श्रम की न कीमत है और न सम्मान

उत्‍तराखण्‍ड राज्य भूख के खिलाफ या कह सकते हैं कि पलायन के खिलाफ बना था। लेकिन राज्य बनने के बावजूद हालात आज भी यथावत हंै। उत्तराखण्ड में तो आज वे लोग तक बेचैन हैं जिन्होंने इस पृथक राज्य के लिए अपना भविष्य दाँव पर लगा दिया था। अन्याय के खिलाफ लड़ने का इस राज्य के बाशिन्दों का गौरवशाली इतिहास रहा है  उत्तर प्रदेश के समय से ही यह क्षेत्र कभी भी पैंसे वालों का नहीं रहा।  मासूम लोगों के हिस्से प्राकृतिक आपदाओं के नाम पर  मौतें, अपनी पीढ़ी को बचाने हेतु पलायन के लिए मजबूर गाँव। Presents by (www.himalayauk.org) Leading Digital Newsportal & Daily Newspaper; CS JOSHI

गरीबों का सरकारी और गैर सरकारी स्तर पर शोषण और दमन अपनी चरम सीमा में पहुँच चुका है। लोग निराशा में जी रहे हैं। उन्हें लगता है कि ऐसे माहौल में जहाँ न्याय के नारे के साथ अन्याय है। विकास के नारे के साथ भीषण शोषण, दमन और लूट है। कहीं दूर-दूर तक कोई आशा से भरा रास्ता भी नजर नहीं आ रहा है। जैसे तैसे वे अपना विरोध भी दर्ज कर रहे हैं। प्रतिरोध के स्वर देश और उत्तराखण्ड प्रदेश के कई क्षेत्रों में सुनाई भी दे रहे हैं। लेकिन वह एक मजबूत आवाज नहीं बन पा रही है। उत्तराखण्ड में तो आज वे लोग तक बेचैन हैं जिन्होंने इस पृथक राज्य के लिए अपना भविष्य दाँव पर लगा दिया था।
केन्द्र और राज्य सरकार आज कल विकास के नाम पर सभी तरह के निर्माण कार्य निजी कंपनियों को दे रही हैं। आज विकास सही मायने में निजी क्षेत्र का विकास बन कर रह गया है। उनका विकास ही हमारा विकास बना दिया गया है। उनको मुनाफा दिलाने के लिए केन्द्र और राज्य सरकार या तो जनपक्ष के लिए बने कानून बदल रही हैं या नियमांे को बदल कर उनके हितों के अनुकूल बना रही है। इसलिए सभी तरह के अनुदान भी उन्हीं के लिए है। सरकार उन्हें मुफ्त में बेहद कम कीमत पर सबसे कीमती जमीनंे उपलब्ध करा रही है। जमीन की रजिस्ट्री के लिए रेवेन्यू स्टाम्पो के साथ सभी तरह के करों में भारी छूट दे रही है।

सरकार कंपनियों को दी जाने वाली सभी तरह की सुविधाओं पर रोक लगाये। उसके स्थान पर गरीबों और मजदूरों के पक्ष में गंभीरता से सोचे। आम लोग सबसे ज्यादा मेहनत तो करते ही हैं, वे हर तरह की क्षमताशील संभावनायें भी रखते हैं। पैसे वालों को मिलने वाली सारी सुविधायें लोगों द्वारा संचालित सहकारी समितियों एवं प्रोड्यूसर कंपनियों को दी जानी चाहिए।(कंपनी एक्ट 2013 के नियम 465 के तहत गाँव के लोग भी अपनी प्रोड्यूसर कंपनी बना कर अपना उद्योग लगा सकते हैं। इसमें महत्वपूर्ण शर्त है कि कोई भी शेयर धारक अपना शेयर बेच नहीं सकता। कोई भी व्यक्ति दूसरे का शेयर खरीद नहीं सकता। कोई व्यक्ति एक शेयर से ज्यादा शेयर नहीं रख सकता।) जहाँ श्रमिकों का उचित सम्मान होगा वहीं गरीबी और गैर बराबरी पर भी नियंत्रण लगेगा।

अन्याय के खिलाफ लड़ने का इस राज्य के बाशिन्दों का गौरवशाली इतिहास रहा है। हर तरह के अन्याय के खिलाफ लड़ते हुए यहाँ के लोग एक पृथक राज्य उत्तराखण्ड तक अपने लिए बना लाये। इस राज्य के लिए कभी संगठन और कभी पार्टी बना कर, कई जगहों पर व्यक्तिगत स्तर पर लड़ाईयाँ हुई। इतने संघर्षों के बावजूद भी हमारे बीच जो व्यवस्था मौजूद है, वे सदा जनसंघर्षों के खिलाफ रही है, संघर्षों को तोड़ती आई है। वे लोगों के बीच हमेशा विकल्पहीन मानसिकता को बनाये रखती हैं। व्यक्तिगत फायदा इस व्यवस्था की पहली शर्त होती है। लड़ने वाले व्यक्ति या समाज को आज भी मौजूद व्यवस्था में कई तरह के नुकसान उठाने पड़ते हैं। संघर्षों की आवाज को दबाने की हर संभव कोशिश होती है। यह एक धुव्र सत्य है कि दमन सत्ता का सबसे बड़ा हथियार होता है। इन सभी तरह के दमन को सह लेने के बाद भी अगर जीत का कोई एक टुकड़ा हमारे हिस्से में आया भी है तो उसका फायदा हम ठीक से नहीं उठा पाये। कह सकते हैं कि हम कुछ संभलते, अपने सपनों को सँजोने की कोशिश करते, उससे पहले लूट का तंत्र मजबूत हो गया और वह इस राज्य पर भारी पड़ने लगा। परिणाम यह है कि राज्य बने पन्द्रह साल हो गये, हम हारते रहे… हारते रहे। आज असी गंगा उत्तरकाशी, केदारनाथ चमोली, पिथौरागढ़ के साथ कितनी सारी त्रासदियाँ इस राज्य में बो दी गई हैं। उनको गिनना भी मुश्किल हो रहा है।

राज्य बने हुए इतने सालों बाद हमारे हिस्से विकास के नाम पर जो कुछ आया; अगर उसका मुल्यांकन करें तो कुछ गाँवों को जोड़ने वाली सड़कें, जिन सड़कों से रोजी रोटी की तलाश में गाँव के लोग सकुटुम्ब नगरों की ओर गये तो वह दुबारा अपने गाँव नहीं लौट पाये। विद्युत निर्माण कंपनियों, खनन माफियों के साथ कई कंपनियों और उनके ठेकेदारों की गाँव के प्राकृतिक संसाधनों तक आसान पहुँच, अस्पताल और विद्यालयों के नाम पर खाली पड़े बड़े-बड़े भवन। जो विकास का कम राजनैतिक दलों के नेताओं और उनके चमचों को रोजगार देने के लिए ज्यादा जरूरी था। मासूम लोगों के हिस्से प्राकृतिक आपदाओं के नाम पर कुछ मौतें, अपनी पीढ़ी को बचाने हेतु पलायन के लिए मजबूर गाँव।

उत्तर प्रदेश के समय से ही यह क्षेत्र कभी भी पैंसे वालों का नहीं रहा। उत्तर प्रदेश में अपनी मेहनत पर पलने वाले समाज के हाथों में कभी भी अपने श्रम की कीमत तय करने का मौका नहीं रहा। इसलिए यहाँ का समाज शोषण के लिए हमेशा अभिशप्त रहा है। यह राज्य भूख के खिलाफ या कह सकते हैं कि पलायन के खिलाफ बना था। लेकिन राज्य बनने के बावजूद हालात आज भी यथावत हंै।

राज्य बनने के बाद जो भी पार्टी सत्ता में आई; उन्होंने विकास के नाम पर सिडकुल द्वारा कई औद्योगिक गलियारों का निर्माण करवाया और बयान दिये गये कि इन उद्योगों में 75 प्रतिशत राज्य के लोगों को रोजगार दिया जायेगा। न ही सरकार और न ही सिविल सोसाइटी द्वारा कभी यह जानने की कोशिश की गई की जो भी मजदूर उन उद्योगों में काम कर रहे हैं उनके हालात कैसे हैं? सच तो यह है कि उन उद्योगों में काम करने वाले कामगार; चाहे वे किसी भी राज्य से क्यों ना हो, उनको काफी कम पैंसों में यानी 1800 से 5000 रु॰ तक के वेतन पर 15-15 घंटे मजबूरन काम करना पड़ता है। बीमार होने या काम के दौरान दुर्घटना होने पर वे तत्काल नौकरी से निकाल दिये जाते हैं। वे सब ठेकेदारों के मजदूर हंै। इस भयानक शोषण और अन्याय को रोकने के लिए कोई उनकी सुध नहीं लेता। ऐसी सरकारों से अपेक्षा भी नहीं की जाती जो विकास के नाम पर पैंसे वालों के पक्ष में खड़ी रहती हो। लेकिन किसी कसाईयों के हाथों अपने नौजवानों को हम सौंप भी तो नहीं सकते। अपने लोगों की सुध हमंे तो लेनी ही होगी। यही हाल निर्माण कार्य में लगे मजदूरों का भी है। उनके लिए बुनियादी सुविधाओं का घोर अभाव होने के बावजूद उनका पंैसा मारा जाना, उनके साथ मारपीट होना एक आम बात है।

आज इस राज्य में लालची नेताओं, अपराधिक गठजोड़ में शामिल नौकरशाह के हितों के लिए हमें बली का बकरा बनाया जा रहा है। आज हालात यह है कि पूरा राज्य शोषण, लूट और भ्रष्टतंत्र के हवाले कर दिया गया है। वे अपने मुनाफे के लिए कुछ भी करने को तैयार हैं। विकास के नाम पर पहाड़ और प्रदेश में गरीबों की जिन्दगी उजाड़ी जा रही है। एक बड़ा तबका आज भी कड़ी मेहनत करता है। फिर भी उसको अपनी जिन्दगी चलाना मुश्किल हो रहा है। वहीं दूसरा तबका उनकी मेहनत और संसाधनों को अपने हितों में इस्तेमाल कर मालामाल होता जा रहा है; ऐसे ही लोगों का विकास राज्य का विकास और देश का विकास बताये जाने का चलन निकल पड़ा है।

इस तरह का तंत्र सिर्फ इसी प्रदेश में सक्रिय है ऐसा भी नहीं है, यह पूरे देश में बेहद मजबूत रूप में मौजूद है। जैसे केन्द्र की सरकार कह रही है कि भूमि अधिग्रहण से पहले लोगों को पूछना विकास विरोधी काम है। विकास के लिए एक ही रास्ता है, उद्योगों को लगाने के लिए किसान और आदिवासियों की जमीन लेनी ही पडेगी। श्रम कानूनों कोे कंपनियों के हितों के अनुकूल तैयार करने होंगे। विकास के लिए कंपनी और अधिकारियों को अधिकार संपन्न बनाना होगा। हम भली भांति जानते हैं कि कंपनी और अधिकारियों को अधिकार संपन्न बनाने से तानाशाही, लूट, शोषण और भ्रष्टाचार ही बढे़गा। गरीब विरोधी किसी भी फैसलों, कानूनों को हर हाल में रोका जाना चाहिए।

’’नये भारत के लिए नये उत्तराखण्ड का निर्माण हो’’ इसके लिए जरूरी है हम तीन तरह के रास्तों पर गंभीरता से सोचे। पहला है सही जनतंत्र। जिसका मतलब सिर्फ चुनाव मात्र नहीं होता, जिसमें सिर्फ कुछ नायक होते हंै। ये नायक ही जनतंत्र को अपनी सुविधाओं के अनुसाार परिभाषित करते हैं। सही जनतंत्र ही नेताओं, कंपनियों और नौकरशाहों के अपराधिक गठजोड़ को तोड़ सकता है। यह राज्य गरीब और मेहनत मजदूरी करने वाले समाज का राज्य रहा है। पलायन गरीबों की बेवशी है। जब हम सही जनतंत्र की बात करते हैं तो सरकार इन्ही बहुसंख्यक गरीब लोगों के नियंत्रण में चलनी चाहिए।

दूसरा है गरीबों का अधिकार और अधिकार संपन्न समाज। विकास के नाम पर आज सबसे ज्यादा पीडि़त है तो वह गरीब ही है। उसके श्रम का उचित दाम नहीं मिल रहा है, उनके अधिकारों के लिए कोई कानूनी सुरक्षा नहीं है। कंपनियों के लिए उसकी जमीन छीनी जा रही है।

तीसरा है श्रम और सहकार का सम्मान। आज के माहौल में श्रम ही सबसे ज्यादा उपेक्षित है। श्रम की न कीमत है और न सम्मान है। श्रमजीवी समाज की सबसे बड़ी ताकत है उसे विरासत में मिली ’’सहकार की भावना।’’ आज श्रम और सहकार पर सबसे ज्यादा हमले हो रहे हैं। उसे सम्मानित करने, उसे बचाने का मतलब है एक सबसे बड़ी आबादी को स्वाभिमान के साथ खड़ा करना। इसी रास्ते से असली विकास के द्वार खुलेंगे।

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *