एवरेस्ट -बरसों-बरस ये मुर्दा इंसान, बर्फ़ीली दरारों, चट्टानों के बीच पड़े रहते हैं.

क्या एवरेस्ट लाशों का ढेर बनकर रह गया — एवेरेस्ट में 8500 मीटर की उचाई पर शरीर को यहाँ से वापस ले जाना फिलहाल लगभग नामुमकिन ही है। अपुष्‍ट सूत्रो के अनुसार एवेरेस्ट में 8000 m से उप्पर के इलाके में 200 से अधिक शव मौजूद हैं। इस इलाके का नाम रेनबो वैली है। इस इलाके का नाम रेनबो वैली रखने के पीछे का कारण यह था की यहाँ ढेर सारे पर्वतारोहियों के शव दूर दूर तक बिखरे हुए हैं जिनके भाती भाती के रंगों वाले कपड़ो व जूतों से नजारा रंग बिरंगी लगता है। जो भी पर्वतारोही एवेरेस्ट पे जाता है उसको ये भयावह नजारा देखने को मिलता है। हिमालयायूके

पहाड़ों की ख़ूबसूरती किसको नहीं लुभाती. ऊंची-ऊंची चोटियां. चारों तरफ़ बर्फ़ ही बर्फ़. यूं लगता है जैसे कोई संन्यासी धूनी रमाए बैठा है. पहाड़ों का ये शांत माहौल लोगों को अपनी तरफ़ खींचता है. इनकी ऊंची चोटियां चुनौती देती सी लगती हैं. इन चोटियों को फ़तह करने का बहुत से लोगों को जुनून होता है. मगर, पहाड़ इन लोगों के जुनून का भी इम्तिहान लेते हैं. ग़लतियां होने पर सख़्त सज़ा देते हैं. कई बार तो ये मौत की सज़ा भी देते हैं.

एवरेस्ट की चढ़ाई करने वालों को मालूम है कि इसकी चढ़ाई के रास्ते में बिखरी पड़ी हैं लाशें. क्योंकि पहाड़, मौत की सज़ा देने के बाद भी इन लाशों को आसानी से नहीं छोड़ते. बरसों-बरस ये मुर्दा इंसान, बर्फ़ीली दरारों, चट्टानों के बीच पड़े रहते हैं.

आंकड़े बताते हैं कि एवरेस्ट पर ऐसी दो सौ से ज़्यादा लाशें पड़ी हुई हैं. बरसों से इनका कोई नामलेवा नहीं. मगर इंसान का इस चोटी को जीतने का जुनून कम नहीं हुआ है. कई बार तो चढ़ाई करने वाले इन लाशों पर पैर रखकर ऊपर चढ़ने या नीचे उतरने का सफ़र तय करते हैं. इतनी ऊंचाई से कोई भी लाश उठाकर लाना मुमकिन नहीं होता. और बर्फ़ीले माहौल में रहने की वजह से ये जल्दी से ख़त्म भी नहीं होतीं.

असल में एवरेस्ट पर इंसान ने इतनी बार जीत हासिल की है कि इसे फिर से जीतने के जुनून में लोग इन लाशों को भूल जाते हैं. उन्हें याद नहीं रहता कि ये पहाड़ ग़लती करने पर मौत की सज़ा देता है.

बहुत से पर्वतारोही, यहां अक्सर आने वाले बर्फ़ीले तूफ़ान का शिकार होते हैं. कई लोग इतनी ऊंचाई पर जाकर सोचने-समझने की ताक़त गंवा बैठते हैं. और वहां पर ऐसी ग़लतियां करते हैं, जिनकी क़ीमत जान गंवाकर चुकानी पड़ती है.

8000 मीटर से अधिक ऊंचाई वाले इलाके को डेथ जोन बोलते हैं मतलब यहाँ इतनी कम ऑक्सीजन है की आपका शरीर धीमे धीमे मरने लगता है। आपको 2 किलो वजन ले जाने में इतनी थकान लगेगी जितना की 10 किलो में । ऑक्सीजन सिलेंडर होने के बाद भी वायु दाब बहुत कम होने से फेफड़े उतने अच्छे से काम नहीं करते और सिलिंडर भी कुछ घंटों से ज्यादा नहीं चलते ।  इन्हीं वजह से इन लाशों को एवरेस्ट की खड़ी ढलानों व बर्फ वाले रस्तों से नीचे लेके आना बहुत मुश्किल है और ये इसी तरह दशकों से बिखरी हैं और हर साल बढ़ रही हैं। चूँकि वायु दाब कम होने से हवा बहुत कम है तो हेलीकॉप्टर भी इस उचाई तक नहीं पहुंच पाता या अगर पहुंच गया तो उसके घूमते पंखो द्वारा फेंकी गयी चक्रवाती हवा एवेलांच पैदा कर सकती है इसलिए उसकी मदद से भी शरीर को नहीं ले जा सकते।

सबसे ज़्यादा मौतें, एवरेस्ट की चोटी के क़रीब के हिस्से में होती हैं. ये इलाक़ा ‘डेथ ज़ोन’ के नाम से बदनाम है. लोग अक्सर चढ़ाई की तैयारी करते वक़्त ग़लतियां करके जान गंवाते हैं. वैसे एवरेस्ट पर मरने वालों की बड़ी तादाद जीत हासिल करके लौट रहे लोगों की भी है.

कई बार तो मौत का आंकड़ा इतना बढ़ जाता है कि नेपाल की सरकार चढ़ाई के अभियानों पर रोक लगा देती है. मगर, जल्द ही लोग सब-कुछ भूल जाते हैं. और नए सिरे से इस ऊंची चोटी पर चढ़ने की तैयारी शुरू कर देते हैं.

इस काम में इतना पैसा मिलता है. इतनी शोहरत मिलती है कि लोग अपनी ज़िंदगी को भी दांव पर लगाने से नहीं हिचकते.

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