राजनीतिक दल इस मुद्दे को उठाने का इच्छुक नहीं;बेक़सूर होने के बावजूद एक लंबा समय जेल में; आखिर क्‍यो?

साभार- महताब आलम 

नवंबर 2013 में दो से अधिक साल जेल में काटने के बाद आदिवासी शिक्षिका सोनी सोरी को जेल से रिहा किया गया. उन्हें सुप्रीम कोर्ट से अंतरिम जमानत मिली थी. जेल में उन्हें बर्बर यातनाएं दी गई थीं, उनका यौन उत्पीड़न हुआ. उनका यह भी आरोप है कि उनके साथ बलात्कार भी हुआ.

सोरी को अक्टूबर 2011 में छत्तीसगढ़ पुलिस द्वारा माओवादी एजेंट होने के आरोप में दिल्ली से गिरफ्तार किया गया था. इसके बाद उन्हें लगभग आधा दर्जन मामलों में आरोपी बनाया गया, जिनमें एक पुलिस स्टेशन पर हमले का आरोप भी शामिल था. आखिर में उन्हें इन सभी मामलों से बरी कर दिया गया.

इसी तरह उनके पति अनिल फुटाने को 2011 में एक स्थानीय कांग्रेस नेता पर हमले की कथित योजना बनाने और उसे अंजाम देने के आरोप में गिरफ्तार किया गया था. तीन साल जेल में बिताने के बाद उन्हें मई 2013 में बरी कर दिया गया. फुटाने ने भी जेल में रहने के दौरान प्रताड़ना की शिकायत की थी.

अगस्त 2013 में उनकी मौत हो गई. सोरी तब जेल में ही थी. अपने पति के अंतिम संस्कार के लिए उनकी अस्थायी जमानत की अर्जी खारिज कर दी गई. सोरी और फुटाने के अलावा उनके भतीजे पत्रकार और मानवाधिकार कार्यकर्ता लिंगाराम कोडोपी को भी फर्जी आरोपों में कई साल जेल में रखा गया और बाद में बरी कर दिया गया.

लेकिन यह अकेले सोरी के परिवार की कहानी नहीं है. निरामलक्का का मामला ले लीजिए, उन्हें 12 साल जेल में रखने के बाद बीते तीन अप्रैल को जगदलपुर जेल से रिहा किया गया. एक न्यूज रिपोर्ट के मुताबिक, वह 157 मामलों में नामजद थीं, लेकिन अदालत को किसी भी मामले में उनके खिलाफ कोई सबूत नहीं मिला और उन्हें रिहा कर दिया गया.

ऐसे और भी कई मामले हैं, जिनमें से कई मध्य भारत और अन्य जगहों से हैं, जहां हजारों की संख्या में आदिवासियों और दलितों को बिना किसी अपराध के जेल में रखा गया.

यहां यह भी जानना जरूरी है कि 2015 की राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) की रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में जेलों में बंद विचाराधीन कैदियों में 55 फीसदी दलित, आदिवासी और मुस्लिम हैं. यह उनकी कुल आबादी से बहुत ज़्यादा है. आखिरी जनगणना (साल 2011) के मुताबिक, यह तीनों समुदाय देश की कुल आबादी का 39 फीसदी है.

इनमें दलित और आदिवासी महिलाओं और पुरुषों के साथ बड़ी संख्या में मुस्लिम पुरुष भी हैं, जिन्हें जेल में रखा गया है. कुछ मामलों में ये लोग 20 सालों से अधिक समय से जेल में बंद हैं.

हाल ही में 11 मुस्लिमों को आतंकी होने के आरोप से बरी करने का मामला हमारे लिए एक सबक है. इसी तरह, कर्नाटक के गुलबर्ग के अहमद बंधुओं का मामला भी एक उदाहरण है.

इन 11 लोगों की तरह निसारुद्दीन अहमद और जहीरुद्दीन अहमद को बाबरी मस्जिद विध्वंस का बदला लेने के लिए आतंकी हमले करने का आरोपी बनाया गया था. जहां निसारुद्दीन ने 23 साल जेल में काटे और उनके बड़े भाई जहीरुद्दीन 13 सालों से जेल में रहे.

दिल्ली के मोहम्मद आमिर खान के मामले का भी इस संदर्भ में उल्लेख किया जा सकता है, जिन्होंने निर्दोष साबित होने से पहले 14 साल जेल में बिताए.

विधि आयोग की रिपोर्ट

ऐसे मामलों की सूची लंबी है और इसमें देश के विभिन्न हिस्सों के मामले हैं. हालांकि, इन सभी में एक चीज समान है, जिसे विधि आयोग की हालिया रिपोर्ट में गलत मुकदमे [Wrongful Prosecution] कहा गया है.

गलत मुकदमे… न्याय न मिलने के ऐसे मामले हैं, जिसमें पुलिस या अभियोजन द्वारा या लापरवाही या दुर्भावना से एक निर्दोष शख्स के खिलाफ गलत मुकदमा शुरू किया जाता है, जिसे बाद में अदालत द्वारा मामले की तह में जाने या कोई तथ्य पाए जाने पर बरी कर दिया जाता है. इसे कहने का अर्थ यह है कि पहले तो किसी व्यक्ति को ऐसी किसी कार्यवाही का सामना ही न करना पड़े.

गौर करने वाली बात है कि आयोग ने अपने निष्कर्षों और सिफारिशों से पहले ऊपर बताए गए कुछ मामलों का उल्लेख किया है.

आयोग ने ‘गलत आरोपों में न्याय न दिए जाने के मामलों से निपटने के लिए विशेष कानूनी प्रावधानों को अधिनियमित करने का सुझाव दिया है. उदाहरण के लिए, गलत मुकदमे के दावों पर फैसला लेने के लिए एक वैधानिक और कानूनी ढांचे को स्थापित करना और मुकदमा गलत साबित होने पर राज्य द्वारा पीड़ितों को मुआवजे का भुगतान करना शामिल है. नतीजतन, गलत अभियोजन के पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए राज्य पर एक वैधानिक दायित्व बनाना और उक्त पीड़ितों के लिए मुआवजे का एक समान वैधानिक अधिकार मुहैया कराना.

यही नहीं, इस रिपोर्ट में एक मसौदा विधेयक (ड्राफ्ट बिल) आपराधिक प्रक्रिया संहिता (संशोधन) अधिनियम 2018 भी पेश किया गया है.

यह मुद्दा उठाने वाला कोई नहीं

इस तथ्य के बावजूद कि अगर यह समस्या देश की बहुसंख्यक आबादी की नहीं, तो कम से कम एक निश्चित वर्ग को तो प्रभावित करती है, फिर भी कोई भी प्रमुख राजनीतिक दल इस मुद्दे को उठाने का इच्छुक नहीं है.

आयोग द्वारा इसकी सिफारिशें दिए हुए छह महीने से ज़्यादा हो चुके हैं, लेकिन इस पर बमुश्किल ही कोई चर्चा हुई है. ऐसा लगता है कि इस महत्वपूर्ण मुद्दे पर कोई बात करने को तैयार नहीं है. यहां तक कि कांग्रेस के घोषणापत्र में, जहां कानून और नियमों को अलग से जगह मिली है, वहां भी गलत मुकदमों का कोई ज़िक्र नहीं है.

राजद्रोह और मानहानि के कानूनों को खत्म करने के घोषणाओं के उलट इस पर कोई स्पष्टता नहीं दी गई कि यह कैसे सुनिश्चित किया जाएगा कि बिना किसी मुकदमे के लोगों को जेल में बंद करने की प्रक्रिया को खत्म किया जाएगा. इसमें न ही विधि आयोग द्वारा सुझाए गए सीआरपीसी संशोधन का भी कोई उल्लेख मिलता है.

यह समझना महत्वपूर्ण है कि राजद्रोह और मानहानि के मामलों की तरह मानवाधिकार संगठनों की लंबे समय से मांग रही है कि सीआरपीसी की धारा 197 को खत्म किया जाए, जिसके अनुसार किसी भी सरकारी कर्मचारी द्वारा उसके द्वारा अपनी ड्यूटी के दौरान कथित रूप से किए गए अपराधों पर मुकदमा चलाने के लिए सरकार की मंजूरी की ज़रूरत होती है.

यह एक तथ्य है, जिसका ज़िक्र विधि आयोग की रिपोर्ट में भी है, कि अधिकांश समय, यह कहते हुए कि ऐसा करने से पुलिस बल हतोत्साहित होंगे, अधिकारियों पर मुकदमा चलाने की मंजूरी नहीं दी जाती. नतीजा यह होता है कि उनके किए अपराध को साबित करने के पर्याप्त सबूत होने के बावजूद उन्हें सजा नहीं मिल पाती.

इस मुद्दे की गंभीरता को देखते हुए इसे चुनावी मुद्दा बनाना चाहिए. जब तक कानून में बदलाव नहीं होगा, गलत मुकदमों से लोगों की जिंदगियां, विशेष रूप से हाशिए के समुदायों से आने वाले लोगों की ज़िंदगियां बर्बाद होती रहेंगी.

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