साधु-संतों के सान्निध्य में त्रिवेणी संगम पर कुंभ मेले का शुभारंभ

  हिमालय गौरव उत्तराखण्ड ब्यूरोः वेब एण्ड प्रिन्ट मीडिया

छत्तीसगढ के प्रयागराज के रूप में प्रसिद्ध राजिम के त्रिवेणी संगम पर हर साल एक पखवाडे का राजिम कुंभ (कल्प) माघ पूर्णिमा के अवसर पर शुरू हो गया है। देश के प्रमुख मठों और आश्रमों के साधु-संतों के सान्निध्य में त्रिवेणी संगम पर कुंभ मेले का शुभारंभ समारोह आयोजित किया गया है। कुंभ में विराट संत समागम होगा। राजिम कुंभ मेले में ३१ जनवरी से १३ फरवरी तक संत समागम होगा। मेले के शुभारंभ समारोह में आचार्य महामंडलेश्वर अग्नि पीठाधीश्वर रामकृष्णानंद महराज अमरकंटक, महामंडलेश्वर पेमानंद महराज संन्यास आश्रम मुंबई, महंत साध्वी प्रज्ञा भारती संरक्षक-वेदरतन सेवा प्रकल्प जबलपुर, बालयोगेश्वर श्रीराम बालकदास महराज डौंडीलोहारा, संत ज्ञानस्वरूपानंद अक्रिय महराज जोधपुर, आचार्य महंत जालेश्वर महराज अयोध्या, ब्रम्हचारी इंदुभवानंद महराज शंकराचार्य आश्रम रायपुर, संत युधिष्ठिर लाल महाराज, शदाणी दरबार रायपुर, संत गोवर्धनशरण महराज सिरकट्टी आश्रम और सेम वर्मा बालाजीपुरम बैतूल की उपस्थिति रहेगी।

छत्तीसगढ के प्रयागराज के रूप में प्रसिद्ध राजिम के त्रिवेणी संगम पर हर साल एक पखवाडे का राजिम पभ (कल्प) माघ पूर्णिमा के अवसर पर ३१ जनवरी से शुरू होता ह।  

कुंभ मेले का इतिहास कम से कम ८५० साल पुराना है। माना जाता है कि आदि शंकराचार्य ने इसकी शुरुआत की थी, लेकिन कुछ कथाओं के अनुसार कुंभ की शुरुआत समुद्र मंथन के आदिकाल से ही हो गई थी। शास्त्रों में बताया गया है कि पृथ्वी का एक वर्ष देवताओं का दिन होता है, इसलिए हर बारह वर्ष पर एक स्थान पर पुनः कुंभ का आयोजन होता है। देवताओं का बारह वर्ष पृथ्वी लोक के १४४ वर्ष के बाद आता है। ऐसी मान्यता है कि १४४ वर्ष के बाद स्वर्ग में भी कुंभ का आयोजन होता है इसलिए उस वर्ष पृथ्वी पर महाकुंभ का अयोजन होता है। महाकुंभ के लिए निर्धारित स्थान प्रयाग को माना गया है।

 

मंथन में निकले अमृत का कलश हरिद्वार, इलाहबाद, उज्जैन और नासिक के स्थानों पर ही गिरा था, इसीलिए इन चार स्थानों पर ही कुंभ मेला हर तीन बरस बाद लगता आया है। १२ साल बाद यह मेला अपने पहले स्थान पर वापस पहुंचता है। जबकि कुछ दस्तावेज बताते हैं कि कुंभ मेला ५२५ बीसी में शुरू हुआ था।

योग के बाद अब कुंभ मेला ग्लोबल होने वाला है. यूनेस्को ने इसे ग्लोबल इनटैन्जिबल कल्चरल हेरिटेज लिस्ट में शामिल कर लिया है. भारतीय संस्कृति की अद्भुत और अद्वितीय पहचान कुंभ मेले को यूनेस्को ने ग्लोबल इनटैन्जिबल कल्चरल हेरिटेज लिस्ट में शामिल कर लिया है. दक्षिण कोरिया के जेजू में आयोजित यूनेस्को की इंटरगर्वनमेंटल कमिटी फॉर द सेफगार्डिंग ऑफ इन्टैन्जिबल कल्चरल हेरीटेज की बैठक में इस बाबत फैसला हुआ है. इस कमेटी ने कहा है. भारत में आयोजित होने वाले कुंभ मेले को मानवता के अमूर्त सांस्कृतिक धरोहर की प्रतिनिधि सूची में शामिल किया जाएगा. दुनिया के सबसे बड़े कुंभ मेले का हरिद्वार और इलाहाबाद में गंगा नदी के किनारे, उज्जैन में क्षिप्रा और नासिक में गोदावरी के तट पर आयोजन किया जाता है. इन चारों में से एक बार जिस जगह पर कुंभ का आयोजन होता है. उसके तीन साल बाद दूसरी जगह पर और फिर तीन-तीन साल बाद तीसरे और चौथे स्थान को मौका मिलता है. यानी एक जगह पर कुंभ के आयोजन के बाद दूसरी बार 12 साल बाद कुंभ का आयोजन होता है

कुंभ मेले के आयोजन का प्रावधान कब से है इस बारे में विद्वानों में अनेक भ्रांतियाँ हैं। वैदिक और पौराणिक काल में कुंभ तथा अर्धकुंभ स्नान में आज जैसी प्रशासनिक व्यवस्था का स्वरूप नहीं था। कुछ विद्वान गुप्त काल में कुंभ के सुव्यवस्थित होने की बात करते हैं। परन्तु प्रमाणित तथ्य सम्राट शिलादित्य हर्षवर्धन ६१७-६४७ ई. के समय से प्राप्त होते हैं। बाद में श्रीमद आघ जगतगुरु शंकराचार्य तथा उनके शिष्य सुरेश्वराचार्य ने दसनामी संन्यासी अखाडों के लिए संगम तट पर स्नान की व्यवस्था की।

कुंभ मेला किसी स्थान पर लगेगा यह राशि तय करती है। वर्ष २०१३ में कुंभ मेला पयाग ईलाहाबाद में लग रहा है। इसका कारण भी राशियों की विशेष स्थिति है। कुंभ के लिए जो नियम निर्धारित हैं उसके अनुसार पयाग में कुंभ तब लगता है जब माघ अमावस्या के दिन सूर्य और चन्द्रमा मकर राशि में होते हैं और गुरू मेष राशि में होता है। यही संयोग वर्ष २०१३ में २० फरवरी को होने जा रहा है। १९८९, २००१, २०१३ के बाद अब अगला महाकुंभ मेला यहां २०२५ में लगेगा। कुंभ योग के विषय में विष्णु पुराण में उल्लेख मिलता है। विष्णु पुराण में बताया गया है कि जब गुरु कुंभ राशि में होता है और सूर्य मेष राशि में प्रवेश करता है तब हरिद्वार में कुंभ लगता है। १९८६, १९९८, २०१० के बाद अब अगला महाकुंभ मेला हरिद्वार में २०२१ में लगेगा। सूर्य एवं गुरू जब दोनों ही सिंह राशि में होते हैं तब कुंभ मेले का आयोजन नासिक (महाराष्ट्र) में गोदावरी नदी के तट पर लगता है। १९८०, १९९२, २००३ के बाद अब अगला महाकुंभ मेला यहां २०१५ में लगेगा। गुरु जब कुंभ राशि में पवेश करता है तब उज्जैन में कुंभ लगता है। १९८०,१९९२, २००४, के बाद अब अगला महाकुंभ मेला यहां २०१६ में लगेगा।

      कुंभ के आयोजन में नवग्रहों में से सूर्य, चंद्र, गुरु और शनि की भूमिका महत्वपूर्ण मानी जाती है। इसलिए इन्हीं ग्रहों की विशेष स्थिति में कुंभ का आयोजन होता है। सागर मंथन से जब अमृत कलश प्राप्त हुआ तब अमृत घट को लेकर देवताओं और असुरों में खींचा तानी शुरू हो गयी। ऐसे में अमृत कलश से छलक कर अमृत की बूंद जहां पर गिरी वहां पर कुंभ का आयोजन किया गया।

अमृत की खींचा तानी के समय चन्द्रमा ने अमृत को बहने से बचाया। गुरू ने कलश को छुपा कर रखा। सूर्य देव ने कलश को फूटने से बचाया और शनि ने इन्द्र के कोप से रक्षा की। इसलिए जब इन ग्रहों का संयोग एक राशि में होता है तब कुंभ का अयोजन होता है। क्योंकि इन चार ग्रहों के सहयोग से अमृत की रक्षा हुई थी। गुरू एक राशि लगभग एक वर्ष रहता है। इस तरह बारह राशि में भ्रमण करते हुए उसे १२ वर्ष का समय लगता है। इसलिए हर बारह साल बाद फिर उसी स्थान पर कुंभ का आयोजन होता है। लेकिन कुंभ के लिए निर्धारित चार स्थानों में अलग-अलग स्थान पर हर तीसरे वर्ष कुंभ का अयोजन होता है। कुंभ के लिए निर्धारित चारों स्थानों में पयाग के कुंभ का विशेष महत्व है। हर १४४ वर्ष बाद यहां महाकुंभ का आयोजन होता है।

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