बिजनौर के इस कवि की लेखनी; दिलो में गूंजती है-जयंती पर विशेष

‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं, मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए”
1933 में एक ऐसे कवि का जन्म हुआ था जिसकी लेखनी आज भी युवाओं के दिलों में गूंजती है और बुजुर्गों की जबानों पर बसती है बिजनौर के रहने वाले हिन्दी के जाने माने कवि दुष्यंत कुमार त्यागी का जन्म 1933 में हुआ था और वह 1975 को दुनिया से अलविदा कह गए थे. Presented by- हिमालयायूके- हिमालय गौरव उत्‍तराखण्‍ड

”रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया  इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो.”

कौन होगा जिसने दुष्यंत कुमार को नहीं पढ़ा! कैफ भोपाली, गजानन माधव मुक्तिबोध, अज्ञेय की साहित्यिक खुमारी के दौर में जब आम लोगों की बोलचाल की भाषा में कविताएं लाकर दुष्यंत ने तेजी से लोगों के जेहन में जगह बना ली थी. बिजनौर के रहने वाले हिन्दी के जाने माने कवि दुष्यंत कुमार त्यागी का जन्म 1933 में हुआ था और वह 1975 को दुनिया से अलविदा कह गए थे. 

युवा दिलों की आवाज़ कहे जाने वाले दुष्यंत कुमार का आज जन्मदिन है. पश्चिमी उत्तर प्रदेश के बिजनौर में 1 सितंबर, 1933 को पैदा हुए दुष्यंत ने अपनी कलम से कुछ ऐसा जादू बिखेरा कि हर कोई कायल हो गया. 

‘कल नुमाइश में मिला वो चीथड़े पहने हुए, मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिंदुस्तान है.’  

‘तू किसी रेल सी गुज़रती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूं…’ . 

आज की पीढ़ी दुष्यंत की कायल है, युवाओं ने भले ही दुष्यंत को सामने से देखा या सुना ना हो लेकिन सोशल मीडिया पर उनकी बातें हमें देखने को मिलती रहती हैं. दुष्यंत ने 30 दिसंबर, 1975 को अंतिम सांस ली थी. शब्दों से दिलों तक पहुंत जाने वाले दुष्यंत कुमार का आज जन्मदिन है।दुष्यंत कुमार का जन्म 27 सितंबर 1931 को बिजनौर जिले के एक गांव राजपुर नवादा में हुआ था। किन्हीं कारणों से सरकारी अभिलेखों में उनकी जन्म तिथि 1 सितंबर 1933 दर्ज करा दी गई। जिस कारण से महान लेखका जन्म दिवस को उनके चाहने वाले आज के ही दिन मनाते हैं।

उनकी लेखनी आज भी युवाओं के दिलों में गूंजती है और बुजुर्गों की जबानों पर बसती है। दुष्यंत ने कहा था, ‘तू किसी रेल सी गुज़रती है मैं किसी पुल सा थरथराता हूं’ । कौन होगा जिसने दुष्यंत कुमार को नहीं पढ़ा। दुष्यंत ने अपनी 42 साल की छोटी सी ज़िंदगी में ग़ज़लों से इतर कविताएं, नाटक, उपन्यास कहानियां बहुत कुछ लिखा।

 
इमरजेंसी के दौर में जब बड़े लेखक और कवि सरकार की तारीफ में बिछे जा रहे थे। आकाशवाणी भोपाल का ये सरकारी कर्मचारी सीधे सरकार को निशाने पर रखकर ग़ज़लें कह रहा था। वो भी कुछ इस अंदाज़ में कि ‘एक गुड़िया की कई कठपुतलियों में जान है, आज शायर यह तमाशा देखकर हैरान है।

अब दुष्यंत का जन्मदिन है तो इस मौके पर आप उनके कुछ शेर पढ़िए, ये शेर आपको आज के राजनीतिक और सामाजिक समीकरणों की याद दिलाएंगे.
1. ”अब तो इस तालाब का पानी बदल दो,
ये कँवल के फूल कुम्हलाने लगे हैं.”
2. ”एक क़ब्रिस्तान में घर मिल रहा है
जिस में तह-ख़ानों से तह-ख़ाने लगे हैं.”
3. ”रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो.”
4. ”आज सड़कों पर लिखे हैं सैंकड़ों नारे न देख,
घर अंधेरा देख तू आकाश के तारे न देख.”
5. ”तुम्हारे पांव के नीचे कोई ज़मीन नहीं,
कमाल ये है कि फिर भी तुम्हें यक़ीन नहीं.”
6. ”थोड़ी आंच बची रहने दो, थोड़ा धुंआ निकलने दो,
तुम देखोगी इसी बहाने कई मुसाफिर आएंगे.”
7. ”गूंगे निकल पड़े हैं ज़बां की तलाश में,
सरकार के ख़िलाफ़ ये साज़िश तो देखिए.”
8. ”जिस तबाही से लोग बचते थे,
वो सर-ए-आम हो रही है अब.”
9. ”कैसे आकाश में सूराख़ नहीं हो सकता,
एक पत्थर तो तबीअ’त से उछालो यारो.”
10. ”ज़िंदगी जब अज़ाब होती है,
आशिक़ी कामयाब होती है.”
पहली कविता…

हो गई है पीर पर्वत-सी पिघलनी चाहिए,
इस हिमालय से कोई गंगा निकलनी चाहिए

आज यह दीवार, परदों की तरह हिलने लगी,
शर्त लेकिन थी कि ये बुनियाद हिलनी चाहिए

हर सड़क पर, हर गली में, हर नगर, हर गांव में,
हाथ लहराते हुए हर लाश चलनी चाहिए

सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
सारी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए

मेरे सीने में नहीं तो तेरे सीने में सही,
हो कहीं भी आग, लेकिन आग जलनी चाहिए

दूसरी कविता…

ये जो शहतीर है पलकों पे उठा लो यारो
अब कोई ऐसा तरीका भी निकालो यारो

दर्द ए दिल वक़्त पे पैग़ाम भी पहुंचाएगा
इस क़बूतर को ज़रा प्यार से पालो यारो

लोग हाथों में लिए बैठे हैं अपने पिंजरे
आज सैयाद को महफ़िल में बुला लो यारो

आज सीवन को उधेड़ो तो ज़रा देखेंगे
आज संदूक से वो ख़त तो निकालो यारो

रहनुमाओं की अदाओं पे फ़िदा है दुनिया
इस बहकती हुई दुनिया को सँभालो यारो

कैसे आकाश में सूराख़ हो नहीं सकता
एक पत्थर तो तबीयत से उछालो यारो

लोग कहते थे कि ये बात नहीं कहने की
तुमने कह दी है तो कहने की सज़ा लो यारो

तीसरी कविता…

मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं
वो ग़ज़ल आप को सुनाता हूँ

एक जंगल है तेरी आंखों में
मैं जहां राह भूल जाता हूँ

तू किसी रेल सी गुज़रती है
मैं किसी पुल सा थरथराता हूं

हर तरफ़ एतराज़ होता है
मैं अगर रोशनी में आता हूँ

एक बाज़ू उखड़ गया जब से
और ज़्यादा वज़न उठाता हूं

मैं तुझे भूलने की कोशिश में
आज कितने क़रीब पाता हूँ

कौन ये फ़ासला निभाएगा
मैं फ़रिश्ता हूं सच बताता हूं

उनकी कुछ और अन्य मशहूर कविताएं ये हैं…

‘कहां तो तय था’, ‘कैसे मंजर’, ‘खंडहर बचे हुए हैं’, ‘जो शहतीर है’, ‘ज़िंदगानी का कोई’, ‘मकसद’, ‘मुक्तक’, ‘आज सड़कों पर लिखे हैं’, ‘मत कहो, आकाश में’, ‘धूप के पांव’, ‘गुच्छे भर’, ‘अमलतास’, ‘सूर्य का स्वागत’, ‘आवाजों के घेरे’, ‘जलते हुए वन का वसन्त’, ‘आज सड़कों पर’, ‘आग जलती रहे’, ‘एक आशीर्वाद’, ‘आग जलनी चाहिए’, ‘मापदण्ड बदलो’, ‘कहीं पे धूप की चादर’, ‘बाढ़ की संभावनाएँ’, ‘इस नदी की धार में’, ‘हो गई है पीर पर्वत-सी’.
दुष्यंत हिंदी ग़ज़ल के पहले शायर कहे जाते हैं. ऐसा नहीं है कि दुष्यंत से पहले हिंदी में किसी ने ग़ज़ल नहीं कही. बलवीर सिंह रंग, गोपाल दास नीरज और सूर्यकांत त्रिपाठी निराला तक ने अलग-अलग नामों के साथ ग़ज़ल को हिंदी में लाने की कोशिश की थी, लेकिन इन सबकी मूल प्रवृत्ति उर्दू ग़ज़ल की तरह ‘माशूक की ज़ुल्फों के पेंचोखम सुलझाने’ की ही थी. जबकि भाषा के स्तर पर दुष्यंत कहीं से भी हिंदी के खेमे खड़े नहीं दिखते हैं.

उनका शेर पढ़िए ‘कहां तो तय था चरागां हर घर के लिए, कहां चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए’ चरागां दीपावली के लिए इस्तेमाल होने वाला फारसी शब्द है जो हिंदी वालों के लिए बिलकुल अनजाना है. साथ ही साथ इस पूरे शेर में कोई ऐसा शब्द नहीं जिसे हिंदी के चलन से जोड़ कर देखा जा सकता है. फिर सवाल उठता है कि दुष्यंत कैसे हिंदी ग़ज़ल के पुरोधा कहे जा सकते हैं?

दुष्यंत के बहाने ग़ज़ल में तीन बदलाव हुए इनसे जो नए किस्म की ग़ज़ल बनी वो हिंदी ग़ज़ल कहलाई. सबसे पहला बदलाव विषय का था. परंपरागत तबके के लिए ग़ज़ल का मतलब इश्क, मोहब्बत की बातें करना था. दुष्यंत की ग़ज़लों में समाज का दर्द और सत्ता से विद्रोह है. ये विद्रोह भी इतना तीखा है कि पढ़ने वाले को अंदर तक छीलकर रख देता है. सरकार की ज़्यादतियों के बाद भी उनका समर्थन करने वाली जनता के लिए कहा गया उनका शेर पढ़िए, ‘न हो कमीज़ तो घुटनों से पेट ढक लेंगे, ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए.’

दुष्यंत ने ग़ज़ल का सब्जेक्ट ही नहीं बदला, शेर-ओ-शायरी के रूपक भी बदल दिए. परंपरागत जहां ग़ज़लों में शमा के बाद परवाना और शीशे के बाद पत्थर आना लगभग तय होता है. दुष्यंत ग़ज़ल में गंगा और हिमालय जैसे प्रतीक इस्तेमाल किए. ये प्रतीक नए होने के साथ-साथ हिंदुस्तान की आत्मा से जुड़े हैं जिनका आप शब्दानुवाद नहीं कर सकते. जब वो पत्नी के लिए कहते हैं, ‘तुमको निहारता हूं सुबह से ऋतंबरा, अब शाम हो रही है मगर मन नहीं भरा’ तो ऋतंबरा के मेटाफर को समझने के लिए आपको हिंदी पट्टी की संस्कृति को समझना पढ़ेगा.

दुष्यंत के बाद हिंदी-उर्दू के लगभग सभी शायरों ने इसे बखूबी इस्तेमाल किया. अदम गोंडवी का शेर पढ़िए ‘गलतियां बाबर की थीं, तो जुम्मन का घर फिर क्यों जले’ पता चल जाएगा कि ये दुष्यंत की ही ज़मीन पर कही गई बात है. इसके साथ-साथ दुष्यंत ने ग़ज़ल कहने के लिए उर्दू स्क्रिप्ट आने की मजबूरी को खत्म किया. आज के समय में ऐसे बहुत से शायर हैं जो देवनागरी में ही ग़ज़ल कहते हैं.

सिर्फ ग़ज़ल नहीं कह गए दुष्यंत

मंच की लोकप्रियता भुनाने के लिए कई चर्चित कवि दुष्यंत को अक्सर ‘कठिन अतुकांत कविताओं के सामने सरल हिंदी में बात कहने वाला कहते हैं’. ये गलत है. दुष्यंत की भाषा सरल ज़रूर है मगर उनके कंटेंट में सिर्फ जनता को लुभाने वाली तुकबंदी नहीं है. साथ ही साथ दुष्यंत ने अपनी 42 साल की छोटी सी ज़िंदगी में ग़ज़लों से इतर कविताएं, नाटक, उपन्यास कहानियां बहुत कुछ लिखा.

‘सूर्य का स्वागत’ की उनकी कविताएं उस दौर की नई कविता के सभी मानकों पर खरी उतरती हैं. हालांकि इस बात में कोई शक नहीं कि ग़ज़लों ने दुष्यंत को उस मुकाम तक पहुंचाया जहां कई लोग कई-कई महाकाव्य लिखकर भी नहीं पहुंच पाते हैं.

2015 में आई फिल्म ‘मसान’ का एक गाना दुष्यंत के शेर से शुरू होता है, ‘तू किसी रेल सी गुज़रती है, मैं किसी पुल सा थरथराता हूं’ इस एक शेर से आगे की लिरिक्स वरुण ग्रोवर ने लिखी हैं और बहुत खूब लिखी हैं. लेकिन जिस ग़ज़ल से ये लिया गया है, उसका मतला (पहला शेर) दुष्यंत की ग़ज़लों की पूरी प्रवृत्ति को ज़ाहिर कर देता है, ‘मैं जिसे ओढ़ता बिछाता हूं, वो ग़ज़ल आपको सुनाता हूं.’

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