शिव के वरदानी गुरू नंदीजी की पूजा अनायास भूल गये मोदी?

भोलेनाथ ने नंदी को गुरु माना है- इसलिए नंदी की पूजा अवश्‍य करनी चाहिए- शिवजी को ब्रह्महत्या के पाप को दूर कराया था नंदी जी ने जहां भी भगवान शिव की पूजा होती है, या शिव महिमा की बात होती है, वहां शिव की मूर्ति के सामने या मंदिर के बाहर शिव के वाहन नंदी जी की मूर्ति जरूर होती है, भगवान शंकर ने नंदी को वरदान दिया कि जहां पर उनका निवास होगा वहां नंदी का भी निवास होगा।
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नंदी के दर्शन और महत्व
नंदी के नेत्र सदैव अपने इष्ट को स्मरण रखने का प्रतीक हैं, नंदी पवित्रता, विवेक, बुद्धि और ज्ञान के प्रतीक हैं। उनका हर क्षण शिव को ही समर्पित है और मनुष्य को यही शिक्षा देते हैं कि वह भी अपना हर क्षण परमात्मा को अर्पित करता चले तो उसका ध्यान भगवान रखेंगे।

शिलाद मुनि के ब्रह्मचारी हो जाने के कारण वंश समाप्त होता देख उनके पितरों ने अपनी चिंता उनसे व्यक्त की। मुनि योग और तप आदि में व्यस्त रहने के कारण गृहस्थाश्रम नहीं अपनाना चाहते थे। शिलाद मुनि ने संतान की कामना हेतु इंद्र देव को तप से प्रसन्न कर जन्म और मृत्यु से हीन पुत्र का वरदान मांगा। परन्तु इंद्र ने यह वरदान देने में असर्मथता प्रकट की और भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कहा। भगवान शंकर ने शिलाद मुनि के कठोर तपस्या से प्रसन्न होकर स्वयं शिलाद के पुत्र रूप में प्रकट होने का वरदान दिया। कुछ समय बाद भूमि जोतते समय शिलाद को एक बालक मिला। शिलाद ने उसका नाम नंदी रखा। उसको बड़ा होते देख भगवान शंकर ने मित्र और वरुण नाम के दो मुनि शिलाद के आश्रम में भेजे जिन्होंने नंदी को देखकर भविष्यवाणी की कि नंदी अल्पायु है। नंदी को जब यह ज्ञात हुआ तो वह महादेव की आराधना से मृत्यु को जीतने के लिए वन में चला गया। वन में उसने शिव का ध्यान आरंभ किया। भगवान शिव नंदी के तप से प्रसन्न हुए व दर्शन वरदान दिया – वत्स नंदी! तुम मृत्यु से भय से मुक्त, अजर-अमर और अदु:खी हो। शंकर के वरदान के बाद नंदी मृत्यु से भय मुक्त, अजर-अमर और अदु:खी हो गया। भगवान शंकर ने उमा की सम्मति से संपूर्ण गणों, गणेशों व वेदों के समक्ष गणों के अधिपति के रूप में नंदी का अभिषेक करवाया। इस तरह नंदी नंदीश्वर हो गए। बाद में मरुतों की पुत्री सुयशा के साथ नंदी का विवाह हुआ। भगवान शंकर ने नंदी को वरदान दिया कि जहां पर उनका निवास होगा वहां नंदी का भी निवास होगा। तभी से हर शिव मंदिर में शिवजी के सामने नंदी की स्थापना की जाती है। नासिक शहर के प्रसिद्ध पंचवटी स्थल में गोदावरी तट के पास एक ऐसा शिवमंदिर है जिसमें नंदी नहीं है। अपनी तरह का यह एक अकेला शिवमंदिर है। पुराणों में कहा गया है कि कपालेश्वर महादेव मंदिर नामक इस स्थल पर किसी समय में भगवान शिवजी ने निवास किया था।

##शिव ने नंदी बैल को अपना वाहन चुन लिया
एक समय था , जब भगवान शिव के पास कोई वाहन न था। उन्हें पैदल ही जंगल-पर्वत की यात्रा करनी पड़ती थी। एक दिन माँ पार्वती उनसे बोलीं,‘आप तो संसार के स्वामी हैं। क्या आपको पैदल यात्रा करना शोभा देता है?’
शिव जी हँसकर बोले-‘देवी,हम तो रमते जोगी है। हमें वाहन से क्या लेना-देना? भला साधु भी कभी सवारी करते हैं?’ शिव जी ने उन्हें बार-बार समझाया परंतु वह जिद पर अड़ी रही। बिना किसी सुविधा के जंगल में रहना पार्वती को स्वीकार था परंतु वह शिवजी के लिए सवारी चाहती थीं।अब भोले भंडारी चिंतित हुए। भला वाहन किसे बनाएँ। उन्होंने देवताओं को बुलवा भेजा। नारदमुनि ने सभी देवों तक उनका संदेश पहुँचाया। सभी देवता घबरा गए। कहीं हमारे वाहन न ले लें। सभी कोई-न-कोई बहाना बनाकर अपने-अपने महलों में बैठे रहे। पार्वती उदास थीं। शिवजी ने देखा कि कोई देवता नहीं पहुँचा। उन्होंने एक हुंकार लगाई तो जंगल के सभी जंगली जानवर आ पहुँचे।
‘तुम्हारी माँ पार्वती चाहती है कि मेरे पास कोई वाहन होना चाहिए। बोलो कौन बनेगा मेरा वाहन?’
सभी जानवर खुशी से झूम उठे। सभी जानवर अपनी अपनी विशेषताओं के साथ अपना-अपना दावा जताने लगे। शिवजी ने सबको शांत कराया और बोले‘कुछ ही दिनों बाद मैं सब जानवरों से एक चीज माँगूगा, जो मुझे वह ला देगा, वही मेरा वाहन होगा।’ नंदी बैल भी वहीं खड़ा था। उस दिन के बाद से वह छिप-छिपकर शिव-पार्वती की बातें सुनने लगा। घंटों भूख-प्यास की परवाह किए बिना वह छिपा रहता। एक दिन उसे पता चल गया कि शिवजी बरसात के मौसम में सूखी लकड़ियाँ माँगेंगे। उसने पहले ही सारी तैयारी कर ली। बरसात का मौसम आया। सारा जंगल पानी से भर गया। ऐसे में शिवजी ने सूखी लकड़ियों की मांग की तो सभी जानवर एक-दूसरे मुँह ताकने लगे। बैल गया और बहुत सी लकड़ियों के गट्ठर ले आया। भगवान शिव बहुत प्रसन्न हुए। मन-ही-मन वे जानते थे कि बैल ने उनकी बातें सुनी हैं। फिर भी उन्होंने नंदी बैल को अपना वाहन चुन लिया। सारे जानवर उनकी और माँ पार्वती की जय-जयकार करते लौट गए।
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नासिक शहर के प्रसिद्ध पंचवटी इलाके में गोदावरी तट के पास कपालेश्वर महादेव मंदिर स्थित है। भगवान शिवजी ने यहाँ निवास किया था ऐसा पुराणों में कहा गया है। यह देश में पहला मंदिर है जहाँ भगवान शिवजी के सामने नंदी नहीं है। यही इसकी विशेषतः है।
एक दिन भरी इंद्रसभा में ब्रह्मदेव और शंकर में विवाद उत्पन्न हो गया। उस वक्त ब्रह्मदेव को पाँच मुख थे। चार मुख वेदोच्चारण करते थे, और पाँचवाँ निंदा करता था। उस निंदा से संतप्त शिवजी ने उस मुख को काट डाला। वह मुख उन्हें चिपक के बैठ गया। इस घटना के कारण शिव जी को ब्रह्महत्या का पाप लग गया। उस पाप से मुक्ती पाने के लिए शिवजी ब्रह्मांड में घुम रहे थे। लेकिन उन्हें मुक्ती का उपाय नहीं मिल रहा था। एक दिन वह सोमेश्वर में बैठे थे, तब उनके सामने ही एक गाय और उसका बछड़ा एक ब्राह्मण के घर के सामने खड़ा था। वह ब्राह्मण बछड़े के नाक में रस्सी डालने वाला था। बछड़ा उसके विरोध में था। ब्राह्मण की कृती के विरोध में बछड़ा उसे मारना चाहता था। उस वक्त गाय ने उसे कहा कि बेटे, ऐसा मत करो, तुम्हे ब्रह्महत्या का पातक लग जाएगा।
बछड़े ने उत्तर दिया कि ब्रह्महत्या के पातक से मुक्ती का उपाय मुझे मालूम है। यह संवाद सुन रहे शिव जी के मन में उत्सुकता जागृत हुई। बछडे ने नाक में रस्सी डालने के लिए आए ब्राह्मण को अपने सिंग से मारा ब्राह्मण मर गया। ब्रह्महत्या से बछड़े का अंग काला पड़ गया। उसके बाद बछड़ा निकल पड़ा। शिव जी भी उसके पिछे पिछे चलते गए। बछड़ा गोदावरी नदी के रामकुंड में आया। उस ने वहाँ स्नान किया। उस स्नान से ब्रह्म हत्या के पातक का क्षालन हो गया। बछड़े को अपना सफेद रंग पुनः मिल गया। उसके बाद शिवजी ने भी रामकुंड में स्नान किया। उन्हे भी ब्रह्म हत्या के पातक से मुक्ती मिली। इसी गोदावरी नदी के पास एक टेकरी थी। शिवजी वहाँ चले गए। उन्हे वहाँ जाते देख गाय का बछड़ा (नंदी) भी वहाँ आया शिवजी वहाँ चले गए। उन्हे वहाँ जाते देख गाय का बछड़ा (नंदी) भी वहाँ आया। नंदी के कारण ही शिवजी की ब्रह्म हत्या से मुक्ती हुई थी। इसलिए उन्होंने नंदी को गुरु माना और अपने सामने बैठने को मना किया। इसी कारण इस मंदिर में नंदी नहीं है। ऐसा कहा जाता है की यह नंदी गोदावरी के रामकुंड में ही स्थित है। इस मंदिर का बड़ा महत्त्व है। बारा ज्योतिर्लिंगों के बाद इस मंदिर का महत्त्व है, ऐसे माना जाता है।

केदारनाथ दर्शन का समय केदारनाथ जी का मन्दिर आम दर्शनार्थियों के लिए प्रात: 7:00 बजे खुलता है। श्री केदारनाथ मन्दिर- पाण्डव वंश के जनमेजय
• दोपहर एक से दो बजे तक विशेष पूजा होती है और उसके बाद विश्राम के लिए मन्दिर बन्द कर दिया जाता है। • पुन: शाम 5 बजे जनता के दर्शन हेतु मन्दिर खोला जाता है। • पाँच मुख वाली भगवान शिव की प्रतिमा का विधिवत श्रृंगार करके 7:30 बजे से 8:30 बजे तक नियमित आरती होती है। • रात्रि 8:30 बजे केदारेश्वर ज्योतिर्लिंग का मन्दिर बन्द कर दिया जाता है। • शीतकाल में केदारघाटी बर्फ़ से ढँक जाती है। यद्यपि केदारनाथ-मन्दिर के खोलने और बन्द करने का मुहूर्त निकाला जाता है, किन्तु यह सामान्यत: नवम्बर माह की 15 तारीख से पूर्व (वृश्चिक संक्रान्ति से दो दिन पूर्व) बन्द हो जाता है और छ: माह *बाद अर्थात वैशाखी (13-14 अप्रैल) के बाद कपाट खुलता है। • ऐसी स्थिति में केदारनाथ की पंचमुखी प्रतिमा को ‘उखीमठ’ में लाया जाता हैं। इसी प्रतिमा की पूजा यहाँ भी रावल जी करते हैं। • केदारनाथ में जनता शुल्क जमा कराकर रसीद प्राप्त करती है और उसके अनुसार ही वह मन्दिर की पूजा-आरती कराती है अथवा भोग-प्रसाद ग्रहण करती है। भगवान की पूजाओं के क्रम में प्रात:कालिक पूजा, महाभिषेक पूजा, अभिषेक, लघु रुद्राभिषेक, षोडशोपचार पूजन, अष्टोपचार पूजन, सम्पूर्ण आरती, पाण्डव पूजा, गणेश पूजा, श्री भैरव पूजा, पार्वती जी की पूजा, शिव सहस्त्रनाम आदि प्रमुख हैं। मन्दिर-समिति द्वारा केदारनाथ मन्दिर में पूजा कराने हेतु जनता से जो दक्षिणा (शुल्क) लिया जाता है, उसमें समिति समय-समय पर परिर्वतन भी करती है।

केदारनाथ मन्दिर भारत के उत्तराखण्ड राज्य के रूद्रप्रयाग जिले में स्थित है। उत्तराखण्ड में हिमालय पर्वत की गोद में केदारनाथ मन्दिर बारह ज्योतिर्लिंग में सम्मिलित होने के साथ चार धाम और पंच केदार में से भी एक है। यहाँ की प्रतिकूल जलवायु के कारण यह मन्दिर अप्रैल से नवंबर माह के मध्यय ही दर्शन के लिए खुलता है। पत्थमरों से बने कत्यूरी शैली से बने इस मन्दिर के बारे में कहा जाता है कि इसका निर्माण पाण्डव वंश के जनमेजय ने कराया था। यहाँ स्थित स्वयम्भू शिवलिंग अति प्राचीन है। आदि शंकराचार्य ने इस मन्दिर का जीर्णोद्धार करवाया।
जून २०१३ के दौरान भारत के उत्तराखण्ड और हिमाचल प्रदेश राज्यों में अचानक आई बाढ़ और भूस्खलन के कारण केदारनाथ सबसे अधिक प्रभावित क्षेत्र रहा। मंदिर की दीवारें गिर गई और बाढ़ में बह गयी। इस ऐतिहासिक मन्दिर का मुख्य हिस्सा और सदियों पुराना गुंबद सुरक्षित रहे लेकिन मन्दिर का प्रवेश द्वार और उसके आस-पास का इलाका पूरी तरह तबाह हो गया।
केदारनाथ की बड़ी महिमा है। उत्तराखण्ड में बद्रीनाथ और केदारनाथ-ये दो प्रधान तीर्थ हैं, दोनो के दर्शनों का बड़ा ही माहात्म्य है। केदारनाथ के संबंध में लिखा है कि जो व्यक्ति केदारनाथ के दर्शन किये बिना बद्रीनाथ की यात्रा करता है, उसकी यात्रा निष्फल जाती है और केदारनापथ सहित नर-नारायण-मूर्ति के दर्शन का फल समस्त पापों के नाश पूर्वक जीवन मुक्ति की प्राप्ति बतलाया गया है।
इस मन्दिर की आयु के बारे में कोई ऐतिहासिक प्रमाण नहीं है, पर एक हजार वर्षों से केदारनाथ एक महत्वपूर्ण तीर्थयात्रा रहा है। राहुल सांकृत्यायन के अनुसार ये १२-१३वीं शताब्दी का है। ग्वालियर से मिली एक राजा भोज स्तुति के अनुसार उनका बनवाय हुआ है जो १०७६-९९ काल के थे।[4] एक मान्यतानुसार वर्तमान मंदिर ८वीं शताब्दी में आदि शंकराचार्य द्वारा बनवाया गया जो पांडवों द्वारा द्वापर काल में बनाये गये पहले के मंदिर की बगल में है। मंदिर के बड़े धूसर रंग की सीढ़ियों पर पाली या ब्राह्मी लिपि में कुछ खुदा है, जिसे स्पष्ट जानना मुश्किल है। फिर भी इतिहासकार डॉ शिव प्रसाद डबराल मानते है कि शैव लोग आदि शंकराचार्य से पहले से ही केदारनाथ जाते रहे हैं। १८८२ के इतिहास के अनुसार साफ अग्रभाग के साथ मंदिर एक भव्य भवन था जिसके दोनों ओर पूजन मुद्रा में मूर्तियाँ हैं। “पीछे भूरे पत्थर से निर्मित एक टॉवर है इसके गर्भगृह की अटारी पर सोने का मुलम्मा चढ़ा है। मंदिर के सामने तीर्थयात्रियों के आवास के लिए पण्डों के पक्के मकान है। जबकि पूजारी या पुरोहित भवन के दक्षिणी ओर रहते हैं। श्री ट्रेल के अनुसार वर्तमान ढांचा हाल ही निर्मित है जबकि मूल भवन गिरकर नष्ट हो गये।”[5][6] केदारनाथ मन्दिर रुद्रप्रयाग जिले मे है उत्तरकाशी जिले मे नही
यह मन्दिर एक छह फीट ऊँचे चौकोर चबूतरे पर बना हुआ है। मन्दिर में मुख्य भाग मण्डप और गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा पथ है। बाहर प्रांगण में नन्दी बैल वाहन के रूप में विराजमान हैं। मन्दिर का निर्माण किसने कराया, इसका कोई प्रामाणिक उल्लेख नहीं मिलता है, लेकिन हाँ ऐसा भी कहा जाता है कि इसकी स्थापना आदि गुरु शंकराचार्य ने की थी।
मन्दिर की पूजा श्री केदारनाथ द्वादश ज्योतिर्लिगों में से एक माना जाता है। प्रात:काल में शिव-पिण्ड को प्राकृतिक रूप से स्नान कराकर उस पर घी-लेपन किया जाता है। तत्पश्चात धूप-दीप जलाकर आरती उतारी जाती है। इस समय यात्री-गण मंदिर में प्रवेश कर पूजन कर सकते हैं, लेकिन संध्या के समय भगवान का श्रृंगार किया जाता है। उन्हें विविध प्रकार के चित्ताकर्षक ढंग से सजाया जाता है। भक्तगण दूर से केवल इसका दर्शन ही कर सकते हैं। केदारनाथ के पुजारी मैसूर के जंगम ब्राह्मण ही होते हैं।
• इस ज्योतिर्लिंग की स्थापना का इतिहास संक्षेप में यह है कि हिमालय के केदार श्रृंग पर भगवान विष्णु के अवतार महातपस्वी नर और नारायण ऋषि तपस्या करते थे। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर प्रकट हुए और उनके प्रार्थनानुसार ज्योतिर्लिंग के रूप में सदा वास करने का वर प्रदान किया। यह स्थल केदारनाथ पर्वतराज हिमालय के केदार नामक श्रृंग पर अवस्थित हैं।
• पंचकेदार की कथा ऐसी मानी जाती है कि महाभारत के युद्ध में विजयी होने पर पांडव भ्रातृहत्या के पाप से मुक्ति पाना चाहते थे। इसके लिए वे भगवान शंकर का आशीर्वाद पाना चाहते थे, लेकिन वे उन लोगों से रुष्ट थे। भगवान शंकर के दर्शन के लिए पांडव काशी गए, पर वे उन्हें वहां नहीं मिले। वे लोग उन्हें खोजते हुए हिमालय तक आ पहुंचे। भगवान शंकर पांडवों को दर्शन नहीं देना चाहते थे, इसलिए वे वहां से अंतध्र्यान हो कर केदार में जा बसे। दूसरी ओर, पांडव भी लगन के पक्के थे, वे उनका पीछा करते-करते केदार पहुंच ही गए। भगवान शंकर ने तब तक बैल का रूप धारण कर लिया और वे अन्य पशुओं में जा मिले। पांडवों को संदेह हो गया था। अत: भीम ने अपना विशाल रूप धारण कर दो पहाडों पर पैर फैला दिया। अन्य सब गाय-बैल तो निकल गए, पर शंकर जी रूपी बैल पैर के नीचे से जाने को तैयार नहीं हुए। भीम बलपूर्वक इस बैल पर झपटे, लेकिन बैल भूमि में अंतध्र्यान होने लगा। तब भीम ने बैल की त्रिकोणात्मक पीठ का भाग पकड़ लिया। भगवान शंकर पांडवों की भक्ति, दृढ संकल्प देख कर प्रसन्न हो गए। उन्होंने तत्काल दर्शन देकर पांडवों को पाप मुक्त कर दिया। उसी समय से भगवान शंकर बैल की पीठ की आकृति-पिंड के रूप में श्री केदारनाथ में पूजे जाते हैं। ऐसा माना जाता है कि जब भगवान शंकर बैल के रूप में अंतर्ध्यान हुए, तो उनके धड़ से ऊपर का भाग काठमाण्डू में प्रकट हुआ। अब वहां पशुपतिनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। शिव की भुजाएं तुंगनाथ में, मुख रुद्रनाथ में, नाभि मदमदेश्वर में और जटा कल्पेश्वर में प्रकट हुए। इसलिए इन चार स्थानों सहित श्री केदारनाथ को पंचकेदार कहा जाता है। यहां शिवजी के भव्य मंदिर बने हुए हैं।
• चौरीबारी हिमनद के कुंड से निकलती मंदाकिनी नदी के समीप, केदारनाथ पर्वत शिखर के पाद में, कत्यूरी शैली द्वारा निर्मित, विश्व प्रसिद्ध केदारनाथ मंदिर (३,५६२ मीटर) की ऊँचाई पर अवस्थित है। इसे १००० वर्ष से भी पूर्व का निर्मित माना जाता है। जनश्रुति है कि इसका निर्माण पांडवों या उनके वंशज जन्मेजय द्वारा करवाया गया था। साथ ही यह भी प्रचलित है कि मंदिर का जीर्णोद्धार जगद्गुरु आदि शंकराचार्य ने करवाया था। मंदिर के पृष्ठभाग में शंकराचार्य जी की समाधि है। राहुल सांकृत्यायन द्वारा इस मंदिर का निर्माणकाल १०वीं व १२वीं शताब्दी के मध्य बताया गया है। यह मंदिर वास्तुकला का अद्भुत व आकर्षक नमूना है। मंदिर के गर्भ गृह में नुकीली चट्टान भगवान शिव के सदाशिव रूप में पूजी जाती है। केदारनाथ मंदिर के कपाट मेष संक्रांति से पंद्रह दिन पूर्व खुलते हैं और अगहन संक्रांति के निकट बलराज की रात्रि चारों पहर की पूजा और भइया दूज के दिन, प्रातः चार बजे, श्री केदार को घृत कमल व वस्त्रादि की समाधि के साथ ही, कपाट बंद हो जाते हैं। केदारनाथ के निकट ही गाँधी सरोवर व वासुकीताल हैं। केदारनाथ पहुँचने के लिए, रुद्रप्रयाग से गुप्तकाशी होकर, २० किलोमीटर आगे गौरीकुंड तक, मोटरमार्ग से और १४ किलोमीटर की यात्रा, मध्यम व तीव्र ढाल से होकर गुज़रनेवाले, पैदल मार्ग द्वारा करनी पड़ती है।
• मंदिर मंदाकिनी के घाट पर बना हुआ हैं भीतर अन्धकार रहता है और दीपक के सहारे ही शंकर जी के दर्शन होते हैं। शिवलिंग स्वयंभू है। सम्मुख की ओर यात्री जल-पुष्पादि चढ़ाते हैं और दूसरी ओर भगवान को घृत अर्पित कर बाँह भरकर मिलते हैं, मूर्ति चार हाथ लम्बी और डेढ़ हाथ मोटी है। मंदिर के जगमोहन में द्रौपदी सहित पाँच पाण्डवों की विशाल मूर्तियाँ हैं। मंदिर के पीछे कई कुण्ड हैं, जिनमें आचमन तथा तर्पण किया जा सकता है।

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