नाथ पुजारियों की समाधियां हैं। केदारखंड में थाती गांव को मणिपुर की संग्या दी गयी है। जहां पर टिहरी नरेशों की आराध्य देवी राजराजेश्वरी प्राचीन मन्दिर व उत्तर में विशाल पीपल के वृक्छ के नीचॆ छोटा शिवालय है जहां माघ व श्रावण रुद्राभिषॆक होता है। जबकि आदिशक्ति व सिध्दपीठ मां राजराजेश्वरी एवं कैलापीर की पूजा व्यवस्था टिहरी नरेश द्वारा बसायॆ गयॆ सेमवाल जाति के लोग करते हैं। कुछ पौराणिक मान्यताऒं एवं किन्ही अपरिहर्य कारणॊ से राजमानी एवं क्षेत्र का प्रसिध्द आराध्य देवता गुरु कैलापीर राजराजेश्वरी मंदिर में वास करता है। देवता (श्रीगुरुकैलापीर) को उठाने वाले सेमवाल जाति के ही लोग हैं जिन्हॆ निज्वाळा कहते है। थाती गांव में श्रीगुरुकैलापीर देवता के नाम से मार्गशीर्ष प्रतिपदा को बलिराज मेला लगता है और दीपावली मनाई जाती है। मार्गशीर्ष के इस दीपावली और मेले में देवता के दर्शन व भ्रमण हेतु दूर दूर से लोग थाती गांव में आते हैं। इस क्षेत्र के देश विदेश में रहने वाले प्रवासी अपने आराध्य के दर्शन हेतु वर्ष मे इसी मौके की प्रतिक्छा करते है। कुछ लोग मानते है कि गढवाल के भड बीर माधॊसिंह भण्डारी का इस क्षेत्र से विशॆष लगाव था, जिनकी स्मृति में लोग मार्गशीर्ष में दीपावली मनाते हैं। बूढ़ाकेदार पवित्र तीर्थस्थल होने के साथ साथ एक सुरम्य स्थल भी है। गांव के दोनो ऒर से पवित्र जल धाऱायें बालगंगा व धर्मगंगा के रूप में प्रवाहित होती है। यह इलाका अपनी सुरम्यता के कारण पर्यटकॊं को अपनी ऒर आकर्षित करने की पूर्ण छमता रखता है। घनशाली से 30 कि0मी0 दूरी पर स्थित यह स्थल पर्यटकॊं को शांति एवं आनंद प्रदान करने में सक्षम है। देवप्रयाग एक प्राचीन शहर है। यह भारत के सर्वाधिक धार्मिक शहरों में से एक है। इस स्थान पर अलखनंदा और भागीरथी नदियां आपस में मिलती है। देवप्रयाग शहर समुद्र तल से 472 मी। की ऊंचाई पर स्थित है। देवप्रयाग जिस पहाड़ी पर स्थित है उसे गृद्धाचल के नाम से जाना जाता है। यह जगह गिद्ध वंश के जटायु की तपोभूमि के रूप में भी जानी जाती है। माना जाता है कि इस स्थान पर ही भगवान राम ने किन्नर को मुक्त किया था। इसे ब्रह्माजी ने शाप दिया था जिस कारण वह मकड़ी बन गई थी।
महासरताल
केदारखंड हिमालय ऋषि मुनियों की तप स्थली रही है। ऋषि मुनियों ने इस पवित्र पर विश्व जन कल्याण के निमित धर्म ग्रन्थॊ की रचना की है। जॊ कि भारतीय संस्कृति के मूल श्रॊत है ऒर यह बात हम दवॆ के साथ कह सकते है कि इसी हिमालय से भारतीय संस्कृति पूरे देश मे फैली। केदारखंड हिमालय की आदिम जातियों मे कील, भील, किन्नर, गंधर्व, गुर्जर, नाग आदि को गिना जाता है। इन जातियॊ से समंधित अनेक गांव आज भी यहाँ मॊजूद है जैसे नागनाथ, नागराजाधार, नगुण, नागेश्वरसौड़, नागणी आदि आदि।।।। बहरहाल यह प्रसांगिक है, इस बारे में आगे कभी उल्लॆख होगा। आज की श्रृंखला में नागॊं का उल्लॆख् करता हूं। केदार हिमालय में नाग जाति के रहने के पुष्ट प्रमाण मिलते है। गढ़वाल मे नागराजा का मुख्य स्थान सेम मुखॆम माना जाता है, इसी संदर्व मे नागवंश मे महासरनाग का विशिष्ट स्थान है। जॊ कि बालगंगा क्षेत्र मे महत्वपूर्ण देवता की श्रॆणी मे गिना जाता है। महासरनाग का निवास स्थान महासरताल है। महासरताल बूढ़ाकेदार से करीब 10 कि। मी। उत्तर की ऒर लगभग दस हजार फीट की ऊँचाई पर स्थित है। प्राकृतिक सॊन्दर्य से भरपूर, भिन्न भिन्न प्रजातियों एवं दुर्लभ वृक्छॊं की ऒट मे स्थित महासरताल से जुड़ी संछिप्त मगर ऐतिहासिक गाथा के बारे मे जानने के लियॆ करीब तेरह सौ साल पुराने इतिहास को खंगलाना पड़ॆगा। करीब तेरह सौ वर्ष पूर्व मैकोटकेमर मे धुमराणा शाह नाम का राजा राज्य करता था इनका एक ही पुत्र हुआ जिनका नाम था उमराणाशाह जिसकी कोई संतान न थी। उमराणाशाह ने पुत्र प्राप्ति के लियॆ शॆषनाग की तपस्या की। उमराणाशाह तथा उनकी पत्नी फुलमाळा की तपस्या से शॆषनाग प्रस न्न हुयॆ और मनुष्य रूप मे प्रकट होकर उन्हॆ कहा कि मै तुम्हारे घर मे नाग रूप मे जन्म लूँगा। फलत: शॆषनाग ने फुलमाळा के गर्भ से दो नागॊं के रूप में जन्म लिया जॊ कि कभी मानव रूप मे तो कभी नाग रूप मे परिवर्तित होते रहते थॆ। नाग का नाम महासर (म्हार) तथा नागिन का नाम माहेश्वरी (म्हारीण) रखा गया। उमराणाशाह की दो पत्नियां थी। दूसरी पत्नी की कोई संतान न थी। सौतेली मां की कूटनीति का शिकार होने के कारण उन नाग। नागिन (भाई बहिन) को घरसे निकाल दिया गया। फलस्वरूप दोनो भाई बहिनो ने बूढ़ाकेदार क्षेत्र मे बालगंगा के तट पर विशन नामक स्थान चुना। विशन मे आज भी इनका मन्दिर विध्यमान है। इन नागॊं ने मनुष्य रूप मे अवतरित होकर भट्ट वंश के पुरखॊं से वचनबध्द हुयॆ कि तुम हमारी परम्परा के अनुसार मन्दिर मे पूजा करॊगे। आज भी इस परम्परा का निर्वहन विधिवत किया जा रहा है, यानि भट्ट जाति के लोग नाग की पूजा अनवरत् रूप में करते आ रहे है। उल्लॆखनीय है कि इन भट्ट पुजारियॊ के पास महाराजा सुदर्शनशाह द्वारा नागपूजा विषयक दिया गया ताम्रपत्र सुरक्छित है। बालगंगा क्षेत्र के राणा जाति के लोगो को ‘नागवंशी राणा’ कहा जाता है (दूसरा वंश सूर्यवंशी कहा जाता है)।
विशन गाँव के अतिरिक्त नाग वंशी दोनो भाई बहिनो ने एक और स्थान चुना जॊ विशन गाँव के काफी ऊपर है जिसे ‘महसरताल’ कहते है (पौराणिक नाम कुछ रहा होगा जॊ अग्यात है)। नाग विष्णु स्वरूप जल का देवता माना जाता है और नाग देवता का निवास जल मे ही होता है अत: इस स्थान पर दो बड़ी बड़ी झीलॆं है जिन्हॆ ‘म्हार’और ‘म्हारीणी’ का ताल कहा जाता है। कहते है नागवंशी दोनो भाई बहिन इन्ही दो तालॊं मे निवास करते है। महासरताल मे ‘म्हार’ देवता का एक पौराणिक मन्दिर है जिसके गर्भगृह मे पत्थर का बना नाग देवता है। गंगा दशहरा के अवसर पर महासरनाग की मूर्ति (नागदेवता) मूल मन्दिर विशन से डॊली मे रखकर महासरताल स्नान के लियॆ ले जायी जाती है। इस पुण्य पर्व पर माहासरनाग को मंत्रॊच्चार के साथ वैदिक रीति से स्नान कराकर यग्य, पूजा। अर्चना आदि करायी जाती है। इस अवसर पर दूर_ दूर से श्रध्दालु आकर इस ताल मे स्नान कर पुण्य कमाते है। गंगा दशहरा को लगने वाला यह मेला प्राचीनकाल से चला आ रहा है। इस ताल की लंबाई करीब 70 मीटर तथा चौड़ाई 20 मीटर के लगभग है। जबकि ‘म्हारीणी’ ताल वृताकार है। दोनो तालॊं की गहराई का पता नही चल पाया।
चम्बा
साँचा:
चंबा चम्बा मंसूरी से 60 किलोमीटर और नरेन्द्र नगर से 48 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थान समुद्र तल से 1676 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से बर्फ से ढके हिमालय पर्वत और भागीरथी घाटी का खूबसूरत नजारा देखा जा सकता है। चम्बा अपने स्वादिष्ट सेबों के लिए भी प्रसिद्ध है। यह स्थान देवप्रयाग से 22 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। चंद्रबदनी पंहुचने के लिये आपको देवप्रयाग से जामनी खाल होते हुये नैखरि एवं जुराना बैन्ड तक गाडी मे जाना होगा। यह एक रमनीक स्थल भी है, उत्तराखन्ड मे माता के तीन सिधपीठ -शुरकन्डा, कुन्जापुरि एवं चन्द्रबदनी है, जिनके दर्शन आप उपरोक्त तीनो मे से किसी एक मन्दिर मे खडे होकर कर सकते हो, ऐसा माना जाता है कि राजा दक्ष द्वारा भगवान शिव को यज्ञ में न बुलाने के कारण माता सती ने यज्ञ कुंड में अपने प्राणों की आहुति दे दी थी। इसके पश्चात् भगवान शिव ने सती को हवन कुंड से निकाल कर अपने कंधों पर रख लिया। इस प्रकार वह कई वर्षो तक सती को लेकर इधर-उधर घूमते रहे। इसके बाद भगवान विष्णु ने माता सती के शरीर को अपने सुदर्शन चक्र द्वारा 52 हिस्सों में कांट दिया। माता सती के शरीर का (बदन) हिस्सा चन्द्रबदनी के नाम से, सिर का हिस्सा सुरकन्डा के नाम से तथा घुटने (गुन्जे) कुन्जापुरी के नाम से प्रसिध हो गये। मंदिर के आसपास कई अन्य छोट-छोटे मंदिर भी है। प्रत्येक वर्ष नवरात्रो में इस स्थान पर बहुत बड़े मेले का आयोजन किया जाता है। पहले किसी समय यहॉ पर बलि प्रथा का बडा चलन था जिसमे भैसा तथा बकरे का बलीदान दिया जाता था, स्वामी (स्व॰) मनमथन के अथक प्रयासो से इस प्रचलन को बन्द करवाया गया, आप पैदल यात्रा से भी यहॉ जा सकते है, मा चन्द्र्बदनी के चरणो मे बसा एक छोठा सा कस्वा है अन्जनी सैण जिससे २ किमी की दूरी पर स्थित है कैथोली गॉव यहॉ से आप घोघस के रास्ते पैदल चन्द्रबदनी के लिये अपनी यात्रा शुरु कर सकते है।
सेम मुखेम
यह जगह समुद्र तल से 2903 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदिर नाग राज का है। यह मंदिर पर्वत के सबसे ऊपरी भाग में स्थित है। मुखेम गांव से इस मंदिर की दूरी दो किलोमी। है। माना जाता है कि मुखेम गांव की स्थापना पंड़ावों द्वारा की गई थी।

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CHANDRA SHEKHAR JOSHI- EDITOR 

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