है हमारे हाथ में ही, कल हमारे देश का,

है हमारे हाथ में ही कल हमारे देश का,
आईये संरक्षण करे, प्रकृति के इस भण्डार का।

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लेखिका – डॉ कविता रायजादा
दयालबाग़ शैक्षणिक संस्थान – आगरा
विषय – प्रकृति का संरक्षण
सूर्य हमारा आराध्य ! संसार की आत्मा ! सूर्य की किरणे प्राकृतिक महा ओषधि ! पर कब तक ?
कब तक सूर्य हमें ऊर्जा और स्वास्थ्य देता रहेगा । शायद अधिक समय तक नहीं । आखिर क्यू ? क्यूकि जिम्मेदार है मनुष्य और उसकी करतुते ।
अब सूर्य आराध्य देव नहीं सबसे बड़ा शत्रु बन जाएगा। कारण गर्मी का प्रचण्ड भयानक रूप और बर्फ का पिघलना। कभी हमने सोचा है आखिर इसमें सूर्य का क्या दोष है। दोष तो है अहंकार से चूर मानव का , जो प्रकृति और पर्यावरण से जमकर खिलवाड़ कर रहा है।
चारो ओर जंगलो की अवैध कटाई , हवा और पानी में विषैली गैसें , हर तरफ गंदगी का साम्राज्य , परमाणु हथियार और रेडियोधर्मी विकिरण । फलस्वरूप प्रचण्ड गर्मी का प्रकोप। मानव सहित पशु पक्षी भी व्याकुल। चारों तरफ हाहाकार।
क्या सह पायेगा यह ? भूमिगत संसाधनों की खोज के लिए धरती का अँधाधुंध दोहन। यही नहीं अभी तो बहुत कुछ होना बाकी है। ऋतूचक्र अव्यवस्थित, बाढ़ व सूखे का प्रकोप, तूफ़ान भूकम्प और सुनामी जैसी आपदाओं का सिलसिला और धीरे धीरे धरती का बढ़ता तापमान ।
हुए परीक्षण परमाणु के अम्बर तक को भेद दिया ।
धरा को इतना गर्म किया कि ओजोन तक में छेद किया।
भूकंपो की झड़ी लगी अब, सुनामी तक का आह्वान किया ।
चंदन काटा, पीपल काटा, स्वर्ग धरा को उजाड़ दिया।
प्रकृति की एक छोटी सी रचना, मनुष्य इतना क्या क्षमतावान हो गया है कि विशाल व अनंत प्रकृति को चुनोती देकर उसे उजाड़ने का दुःसाहस कर रहा है।
उसके इसी दुःसाहस का परिणाम है कि गर्भावस्था के दौरान शरीर में कई आंतरिक परिवर्तन, त्वचा बेजान , सूर्य की घातक पैराबैंगनी किरणों से भयंकर नुकसान, किरणों के संपर्क में आने पर शरीर में हार्मोन्स का बढ़ना, पिगमेंट्स कोशिकाओं का गुणात्मक अवस्था में बढ़ना। रसायनों का त्वचा के जरिये रक्त कोशिकाओं में प्रवेश । बच्चे के जन्म से पूर्व बीमारियों का अम्बार, गर्भावस्था में ही तड़पन और जन्म लेते ही वेंटीलेटर तैयार।
आखिर हम चाहते क्या है ? हम ऐसा क्यू कर रहे है ? अपने बच्चों के दुश्मन हम स्वयं बन रहे हैं । हममे और किसी कातिल में अंतर क्या रहा। कातिल तो मारता है किसी अनजान या दुश्मन को लेकिन हम तो कर रहे है हत्या वो भी अपने खून की । प्रकृति और मनुष्य के अंतसंबंधो पर पश्चिमी दृष्टि इतनी हावी हो गयी है कि यह भूलता जा रहा है कि भारतीय परम्पराओं को अपने आदर्शो, अपने संस्कारों को जिसका उद्देश्य है प्रकृति का शोषण नहीं उसका संरक्षण।
है हमारे हाथ में ही कल हमारे देश का,
आईये संरक्षण करे, प्रकृति के इस भण्डार का।

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