सत्ता प्राप्ति की होड़ में मूल्य एवं मर्यादा ताक पर

लोकतंत्र में हिंसा की संस्कृति के दाग

-ः ललित गर्ग:-

भारत का लोकतंत्र दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, इसको सशक्त बनाने की बात सभी राजनैतिक दल करते हैं, सभी ऊंचे मूल्यों को स्थापित करने की, आदर्श की बातों के साथ आते हैं पर सत्ता प्राप्ति की होड़ में सभी एक ही संस्कृति-हिंसा एवं अराजकता की संस्कृति को अपना लेते हैं। मूल्यों की जगह कीमत की और मुद्दों की जगह मतों की राजनीति करने लगते हैं और इसके लिये सारे मूल्यों एवं मर्यादाओं को ताक पर रख देते हैं। ऐसा ही नजारा हाल के कर्नाटक के विधानसभा एवं पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों देखने को मिला है। 

पश्चिम बंगाल के पंचायत चुनावों में हिंसा का जो तांडव हुआ उससे न केवल भारत के लोकतांत्रिक मूल्यों को गहरा आघात लगा है, बल्कि आमजनता को भी भारी हैरानी हुई है। वहां बड़े स्तर पर हिंसा हुई जिसमें 14 लोग मारे गए, अनेक घायल हुए। मरने वालों में तृणमूल, वामपंथी और भाजपा के समर्थक शामिल हैं। वामपंथी नेता और उसकी पत्नी को तो जिन्दा जला दिया गया। मतदान के दौरान भी जमकर गुंडागर्दी हुई, बूथ लूटे गए, मतपत्र पानी में फैंके गए, मीडिया की गाड़ियों को तोड़ा गया। मतदान के दौरान हिंसा फैलाने की साजिश पहले से ही तैयार थी। इस बात का अन्दाजा प्रशासन को उसी वक्त लग जाना चाहिए था जब तृणमूल के बड़े नेता के घर से सैकड़ों बम बरामद किए गए थे। 

पश्चिम बंगाल में 58 हजार पंचायती क्षेत्र हैं जिनमें से 38 हजार पर ही चुनाव कराया गया यानी 20 हजार पंचायतों में तृणमूल कांग्रेस के प्रत्याशी निर्विरोध जीत गए। इसका अर्थ यही है कि दूसरे राजनीतिक दलों ने चुनाव ही नहीं लड़ा। कितना डर रहा होगा, कितना आतंक रहा होगा वहां पर इन चुनावों को लेकर। यह सब जन प्रतिनिधित्व एवं अभिव्यक्ति की सर्वोच्च प्रक्रिया की गरिमा और महत्ता को समाप्त करने का प्रयास है। भारत की महानता उसकी विविधता में है। साम्प्रदायिकता एवं दलगत राजनीति का खेल, उसकी विविधता में एकता की पीठ में छुरा भोंकता है। जब हम इक्कीसवीं सदी में जी रहे हैं, विश्व के बहुत बड़े आर्थिक बाजार में बड़े भागीदार बनने जा रहे हैं, विश्व की एक शक्ति बनने की भूमिका तैयार करने जा रहे हैं, तब हमारे लोकतंत्र को जाति, धर्म व स्वार्थी राजनीति से बाहर निकलना चाहिए। ऐसा नहीं होना दुर्भाग्यपूर्ण एवं विडम्बनापूर्ण ही कहा जायेगा।

इसमें कोई संदेह नहीं कि ममता बनर्जी ने पंचायत चुनावों में खून का खेल खेला ळे, अपनी सत्ता एवं अधिकारों का जमकर दुरुपयोग किया है। ऐसा नहीं है कि वहां चुनावों में हिंसा कोई पहली बार हुई है। इससे पहले भी पश्चिम बंगाल के चाहे पंचायत चुनाव हो, चाहे विधानसभा के चुनाव हो या फिर लोकसभा के चुनाव हो, व्यापक हिंसा एवं अराजकता होती रही है, लेकिन जिस तरह पश्चिम बंगाल की वर्तमान सरकार ने गुंडागर्दी को संरक्षण दिया उसकी उम्मीद ममता बनर्जी से नहीं की जा सकती थी। क्योंकि यही ममता बनर्जी विपक्ष में रहते हुए वामपंथी शासन पर हिंसा करने के आरोप लगाते नहीं थकती थीं, अब वैसी ही हिंसा उनके शासन में भी हुई है। जो इन बुराइयों एवं हिंसा के खूनी खेल को लोकतांत्रिक व्यवस्था की कमजोरियां बताते हैं, वे भयंकर भ्रम में हैं। बुराई हमारे चरित्र में है इसलिए व्यवस्था बुरी है। हमारा रूपांतरण होगा तो व्यवस्था का तंत्र सुधरेगा, तभी लोकतंत्र मजबूत होगा।

चुनाव कहीं भी हो और किसी भी स्तर के हो, उनका शांतिपूर्ण और निष्पक्ष होना जरूरी है। बिना किसी भय या दबाव के होना भी जरूरी है। ऐसा नहीं होना कानून-व्यवस्था की विफलता तो है ही, उसके लिये उस प्रांत का सर्वोच्च नेतृत्व भी जिम्मेदार है। पश्चिम बंगाल में पंचायत चुनाव कराने वाला सिस्टम पूरी तरह से ध्वस्त हो गया। पहले तो तृणमूल ने ऐसा आतंक मचाया कि दूसरे दलों के उम्मीदवारों को नामांकन भरने ही नहीं दिया गया। उन्हें रास्ते में ही रोककर डराया-धमकाया गया। इस तरह की त्रासद एवं विडम्बनापूर्ण स्थितियों का बनना लोकतंत्र की हत्या ही माना जायेगा। क्योंकि इन चुनावों का या किसी भी चुनाव का संबंध ”लोकजीवन“ से होता है। संस्कृति, परम्पराएं, विरासत, व्यक्ति, विचार, लोकाचरण से लोक जीवन बनता है और लोकजीवन अपनी स्वतंत्र अभिव्यक्ति से ही लोकतंत्र स्थापित करता है, जहां लोक का शासन, लोक द्वारा, लोक के लिए शुद्ध तंत्र का स्वरूप बनता है। लोकजीवन के इस मौलिक अधिकार को बाधित करना या इसके लिये उस पर अत्याचार करना, गंभीर चिन्ता का विषय है। चुनावों से लोकतांत्रिक प्रक्रिया की शुरूआत मानी जाती है, पर आज चुनाव लोकतंत्र का मखौल बन चुके हैं। चुनावों में वे तरीके अपनाएं जाते हैं जो लोकतंत्र के मूलभूत आदर्शों के प्रतिकूल पड़ते हैं।

इन स्थितियों से गुरजते हुए, विश्व का अव्वल दर्जे का कहलाने वाला भारतीय लोकतंत्र आज अराजकता के चैराहे पर है। जहां से जाने वाला कोई भी रास्ता निष्कंटक नहीं दिखाई देता। इसे चैराहे पर खडे़ करने का दोष जितना जनता का है उससे कई गुना अधिक राजनैतिक दलों व नेताओं का है जिन्होंने निजी व दलों के स्वार्थों की पूर्ति को माध्यम बनाकर इसे बहुत कमजोर कर दिया है। आज ये दल, ये लोग इसे दलदल से निकालने की क्षमता खो बैठे हैं। जब एक अकेले व्यक्ति का जीवन भी मूल्यों के बिना नहीं बन सकता, तब एक राष्ट्र मूल्यहीनता में कैसे शक्तिशाली बन सकता है? अनुशासन के बिना एक परिवार एक दिन भी व्यवस्थित और संगठित नहीं रह सकता तब संगठित देश की कल्पना अनुशासन के बिना कैसे की जा सकती है?

चैतीस प्रतिशत सीटों पर तृणमूल का विरोध करने की हिम्मत किसी भी दल ने नहीं दिखाई। क्या यह लोकतंत्र है? इससे तो लोकतंत्र का कमजोर एवं डरा हुआ चरित्र ही सामने आया है। विरोधी दलों के उम्मीदवारों को नामांकन भरने से रोकने का मामला सुप्रीम कोर्ट और कोलकाता हाईकोर्ट के सामने भी आया था। दोनों ने पंचायती चुनावों पर असंतोष प्रकट किया था और चुनाव आयोग को फटकार भी लगाई थी। जिस अव्यवस्था, छीना-झपटी व हिंसा की बड़े पैमाने की कल्पना थी वैसा और उससे अधिक घटित हुआ, जो लोकतंत्र पर एक बदनुमा दाग की तरह लग गया है।”जैसा चलता है– चलने दो“ की नेताओं की मानसिकता और कमजोर नीति ने जनता की तकलीफें बढ़ाई हैं। ऐसे सोच वाले व्यक्तियांे को अपना राष्ट्र नहीं दिखता। उन्हें विश्व कैसे दिखेगा। चुनावों की प्रक्रिया को राजनैतिक दलों ने अपने स्तर पर भी कीचड़ भरा कर दिया है। राजनीतिक दल लोक कल्याण की सोचेंगे या स्वकल्याण की? हैरानी होती है एक तृणमूल नेता का बयान पढ़कर जिन्होंने इस हिंसा को सामान्य बताया है और पुराने आंकड़े देकर तृणमूल की सरकार को क्लीनचिट देने की कोशिश की है। पंचायत चुनाव में बैलेट पर बुलेट को हावी होने दिया गया। हिंसा की भयावह तस्वीरें पूरे देश के सामने आ चुकी हैं लेकिन तृणमूल कांग्रेस के नेता कह रहे हैं कि चुनावों में हिंसा का इतिहास ही रहा है।

हिंसा की संस्कृति भारत के लोकतंत्र की जड़ों में गहरी पैठती जा रही है। ऐसे में जनादेश कैसा होगा, यह पहले से ही सर्वविदित हो जाता है। जब तक राजनीतिक दल बाहुबलियों और असामाजिक तत्वों को अपने से अलग नहीं करते तब तक लोगों का खून बहता ही रहेगा। बिना विचारों के दर्शन और शब्दों का जाल बुने यही कहना है कि लोकतंत्र के इस सुन्दर नाजुक वृक्ष को अहिंसा की माटी, नैतिकता का पानी और अनुशासन की आॅक्सीजन चाहिए। अगर ठीक चले तो लोकतंत्र से बेहतर कोई प्रणाली नहीं और ठीक न चले तो इससे बदतर कोई प्रणाली नहीं।

प्रेषक

(ललित गर्ग)

60, मौसम विहार, तीसरा माला, डीएवी स्कूल के पास, दिल्ली-110051

फोनः 22727486, 9811051133

हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल www.himalayauk.org (Leading Digital Newsportal & Print Media) Publish at Dehradun & Haridwar,  Available in FB, Twitter, whatsup Groups & All Social Media   ; Mail; himalayauk@gmail.com (Mail us)

CHANDRA SHEKHAR   JOSHI- EDITOR   Mob. 9412932030   

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *