3March; देदून में जुटेगे शराब कारोबारी; शीरे की गुपचुप नीलामी?

उत्‍तराखण्‍ड शुगर मिलों का शीरा नीलामी आनन फानन में क्‍यों ? शराब का कारोबार शीरे की भारी कमी से जूझ रहा है। डिस्टलरियों पर संकट के बादल गहराने लगे हैं। ऐसे में उत्‍तराखण्‍ड की शुगर मिलों का बेशकीमती शीरा शराब कारोबारियों को बाजार दर से कम दर पर बेचने की सांठगांठ? 

देहरादून 3 मार्च शीरे की नीलामी गुपचुप क्‍यों – इस मामले में रिकार्ड अच्‍छा नही रहा है- फिर विगत वर्ष भी शीरे की नीलामी बाजार दर से कम रेट पर गुपचुप कर दी गयी थी- #जुलाई 2016 में मीडिया की सुर्खियां थी कि शराब माफिया का हाथ से ;नियम-कानून और व्यवस्था का मखौल – शीरा (Molasses) एक मोटा द्रव है जो गन्ने के रस से या चुकन्दर से शक्कर बनाते समय सह-उत्पाद के रूप में प्राप्त होता है। देखने में यह कुछ मधु जैसा दिखता है। शोरे से शराब बनायी जाती है।

Execlusive Report: www.himalayauk.org (Leading Digital Newsportal)by CS JOSHI- EDITOR

उत्तराखंड शासन ने देशी मदिरा आसवनियों को शीरे की आपूर्ति के लिए नीलामी 3 मार्च 2017 को देहरादून में तय तो कर दी है परन्‍तु इसका व्‍यापक प्रचार प्रसार नही किया गया । इससे शीरे की आपूर्ति का राज्‍य को उचित लाभ नही मिल पाने की संभावना पैदा हो गयी है, विगत वर्ष भी शीरे की नीलामी प्रचलित बाजार दर से कम दर पर नीलामी करनी पडी थी, इससे राज्‍य के खजाने को बहुत नुकसान हुआ, इससे यह संभावना भी बलबती हो गयी है कि क्‍या ऐसा जानबूझ कर तो नही हो रहा, उत्‍तराखण्‍ड की शुगर मिलों के शीरे का खुले बाजार की प्रति क्विंटल की वर्तमान दर से अपेक्षाकृत कम कीमत पर निपटान होता रहा है। इससे मिलों की प्रतिस्पध्र्दात्मकता पर विपरीत प्रभाव पड़ता । गन्ना उत्पादन में कमी और इसके परिणामस्वरूप वर्तमान सीजन में शीरे के उत्पादन में कमी होने के आसार को देखते हुए भी शीरा निपटान गुपचूप कर दिया जाता है।

उत्‍तराखण्‍ड में शराब का कारोबार शीरे की भारी कमी से जूझ रहा है। डिस्टलरियों पर संकट के बादल गहराने लगे हैं। सरकारी नीति का यह हाल है कि जिस आसवानी की नीव देश् के प्रथम प्रधानमंत्री पं0 जवाहर लाल नेहरू ने रखी थी, बाजपुर आसवानी बंद होने के कगार पर है जबकि काशीपुर में इंडिया ग्लाेयकोल्‍य परवान चढती जा रही है, यह सब सूबे के नौकरशाहों के आशीर्वाद से फलफूल रही है,

उत्तराखंड में पांच चीनी मिलों के पेराई सीजन के बीच में ही बंद होने से इस बात की आशंका बढ़ गई है कि चालू वर्ष में चीनी उत्पादन 50 प्रतिशत तक घट सकता है। गन्ने के रकबे के कम होने के बाद के आकलन से पता चलता है कि गन्ने के उत्पादन में भी 20 से 30 फीसदी की कमी आई है।
चीनी का उत्पादन घटने की प्रमुख वजह भी यही है। किसानों का भुगतान बकाया होने से भी किसानों की दिलचस्पी गन्ने की खेती में कम हुई है। राज्य के कुल 10 चीनी मिलों में पांच पहले ही बंद हो चुकी हैं तथा दो और गन्ने की कमी के कारण बंद होने की कगार पर हैं।
गन्ने के उत्पादन में 50 प्रतिशत की कमी लगातार आ रही हैं। जिससे चीनी का उत्पादन भी गिरता जा रहा है।
सीजन में पेराई की अवधि भी औसत 90 दिनों की रह गई है। पेराई मुश्‍किल से 120 दिनों तक चल पा रही है। गन्ने की खेती में किसानों की कम होती दिलचस्पी काफी महत्वपूर्ण है। उधम सिंह नगर, हरिद्वार और नैनिताल जिले के किसान पहले ही अन्य फसलों का रुख कर चुके हैं।
जुलाई 2016 में मीडिया की सुर्खियां थी कि; शराब माफिया का हाथ से ;नियम-कानून और व्यवस्था का मखौल
उत्‍तराखण्‍ड में इससे पूर्व नियम-कानून और व्यवस्था का मखौल उड़ाते हुए आबकारी एक्ट के तहत शीरा नीति में बड़ा संशोधन कर दिया गया था। इसके लिए कैबिनेट की बैठक को रास्ता बनाया गया और महज एक प्रस्ताव पास कराकर मंशा पूरी कर ली गई। आठ जून 16 को हुई कैबिनेट की बैठक में आबकारी आयुक्त से शीरे की खुले बाजार में होने वाली बिक्री की अनुमति का अधिकार छीनने संबंधी प्रस्ताव पास कराया गया, जबकि इस प्रकार का संशोधन कैबिनेट की बैठक मात्र से होना संभव नहीं है। इस संबंध में अधिकृत आदेश भी जारी किया। चर्चा थी कि इसके पीछे शराब माफिया का हाथ है। नियंत्रण समाप्त होने से कालाबाजारी तो बढ़ेगी ही अधिकाधिक शीरे के बेरोकटोक उठान में भी आसानी होगी। राज्य की चीनी मिलों में उत्पादित शीरे की बिक्री के लिए शीरा नीति लागू है। राज्य गठन के बाद से इसी नीति के तहत चीनी मिलों में उत्पादित शीरे का निस्तारण किया जाता है।

इसके तहत 10 फीसदी शीरा पशु आहार बनाने वाली कंपनियों को और 20 फीसदी शीरा देसी शराब बनाने के लिए आरक्षित होता है। इसके अलावा शेष शीरे को शीरा नियंत्रक (आबकारी आयुक्त) की अनुमति से स्वतंत्र बिक्री के लिए रखा जाता है। इसकी लिखित सूचना प्रत्येक माह आबकारी आयुक्त को भेजी जाती है कि कितना शीरा किसे और कहां बेचा गया। यह व्यवस्था शीरे की बिक्री पर आयुक्त स्तर से मॉनिटरिंग के मकसद से की गई थी। मगर अचानक इस अधिकार को बीती आठ जून को हुई कैबिनेट की बैठक में विभाग के अपर मुख्य सचिव डॉ. रणवीर सिंह द्वारा एक प्रस्ताव पेश करके आबकारी आयुक्त से छीन लिया गया। यानी स्वतंत्र बिक्री के लिए आरक्षित शीरे की खरीद और उठान के लिए प्रदेश की डिस्टलरियों को आयुक्त से अनुमति लेने की आवश्यकता नहीं रहेगी। इसका आदेश जारी किया जाएगा। गौरतलब है कि शीरा बेहद संवेदनशील वस्तु है, जिसके प्रत्येक लेनदेन पर निगरानी बेहद आवश्यक है। प्रमुख समाचार पत्रों में प्रकाशित हुआ था कि यह कदम शराब माफिया के दबाव में उठाया गया था, जिससे देसी शराब समेत अन्य केमिकल इंडस्ट्री में इसके इस्तेमाल में ज्यादा रोकटोक न हो सके।

ऐसे है गड़बड़ी की संभावना
उत्तर प्रदेश शीरा नियंत्रण अधिनियम के सेक्शन 22 में शीरा नीति बनाए जाने की बात कही गई है, जबकि इसी एक्ट की धारा 7-ए में आबकारी आयुक्त को शीरा बिक्री के नियंत्रण संबंधी अधिकार प्राप्त हैं। चीनी मिल में गन्ने की पेराई के वक्त शीरे की चोरी की संभावना सर्वाधिक होती है। गुपचुप तरीके से शीरा बेचकर इसमें पानी मिला दिया जाता है, जिससे माप पूरी नजर आती है। अगर शीरे को टैंक में मापा जाए तो भी झाग की वजह से माप सही नहीं आ सकती है। इस बात की पूरी संभावना है कि नियंत्रण समाप्त किए जाने से चोरी किए गए शीरे का सौदा डिस्टलरियों से होगा, क्योंकि वहां मनमाफिक कीमत मिलेगी। इसके अलावा इस प्रकार तैयार होने वाली शराब भी अवैध होगी, जिससे राजस्व की हानि भी तय है।

प्रदेश में शीरा नीति का निर्धारण उत्तर प्रदेश शीरा नियंत्रण अधिनियम-1964 (उत्तराखंड सरकार में यथा अनुकूलित एवं उपांतरित) की धारा-22 के अंतर्गत किया जाता है। नियमानुसार एक्ट में कोई भी संशोधन तभी संभव है, जब कैबिनेट से प्रस्ताव पास करके उसे विधानसभा में रखकर पास किया जाए। इसके अतिरिक्त आवश्यकता पड़ने पर अध्यादेश जारी करके राज्यपाल की अनुमति से भी ऐसा किया जा सकता है, मगर इस दशा में भी 42 दिन के भीतर विधानसभा से पास करना अनिवार्य है। मगर यहां केवल कैबिनेट में प्रस्ताव पास करके संशोधन किया गया, जिससे नियमों का मखौल उड़ रहा है।

प्रदेश में राष्‍टपति शासन के दौरान उत्तराखंड शासन ने हरीश रावत सरकार की विवादित आबकारी नीति एफएल-2 को बदल दिया था. नई नीति के तहत शराब कंपनियों मंडी समिति की बजाय स्वयं अपने सभी ब्रांड बाजार में उतारने की अनुमति दे दी . हरीश रावत सरकार की विवादित शराब नीति को बदलते हुए शराब कंपनियों को बाजार में अपने ब्रांड बेचने का अधिकार दे दिया था. तथा नई आबकारी नीति को लागू कर दिया गया था .इससे पूर्व चुनिंदा ब्रांड की ही शराब लेने की बाध्‍यता कर दी गयी थी, नई नीति से शराब के सभी ब्रांड बाजार में आने की अनुमति दी गयी थी,. तथा शासन ने मंडी समितियों से शराब बेचने के अधिकार वापस ले लिए थे . गौरतलब है कि हरीश रावत सरकार की आबकारी नीति एफएल-2 काफी विवादों में रही है. एफएल-2 में गड़बड़ियों को लेकर पूर्व सीएम हरीश रावत के निजी सचिव मो. शाहिद का स्टिंग भी कुछ महीने पहले सामने आ चुका है. एफएल-2 का मामला हाईकोर्ट में भी विचाराधीन है.

चीनी मिलों से निकला शीरा गोदाम में टैंकर से ले जाया जाता है। रास्ते में उसमें से शीरे की हेराफेरी की जाती है। यह शीरा ढाबों के जरिए कच्ची के कारोबारियों तक पहुंचाया जाता है। कई रसूखदार सफेदपोश भी इस काले कारोबार में लिप्त होते हैं।

देशी शराब अर्थात जो शराब बड़े बड़े कारखानों और मद्यनिष्कर्षशालाओं के बजाय गाँवों में छोटे स्तर पर और उपलब्ध सीमित संसाधनों से बनाई जाती है। जहाँ एक ओर ये हमारी सामाजिक और सांस्कृतिक धरोहर है वहीं दूसरी ओर सस्ती मदिरा के रूप में बहुत सी सामाजिक बुराइयों की जड़ है। यहाँ पर यह स्पष्ट कर देना आवश्यक है कि सामान्यतया देशी शराब के ठेकों पर मिलने वाली शराब औद्योगिक स्पिरिट से बनाई जाती है और ये इस पोस्ट में बताई जाने वाली देशी शराब से भिन्न है। औद्योगिक स्पिरिट बड़े स्तर पर चीनी मिलों से जुड़ी मद्यनिष्कर्षशालाओं में शीरे से बनाया जाता है। पीये जा सकने वाले एल्कॉहल (potable alcohol) पर लगने वाले भारी करों से बचने के लिये इसमें 5% मिथाइल एल्कॉहल मिला दिया जाता है। देशी शराब के ठेकों पर इसका आसवन करके इसमें से मिथाइल एल्कॉहल अलग किया जाता है और कुछ पूरक तत्व मिलाकर इससे देशी शराब बनाई जाती है। यदि इसमें 0.3% से अधिक मिथाइल एल्कॉहल बचा रह जाता है तो शराब जहरीली होती है और इसे पीना प्राणघातक हो सकता है।

एथेनॉल (Ethanol) एक प्रसिद्ध अल्कोहल है। इसे एथिल अल्कोहल भी कहते हैं। इसको तैयार करने की दो विभिन्न विधियाँ हैं : साधारणत: ऐल्कोहल शीरे से, जो शक्कर और चुकंदर के मिलों में व्यर्थ बचा पदार्थ है, बनाया जाता है। शीरे में लगभग ३० से ३५ प्रतिशत तक गन्ने की शक्कर तथा लगभग इतना ही ग्लुकोस और फ्रुंक्टोस घुला रहता है। शोरे में इतना ही जल मिलाया जाता है जितने से उसका आपेक्षिक घनत्व १.०३ से लेकर १.०४ तक हो जाता है। जीवाणुओं तथा अन्य अनावश्यक किण्वों की वृद्धि रोकने के लिए इस घोल में सल्फ़्यूरिक अम्ल की कुछ बूंदें डाल देते हैं। अब इसमें थोड़ा सा यीस्ट डालकर इसे ३०°-४०° सेंटीग्रेड ताप पर रख देते हैं। लगभग ४०-५० घंटों में किण्वीकरण समाप्त हो जाता है। इस प्रकार से शीरे की लगभग ९५% शक्कर विच्छिन्न होकर ऐल्कोहल और कार्बन-डाइ-आक्साइड में परिवर्तित हो जाती है।

स्टार्चमय पदार्थों को पहले छोटे-छोटे टुकड़े कर या पानी के साथ पीसकर तप्त भाप में उबालते हैं। स्टार्चमय पदार्थ लेई की तरह हो जाता है; इसे हलवा (अंग्रेजी में मैश) कहते हैं। मैश में थोड़ा माल्ट निष्कर्ष मिलाकर ५५°-६०° सेंटीग्रेड ताप पर रख देते हैं। माल्ट निष्कर्ष में विद्यमान डायस्टेस-एंज़ाइम द्वारा स्टार्च का उद्विघटन होकर माल्टोस बनता है। इस क्रिया में लगभग आध घंटा लगता है और जो द्रव इस प्रकार मिलता है उसे क्वाथ (अंग्रेजी में वर्ट) कहते हैं। क्वाथ को उबालकर इसमें विद्यमान डायस्टेस को नष्ट कर देते हैं; इसे २०° सें. ताप तक ठंडा कर इसमें यीस्ट डालते हैं और फिर इसे २०°-३७° सें. के बीच रख छोड़ते हैं। यीस्ट में विद्यमान माल्टेस-एंज़ाइम माल्टोस को उद्विघटित कर ग्लूकोस में परिवर्तित करता है। इस ग्लूकोस को फिर ज़ाइमेस-एंज़ाइम द्वारा विघटित कर एल्कोहल प्राप्त करते हैं। इस प्रकार से एल्कोल बनाने में ३-४ दिन लगते हैं।

किण्वीकरण के बाद जो द्रव मिलता है उसे धोवन (वाश) कहते हैं; इसमें एल्कोहल लगभग १०-१५% तक होता है; इसका प्रभाजित आसवन करने पर जो द्रव मिलता है उसमें लगभग ९५.६% एल्कोहल होता है; इसको रेक्टिफ़ायड स्परिट कहते हैं। प्रभाजित आसवन के लिए कई प्रकार के भभके उपयोग में आते हैं। भारत तथा इंग्लैंड में कॉफे भभके का अधिक प्रचलन है; इसके द्वारा एक ही बार में आसवन से रेक्टिफ़ायड स्पिरिट प्राप्त की जाती है। इस गैलन शीरे से लगभग ०.४ गैलन रेक्टिफ़ायड स्पिरिट प्राप्त होता है। इस रेक्टिफ़ायड स्पिरिट में एल्कोहल के अतिरिक्त थोड़ी मात्रा में ऐसिटेल्डिहाइड, ग्लिसरीन, सकसिनिक अम्ल और फ़्यूज़ेल तेल अशुद्धि के रूप में रहते हैं। इन अशुद्धियों को अलग करने के लिए इसको पहले लकड़ी के कोयले के छन्ने द्वारा छानते हैं और फिर प्रभाजित आसवन द्वारा प्रथम, द्वितीय और अंतिम स्रव-अंश प्रात करते हैं जिनमें क्रमश: ऐसिटैल्डिहाइड, रेक्टिफ़ायड स्पिरिट तथा फ़्यूज़ेल तेल रहता है।

रेक्टिफ़ायड स्पिरिट से जलरहित विशुद्ध ऐल्कोहल बनाने की साधारण विधि यह है कि इसमें थोड़ा बरी का चूना डाल देते हैं; एक दो दिन के बाद ऐल्कोहल को निथारकर आसवन पात्र में रखकर सोडियम या कैल्सियम के ताज़े कटे छोटे-छोटे थोड़े से टुकड़े डालकर इसे तुरंत आसवित करते हैं। ग्राहक पात्र में हवा से जलवाष्प न जा सके इसके लिए उसमें कैल्सियम क्लोराइड से भरी हुई एक नली लगा दी जाती है। व्यापारिक विधि में रेक्टिफ़ायड स्पिरिट में बेंज़ीन मिलाकर बेंज़ीन, ऐल्कोहल और जल तीनों के समक्वाथी त्रय-मिश्रण को गर्म करते हैं। ऐल्कोहल में जितना जल रहता है वह सब इस त्रय-मिश्रण के रूप में ६४.९° सें. तक बाहर निकल जाता है। मिश्रण में अब केवल बेंज़ीन और ऐल्कोहल रह जाता है। इस द्वय-मिश्रण के ६८.३° सें. पर आसवित होकर निकल जाने पर विशुद्ध ऐल्कोहल ७८.३ सें. पर आसवित होता है।

साधारणत: पेय ऐल्कोहल पर भारी कर लगाया जाता है। उद्योगविस्तार के लिए औद्योगिक ऐल्कोहल का सस्ता मिलना आवश्यक है। इसलिए उसपर कर या तो नहीं लगता है या बहुत कम। लोग उसे पी सकें, इस उद्देश्य से प्रत्येक देश में करमुक्त ऐल्कोहल में कुछ ऐसे विषैले और अस्वास्थ्यकर पदार्थों को मिलाते हैं जिससे वह अपेय हो जाए किंतु अन्य कार्यों अनुपयुक्त न होने पाए। अधिकांश देशें में रेक्टिफ़ायड स्पिरिट में ५ से १० प्रतिशत तक मेथिल ऐल्कोहल और ०.५% पिरीडीन मिला देते हैं और उसे मेथिलेटेड स्पिरिट कहते हैं। मेथिल ऐल्कोहल के कारण ही मेथिलेटेड स्पिरिट नाम पड़ा है। किंतु आजकल बहुत से विकृत ऐल्कोहलों में मेथिल ऐल्कोहल बिल्कुल नहीं रहता। भारत में विकृत स्पिरिट में साधारणत: ०.५% पिरीडीन और ०.५% पतला रबर स्राव रहता है। right|thumb|300px|तरह-तरह के अल्कोहली पेय सभी प्रकार की मदिरा में एथिल ऐल्कोहल होता है। कुछ प्रचलित आसुत (डिस्टिल्ड) मदिराओं के नाम ह्विस्की, ब्रांडी, रम जिन और बॉडका हैं। इनको क्रमानुसार जौ, अंगूर, शीरा, मकई और नीवारिका से बनाते हैं और इनमें ऐल्कोहल क्रमानुसार ४०, ४०, ४०, ३५-४० और ४५ प्रतिशत होता है। वियर, वाइन, शैपेन, पोर्ट, शेरी और साइडर कुछ मुख्य निरासुत मदिराएँ हैं; वियर जौ से तथा और सब दूसरी सब अंगूर से बनाई जाती हैं; इनमें ऐल्कोहल की मात्रा ३ से २० प्रतिशत तक होती है।

मदिरा तथा अन्य ऐल्कोहलीय द्रवों में ऐल्कोहल की मात्रा ज्ञात करने की विधि को ऐल्कोहलमिति कहते हैं। इसके लिए एक तालिका तैयार कर ली जाती है जिसमें विभिन्न आपेक्षिक घनत्वों के ऐल्कोहललीय द्रवों में विभिन्न तापों पर ऐल्कोहल की प्रतिशत मात्रा दी रहती है। अज्ञात ऐल्कोहलीय द्रव का आपेक्षिक घनत्व हाइड्रोमीटर से तथा ताप तापमापी से ज्ञात कर तालिका की सहायता से उस द्रव में उपस्थित ऐल्कोहल की प्रतिशत मात्रा ज्ञात कर ली जाती है। कर लगाने की सुविधा के लिए एक निश्चित प्रतिशत के ऐल्कोहलीय द्रव को प्रामाणिक मान लिया गया है; इसको प्रूफ़ स्पिरिट कहते हैं; इसमें मात्रा के अनुसार ४९.३% तथा आयतन के अनुसार ५७.१% ऐल्कोहल रहता है। अन्य ऐल्कोहलीय द्रवों की सांद्रता प्रूफ़ स्पिरिट के आधार पर व्यक्त की जाती है।

ऐल्कोहलीय किण्वीकरण में ऐल्कोहल के अतिरिक्त निम्नलिखित मूल्यवान्‌ पदार्थ भी सहउत्पाद (बाई प्रॉडक्ट) के रूप में प्राप्त होते हैं :

१. कार्बन डाइ-आक्साइड- किण्वीकरण के समय यह गैस अधिक मात्रा में निकलती है। साधारणत: इसे ठंडा कर ठोस में परिवर्तित करके शुष्क हिम के नाम से बाजार में बेचते हैं। इसका उपयोग बहुत ठंडक पैदा करने के लिए होता है।

२. एर्गाल या टार्टार – शक्करयुकत पदार्थों का किण्वीकरण जिस पात्र में होता है उसकी भीतरी दीवारों पर एक मटमैल रंग की कड़ी पपड़ी जम जाती है। इसको एर्गाल या टार्टार कहते हैं। इसमें मुख्य रूप से पोटैशियम हाइड्रोजन टारटरेट रहता है जिससे टारटरिक अम्ल अधिक मात्रा में बनाई जाती है।

३. वाश के आसवन के प्रथम अंश ऐसिटैल्डिहाइड तथा दूसरे उड़नशील एस्टर होते हैं।

४. फ़्यूज़ेल तेल – यह अधिक अणुभारवाले ऐक्लाकोहलों का मिश्रण होता है। इसमें से आइसो अमाइल ऐल्कोहल को प्रभालित आसवन द्वारा पृथक्‌ कर लेते हैं, क्योंकि यह एक उत्तम विलेयक है।

५. निर्जीव धोवन – आसवन द्वारा ऐल्काहल को धोवन (वाश) में से अलग करने के बाद जो शेष द्रव तलछट के रूप में बच रहता है उसे निर्जीव धोवन कहते हैं। स्टार्चमय पदार्थों की चर्बी तथा प्रोटीन का अधिकांश भाग अविघटित रूप में निर्जीव धोवन में रहता है, इसलिए यह जानवरों के पौष्टिक चारे के लिए उपयोग में आता है।

उद्योग में एथिल ऐल्कोहल की उपयोगिता इसकी अत्युत्तम विलेयक शक्ति के कारण है। इसका उपयोग वार्निश, पालिश, दवाओं के घोल तथा निष्कर्ष, ईथर, क्लोरोफ़ार्म, कृत्रिम रंग, पारदर्शक साबुन, इत्र तथा फल की सुगंधों का निष्कर्ष और अन्य रासायनिक यौगिक बनाने में होता है। पीने के लिए विभिन्न मदिराओं के रूप में, घावों को धोने में जीवाणुनाशक के रूप में तथा प्रयोगशाला में घोलक के रूप में इसका उपयोग होता है। पीने को औषधियों में यह डाला जाता है और मरे हुए जीवों को संरक्षित रखने में भी इसका उपयोग होता है। रेआन ऐसिटेट उद्योग के लिए ऐसीटिक अम्ल की पूर्ति मैंगनीज़ पराक्साइड तथा सल्फ़्यूरिक अम्ल की उपस्थिति में ऐल्कोहल का आक्सीकरण करके होती है, क्योंकि यह क्रिया शीघ्र होती है और इससे ऐसीटिक अम्ल तथा ऐसिटैल्डिहाइड प्राप्त होते हैं। स्पिरिट लैंप तथा स्टोव में और मोटर इंजनों में पेट्रोल के साथ इसको ईंधन के रूप में जलाते हैं। इसके अधिक उड़नशील न होने के कारण मोटर को चलाने में कठिनाई न हो इस उद्देश्य से इसमें २५% ईथर या पेट्रोल मिलाते हैं।

HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND (www.himalayauk.org)

Leading Web & Print Media: Mail; csjoshi_editor@yahoo.in Mob. 9412932030

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *