भारतीय संस्कृति की मूल में गौमाता

kamadhenu-cowउत्तम लक्षणों वाले ऐसे बैलों की भी मुझे पहचान है, जिनका मूत्र सूंघने मात्र से बन्ध्या स्त्री को भी गर्भ रह जाता है- पांच पाण्‍डवों भ्राता में से एक सहदेव ने कब कहा था # भीष्म पितामह ने महाराज युधिष्ठिर की निवास भूमि के लक्ष्ण बताते हुए कहा कि ’’जहां कहीं भी युधिष्ठिर रहते होगे, वहां निश्चित ही गोवंश की संख्या बढी हुई होगी और वे सभी दुर्बल न होकर खूब  हृष्ट-पुष्ट होंगी तथा उनके दूध-दही, घी इत्यादि बडे ही सरस और हितकारी होंगे।‘‘  #देवर्षि नारद ने भगवान रामचन्द्र की लीलाओं के वर्णन में कहा है- #अयोध्या काण्ड के ३२वें सर्ग #भगवान राम ने दस सहस्र करोड गौएं विद्वानों को विधिपूर्वक दान की थी  #इसके अलावा श्रीमद् भागवत में भगवान श्री कृष्ण की गौ-भक्ति, गौ-सेवा तथा गऊ दान का बडा ही प्रेरक प्रसंग# गौ माता के बिना सफल नही कोई भी भक्ति #सहदेव पांडव  ’तन्तिपाल‘ नामक गौ अध्‍यक्ष  कब बने #परम्परा अनादिकाल से ही इस पुण्य भूमि में
हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल के लिए रमाकान्त पन्त /मनोज जोशी- का  एक्‍सक्‍लूसिव आलेख-
गाय प्राचीन काल से ही भारतवर्ष में पूज्य रही है और इस देश की प्राण मानी जाती रही है, गौ पालन ही इस महान देश का सम्पूर्ण जीवन था। इसीलिए गोवंश का संरक्षण, सम्वद्वर्न एवं विकास करना प्रत्येक भारतीय अपने जीवन का सर्व प्रधान कर्तव्य समझता था। भारतीय संस्कृति की मूल में गौमाता ही रही है। इसके बिना भारत तथा भारतीयता का कोई अर्थ नहीं रह जाता।
वैदिक ग्रंथों से लेकर सभी आर्षग्रंथों ने खुलकर गऊ की महिमा गायी है और गोपालन को मनुष्यमात्र के लिए सबसे पवित्र कर्म कहा है। तभी तो राजा से लेकर सन्त-महात्मा एवं सामान्य जन सभी गोपालन करते थे। जिनके पास जितनी अधिक गायें होती थीं समाज में, देश में वह उतना ही अधिक सम्मानित समझा जाता था। हर किसी में मानो अधिक से अधिक गौव पालने तथा गो-वंश को बढाने की होड सी लगी रहती थी। गो-सेवा करके हर कोई स्वयं को धन्य मानता था। तभी तो भारत भूमि में सर्वत्र सुख-शांति, स्मृ(, संतोष एवं खुशहाली का वातावरण था।
वाल्मीकि रामायण से लेकर, महाभारत, श्रीमद् भागवत, पुराण आदि ग्रंथों से ज्ञात होता है कि बडे-बडे राजा-महाराजा लाखों की संख्या में गोवंश का पालन करते थे और लाखों गायों का एक साथ दान कर दिया करते थे। गाय का दान ऐसे व्यक्ति को अधिक किया जाता था जो समाज में उत्कृष्ट कार्य कर, लोक मंगल की पुनीत परम्परा को समृद्व करने में सतत प्रयत्नशील रहता था।
श्रीमद् भागवत में राजा नृग द्वारा गाएं दान करने का एक रोचक प्रसंग आता है-
यावत्यः सिकता भूमेर्यावत्यो दिवि तारका ः यावत्यो वर्षधाराश्च तावतीरददां सा गाः।
पयस्विनीरतरूणी, शील रूपगुणोपपन्नाः कपिला हेमश्रृंगीः
न्यायाजिंता कप्यखुशः सवत्सा
दुकूलमालाभरणा ददावहम्।।
इससे स्पष्ट होता है कि राजा नृग ने न्याय से प्राप्त असंख्य गाएं बछडों सहित दान की थी। जिस तरह पृथ्वी के धूलि कण, आकाश के तारे और वर्षा की धाराओं को कोई गिन नहीं सकता, वैसे ही उनकी भी कोई गणना नहीं की जा सकती थी और वे सभी गौवं दुधारू, युवा, सीधी, सुन्दर, कपिला, सुलक्षणा एवं वस्त्रालंकारों से विभूषित थी।
देवर्षि नारद ने भगवान रामचन्द्र की लीलाओं के वर्णन में कहा है-
’’गवां कोर्ट्सयुवतं दत्वा विद्वद्भयो विधिपूर्वकम्।‘‘ अर्थात भगवान राम ने दस सहस्र करोड गौएं विद्वानों को विधिपूर्वक दान की थी। अयोध्या काण्ड के ३२वें सर्ग में प्रसंग आता है कि एक बार भगवान राम के पास त्रिजट नामक ब्राह्मण ने आकर गायों के लिए याचना की। भगवान राम ने विनोद में उनसे कहा- विप्रवर आप अपना डंडा जितनी दूर फेंक सकेंगे वहां तक की सभी गाएं आपको मिल जाएंगी। ब्राह्मण ने पूरी शक्ति से घुमाकर अपना डंडा फेंका और वह सरयू नदी के उस पार हजारों गायों के गोष्ठ में जाकर गिरा। श्री राम ने त्रिजट का सम्मान करते हुए वहां तक की सारी गौएं उसके आश्रम में पहुंचा दी।
श्रीमद् भागवत में भगवान श्री कृष्ण की गौ-भक्ति, गौ-सेवा तथा गऊ दान का बडा ही प्रेरक प्रसंग आता है-
धेनुनां रुक्म श्रृंगीणां साध्वीनां मौक्तिक स्रजाम्।
पयस्विनीनां गृष्टीनां सवत्सानां सुवासस्यम्।।
ददौ रूम्यखुरार्मणां क्षौमाजिनतिलै सह।
अलंकृतेभ्यो विप्रेभ्यो ब(र् व(ं दिने-दिने।।
अर्थात यगेश्वर भगवान श्रीकृष्ण प्रतिदिन संध्या, तर्पण और गुरू पूजन करने के पश्चात पहले-पहले व्याही हुई, दुधारू-बछडों वाली सीधी, शांत वस्त्रालंकारों से सुसज्जित तेरह हजार चौरासी गायों का दान किया करते थे। इससे सहज ही समझा जा सकता है कि गाय के प्रति तब कितनी श्रद्वा थी और गाय को कितने सम्मान के साथ संरक्षित किया जाता था। यह स्मृस्‍थ  परम्परा अनादिकाल से ही इस पुण्य भूमि में चली आयी है। इसी तरह जब पाण्डव अज्ञातवास करने को छद्मवेश में राजा विराट के राज दरबार में उपस्थित हुए तब सहदेव ने अपने को पांडवों का ’तन्तिपाल‘ नामक गौ अध्‍यक्ष  बताकर कहा- ’’महाराज पांचों पाण्डवों में सबसे बडे युधिष्ठिर महाराज के यहां गायों के दस हजार वर्ग थे और प्रत्येक वर्ग में आठ-आठ लाख गाएं थी। लाख-लाख और दो-दो लाख गायों के और भी अनेक वर्ग थे। उन सभी गायों की देखभाल मैं ही करता था। चालीस कोस के भीतर जितनी गाएं थी उन सभी की भूत, वर्तमान एवं भविष्य की संख्या-यानी वे पहले कितनी थी, अब कितनी हैं और भविष्य में कब कितनी होंगी, इसका मुझे पूरा-पूरा ज्ञान रहता है। जिन उपायों से गायों की वृद्वि होती है, उनको किसी प्रकार का रोग अथवा कष्ट न हो उन सब उपायों को मैं भलीभांति जानता हूं। उत्तम लक्षणों वाले ऐसे बैलों की भी मुझे पहचान है, जिनका मूत्र सूंघने मात्र से बन्ध्या स्त्री को भी गर्भ रह जाता है। मैं सिर्फ यह चाह रहा था कि महाराज आप मेरे ज्ञान और अनुभवों का लाभ उठाने के लिए अपनी विशाल गौशाला की देखभाल की जिम्मेदारी मुझे सौंप कर तो देखें।‘‘ सहदेव की उक्त बातें यही दर्शाती हैं कि गायों को लेकर उन्हें इतना ज्ञान गायों की सेवा तथा गायों के बीच रहकर ही प्राप्त था।
महाभारत के ही विराट पर्व में प्रसंग आता है कि महाराज युधिष्ठिर कितने समर्पित एवं प्रसिद्व गौ-सेवी थे। दुर्योधन को जब पाण्डवों के अज्ञातवास का कोई भी पता नहीं चल पाया तब भीष्म पितामह ने उनसे महाराज युधिष्ठिर की निवास भूमि के लक्ष्ण बताते हुए कहा कि ’’जहां कहीं भी युधिष्ठिर रहते होगे, वहां निश्चित ही गोवंश की संख्या बढी हुई होगी और वे सभी दुर्बल न होकर खूब  हृष्ट-पुष्ट होंगी तथा उनके दूध-दही, घी इत्यादि बडे ही सरस और हितकारी होंगे।‘‘ चूंकि महाराज विराट भी गो-पालन एवं गो-संरक्षण के लिए बडे प्रसि( थे, उनके यहां भी लाखों गायें थीं। कौरव इस बात को जानते थे। उन्हें पता लगा कि वहां गाएं पहले से अधिक संख्या में हैं। उन्होंने राजा विराट की गायों का हरण कर लिया। गायों की रक्षा के लिए स्वयं राजा विराट ने भारी यु( किया, परन्तु असफल रहे। अन्त में बृहन्नला बन कर विराट की सेवा कर रहे अर्जुन सामने आये और विराट को विजयश्री दिलायी।
गर्ग संहिता में कहा गया है-
नन्दः प्रोक्तः स गोपालैर्नवलक्षगवां पतिः।
उपनन्दश्च कथितः पश्चलक्षगवां पतिः।।
वृषभानु स उक्तो यो दशलक्षगवां पतिः।
गवां कोटिर्गृहे यस्य नन्दराजः स एव हि।।
कोटयर्ध च गवां यस्य वृषभानुवरस्तु सहः।। ;गोलोक खण्डद्ध
यानि जिस गौपालक के पास नौ लाख गाएं हों उसे नन्द, जिसके पास पांच लाख गायें हों, उसे वृषभानु, जिसके पास एक करोड गायें हों उसे नन्दराज और पचास लाख गाय वाले को वृषभानुवर कहते थे।
श्रीमद् भागवत के दशवें स्कन्ध के पांचवें अध्याय में कहा गया है- स्वर्णजडत सींग और चांदी के खुरों से परिशोभित बीस लाख श्रेष्ठ गाएं वृज महेन्द्र नन्दराज ने भगवान श्रीकृष्ण के जन्म महोत्सव पर ब्राह्मणों को दान की थी।
इस तरह शास्त्र सि( करते हैं कि प्राचीन भारत गायों से भरा हुआ था। तब गायों की गिनती कर पाना संभव नहीं था। जन सामान्य तो दूर स्वयं राजा, राजकुमार, दरबारी, गुरू, आचार्य सभी गायों का संरक्षण करने में अपना सौभाग्य समझते थे।
जैनियों के चौबीसवें और अन्तिम तीर्थंकर महावीर स्वामी के उपासकों में हरेक के पास कितनी गाएं रहीं होंगी, इसका अनुमान निम्न तथ्यों से लगाया जा सकता है। उपासक दशांक सूक्त के अनुसार- दस हजार गायों के समूह को एक ’ब्रज‘ या ’गोकुल‘ कहते थे। राजगृही के महाशतक और वाराणसी के चूलनीपिता के पास ऐसे आठ-आठ गोकुल थे। चम्पा के कामदेव, वाराणसी के सुखदेव, काम्पिल्य के कुण्डकौलिक एवं आलम्मियां के चूल शतक के पास साठ-साठ हजार गाएं थीं। इसी तरह चालीस-चालीस हजार गायों वाले उपासकों की भारी संख्या थी। महाशतक की स्त्री रेवती के विवाह में उसके पिता ने अस्सी हजार गाएं भेंट की। इन तथ्यों से क्या यह नहीं लगता कि तब भारत में गाय से बढकर किसी अन्य की प्रतिष्ठा नहीं थी? यानी गाय ही मान-सम्मान, प्रतिष्ठा, स्मृ(, शान्ति, सेवा, त्याग, समर्पण एवं खुशहाली का प्रतीक थी। उसके बिना सब कुछ वैसा ही समझा जाता था जैसे आत्मा के बिना शरीर।
ऐतिहासिक साक्ष्यों से ज्ञात होता है कि सिकन्दर जब भारत से लौटा तो अपने साथ उत्तम नस्ल की एक लाख गाएं अपने देश को ले गया। उसने गायों की महिमा को समझा और अपने अपने देशवासियों को गोपालन, गो-रक्षण तथा गो-सम्व(र्न का संदेश दिया। परन्तु भारतवर्ष का दुर्भाग्य रहा कि मुगलों के अत्याचार भरे सदियों के शासनकाल में गो-वंश का ह्रास हुआ। बाद में अंग्रेजों ने रही-सही कसर पूरी कर भारतीय गोवंश के अस्तित्व को ही मिटा देने के षडयंत्र किये। आम मुसलमान को यह पढा दिया गया कि गाय ही उनकी शत्रु है। नासमझ मुसलमान उनके बहकावे में आ गये और आज पूरी दुनिया में गोहत्या जैसे अक्षम्य अपराध के लिए कुख्यात हैं। यदि समय रहते यह सब नहीं रुका को संसार में अशांति होगी, य( होंगे और अन्ततः सब कुछ विनाश को प्राप्त होगा। क्यों न हम समय रहते अपने मनुष्य होने का प्रमाण दें और परोपकारी पशु गाय का संरक्षण करें।

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