हरीश रावत के मंत्री भी सवालों के घेरे मे
कठघरे में आपदा प्रबंधन
………..॥..हिमालयायूके न्यूज पोर्टल के लिए….मोहन जोशी की रिपोर्ट ………..
हरीश रावत के मंत्री भी सवालों के घेरे मे
देहरादून: एक बार फिर सूबे का आपदा प्रबंधन कठघरे में है। सवालों की ताबड़तोड़ बरसात हो रही है? अकसर, इन सवालों को जिंदगियों की टूटने और आशियानों के जमींदोज होने का इंतजार होता है। जब कहीं आसमान से आफत टूटती है और कोहराम मचाती है तो ये सवाल तन कर खड़े हो जाते हैं। इनके निशाने पर लाजिमीतौर पर सरकार ही होती है। गुरुवार को भारी बारिश में हुये जानमाल के भारी नुकसान के बाद का यही नजारा है। सबसे बड़ा सवाल, जब मौसम विभाग ने हाई अलर्ट घोषित कर दिया था, तो सरकार ने बचाव एवं राहत कार्यों के प्रभावी उपाय पहले से क्यों नहीं किये? सूबे में चाहे जिस दल की सरकार हो, जवाब सबका एक ही है और एक ही होता कि प्रकृति पर किसका जोर है? मौजूदा सरकार का प्रश्न है तो यह बड़ा ही विचित्र है कि हाई अलर्ट होने के बावजूद सरकार ने उसे उतनी गंभीरता से नहीं लिया जितना लिया जाना चाहिए था। ये आरोप इसलिये लगाया जा रहा है कि दूध का जला भी छांछ फूंक-फूंक कर पीता है। 2013 की आपदा के बाद इसी सरकार में बड़ी-बड़ी बातों हुईं। लाखों रुपये सेमिनारों और गोष्ठियों और शोध पत्रों में फूंके गए ताकि इनमें उन उपायों को खोज सकें, जिनसे जिंदगियों को आपदा के कहर से बचाया जा सके। सरकारों से सूबे की प्रजा य उम्मीद तो कर ही सकती है कि वह उसे सुरक्षित और भयमुक्त जीवन का भरोसा दिलाये। मगर पहाड़ों में बसी आबादी का प्रबंधन सिर्फ और सिर्फ भगवान भरोसे है। जहां तक सूबे की सरकार का सवाल है तो उसे पॉलिटिक्स के प्रबंधन से ही फुरसत नहीं है। जब आसमान से आफत टूट रही होती है तो मुख्यमंत्री हरीश रावत दिल्ली में केंद्रीय मंत्रियों के दरबार में हाजिरी लगा रहे होते हैं। उन्हें सूबे की प्रजा के बीच ये संदेश देना है कि वे दिल्ली के चक्कर काट-काट कर थक चुके हैं, लेकिन वहां उनकी कोई सुनवाई नहीं हो रही है। कुर्सी बचाने के लिये उन्हें कानून के जानकारों से मशविरा करना है कि वह विधान सभा में विनियोग विधेयक लाएं कि नहीं।
हैरानी तो मंत्रिमंडल को देखकर भी होती है। आपदा की घड़ी में प्रजा के साथ खड़े होने का ठेका सिर्फ मुख्यमंत्री का ही नहीं है। मंत्रियों की भी कुछ जिम्मेदारी है। मगर राज्य में सरकारी से लेकर सियासी मोर्चे पर मुख्यमंत्री ही नजर आते हैं। आखिर आपदा सरीखी घटनाओं में भी मंत्रियों की उदासीनता क्या जाहिर करती है? संगठन के हाल तो सरकार से भी बुरे हैं। सिर्फ कांग्रेस के ही नहीं भाजपा के भी।
उनकी संवेदनशीलता का अंदाजा इसी बात से ही लगाया जा सकता है कि वे आपदा सरीखे मुद्दे पर भी सियासत कर रहे हैं। एक-दूसरे की कमियां गिना रहे हैं। बयानबाजी से जुदा किसी भी पार्टी का अब तक कोई भी राहत दल आपदा प्रभावित इलाकों के लिये कूच नहीं कर पाया है। लेकिन उन्हें एक-दूसरे की लाइन काटने से फुरसत मिले तो वे प्रजा के बारे में सोचे। आखिर बयानबाजियों में राहत और प्रबंधन कब तक होता रहेगा?
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