दस महाविद्या -दस महान शक्‍तियों के स्रोत; वर्णन तथा महात्म

व्यष्टि रूप में शत्रुओं को नष्ट करने वाली तथा समष्टि रूप में परमात्मा की संहार करने वाली देवीबगलामुखी हैं, इनके भैरव महा मृत्युंजय हैं। देवी की साधना दक्षिणाम्नायात्मकतथाऊर्ध्वाम्नाय दो पद्धतियों से कि जाती है, उर्ध्वमना स्वरूप में देवी दो भुजाओं से युक्त तथा दक्षिणाम्नायात्मक में चार भुजाये हैं।देवी शक्ति साक्षात ब्रह्म-अस्त्र हैं, जिसका संधान त्रिभुवन में किसी के द्वारा संभव नहीं हैं। सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड की शक्ति का समावेश देवीबगलामुखी में हैं।  मुख्य नाम : बगलामुखी। अन्य नाम : पीताम्बरा (सर्वाधिक जनमानस में प्रचलित नाम), श्री वगला। भैरव : मृत्युंजय। भगवान विष्णु के २४ अवतारों से सम्बद्ध : कूर्म अवतार। तिथि : वैशाख शुक्ल अष्टमी। कुल : श्री कुल। दिशा : पश्चिम। स्वभाव : सौम्य-उग्र। कार्य : सर्व प्रकार स्तम्भन शक्ति प्राप्ति हेतु, शत्रु-विपत्ति-निर्धनता नाश तथा कचहरी (कोर्ट) में विजय हेतु। शारीरिक वर्ण : पीला

हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल की विशेष प्रस्‍तुति- दस महाविद्या -दस महान शक्‍तियों के स्रोत; वर्णन तथा महात्म- बंजारावाला देहरादून मेे प्रथम निर्माणाधीन- शक्‍तिपीठ मंदिर- 

जगत पालनकर्ता भगवान विष्णु के अन्तः कारण की शक्ति सर्व-स्वरूपा योगमाया-आदि शक्ति महामाया हैं तथा देवी ही प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से संपूर्ण ब्रह्माण्ड के उत्पत्ति, स्थिति तथा लय की कारण भूता हैं। ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव की उत्पत्ति इन्हीं के अनुसार हुई हैं। सृष्टि के सुचारु सञ्चालन हेतु, भगवान विष्णु पालनहार, ब्रह्मा रचनाकार, तथा शिवसंहारक पद, महामाया आद्या शक्ति द्वारा ही इन महा-देवों को प्राप्त हैं। क्रमशः तीनों महा देव तीन प्राकृतिक गुणों के कारक बने सत्व गुण, रजो गुण तथा तमो गुण, संपूर्ण ब्रह्माण्ड का सञ्चालन इन्हीं गुणों के द्वारा ही होता हैं; परन्तु इन कार्यों की इच्छा शक्ति, आदि शक्ति की आधारभूत शक्ति हैं। त्रि-देवों के अनुसार ही इनकी जीवन संगिनी त्रि-देवियाँ भी इन कार्यों में संलग्न रहती हुई अपने-अपने स्वामी की शक्तियां हैं। त्रि-देवियाँ या महा-देवियाँ महा-लक्ष्मी, मह-सरस्वतीतथा पार्वती-सती के रूप में, त्रि-देवों की जीवन संगिनी तथा सहायक हैं। महा-लक्ष्मी के रूप में ये भगवान विष्णु कि सात्विक शक्ति हैं, महा-सरस्वती के रूप में ये बब्रह्मा जी की राजसिक शक्ति हैं तथा पार्वती-सती के रूप में ये शिव के तामसी शक्ति हैं।
साक्षात आदि शक्ति महामाया ही शिवा स्वरूपी शिव अर्धाग्ङिनी पार्वती एवं सती हैं और तामसी संहारक शक्ति होने के फल स्वरूप समय-समय पर भयंकर धारण करती हैं। परन्तु उनका भयंकर रूप, केवल दुष्टों हेतु ही भय उत्पन्न करने वाला तथा विनाशकारी हैं। देवी! सौम्य, सौम्य-उग्र तथा उग्र तीन रूपों में अवस्थित हैं तथा स्वभाव के अनुसार दो कुल में विभाजित हैं, काली कुल तथा श्री कुल। अपने कार्य तथा गुण के अनुसार देवी अनेकों अवतारों में प्रकट हुई, ऐसा नहीं हैं कि इनके सभी रूप भयानक हैं; सौम्य स्वरूप में देवी कोमल स्वभाव वाली हैं, सौम्य-उग्र स्वरूप में देवी कोमल और उग्र (सामान्य) स्वभाव वाली हैं तथा उग्र रूप में देवी अत्यंत भयानक हैं। महा-देवियाँ, दस महाविद्या, योगिनियाँ, डाकिनियाँ, पिसाचनियाँ, भैरवी इत्यादि महामाया आदि शक्ति के नाना अवतार हैं, सभी केवल गुण एवं स्वभाव से भिन्न-भिन्न हैं। काली कुल की देवियाँ प्रायः घोर भयानक स्वरूप तथा उग्र स्वभाव वाली होती हैं तथा इन का सम्बन्ध काले या गहरे रंग से होता हैं; इसके विपरीत श्री कुल के देवियाँ सौम्य तथा कोमल स्वभाव की तथा लाल रंग या हलके रंग से सम्बंधित होती हैं।
काली कुल की की देवियों में महाकाली, तारा, छिन्नमस्ता, भुवनेश्वरी हैं, जो स्वभाव से उग्र हैं। (परन्तु, इनका स्वभाव दुष्टों के लिये ही भयानक हैं) श्री कुल की देवियों में महा-त्रिपुरसुंदरी, त्रिपुर-भैरवी, धूमावती, बगलामुखी, मातंगी और कमला हैं, देवी धूमावती को छोड़ कर सभी सुन्दर रूप तथा यौवन से संपन्न हैं।
इस प्रकार १. महा काली २. तारा ३. श्री विद्या महा त्रिपुरसुंदरी ४. भुवनेश्वरी ५. छिन्नमस्ता ६. त्रिपुर-भैरवी ७. धूमावती ८. बगलामुखी ९. मातंगी १०. कमला, मिलकर दस महाविद्या समूह का निर्माण करती हैं, इनमें से प्रत्येक देवियाँ भिन्न-भिन्न प्रकार के शक्तियों तथा ज्ञान से परिपूर्ण हैं, उन शक्तियों की अधिष्ठात्री हैं।
काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी।
भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा।
बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका।
एता दश महाविद्या: सिद्धविद्या: प्राकृर्तिता।
एषा विद्या प्रकथिता सर्वतन्त्रेषु गोपिता।
अपने भैरव महा-काल की छाती पर प्रत्यालीढ़ मुद्रा में खड़ी, घनघोर-रूपा महाशक्ति महा काली के नाम से विख्यात हैं। वास्तव में देवी महा-काली साक्षात महा-माया आदि शक्तिही हैं; ब्रह्माण्ड की उत्पत्ति से पूर्व सर्वत्र अंधकार ही अंधकार से उत्पन्न शक्ति! आद्या शक्ति या आदि शक्ति काली नाम से विख्यात हैं। अंधकार से जन्मा होने के कारण देवी काले वर्ण वाली तथा तामसी गुण सम्पन्न हैं। इन्हीं की इच्छा शक्ति ने ही इस संपूर्ण चराचर जगत उत्पन्न किया हैं तथा समस्त शक्तियां प्रत्यक्ष तथा परोक्ष रूप से इन्हीं की नाना शक्तियां हैं। देवताओं द्वारा प्रताड़ित हो सहायतार्थ महामाया की स्तुति करने पर साक्षात आदि शक्ति ही पार्वती के शरीर से कौशिकी रूप में प्रकट हुई थीं।
प्रलय काल में देवी स्वयं मृत्यु के देवता महा-काल का भी भक्षण करने में समर्थ हैं; देखने में महा-शक्ति महाकाली अत्यंत भयानक एवं डरावनी हैं, असुर जो स्वभाव से ही दुष्ट थे उनके रक्त की धर बह युक्त हाल ही में कटे हुए मस्तकों की माला देवी धारण करती हैं। इनके दंत-पंक्ति अत्यंत विकराल हैं, मुंह से निकली हुई जिह्वा को देवी ने अपने भयानक दन्त पंक्ति से दबाये हुए हैं; अपने भैरव या स्वामी के छाती में देवी नग्न अवस्था में खड़ी हैं, कुछ-एक रूपों में देवी दैत्यों के कटे हुए हाथों की करधनी धारण करती हैं। देवी महा-काली चार भुजाओं से युक्त हैं; अपने दोनों बाएँ हाथों में खड़ग तथा दुष्ट दैत्य का हाल ही कटा हुआ सर धारण करती हैं जिससे रक्त की धार बह रहीं हो तथा बाएँ भुजाओं से सज्जनों को अभय तथा आशीर्वाद प्रदान करती हैं। इनके बिखरे हुए लम्बे काले केश हैं, जो अत्यंत भयानक प्रतीत होते हैं, जैसे कोई भयानक आँधी के काले विकराल बादल समूह हो। देवी तीन नेत्रों से युक्त हैं तथा बालक शव को देवी ने कुंडल रूप में अपने कान में धारण कर रखा हैं। देवी रक्त प्रिया तथा महा-श्मशान में वास करने वाली हैं, देवी ने ऐसा भयंकर रूप रक्तबीज के वध हेतु धारण किया था।
भगवान विष्णु जो इस चराचर जगत के पालन कर्ता एवं सत्व गुण सम्पन्न हैं, परन्तु उनके अन्तः कारण की संहारक शक्ति साक्षात् महा-काली ही हैं; जो नाना उपद्रवों में उनकी सहायता कर दैत्यों-राक्षसों का वध करती हैं। प्रकारांतर से देवी के दो भेद हैं एक दक्षिणा काली तथा द्वितीय महा-काली।
महाविद्या महा-काली ने हयग्रीव नमक दैत्य के वध हेतु नीला शारीरिक वर्ण धारण किया तथा देवी का वह उग्र स्वरूप उग्र तारा के नाम से विख्यात हुई। देवी प्रकाश बिंदु रूप में आकाश के तारे के सामान विद्यमान हैं, फलस्वरूप वे तारा नाम से विख्यात हैं। देवी तारा, भगवान राम की वह विध्वंसक शक्ति हैं, जिन्होंने रावण का वध किया था। महाविद्या तारा मोक्ष प्रदान करने तथा अपने भक्तों को समस्त प्रकार के घोर संकटों से मुक्ति प्रदान करने वाली महाशक्ति हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध मुक्ति से हैं, फिर वह जीवन और मरण रूपी चक्र से हो या अन्य किसी प्रकार के संकट मुक्ति हेतु। भगवान शिव द्वारा, समुद्र मंथन के समय हलाहल विष पान करने पर, उनके शारीरिक पीड़ा के निवारण हेतु, इन्हीं देवी तारा ने माता की भांति भगवान शिव को शिशु रूप में परिणति कर, अपना अमृतमय दुग्ध स्तन पान कराया था। फलस्वरूप, भगवान शिव को उनकी शारीरिक पीड़ा ‘जलन’ से मुक्ति मिली थीं, महा-विद्या तारा जगत जननी माता के रूप में एवं घोर से घोर संकटो की मुक्ति हेतु प्रसिद्ध हुई। देवी के भैरव, हलाहल विष का पान करने वाले अक्षोभ्य शिव हैं।
मुख्यतः देवी की आराधना, साधना मोक्ष प्राप्त करने हेतु, तांत्रिक पद्धति से की जाती हैं। संपूर्ण ब्रह्माण्ड में जितना भी ज्ञान इधर उधर फैला हुआ हैं, वह सब इन्हीं देवी तारा या नील सरस्वती का स्वरूप ही हैं। देवी का निवास स्थान घोर महा-श्मशान हैं, देवी ज्वलंत चिता में रखे हुए शव के ऊपर प्रत्यालीढ़ मुद्रा धारण किये नग्न अवस्था में खड़ी हैं, (कहीं-कहीं देवी बाघाम्बर भी धारण करती हैं) नर खप्परों तथा हड्डियों की मालाओं से अलंकृत हैं तथा इनके आभूषण सर्प हैं। तीन नेत्रों वाली देवी उग्र तारा स्वरूप से अत्यंत भयानक प्रतीत होती हैं।
महाविद्या महा त्रिपुरसुंदरी स्वयं आद्या या आदि शक्ति हैं, इनके षोडशी, राज-राजेश्वरी, बाला, ललिता, मिनाक्षी, कामेश्वरी अन्य नाम भी विख्यात हैं। अपने नाम के अनुसार देवी तीनों लोकों में सर्वाधिक सुंदरी हैं तथा चिर यौवन युक्त १६ वर्षीय युवती हैं, इनकी रूप तथा यौवन तीनों लोकों में सभी को मोहित करने वाली हैं। मुख्यतः सुंदरता तथा यौवन से घनिष्ठ सम्बन्ध होने के परिणामस्वरूप, मोहित कार्य और यौवन स्थाई रखने हेतु महाविद्या त्रिपुरसुंदरी की साधना उत्तम मानी जाती हैं। सोलह अंक जो पूर्णतः का प्रतीक हैं (सोलह की मात्रा में प्रत्येक वस्तु पूर्ण मानी जाती हैं, जैसे १६ आना एक रुपये होता हैं), देवी सोलह प्रकार की कलाओं से पूर्ण हैं और सोलह प्रकार के मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं; तात्पर्य हैं सभी मनोकामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं कारणवश महाविद्या षोडशी नाम से विख्यात हैं। देवी ही श्री रूप में धन, संपत्ति, समृद्धि दात्री श्री शक्ति के नाम से विख्यात हैं, इन्हीं महाविद्या की आराधना कर कमला नाम से विख्यात दसवी महाविद्या धन की अधिष्ठात्री हुई तथा श्री की उपाधि प्राप्त की। श्री यंत्र जो यंत्र शिरोमणि हैं, साक्षात् देवी का स्वरूप हैं; देवी की आराधना-पूजा श्री यंत्र में की जाती हैं। कामाख्या पीठ महाविद्या त्रिपुरसुन्दरी से ही सम्बंधित तंत्र पीठ हैं, जहाँ सती की योनि पतित हुई थीं; स्त्री योनि के रूप में यहाँ देवी की पूजा-आराधना होती हैं।
देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध पारलौकिक शक्तियों से हैं, समस्त प्रकार की दिव्य, अलौकिक तंत्र तथा मंत्र शक्तिओं (इंद्रजाल) की देवी अधिष्ठात्री हैं। तंत्र मैं उल्लेखित मारण, मोहन, वशीकरण, उच्चाटन, स्तम्भन इत्यादि (जादुई शक्ति), कर्म इनकी कृपा के बिना पूर्ण नहीं होते हैं। अपने भक्तों को हार प्रकार की शक्ति देने में समर्थ हैं देवी षोडशी, चिर यौवन तथा सुन्दरता प्रदाता हैं देवी त्रिपुरसुंदरी, राज-राजेश्वरी रूप में देवी ही तीनों लोकों का शासन करने वाली हैं।
देवी शांत मुद्रा में लेटे हुए सदाशिव के नाभि से निर्गत कमल-आसन पर बैठी हुई हैं, इनके चार भुजाएं हैं तथा अपने चार भुजाओं में देवी पाश, अंकुश, धनुष और बाण धारण करती हैं। देवी के आसन को ब्रह्मा, विष्णु, शिव तथा यम-राज अपने मस्तक पर धारण किये हुए हैं; देवी तीन नेत्रों से युक्त एवं मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए अत्यंत मनोहर प्रतीत होती हैं, सहस्रों उगते हुए सूर्य के समान कांति युक्त देवी का शारीरिक वर्ण हैं।
तीनों लोक स्वर्ग, पृथ्वी तथा पाताल की ईश्वरी महाविद्या भुवनेश्वरी नाम की शक्ति हैं, महाविद्याओं में देवी चौथे स्थान पर अवस्थित हैं। अपने नाम के अनुसार देवी त्रिभुवन या तीनों लोकों की स्वामिनी हैं, सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को धारण करती हैं। सम्पूर्ण जगत के पालन पोषण का दाईत्व इन्हीं भुवनेश्वरी देवी का हैं, कारणवश देवी जगन-माता तथा जगत-धात्री नाम से भी विख्यात हैं। पंच तत्व १. आकाश, २. वायु ३. पृथ्वी ४. अग्नि ५. जल,जिनसे चराचर जगत के प्रत्येक जीवित तथा अजीवित तत्व का निर्माण होता हैं, वह सब इन्हीं देवी की शक्तिओं द्वारा संचालित होता हैं, पञ्च तत्वों को इन्हीं देवी भुवनेश्वरीने निर्मित किया हैं। देवी कि इच्छानुसार ही चराचर ब्रह्माण्ड (तीनों लोक) के समस्त तत्वों का निर्माण होता हैं। महाविद्या भुवनेश्वरी साक्षात् प्रकृति स्वरूपा हैं तथा देवी की तुलना मूल प्रकृति से भी की जाती हैं।
देवी भुवनेश्वरी, भगवान शिव के समस्त लीला विलास की सहचरी हैं, सखी हैं। देवी नियंत्रक भी हैं तथा भूल करने वालों के लिया दंड का विधान भी करती हैं, इनकी भुजा में सुशोभित अंकुश नियंत्रक का प्रतीक हैं। जो विश्व को वामन करने हेतु वामा, शिवमय होने से ज्येष्ठा तथा कर्मा नियंत्रक, जीवों को दण्डित करने के परिणामस्वरूप रौद्री,प्रकृति निरूपण करने के कारण मूल-प्रकृति कही जाती हैं। भगवान शिव का वाम भाग देवी भुवनेश्वरी के रूप में जाना जाता हैं तथा सदा शिव को सर्वेश्वर होने की योग्यता इन्हीं के संग होने से प्राप्त हैं।
देवी भुवनेश्वरी सौम्य तथा अरुण के समान अंग-कांति युक्त युवती हैं; देवी के मस्तक पर अर्ध चन्द्र सुशोभित हैं एवं तीन नेत्र हैं तथा मुखमंडल मंद-मंद मुस्कान की छटा युक्त हैं। देवी चार भुजाओं से युक्त हैं, दाहिने भुजाओं से देवी अभय तथा वर मुद्रा प्रदर्शित करती हैं तथा बाएं भुजाओं में पाश तथा अंकुश धारण करती हैं; देवी नाना प्रकार के अमूल्य रत्नों से युक्त विभिन्न अलंकार धारण करती हैं।
दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचारों से त्रस्त हो समस्त देवता तथा ब्राह्मणों ने हिमालय पर जाकर इन्हीं भुवनेशी देवी की स्तुति की थीं। सताक्षी रूप में इन्होंने ही पृथ्वी के समस्त नदियों-जलाशयों को अपने अश्रु जल से भर दिया था, शाकम्भरी रूप में देवी ही अपने हाथों में नाना शाक-मूल इत्यादि खाद्य द्रव्य धारण कर प्रकट हुई तथा सभी जीवों को भोजन प्रदान किया। अंत में देवी ने दुर्गमासुर दैत्य का वध कर, तीनों लोकों को उसके अत्याचार से मुक्त किया तथा दुर्गा नाम से प्रसिद्ध हुई।
छिन्नमस्ता शब्दों दो शब्दों के योग से बना हैं: प्रथम छिन्न और द्वितीय मस्ता। दोनों शब्दों का अर्थ हैं, छिन्न : अलग या पृथक तथा मस्ता : मस्तक, इस प्रकार जिनका मस्तक देह से अलग हैं वे छिन्नमस्ता कहलाती हैं। महाविद्याओं की श्रेणी में महाविद्या छिन्नमस्ता पाँचवें स्थान पर अवस्थित हैं। देवी अपने मस्तक को अपने ही हाथों से काट कर, अपने अन्य हाथ में धारण की हुई हैं। मस्तक कट जाने के पश्चात भी देवी जीवित हैं, यह देवी की श्रेष्ठ योग साधना की ओर इंगित करती हैं; योग साधना के उच्चतम स्तर पर अवस्थित हैं महाविद्या छिन्नमस्ता। देवी, प्रचंड चंडिका जैसे अन्य नामों से भी जानी जाती हैं, जो अत्यंत उग्र स्वभाव वाली हैं।
देवी का यह स्वरूप घोर डरावना, भयंकर तथा उग्र हैं, देवी छिन्नमस्ता का स्वरूप अन्य समस्त देवी-देवताओं से भिन्न हैं। देवी स्वयं ही तीनों गुण सात्विक, राजसिक तथा तामसिक का प्रतिनिधित्व करती हैं, त्रिगुणमयी सम्पन्न हैं। देवी ब्रह्माण्ड के परिवर्तन चक्र का प्रतिनिधित्व करती हैं, संपूर्ण ब्रह्मांड इस चक्र पर टिका हुआ हैं। सृजन तथा विनाश का संतुलित होना, ब्रह्माण्ड के सुचारु परिचालन हेतु अत्यंत आवश्यक हैं। देवी छिन्नमस्ताकी आराधना जैन तथा बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं; बौद्ध धर्म में देवी, छिन्नमुण्डा वज्रवराही के नाम से जानी जाती हैं। देवी जीवन के परम सत्य मृत्यु को दर्शाती हैं, वासना से नूतन जीवन की उत्पत्ति तथा अंततः मृत्यु की प्रतीक स्वरूप हैं। देवी, स्व-नियंत्रण के लाभ, अनावश्यक तथा अत्यधिक मनोरथों के परिणामस्वरूप पतन, योग अभ्यास द्वारा दिव्य शक्ति, आत्म-नियंत्रण, बढ़ती इच्छा पर नियंत्रण की प्रतीक हैं। महाविद्या छिन्नमस्ता योग अभ्यास के पर्यन्त इच्छाओं के नियंत्रण और यौन वासना के दमन का प्रतिनिधित्व करती हैं।
महाविद्या छिन्नमस्ता का स्वरूप अत्यंत ही गोपनीय हैं, जिसे कोई सिद्ध पुरुष ही जान सकता हैं। देवी के कटे हुए गले से रक्त की तीन धार निर्गत हो रही हैं, जिनमें से देवी एक धार से स्वयं रक्त-पान कर रहीं हैं तथा अन्य दो धाराएँ इन्होंने अपने सखी सहचरियों को पान करने हेतु प्रदान कर रखी हैं। इनके साथ इनकी दो सखी सहचरी डाकिनी तथा वारिणी हैं; जिनके क्षुधा निवारण हेतु ही देवी ने अपने ही खड्ग से स्वयं अपने मस्तक को अलग कर दिया। देवी कामदेव-तथा रति के ऊपर विराजमान हैं, यहाँ वे काम या अत्यधिक अनावश्यक वासनाओं से उत्पन्न विनाश को प्रदर्शित कर रहीं हैं। देवी के आभूषण सर्प हैं, देवी तीन नेत्रों से युक्त तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैं तथा इन्होंने नर-मुंडो की माला धारण कर राखी हैं।
त्रिपुर भैरवी स्वरूप में छठी महाविद्या के रूप में अवस्थित हैं। त्रिपुर शब्द का अर्थ हैं, तीनों लोक! स्वर्ग, पृथ्वी और पाताल तथा भैरवी शब्द विनाश के एक सिद्धांत के रूप में अवस्थित हैं। तात्पर्य हैं तीन लोकों में नष्ट या विध्वंस की जो शक्ति हैं, वही भैरवी हैं। देवी पूर्ण विनाश से सम्बंधित हैं तथा भगवान शिव जिनका सम्बन्ध विध्वंस या विनाश से हैं, देवी त्रिपुर भैरवी उन्हीं का एक भिन्न रूप मात्र हैं। देवी भैरवी विनाशकारी प्रकृति के साथ, विनाश से सम्बंधित पूर्ण ज्ञानमयी हैं; विध्वंस काल में अपने भयंकर तथा उग्र स्वरूप सहित, शिव की उपस्थिति के साथ संबंधित हैं। देवी तामसी गुण सम्पन्न हैं, देवी का सम्बन्ध विध्वंसक तत्वों तथा प्रवृति से हैं, देवी! कालरात्रि या काली के रूप समान हैं।
देवी का सम्बन्ध विनाश से होते हुए भी वे सज्जन मानवों हेतु नम्र हैं; दुष्ट प्रवृति युक्त, पापी मानवों हेतु उग्र तथा विनाशकारी शक्ति हैं महाविद्या त्रिपुर-सुंदरी; दुर्जनों, पापियों हेतु देवी की शक्ति ही विनाश कि ओर अग्रसित करती हैं। इस ब्रह्मांड में प्रत्येक तत्व नश्वर हैं तथा विनाश के बिना उत्पत्ति, नव कृति संभव नहीं हैं। केवल मात्र विनाशकारी पहलू ही हानिकर नहीं हैं, रचना! विनाश के बिना संभव नहीं हैं, तथापि विनाश सर्वदा नकारात्मक नहीं होती हैं, सृजन और विनाश, परिचालन लय के अधीन हैं जो ब्रह्मांड के दो आवश्यक पहलू हैं। देवी कि शक्ति ही, जीवित प्राणी को मृत्यु की ओर अग्रसित करती हैं तथा मृत को पञ्च तत्वों में विलीन करने हेतु। भैरवी शब्द तीन अक्षरों से मिल कर बना हैं, प्रथम ‘भै या भरणा’ जिसका तात्पर्य ‘रक्षण’ से हैं, द्वितीय ‘र या रमणा’रचना तथा ‘वी या वमना’ मुक्ति से सम्बंधित हैं; प्राकृतिक रूप से देवी घोर विध्वंसक प्रवृति से सम्बंधित हैं।
योगिनियों की अधिष्ठात्री देवी हैं महाविद्या त्रिपुर-भैरवी; देवी की साधना मुख्यतः घोर कर्मों में होती हैं, देवी ने ही उत्तम मधु पान कर महिषासुर का वध किया था। समस्त भुवन देवी से ही प्रकाशित हैं तथा एक दिन इन्हीं में लय हो जाएंगे, भगवान् नरसिंह की अभिन्न शक्ति हैं देवी त्रिपुर भैरवी। देवी गहरे शारीरिक वर्ण से युक्त एवं त्रिनेत्रा हैं तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण करती हैं। चार भुजाओं से युक्त देवी भैरवी अपने बाएं हाथों से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं और दाहिने हाथों में मानव खप्पर तथा खड्ग धारण करती हैं। देवी रुद्राक्ष तथा सर्पों के आभूषण धारण करती हैं, मानव खप्परों की माला देवी अपने गले में धारण करती हैं।
महाविद्या धूमावती अकेली एवं स्व: नियंत्रक हैं, इनके स्वामी रूप में कोई अवस्थित नहीं हैं तथा देवी भगवान शिव की विधवा हैं। दस महाविद्याओं की श्रेणी में देवी धूमावतीसातवें स्थान पर अवस्थित हैं तथा उग्र स्वभाव वाली अन्य देवियों के सामान ही उग्र तथा भयंकर हैं। देवी का सम्बन्ध ब्रह्माण्ड के महाप्रलय के पश्चात उस स्थिति से हैं, जहां वे अकेली होती हैं अर्थात समस्त स्थूल जगत के विनाश के कारण शून्य स्थिति रूप में अकेली विराजमान रहती हैं। महाप्रलय के पश्चात केवल मात्र देवी की शक्ति ही चारों ओर विद्यमान रहती हैं; देवी का स्वरूप धुएं के समान हैं। तीव्र क्षुधा हेतु इन्होंने अपने पति भगवान शिव का ही भक्षण किया था, जिसके पश्चात शिव जी धुएं के रूप में देवी के शरीर से बाहर निकले थे; देवी धुएं के रूप में अवस्थित रहती हैं।
देवी दरिद्रों के गृह में दरिद्रता के रूप में विद्यमान रहती हैं तथा अलक्ष्मी नाम से विख्यात हैं। अलक्ष्मी, देवी लक्ष्मी की बहन हैं, परन्तु गुण तथा स्वभाव से पूर्णतः विपरीत हैं। देवी धूमावती की उपस्थिति, सूर्य अस्त पश्चात प्रदोष काल पश्चात रहती हैं तथा देवी अंधकारमय स्थानों पर आश्रय लेती हैं। देवी का सम्बन्ध स्थाई अस्वस्थता से भी हैं फिर वह शारीरिक हो या मानसिक। देवी के अन्य नामों में निऋति भी हैं, जिनका सम्बन्ध मृत्यु, क्रोध, दुर्भाग्य, सड़न, अपूर्ण अभिलाषाओं जैसे नकारात्मक विचारों तथा तथ्यों से हैं जो जीवन में नकारात्मक भावनाओं को जन्म देता हैं। देवी कुपित होने पर समस्त अभिलषित मनोकामनाओं, सुख, धन तथा समृद्धि का नाश कर देती हैं, देवी कलह प्रिया हैं, अपवित्र स्थानों में वास करती हैं। रोग, दुर्भाग्य, कलह, निर्धनता, दुःख के रूप में देवी विद्यमान हैं।
देवी धूमावती का स्वरूप अत्यंत ही कुरूप हैं, भद्दे एवं विकट दन्त पंक्ति हैं, एक वृद्ध महिला के समान देवी दिखाई देती हैं। विधवा होने के कारण देवी श्वेत वस्त्र धारण करती हैं, श्वेत वर्ण ही इन्हें प्रिय हैं, तीन नेत्रों से युक्त भद्दी छवि युक्त हैं देवी धूमावती। देवी रुद्राक्ष की माला आभूषण रूप में धारण करती हैं, इनके हाथों में एक सूप हैं; माना जाता हैं देवी जिस पर कुपित होती हैं उसके समस्त सुख इत्यादि अपने सूप पर ही ले जाती हैं। इन्होंने ही अपने शरीर से उग्र-चंडिका को प्रकट किया हैं, देवी सर्वदा ही अतृप्त हैं, इनकी क्षुधा निवारण आज तक नहीं हुई हैं; असुरों के कच्चे मांस से इनकी अंगभूत शिखाएं तृप्त हुई थीं।

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महा-विनाश को भी स्तंभित करने वाली बगुलामुखी पीताम्‍बरा
देवी का प्रादुर्भाव भगवान विष्णु के तेज से हुआ, जिसके कारण देवी सत्व गुण संपन्न हैं।
बगलामुखी दो शब्दों के मेल से बना हैं, पहला बगला तथा दूसरा मुखी
बगलामुखी दो शब्दों के मेल से बना हैं, पहला बगला तथा दूसरा मुखी। बगला से अभिप्राय हैं ‘विरूपण का कारण’ और मुखी से तात्पर्य हैं मुख। देवी का सम्बन्ध मुख्यतः स्तम्भन कार्य से हैं, फिर वह मनुष्य मुख, शत्रु, विपत्ति हो या कोई घोर प्राकृतिक आपदा। महाविद्या बगलामुखी महाप्रलय जैसे महा-विनाश को भी स्तंभित करने की पूर्ण शक्ति रखती हैं; देवी स्तंभन कार्य की अधिष्ठात्री हैं। स्तंभन कार्य के अनुरूप देवी ही ब्रह्म अस्त्र का स्वरूप धारण कर, तीनों लोकों में किसी को भी स्तंभित कर सकती हैं। शत्रओं का नाश तथा कोर्ट-कचहरी में विजय हेतु देवी की कृपा अत्यंत आवश्यक हैं, विशेषकर झूठे अभियोगों प्रकरणों हेतु।
देवी! पीताम्बरा नाम से त्रि-भुवन में प्रसिद्ध हैं, पीताम्बरा शब्द भी दो शब्दों के मेल से बना हैं, पहला पीत तथा दूसरा अम्बरा; अभिप्राय हैं पीले रंग का अम्बर धारण करने वाली। देवी को पीला रंग अत्यंत प्रिय हैं, पीले रंग से सम्बंधित द्रव्य ही इनकी साधना-आराधना में प्रयोग होते हैं; वे पीले फूलो की माला धारण करती हैं, देवी पीले रंग के वस्त्र इत्यादि धारण करती हैं, पीले रंग से देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं। पञ्च तत्वों द्वारा संपूर्ण ब्रह्माण्ड निर्मित हुई हैं, जिनमें पृथ्वी तत्व का सम्बन्ध पीले रंग से होने के कारण देवी को पिला रंग प्रिय हैं। देवी की साधना दक्षिणाम्नायात्मक तथा ऊर्ध्वाम्नाय दो पद्धतिओं से कि जाती हैं, उर्ध्वमना स्वरूप में देवी दो भुजाओं से युक्त तथा दक्षिणाम्नायात्मक में चार भुजाएं हैं।
महाविद्या बगलामुखी समुद्र मध्य स्थित मणिमय मंडप में स्थित रत्न सिंहासन पर विराजमान हैं। देवी तीन नेत्रों से युक्त तथा मस्तक पर अर्ध चन्द्र धारण किये हुए हैं, इनकी दो भुजाएँ हैं बाईं भुजा से इन्होंने शत्रु की जिह्वा पकड़ रखी हैं तथा दाहिने भुजा से इन्होंने मुगदर धारण कर रखी हैं। देवी का शारीरिक वर्ण सहस्रों उदित सूर्यों के सामान हैं तथा नाना प्रकार के अमूल्य रत्न जड़ित आभूषण से देवी सुशोभित हैं, देवी का मुख मंडल अत्यंत ही सुन्दर तथा मनोरम हैं। सत्य-युग में सम्पूर्ण पृथ्वी को नष्ट करने वाला वामक्षेप (तूफान) आया, जिस कारण प्राणियों के जीवन पर संकट छा गया।भगवान विष्णु ने देवी बगलामुखी की सहायता से ही उस घोर तूफ़ान का स्तंभन किया तथा चराचर जगत के समस्त जीवों के प्राणों की रक्षा की। देवी का प्रादुर्भाव भगवान विष्णु के तेज से हुआ, जिसके कारण देवी सत्व गुण संपन्न हैं।
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महाविद्या मातंगी, महाविद्याओं में नवें स्थान पर अवस्थित हैं; देवी निम्न जाती एवं जनजातिओ से सम्बंधित रखती हैं। देवी का एक अन्य विख्यात नाम उच्छिष्ट चांडालिनीभी हैं, देवी तंत्र क्रियाओं में पारंगत हैं, पूर्ण तंत्र ज्ञान की ज्ञाता हैं। इंद्रजाल या जादुई शक्ति से देवी परिपूर्ण हैं, वाक् सिद्धि, संगीत तथा अन्य ललित कलाओं में निपुण, सिद्ध विद्याओं से सम्बंधित हैं। महाविद्या मातंगी, केवल मात्र वचन द्वारा त्रि-भुवन में समस्त प्राणिओं तथा अपने घनघोर शत्रु को भी वश करने में समर्थ हैं, जिसे सम्मोहन क्रिया या वशीकरण कहा जाता हैं; देवी सम्मोहन विद्या की अधिष्ठात्री हैं।
देवी का सम्बन्ध प्रकृति, पशु, पक्षी, जंगल, वन, शिकार इत्यादि से भी हैं तथा जंगल में वास करने वाले आदिवासिओ, जनजातिओ द्वारा देवी विशेषकर पूजिता हैं। ऐसा माना जाता हैं कि! देवी की ही कृपा से वैवाहिक जीवन सुखमय होता हैं; देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के परस्पर प्रेम से हुई थीं, तथापि पारिवारिक प्रेम हेतु देवी कृपा लाभकारी हैं। इस रूप में देवी चांडालिनी हैं तथा भगवान शिव चंडाल (चंडाल जो शमशान में शव दाह का कार्य करते हैं)।
महाविद्या मातंगी, मतंग मुनि की पुत्री रूप से भी जानी जाती हैं। देवी का घनिष्ठ सम्बन्ध उच्छिष्ट भोजन पदार्थों से हैं, देवी तभी उच्छिष्ट चांडालिनी नाम से विख्यात हैं तथा देवी की आराधना हेतु उपवास की भी आवश्यकता नहीं होती। देवी कि आराधना हेतु उच्छिष्ट सामाग्रीओं की आवश्यकता होती हैं चुकी देवी की उत्पत्ति शिव तथा पार्वती के उच्छिष्ट भोजन से हुई थी। देवी की आराधना सर्वप्रथम भगवान विष्णु द्वारा की गई, मना जाता हैं! तभी से भगवान विष्णु सुखी, सम्पन्न, श्री युक्त तथा उच्च पद पर विराजित हैं। देवी की आराधना बौद्ध धर्म में भी की जाती हैं, देवी बौद्ध धर्मं में मातागिरी नाम से विख्यात हैं।
महाविद्या मातंगी श्याम वर्णा या नील कमल के समान कांति युक्त हैं, तीन नेत्रों से युक्त हैं तथा अर्ध चन्द्र को अपने मस्तक पर धारण करती हैं। देवी चार भुजाओं से युक्त हैं, इन्होंने अपने दाहिने भुजाओं में वीणा तथा मानव खोपड़ी धारण कर रखी हैं तथा बायें भुजाओं में खड़ग धारण करती हैं एवं अभय मुद्रा प्रदर्शित करती हैं। देवी, लाल रंग की रेशमी साड़ी तथा अमूल्य रत्नों से युक्त नाना अलंकार धारण करती हैं, देवी के संग सर्वदा तोता पक्षी रहता हैं तथा ह्रीं बीजाक्षर का जप करता रहता हैं।
महाविद्या कमला या कमलात्मिका, महाविद्याओं में दसवें साथ पर अवस्थित हैं। देवी का सम्बन्ध सम्पन्नता, खुशहाल-जीवन, समृद्धि, सौभाग्य और वंश विस्तार जैसे समस्त सकारात्मक तथ्यों से हैं। दस महाविद्याओं की श्रेणी में देवी कमला अंतिम स्थान पर अवस्थित हैं, देवी पूर्ण सत्व गुण सम्पन्न हैं। स्वच्छता तथा पवित्रता देवी को अत्यंत प्रिय हैं तथा देवी ऐसे स्थानों में ही वास करती हैं। प्रकाश से देवी कमला का घनिष्ठ सम्बन्ध हैं, देवी उन्हीं स्थानों को अपना निवास स्थान बनती हैं जहां अँधेरा न हो; इसके विपरीत देवी के बहन अलक्ष्मी, ज्येष्ठा, निऋति जो निर्धनता, दुर्भाग्य से सम्बंधित हैं, अंधेरे एवं अपवित्र स्थानों को ही अपना निवास स्थान बनती हैं।
कमल के पुष्प के नाम वाली देवी कमला, कमल या पद्म पुष्प से सम्बंधित हैं। कमल पुष्प दिव्यता का प्रतीक हैं, कमल कीचड़ तथा मैले स्थानों पर उगता हैं, परन्तु कमल की दिव्यता मैल से कभी लिप्त नहीं होती हैं। कमल अपने आप में सर्वदा दिव्य, पवित्र तथा उत्तम रहती हैं, देवी कमला के स्थिर निवास हेतु अन्तःकरण की स्वच्छता तथा पवित्रता अत्यंत आवश्यक हैं। देवी की आराधना तीनों लोकों में दानव, दैत्य, देवता तथा मनुष्य सभी द्वारा की जाती हैं, क्योंकि सभी सुख तथा समृद्धि प्राप्त करना चाहते हैं। देवी आदि काल से ही त्रि-भुवन के समस्त प्राणिओं द्वारा पूजित हैं। देवी की कृपा के बिना, निर्धनता, दुर्भाग्य, रोग इत्यादि जातक से सदा सम्बद्ध रहती हैं परिणामस्वरूप जातक रोग ग्रस्त, अभाव युक्त, धन-हीन रहता हैं। देवी ही समस्त प्रकार के सुख, समृद्धि, वैभव इत्यादि सभी को प्रदान करती हैं।
स्वरूप से देवी कमला अत्यंत ही दिव्य तथा मनोहर एवं सुन्दर हैं, इनकी प्राप्ति समुद्र मंथन के समय हुई थीं तथा इन्होंने भगवान विष्णु को पति रूप में वरन किया था। देवी कमला! तांत्रिक लक्ष्मी के नाम से भी जानी जाती हैं, श्री विद्या महा त्रिपुरसुन्दरी की आराधना कर देवी, श्री पद से युक्त हुई तथा महा-लक्ष्मी नाम से विख्यात भी। देवी की अंग-कांति स्वर्णिम आभा लिए हुए हैं, देवी तीन नेत्रों से युक्त हैं एवं सुन्दर रेशमी साड़ी तथा नाना अमूल्य रत्नों से युक्त अलंकारों से सुशोभित हैं। देवी कमला चार भुजाओं से युक्त हैं, इन्होंने अपने ऊपर के दोनों भुजाओं में पद्म पुष्प धारण कर रखा हैं तथा निचे के दोनों भुजाओं से वर तथा अभय मुद्रा प्रदर्शित कर रहीं हैं। देवी को कमल का सिंहासन अति प्रिय हैं तथा वे सर्वदा कमल पुष्प से ही घिरी रहती हैं, हाथियों के झुण्ड देवी का अमृत से भरे स्वर्ण कलश से अभिषेक करते रहते हैं।

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