उत्‍तराखण्‍ड में अब एशिया के सबसे बडे बॉध की तैयारी- १३४ गांव उजडेगे

उत्तराखंड के लगभग १३४ गांव उजाडे जायेगे -एशिया का सबसे बडा बॉध #एशिया के इस सबसे बडे बांध के लिए उत्तराखंड के लगभग १३४ गांव उजाडे जायेगे ; इससे पूर्व टिहरी बॉध के लिए सैकडो गाव उजाडे गये, जिनका विस्‍थापन आज तक पूर्ण नही हो पाया- तीन जिले के १३४ डूब और दर्जनों ¬प्रभावित गांवों के विस्थापन को लेकर प्रश्न उठने लगा हैं।

हिमालयायूके की बडी रिपोर्ट

पंचेश्वर बॉध से अब कूमाय में बडे पैमाने पर होगा विस्थापन
पानी मिले तो उस पर बॉध बनवा दो, और बाकी पहाड को खनन के नाम पर खुदवा दो # प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बडा अभिशाप #पहाडों में होने वाले इस विनाश के असर से मैदानों के लोग भी नहीं बच पाएंगे#

देहरादून (हि०गौ०उ० ब्यूरो)। उत्तराखंड में पंचेश्वर बांध के निर्माण के लिए कयावद तेज हो गई है। नेपाल में चुनाव होने के कारण प्रकिया धीमी हो गई थी। अब भारत सरकार ने बांध निर्माण की प्रकिया तेज कर दी है। बांध निर्माण में तेजी के बाद उत्तराखंड के लगभग १३४ गांवों के लोगों को विस्थापन की चिंता सताने लगी है। भारत सरकार विस्थापन के लिए राज्य सरकार से नीति बनवा रही है। दुनिया का दूसरा और एशिया का सबसे बडा पंचेश्वर बांध बनने जा रहा हैं. जिसके लेकर कयावद तेज हो गई है. इस बांध ५०४० मेघावाट बिजली उत्पादन का लक्ष्य इस बांध से रखा हैं। तीन जिले के १३४ डूब और दर्जनों ¬प्रभावित गांवों के विस्थापन को लेकर प्रश्न उठने लगा हैं।
केंद्रीय मंत्री अजय टम्टा ने बताया कि भारत और नेपाल की सीमा पर बनने इस बांध की लंबाई करीब ९० किमी है। उन्होंने बताया कि बांध की डीपीआर नेपाल सरकार को भेज दी गई है. मई के पहले हफ्ते में भारत की एक टीम नेपाल जाएगी और डीपीआर की फाइनल करेगी।
अजय टम्टा ने बताया कि राज्य सरकार ने पुनर्वास योजना का ड्राफ्ट तैयार कर लिया है। केंद्र और राज्य सरकार की सहमति के बाद ही इसे लागू किया जाएगा। केंद्रीय मंत्री ने बताया कि दस साल की अवधि में यह बांध बनकर तैयार हो जाएगा। विपक्ष में बैठी कांग्रेस इतने बडे बांध का विरोध कर रही हैं. इसके साथ ही सरकारों पर विस्थापन की नीति स्पष्ट न होने का आरोप भी लगा रही है। वहीं पर्यवारणविद् भी विशालकाय बांध को खतरा बता रहे हैं। भूकंप प्रभावित जोनपांच में स्थित अल्मोडा, पिथौरागढ और चंपावत के बीच में बांध के बनने से भविष्य के लिए खतरे की भी चिंता हो रही हैं। पंचेश्वर बांध निर्माण से पहले ही राज्य में बांध का तेजी से विरोध होने लगा हैं। इस बांध के बनने से टनकपुर-बागेश्वर रेल लाईन भी खटाई में पड जाएगी। लोगों को कई दशकों की रेल लाईन की लडाई का अस्तित्व मिट जाएगा. अगर बांध निर्माण से पहले प्रभावितों का विस्थापन नहीं हुआ तो टिहरी की तरह लोग विस्थापन के लिए आंदोलन तक ही सीमित रह जाएंगे।

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Uttrakhand & All Over India; CS JOSHI- EDITOR

पंचेश्वर बॉध से अब कूमाय में बडे पैमाने पर होगा विस्थापन
पानी मिले तो उस पर बॉध बनवा दो, और बाकी पहाड को खनन के नाम पर खुदवा दो # प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बडा अभिशाप #पहाडों में होने वाले इस विनाश के असर से मैदानों के लोग भी नहीं बच पाएंगे#
-चन्द्रशेखर जोशी की रिपोर्ट-
प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध उत्तराखंड का दोहन कर उसे खोखला बनाने का काम राज्य के नुमाइंदों द्वारा करवाया जा रहा है। पानी मिले तो उस पर बॉध बनवा दो, और बाकी पहाड को खनन के नाम पर खुदवा दो।

टिहरी बांध का दंश राज्य के गरीब लोग पहले ही देख चुके हैं. अब नेपाल सीमा से लगे पंचेश्वर में सरकार एक और विशालकाय बांध बनाने जा रही है. ये बांध दुनिया का दूसरा सबसे ऊंचा बांध होगा। ये योजना नेपाल सरकार और भारत सरकार मिलकर चलाने वाली हैं। इससे छह हजार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की बात की जा रही है. इसमें भी बडे पैमाने पर लोगों का विस्थापन होना है और उनकी खेती योग्य उपजाऊ जमीन बांध में समा जानी है। इस तरह प्राकृतिक संसाधनों से समृद्ध होना ही आज उत्तराखंड के लिए सबसे बडा अभिशाप बन गया है। सारे हालात को देखकर ऐसा लग रहा है कि एक दिन उत्तराखंड के पहाडी इलाकों में सिर्फ बांध ही बांध नजर आएंगे। नदियां सुरंगों में चली जाएंगी. जो इलाके बचेंगे उन में खनन का काम चलेगा। इस विकास को देखने के लिए लोग कोई नहीं बचेंगे. तब पहाडों में होने वाले इस विनाश के असर से मैदानों के लोग भी नहीं बच पाएंगे।

एक तरफ भारत सरकार ने गंगा को राष्ट्रीय नदी घोषित किया है लेकिन उसकी मूल नदी भागीरथी अब पहाडी घाटियों में ही खत्म होती जा रही है। अपने उद्गम स्थान गंगोत्री से थोडा आगे बढकर हरिद्वार तक उसको अपने नैसर्गिक प्रााह में देखना अब मुश्किल हो गया है। गंगोत्री के कुछ करीब से एक सौ तीस किलोमीटर दूर धरासू तक नदी को सुरंग में डालने से धरती की सतह पर उसका अस्तित्व खत्म सा हो गया है। उस इलाके में बन रही सोलह जल विद्युत परियोजनाओं की वजह से भागीरथी को धरती के अंदर सुरंगों में डाला जा रहा है. बाकी प्रस्तावित परियोजनाओं के कारण आगे भी हरिद्वार तक उसका पानी सतह पर नहीं दिखाई देगा या वो नाले की शक्ल में दिखाई देगी। मनेरी-भाली परियोजना की वजह से भागीरथी को सुरंग में डालने से अब घाटी में नदी की जगह पर सिर्फ कंकड दिखाई देते हैं. यही हालत गंगा की दूसरी मुख्य सहायक नदी अलकनंदा की भी है। लामबगड में सुरंग में डाल देने की वजह से उसका भी पानी धरती की सतह पर नहीं दिखाई देता. नदी की जगह वहां भी पत्थर ही पत्थर दिखाई देते हैं. आगे गोविंदघाट में पुष्पगंगा के मिलने से अलकनंदा में कुछ पानी जरूर दिखाई देने लगता है।

ये हाल तो गंगा की प्रमुख सहायक नदियों भागीरथी और अलकनंदा का है। उत्तराखंड से निकलने वाली बाकी नदियों से साथ भी सरकार यही बर्ताव कर रही है. जिस वजह से धीरे-धीरे पहाडों का जीवन अपार जल संपदा के होने के बाद भी हर लिहाज से शुष्क होता जा रहा है। एक अनुमान के मुताबिक राज्य में सुरंगों में डाली जाने वाली नदियों की कुल लंबाई करीब पंद्रह सौ किलोमीटर होगी। इतने बडे पैमाने पर अगर नदियों को सुरंगों में डाला गया तो जहां कभी नदियां बहती थीं वहां सिर्फ नदी के निशान ही बचे रहेंगे. इससे उत्तराखंड की जैव विविधता पर क्या असर पडेगा। इसका अनुमान आसानी से लगाया जा सकता है. विकास के नाम पर कुदरत के साथ इस तरह का मजाक जारी रहा तो विकास चाहे जिसका हो नदियों से भौतिक और सांस्कृतिक तौर पर गहरे जुडे लोगों का जीना जरूर मुश्किल हो जाएगा. इन सभी चिंताओं को केंद्र में रखकर उत्तराखंड के विभिन्न जन संगठनों ने मिलकर नदी बचाओ आंदोलन शुरू किया है. लेकिन हैरत की बात ये है कि पर्यावरण से हो रही इतनी बडी छेडछाड को लेकर राष्ट्रीय या अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कोई चर्चा नहीं हो रही है.

अनुमान लगाया जा सकता है कि अगर पहाडी नदियों को रोककर सुरंगों में डाला गया तो इससे नदी किनारे बसे गांवों के लिए अस्तित्व का संकट पैदा हो जाएगा. इस बात की शुरूआत हो भी चुकी है. जिन जगहों पर नदियों को सुरंगों में डाला जा चुका है. वहां लोगों के खेत और जंगल सूखने लगे हैं। पानी के नैसर्गिक स्रोत गायब हो गए हैं. सुरंगों के ऊपर बसे गांवों में कई तरह की अस्वाभाविक भूगर्वीय हलचल दिखाई देने लगी हैं. कहीं घरों में दरारें पड गई हैं तो कहीं पर जमीन धंसने लगी है. चार सौ मेगावॉट की विष्णुपयाग विद्युत परियोजना की वजह से चांई गांव में मकान टूटने लगे हैं. भूस्खलन के डर से वहां के कई परिवार तंबू लगाकर खेतों में सोने को मजबूर हैं।
जिन पहाडियों में सुरंग बन रही हैं. वहां बडे पैमाने पर बारूदी विस्फोट किए जा रहे हैं. जिससे वहां भूस्खलन का खतरा बढ गया है. जोशीमठ जैसा ऐतिहासिक और पौराणिक महत्व का नगर भी पर्यावरण से हो रहे इस मनमाने खिलवाड की वजह से खतरे में आ गया है. उसके ठीक नीचे पांच सौ बीस मेगावॉट की विष्णुगाड-धौली परियोजना की सुरंग बन रही है। डरे हुए जोशीमठ के लोग कई मर्तबा आंदोलन कर अपनी बात सरकार तक पहुंचाने की कोशिश कर चुके हैं। कुमाऊं के बागेश्वर जिले में भी सरयू नदी को सुरंग में डालने की योजना पर अमल शुरू हो चुका है। ग्रामीण इसके खिलाफ आंदोलन चला रहे हैं. जिले के मुनार से सलिंग के बीच का ये इलाका उन्नीस सौ सत्तावन में भूकंप से बडी तबाही झेल चुका है. इसलिए यहां के ग्रामीण किसी भी हालत में सरयू नदी को सुरंग में नहीं डालने देना चाहते. यहां भी जनता के पास अपने विकास के रास्ते चुनने का अधिकार नहीं है।

उत्तराखंड में नदियों को सुरंग में डालने का विरोध कई तरह से देखने को मिल रहा है. एक तो इससे सीधे प्रभावित लोग और पर्यावरणविद् विरोध कर रहे हैं. दूसरा उत्तराखंड की नदियों को पवित्र और मिथकीय नदियां मानने वाले धार्मिक लोग भी विरोध में उतरे हैं. लेकिन बांध बनाने का काम शुरू कर चुकी सरकार किसी भी हालत में पीछे हटने को तैयार नहीं लगती. इसकी एक बडी वजह सरकार में निजी ठेकेदारों की गहरी बैठ है. ये मामला सिर्फ धार्मिक आस्था का नहीं बल्कि उससे कहीं ज्यादा उत्तराखंड के लोगों के भौतिक अस्तित्व से जुडा है।

उत्तराखंड को अलग राज्य बने हुए करीब १७ साल हो गए हैं. लेकिन आज भी वहां पर लोगों के पीने के पानी की समस्या हल नहीं हो पाई है. ये हाल तब है जब उत्तराखंड पानी के लिहाज से सबसे समृद्ध राज्यों में से एक है. ठीक यही हाल बिजली का भी है. उत्तराखंड में बनने वाली बिजली राज्य से बाहर सस्ती दरों पर उद्योगपतियों को तो मिलती है लेकिन राज्य के ज्यादातर गांवों में आज तक बिजली की रोशनी नहीं पहुंच पाई है. वहां एक पुरानी कहावत प्रचलित रही है कि पहाड की जवानी और पहाड का पानी कभी उसके काम नहीं आता. उत्तराखंड राज्य की मांग के पीछे लोगों की अपेक्षा जुडी थी कि एक दिन उन्हें अपने प्राकृतिक संसाधनों पर अधिकार मिल पाएगा, विकास का नया मॉडल सामने आएगा और युवाओं का पलायन रुकेगा. लेकिन हकीकत में इसका बिल्कुल उल्टा हो रहा है।

उत्तराखंड या मध्य हिमालय दुनिया के पहाडों के मुकाबले अपेक्षाकृत नया और कच्चा पहाड है. इसलिए वहां हर साल बडे पैमाने पर भूस्खलन होते रहते हैं. भूकंपीय क्षेत्र होने की वजह से भूकंप का खतरा भी हमेशा बना रहता है. ऐसे में विकास योजनाओं को आगे बढाते हुए इन बातों की अनदेखी जारी रही तो वहां पर आने वाले दिन तबाही के हो सकते हैं, जिसकी सबसे ज्यादा जिम्मेदार हमारी सरकारें होंगी। उत्तराखंड के पहाडी इलाकों में पर्यावरण के खिलवाड के खिलाफ आंदोलनों की लंबी परंपरा रही है. चाहे वो चिपको आंदोलन हो या टिहरी बांध विरोधी आंदोलन. लेकिन राज्य और केंद्र सरकारें इस हिमालयी राज्य की पारिस्थिकीय संवेदनशीलता को नहीं समझ रही है. सरकारी जिद की वजह से टिहरी में बडा बांध बनकर तैयार हो गया है. लेकिन आज तक वहां के विस्थापितों का पुनर्वास ठीक से नहीं हो पाया है. जिन लोगों की सरकार और प्रशासन में कुछ पहुंच थी वे तो कई तरह से फायदे उठा चुके हैं लेकिन बडी संख्या में ग्रामीणों और गरीबों को उचित मुआवजा नहीं मिल पाया है. ये भी नहीं भूला जा सकता कि इस बांध ने टिहरी जैसे एक ऐतिहासिक और सांस्कृतिक शहर को भी डुबाया है. यहां के कई विस्थापितों को तराई की गर्मी और समतल जमीन पर विस्थापित किया गया. पहाडी लोगों को इस तरह उनकी इच्छा के विपरीत एक बिल्कुल ही विपरीत आबो-हवा में भेज देना कहां तक जायज था इस पर विचार करने की जरूरत कभी हमारी सरकारों ने नहीं समझी. सरकारों ने जितने बडे पैमाने पर बिजली उत्पादन के दावे किए थे वे सब खोखने साबित हुए हैं. वहां सिर्फ एक हजार मेगावॉट ही बिजली पैदा हो पा रही है. जबिक योजना दो हजार चार सौ मेगावॉट बिजली पैदा करने की थी. सबसे बडी बात कि इससे राज्य के लोगों की जरूरत पूरा करने के लिए राज्य सरकार के पास अधिकार भी नहीं हैं।

दुनियाभर के भूगर्ववैज्ञानिक इस को कई बार कह चुके हैं कि हिमालयी पर्यावरण ज्यादा दबाव नहीं झेल सकता इसलिए उसके साथ ज्यादा छेडछाड ठीक नहीं. लेकिन इस बात को समझने के लिए हमारी सरकारें बिल्कुल तैयार नहीं हैं. कुछ वक्त पहले हिमालयी राज्यों के कुछ सांसदों ने मिलकर लोकसभा में एक अलग हिमालयी नीति बनाने को लेकर आवाज उठाई थी लेकिन उसका भी कोई असर कहीं दिखाई नहीं देता. हिमालय के लिए विकास की अलग नीति की वकालत करने वालों में से एक महत्वपूर्ण सांसद प्रदीप टम्टा उत्तराखंड के अल्मोडा-पिथौरागढ सीट से चुने गए हैं. कांग्रेस के नेता बनने से पहले वे चिपको और उत्तराखंड के जनआंदोलनों से जुडे रहे, लेकिन अब वे भी अपने पार्टी हितों को तरजीह देते हुए राज्य में पर्यावरण से हो रहे खिलवाड के खिलाफ कुछ नहीं बोल पा रहे हैं।

आज पहाडी इलाकों में विकास के लिए एक ठोस वैकल्पिक नीति की जरूरत है. जो वहां की पारिस्थितिकी के अनुकूल हो. ऐसा करते हुए वहां की सामाजिक, सांस्कृतिक और भूगर्वीय स्थितियों का ध्यान रखा जाना जरूरी है. इस बात के लिए जब तक हमारी सरकारों पर चौतरफा दबाव नहीं पडेगा तब तक वे विकास के नाम पर अपनी मनमानी करती रहेंगी और तात्कालिक स्वार्थों के लिए कुछ स्थानीय लोगों को भी अपने पक्ष में खडा कर विकास का भ्रम खडा करती रहेंगी. लेकिन एक दिन इस सब की कीमत आने वाली पीढियों को जरूर चुकानी होगी. आज उत्तराखंड में अनगिनत बांध ही नहीं बन रहे हैं बल्कि कई जगहों पर अवैज्ञानिक तरीके से खडिया और मैग्नेसाइट का खनन भी चल रहा है. इसका सबसे ज्यादा बुरा असर अल्मोडा और पिथौरागढ जिलों में पडा है. इस वजह से वहां भूस्खलन लगातार बढ रहे हैं। नैनीताल में भी बडे पैमाने पर जंगलों को काटकर देशभर के अमीर लोग अपनी ऐशगाह बना रहे हैं. अपने रसूख का इस्तेमाल कर वे सरकार को पहले से ही अपनी मुट्ठी में रखे हुए हैं. पर्यारण से हो रही इस छेडछाड की वजह से ग्लोबल वार्मिंग का असर उत्तराखंड में लगातार बढ रहा है. वहां का तापमान आश्चर्यजनक तरीके से घट-बढ रहा है. ग्लेशियर लगातार पिघल रहे हैं.

By: CHANDRA SHEKHAR JOSHI- EDITOR Mob. 9412932030 Mail us; himalayauk@gmail.com 

 

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