मोदी ने एक बड़ा दांव खेला है

;; चुनाव के नतीजे भी मोदी के समर्थन में जा सकते हैं. मोदी ने अपना गढ़ और उत्तर प्रदेश जीतने के लिए जमकर मेहनत की है. मोदी की चुनावी रणनीति को समझना मुश्किल ही नहीं नामुमकिन है , कांग्रेस ने मोदी से खतरा काफी पहले ही भांप लिया था, गुजरात के मुख्‍यमंत्री रहते हुए उनको घेरने की भरसक कोशिश की गयी, लेकिन मोदी की राजनीति के आगे सब फेल हुए, देश के प्रधानमंत्री बन गये,  कालेधन, भ्रष्ट्रचार के मुद्दे पर नकेल कसने के लिए नोटबंदी का बड़ा दांव खेल दिया. लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए नरेन्द्र मोदी ने एक बड़ा दांव खेला है, ऐसा दांव खेलने की हिम्मत शायद किसी में नहीं हुई 

file photo; The Prime Minister, Shri Narendra Modi arrives at the release of Special Commemorative Postage Stamp on 100 years of Yogoda Satsang Math, at Vigyan Bhawan, in New Delhi on March 07, 2017.

मोदी को मालूम था कि अगर बीजेपी उत्तर प्रदेश में हारी तो 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की जीत मुश्‍किल हो जायेगी , भारत के प्रधानमंत्री को एक विधानसभा चुनाव में घर-घर जाकर वोट मांगते देखना दिलचस्प भी था और भ्रमित करने वाला भी. दिलचस्प इसलिए क्योंकि भारत के इतिहास में आज तक किसी प्रधानमंत्री ने कुछ विधानसभा सीटों के लिए नुक्कड़-चौराहे की राजनीति नहीं की थी. लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी सातों दिन, चौबीस घंटे नेता के अवतार में ही रहते हैं. व्यवहारिक प्रचारक हैं, जो कोई चीज किस्मत पर नहीं छोड़ना चाहते. इस वजह से एक के बाद दूसरा रोड शो करने का उनका फैसला समझ में आता है.  मोदी ने उत्तरप्रदेश चुनाव को प्रतिष्ठा का सवाल बना दिया है चूंकि ये चुनाव हारे तो उनकी साख पर सवाल खड़ा हो जाएगा इसीलिए वाराणसी में तीन दिन रहकर 30 घंटे से ज्यादा समय चुनाव प्रचार में लगा दिये.  लेकिन उनका यह फैसला भ्रमित करने वाला था क्योंकि इससे इस चुनाव में बीजेपी के अवसरों के बारे में मिले-जुले संकेत भी जाते हैं. बीजेपी के प्रवक्ता और नेता जब ये कहते हैं कि वो 250 सीटें जीतेंगे तो उनके चेहरे से आत्मविश्वास टपक रहा होता है. लेकिन अगर सच में ऐसा है तो प्रधानमंत्री को ‘यूपी के लड़कों – राहुल गांधी और अखिलेश यादव’ की तरह अपने ही गढ़ में पसीना बहाने की ज़रूरत क्यों पड़ी. राहुल और अखिलेश ने वाराणसी में अपने रोड शो में भारी भीड़ जुटाई थी.

;;; चुनाव के नतीजे भी मोदी के समर्थन में जा सकते हैं.

अखिलेश ने जहां टिकट बंटवारे में यादव, मुस्लिम और ठाकुर को तरजीह देने की कोशिश की वहीं मायावती ने मुस्लिम, दलित और ब्राह्मण पर जोर दिया वहीं बीजेपी ने अगड़ी जाति और यादवों को छोड़कर पिछड़ी जाति और अति पिछड़ी जाति पर थोक के भाव से टिकट देने का काम किया. जैसे मुस्लिम वोटर बीजेपी को वोट नहीं दे सकते हैं उसी तरह यादव मायवती और दलित अखिलेश को वोट नहीं दे सकते हैं.दलित और यादव वोटर भी दूसरे विकल्प के तौर पर बीजेपी को अपना सकते हैं. कहा जाता है कि मायावती दलित की नेता हैं तो अखिलेश यादव मुस्लिम के नेता हैं ऐसी स्थिति में अति पिछड़ा वर्ग और यादव छोड़कर पिछड़ा वर्ग बीजेपी के साथ सहज महसूस कर रहें हैं क्योंकि इनके छोटे मोटे नेता की पहचान और झलक बीजेपी में दिख रही है. अगर वाकई जमीन स्तर पर भी यही समीकरण काम कर रहा है तो इस चुनाव के नतीजे भी मोदी के समर्थन में जा सकते हैं.

 

वाराणसी पर प्रधानमंत्री के ध्यान देने के पीछे तीन वजहें गिनाई जा सकती हैं. एक, वो चुनाव अभियान को एक खुमार के साथ और कामयाबी के साथ ख़त्म करना चाहते थे. दो, नतीजा त्रिशंकु विधानसभा रहने की संभावना है और बीजेपी हर सीट जीतने की कोशिश कर रही है. और तीन, बीजेपी  प्रधानमंत्री के अपने ही संसदीय क्षेत्र में मुश्किल मुकाबलों में फंसी है.

खंडित जनादेश से भी इनकार नहीं किया जा सकता. पूर्वी उत्तर प्रदेश के अलावा चुनाव में कोई लहर नहीं दिखी, जहां बीजेपी को बढ़त मिलती नजर आ रही है. सारी लड़ाई सीट-दर-सीट रह गई है. जातिगत समीकरण, उम्मीदवार का चयन, स्थानीय मुद्दे और वजहें ही हर सीट पर परिणाम तय करेंगे.

चुनाव की अनिश्चितता सट्टा बाजार में भी दिखाई देती है, जो पिछले एक महीने में कभी इस ओर, तो कभी उस ओर झुका है. सिर्फ एक महीना पहले दांव एसपी-कांग्रेस गठबंधन के 220 सीट जीतने पर लग रहे थे और बीजेपी 100 से नीचे सिमटती नजर आ रही थी. अब सट्टा बाजार का अनुमान त्रिशंकु विधानसभा और बीजेपी के सबसे बड़ी पार्टी बनकर उभरने की है.

अगर अजित सिंह के राष्ट्रीय लोकदल ने खेल न बिगाड़ा होता तो शायद पहले चरण में बीजेपी का प्रदर्शन और बेहतर रहा होता. अजित सिंह की पार्टी ने बीजेपी से बड़ी संख्या में जाट वोट छीन लिए.

इससे आरएलडी को भले ज्यादा सीटें न मिलें लेकिन अच्छी-खासी सीटों पर बीजेपी की उम्मीदों को चोट पहुंची है. वाराणसी में प्रधानमंत्री के प्रचार का शायद मकसद यही हो कि अंतिम चरण में जितनी सीटें संभव हों जुटा ली जाएं ताकि बीजेपी बहुमत के करीब पहुंच सके.

हालांकि दिल्ली में लोगों का मानना है कि भाजपा पूर्वी उत्तर प्रदेश में बाकी पार्टियों का सफाया कर देगी, लेकिन एसपी-कांग्रेस गठबंधन को भी अंतिम चरण की 40 सीटों को लेकर काफी उम्मीदें हैं.

कांग्रेस के प्रचार अभियान संयोजक शशांक शुक्ला ने फ़र्स्टपोस्ट को बताया कि गठबंधन भाजपा से ज्यादा सीटें जीतेगा. उन्होंने कहा, ‘बीजेपी जिस इलाके को अपना गढ़ बताती है वहां हमसे पीछे छूट जाएगी. अंतर ज्यादा भले न हो, बीजेपी पीछे ही रहेगी.’

अब जब कि दोनों ही पक्ष अपनी जीत को लेकर आश्वस्त हैं, बीजेपी के लिए जरूरी है कि वो अंतिम दौर में बड़ी जीत हासिल करे. और शायद प्रधानमंत्री की भी यही कोशिश है.

कांग्रेस ने पिछले साल जब वाराणसी से अपने अभियान की शुरुआत की थी तब, सोनिया गांधी ने रोड शो में भारी भीड़ जुटाकर सबको हैरान कर दिया था. लगता है कि वो रफ्तार अब भी बरकरार है. अखिलेश और राहुल के रोड शो में भारी भीड़ जुटी, जिससे संकेत मिलता है कि वाराणसी का मतदाता बदलाव के बारे में सोच सकता है.

वाराणसी की आठ सीटों में से समाजवादी पार्टी-कांग्रेस गठबंधन आठ सीटों पर कड़ी टक्कर दे रहा है. इसके चार उम्मीदवार अजय राय (पिंडरा), राजेश मिश्रा (वाराणसी दक्षिण), अनिल श्रीवास्तव (वाराणसी कैंट) और सुरेंद्र पटेल (रोहनिया) आगे निकलते दिख रहे हैं. वाराणसी दक्षिण में समद अंसारी ने बीजेपी के लिए मुश्किलें खड़ी कर दी हैं.

श्यामदेव ‘दादा’ रॉय चौधरी जैसे दिग्गजों की बगावत से बीजेपी की समस्याएं और बढ़ गईं. श्याम देव वाराणसी दक्षिण से सात बार विधायक रहे हैं और इस बार उनका टिकट काट दिया गया.

खबरें हैं कि इस अपमान से नाराज उनके समर्थकों ने समाजवादी पार्टी-कांग्रेस के गठबंधन के पक्ष में काम किया और बीजेपी के गढ़ में सेंध लगाने में उनकी मदद की है.

हालांकि वाराणसी पहुंचे प्रधानमंत्री ने उन्हें मनाने की कोशिश की लेकिन जनता के मन में अगर ये बात घर कर गई कि ‘अगर मोदी दादा को दगा दे सकते हैं, तो हमें भी दे सकते हैं’ तो बीजेपी को दिक्कत हो सकती है.

11 मार्च को ही पता चलेगा कि जीत किसकी होगी. लेकिन इस वक्त तो लगता है कि मोदी ने अपना गढ़ और उत्तर प्रदेश जीतने के लिए जमकर मेहनत की है.

 

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CHANDRA SHEKHAR JOSHI- EDITOR 

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