यहां का आध्यात्मिक वातावरण और पवित्र निवास – दुनिया भर में प्रसिद्ध

Our Rare To Rarest Execlusive Report: for Himalayauk बगलामुखी मंदिर हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जनपद के कोटला क़स्बा में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। यह मंदिर हिन्दू धर्म के लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है। बगलामुखी का यह मंदिर महाभारत कालीन माना जाता है। पांडुलिपियों में माँ के जिस स्वरूप का वर्णन है, माँ उसी स्वरूप में यहाँ विराजमान हैं। मां के इस शक्तिपीठ में जो भी भक्त सच्ची श्रद्धा से दर्शन के लिए आया उसके दुश्मनों का सम्पूर्ण विनाश हुआ। युद्ध में विजय प्राप्ति के लिए रावण और मेघनाथ ने भी यहां पूजा अर्चना की।  मां पीतवर्ण के वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले रंग के पुष्पों की ही माला धारण करती हैं। ‘बगलामुखी जयंती’ पर यहाँ मेले का आयोजन भी किया जाता है। ‘बगलामुखी जयंती’ पर हर वर्ष देश के विभिन्न राज्यों से लोग आकर अपने कष्टों के निवारण के लिए हवन, पूजा-पाठ करवाते हैं।  माँ बगलामुखी का मंदिर ज्वालामुखी से 22 किलोमीटर दूर ‘वनखंडी’ नामक स्थान पर स्थित है। मंदिर का नाम ‘श्री 1008 बगलामुखी वनखंडी मंदिर’ है। राष्ट्रीय राजमार्ग पर कांगड़ा हवाईअड्डे से पठानकोट की ओर 25 किलोमीटर दूर कोटला क़स्बे में पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर के चारों ओर घना जंगल व दरिया है। यह माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना द्वापर युग में पांडवों द्वारा अज्ञातवास के दौरान एक ही रात में की गई थी, जिसमें सर्वप्रथम अर्जुन एवं भीम द्वारा युद्ध में शक्ति प्राप्त करने तथा माता बगलामुखी की कृपा पाने के लिए विशेष पूजा की गई थी। माता बगलामुखी का दस महाविद्याओं में 8वाँ स्थान है तथा इस देवी की आराधना विशेषकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए की जाती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माता बगलामुखी की आराधना सर्वप्रथम ब्रह्मा एवं विष्णु ने की थी। इसके उपरांत परशुराम ने माता बगलामुखी की आराधना करके अनेक युद्धों में शत्रुओं को परास्त करके विजय पाई थी। द्रोणाचार्य, रावण, मेघनाद इत्यादि सभी महायोद्धाओं द्वारा माता बगलामुखी की आराधना करके अनेक युद्ध लड़े गए। नगरकोट के महाराजा संसार चंद कटोच भी प्राय: इस मंदिर में आकर माता बगलामुखी की आराधना किया करते थे। इनके आशीर्वाद से उन्होंने कई युद्धों में विजय पाई थी। तभी से इस मंदिर में अपने कष्टों के निवारण के लिए श्रद्धालुओं का निरंतर आना आरंभ हुआ।

बगलामुखी मंदिर हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जनपद के कोटला क़स्बा में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। यह मंदिर हिन्दू धर्म के लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है। बगुलामुखी का यह मंदिर महाभारत कालीन माना जाता है। पांडुलिपियोंमें माँ के जिस स्वरूप का वर्णन है, माँ उसी स्वरूप में यहाँ विराजमान हैं। ये पीतवर्ण के वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले रंग के पुष्पों की ही माला धारण करती हैं। ‘बगलामुखी जयंती’ पर यहाँ मेले का आयोजन भी किया जाता है। ‘बगलामुखी जयंती’ पर हर वर्ष हिमाचल प्रदेश के अतिरिक्त देश के विभिन्न राज्यों से लोग आकर अपने कष्टों के निवारण के लिए हवन, पूजा-पाठ करवाकर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं।

माता बगलामुखी का दस महाविद्याओं में 8वाँ स्थान है तथा इस देवी की आराधना विशेषकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए की जाती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माता बगलामुखी की आराधना सर्वप्रथम ब्रह्मा एवं विष्णु ने की थी। इसके उपरांत परशुराम ने माता बगलामुखी की आराधना करके अनेक युद्धों में शत्रुओं को परास्त करके विजय पाई थी।[1] बगलामुखी जयंती पर मंदिर में हवन करवाने का विशेष महत्व है, जिससे कष्टों का निवारण होने के साथ-साथ शत्रु भय से भी मुक्ति मिलती है। द्रोणाचार्य,  रावण, मेघनादइत्यादि सभी महायोद्धाओं द्वारा माता बगलामुखी की आराधना करके अनेक युद्ध लड़े गए। नगरकोट के महाराजा संसार चंद कटोच भी प्राय: इस मंदिर में आकर माता बगलामुखी की आराधना किया करते थे, जिनके आशीर्वाद से उन्होंने कई युद्धों में विजय पाई थी। तभी से इस मंदिर में अपने कष्टों के निवारण के लिए श्रद्धालुओं का निरंतर आना आरंभ हुआ और श्रद्धालु नवग्रह शांति, ऋद्धि-सिद्धि प्राप्ति सर्व कष्टों के निवारण के लिए मंदिर में हवन-पाठ करवाते हैं।

 मंदिर की प्रबंधन समिति द्वारा श्रद्धालुओं के लिए व्यापक स्तर पर समस्त सुविधाएँ उपलब्ध करवाई गई हैं। लंगर के अतिरिक्त मंदिर परिसर में पेयजल, शौचालय, ठहरने की व्यवस्था तथा हवन इत्यादि करवाने का विशेष प्रबंध है

यह ‘बगलामुखी मंदिर’ कोटला क़स्बा, कांगड़ा (हिमाचल प्रदेश) में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। यह मंदिर हिन्दू धर्म के लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है। माना जाता है कि मंदिर की स्थापना द्वापर युग में पांडवों द्वारा अज्ञातवास के दौरान एक ही रात में की गई थी। मंदिर ज्वालामुखी से 22 किलोमीटर दूर ‘वनखंडी’ नामक स्थान पर स्थित है। यहाँ प्राचीन शिवालय में आदमकद शिवलिंगस्थापित है, जहाँ लोग माता के दर्शन के उपरांत शिवलिंग पर अभिषेक करते हैं। यहाँ प्रतिवर्ष ‘बगलामुखी जयंती’ पर मेले का आयोजन भी किया जाता है, जिसमें विभिन्न राज्यों से आये लोग सम्मिलित होते हैं।

हिमाचल प्रदेश देवताओं व ऋषि-मुनियों की तपोस्थली रहा है। कांगड़ा जनपद के कोटला क़स्बे में स्थित माँ श्री बगलामुखी का सिद्ध शक्तिपीठ है। वर्ष भर यहाँ श्रद्धालु मन्नत माँगने व मनोरथ पूर्ण होने पर आते-जाते रहते हैं। माँ बगलामुखी का मंदिर ज्वालामुखी से 22 किलोमीटर दूर ‘वनखंडी’ नामक स्थान पर स्थित है। मंदिर का नाम ‘श्री 1008 बगलामुखी वनखंडी मंदिर’ है। राष्ट्रीय राजमार्ग पर कांगड़ा हवाईअड्डे से पठानकोट की ओर 25 किलोमीटर दूर कोटला क़स्बे में पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर के चारों ओर घना जंगल व दरिया है। यह मंदिर प्राचीन कोटला क़िले के अंदर स्थित है।

यह माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना द्वापर युग में पांडवों द्वारा अज्ञातवास के दौरान एक ही रात में की गई थी, जिसमें सर्वप्रथम अर्जुन एवं भीम द्वारा युद्ध में शक्ति प्राप्त करने तथा माता बगलामुखी की कृपा पाने के लिए विशेष पूजा की गई थी। कालांतर से ही यह मंदिर लोगों की आस्था व श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। वर्ष भर असंख्य श्रद्धालु, जो ज्वालामुखी, चिंतापूर्णी, नगरकोट इत्यादि के दर्शन के लिए आते हैं, वे सभी इस मंदिर में आकर माता का आशीर्वाद भी प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त मंदिर के साथ प्राचीन शिवालय में आदमकद शिवलिंग स्थापित है, जहाँ लोग माता के दर्शन के उपरांत शिवलिंग पर अभिषेक करते हैं।

यहां  का आध्यात्मिक वातावरण और  पवित्र निवास के रूप में दुनिया भर में प्रसिद्ध

शहर का शांत और आध्यात्मिक वातावरण दुनिया के सभी हिस्सों के यात्रियों को लुभाता है।

धर्मशाला हिमाचल प्रदेश राज्य के कांगड़ा जिले में स्थित एक प्रमुख पर्यटन और दर्शनीय स्थल है। यह जगह दलाई लामा के पवित्र निवास के रूप में दुनिया भर में प्रसिद्ध है और यहां आर निर्वासन में तिब्बती भिक्षु रहते हैं। धर्मशाला कांगड़ा से 8 किमी की दूरी पर कांगड़ा शहर में स्थित है। यह शहर अलग-अलग उंचाई के साथ ऊपरी और निचले डिवीजनों के रूप में बंटा हुआ है। निचला डिवीजन धर्मशाला शहर है, जबकि ऊपरी डिवीजन को मैकलोडगंज के नाम से जाना जाता है। धर्मशाला हिंदी शब्द धरम और शाला से लिया गया है। धर्म शब्द अलग-अलग सांस्कृतिक और आध्यात्मिक दोनों तरह से समूहों में अलग-अलग अर्थ रखता है। आमतौर पर, धर्मशाला तीर्थयात्रियों के लिए एक आश्रय या विश्राम गृह को कहा जाता है।

धर्मशाला भारत का एक प्रमुख धार्मिक शहर होने के साथ एक प्रसिद्ध तीर्थस्थल भी है।

धर्मशाला से 9किमी दूरसमुद्र तल से 1830मीटर की ऊंचाई पर स्थित मेकलॉडगंज एक छोटा-सा कस्बा है। यहाँ हर जगह आपको तिब्बती लोग मिल जाएंगेतिब्बती लोगों के धर्म गुरु दलाई लामा का वर्तमान में निवास यही है। इसलिए भी शायद इस जगह को मिनी ल्हासा कहा जाता है।  यहां दुकानेंरेस्तरांहोटल और सड़क किनारे लगने वाले बाजार सब कुछ हैं। गर्मी के मौसम में भी यहां खासी ठंडक रहती है। यहां का सबसे प्रमुख आकर्षण दलाई लामा का मंदिर है जहां शाक्य मुनि,अवलोकितेश्वर एवं पद्मसंभव की मूर्तियां विराजमान हैं। हमने सबसे पहले वही जाने का प्लान बनाया। यह मंदिर मुख्य बाजार से थोड़ीसी दूरी पर ही है। ऊंचाई पर बना यह मंदिर हमेशा सैलानियों से भरा रहता है। पर यहां अंदर कैमरा लेजाने की मनाही है। हमने मंदिर के बहार से ही घाटी की तस्वीरें खींची। देवदार के जंगल नीचे दूर तक फैले हुए थे। जिनके आगे बादल भी छोटे जान पड़ते थे। रुई के फायों की तरह उड़ते बादलों को इन पेड़ों ने जैसे ज़बरदस्ती थाम रखा हो। दलाई लामा के मंदिर से सनसेट का नजारा देखना अपने आप में अद्भुत होता है। यह दृश्य देखने के लिए लोग दूर-दूर से यहां आते हैं। यहां आने वाले सैलानी यहां शाम के समय तक जरूर रुकते हैं। यहां से धौलाधार पीक का नज़ारा बहुत शानदार दीखता है। मेकलॉडगंज के आस-पास बने मंदिर लोगों को खासे आकर्षित करते हैं। यहां से लगभग 10 किमी की दूरी पर स्थित है भागसूनाग मंदिर। यह भव्य तो नहीं लेकिन प्रसिद्ध जरूर है। स्थानीय लोग दिखावे में यकीन नहीं करते इसलिए इसे ज्यादा चमकाया नहीं गया। कई दूसरे मंदिर भी हैं जहां सैलानी दर्शन करने के लिए जरूर आते हैं। हमने एक नज़र मंदिर पर डाली और भागसूनाग झरने की और रुख किया। मंदिर के आगे एक पतला रास्ता भागसूनाग झरने की ओर जाता है।

दिल्ली से मैकलॉडगंज की दूरी लगभग 492  किलो मीटर है। रेल गाड़ी से आने वालों को पठानकोट से सड़क मार्ग चुनना पड़ता है। बस और टैक्सी यहां से आसानी से मिल जाती हैं। सड़क मार्ग से जाने वाले चंडीगढ़ होते हुए सीधे धर्मशाला और वहां से मेकलॉडगंज पहुंच सकते हैं। हवाई जहाज से जाने के लिए नज़दीकी एयरपोर्ट गगल है जोकि धर्मशाला से 15 किमी दूर है।

धर्मशाला हिमाचल प्रदेश की कांगडा घाटी का प्रमुख पर्यटन स्थल है। इसके एक ओर जहां धौलाधार पर्वत श्रृंखला है वही दूसरी ओर उपजाऊ घाटी व शिवालिक पर्वतमाला है। धर्मशाला के पर्यटन स्थल हिमाचल के पर्यटन स्थलो में अपनी खुबसुरती और सुंदरता के लिए जाने जाते है। यहा की हरी भरी वादिया झीले झरने और यहा का खुशनुमा मौसम पर्यटको को बरबस ही अपनी ओर आकर्षित करते है। सन 1815 से 1947 तक में अंग्रेजो द्वारा बसाए गए 80 हिल्स स्टेशनो में से धर्मशाला प्रमुख है। यहा सुंदर प्राकृतिक नजारो के साथ सूर्यास्त का भी मनोरम दृश्य दिखाई पडता है। जिसे देखने के लिए देश विदेश से हजारो की संख्या में पर्यटक यहा आते है। शहर के शुरू में ही एंट्री करते ही भारत चीन तथा भारत पाकिस्तान युद्ध के शहीदो का वार मेमोरियल पडता है। जोकि दर्शनीय है।  इस शहर को दो भागो में बांटा गया है एक – निचली धर्मशाला तथा दूसरा ऊपरी धर्मशाला जिसे मैक्लोडगंज के नाम से भी जाना जाता है। नीचली धर्मशाला जहा ओधोगिक व्यापार का केंद्र है वही ऊपरी धर्मशाला यहा की जीवनशैली का आधार और तिब्बती संस्कृति का आधार माना जाता है।  धर्मशाला हिमाचल प्रदेश की शीतकालीन राजधानी है। यह हिमाचल राज्य के कांगड़ा जिले का मुख्यालय है, और कांगड़ा नगर से १६ किमी की दूरी पर स्थित है। धर्मशाला के मैक्लॉडगंज उपनगर में केंद्रीय तिब्बती प्रशासन के मुख्यालय हैं, और इस कारण यह दलाई लामा का निवास स्थल तथा निर्वासित तिब्बती सरकार की राजधानी है।  मैक्लॉडगंज या मकलोडगंज (कई बार इसे मैक्लोडगंज या मैकलोड गंज भी लिखा जाता है), भारत के राज्य हिमाचल प्रदेश के कांगड़ा जिले में स्थित कस्बे धर्मशाला का एक उपनगर है। तिब्बतियों के लोगों की एक बड़ी आबादी  https://himalayauk.org/  के कारण इसे “छोटा ल्हासा” या “ढासा” (तिब्बतियों द्वारा धर्मशाला के लिए उपयोग किया जाने वाला संक्षिप्त नाम) के नाम से भी जाना जाता है। तिब्बत की निर्वासन सरकार का मुख्यालय भी मैक्लॉडगंज में स्थित है। मैक्लॉडगंज का नाम सर डोनाल्ड फ्रील मैक्लॉड जो कि पंजाब के लेफ्टिनेंट गवर्नर थे के नाम पर रखा गया है; प्रत्यय ‘गंज’ हिंदी का शब्द है जिसका सामान्य अर्थ “पड़ोस” होता है।

समुद्र तल से इसकी औसत ऊंचाई 2,082 मीटर (6,831 फीट) है तथा यह धौलाधार पर्वतश्रेणी में स्थित है, जिसका उच्चतम शिखर, “हनुमान का टिब्बा” लगभग 5,639 मीटर (18,500 फीट) ऊंचा है।

सडक मार्ग द्वारा- धर्मशाला भारत के प्रमुख सडक मार्गो से जुडा हुआ है। दिल्ली चंडीगढ देहरादून पठानकोट शिमला आदि प्रमुख शहरो से सिधी बस सेवाए उपल्ब्ध है।

HIMALAYAUK EXECLUSIVE

चंबा HP में एक ऐसा मंदिर है जो अपनी मान्यताओं के साथ-साथ अनोखे रीति-रिवाजों के चलते खास माना जाता है। चंबा जिले में स्थित प्रसिद्ध देवीपीठ भलेई माता के मंदिर की अगर बात करें तो यह अपने आप में अनूठा ही है। यहां के बारे में मान्यता है कि इस मंदिर में देवी माता की जो मूर्ति है और उस मूर्ति को पसीना आता है।

यहां आने वाले लोग यह भी मानते हैं कि जिस समय देवी की मूर्ति से पसीना आता है, उस वक्त कोई श्रद्धालु वहां मौजूद होता है तो उसकी सभी मनोकामनाएं पूरी हो जाती हैं। स्थानीय लोगों की मानें तो 500 साल पुराने इस मंदिर का इतिहास अलग है। भलेई माता के मंदिर में वैसे तो हर दिन हजारों की तादाद में श्रद्धालु आते हैं, लेकिन नवरात्रों में यहां विशेष धूम रहती है। यह मंदिर अपनी एक अजीब मान्यता को लेकर अधिक जाना जाता है, जिस पर यहां आने वाले श्रद्धालु विशेष यकीन रखते हैं। माना जाता है कि इस मंदिर में 300 साल तक महिलाओं को जाने की इजाजत नहीं थी। कुछ सालों के बाद मंदिर से माता की मूर्ति चोरी हो गई थी।

बाद में ये मूर्ति चमेरा डैम के आसपास मिली। कहा जाता है कि जिन चोरों ने मूर्ति को चुराया था, उनकी आंखों की रोशनी भी चली गई थी। इसके बाद चोर मूर्ति छोड़ वहां से भाग गए थे। भलेई केवल एक ऐसा मंदिर है, जिसके बारे में यहां के पुजारी भी यह कहते है कि देवी माता इसी गांव में प्रकट हुई थीं। उसके बाद ही इस मंदिर का निर्माण कराया गया था। तब से लेकर आज तक यहां हजारों श्रद्धालुओं का तांता इस इंतजार में लगा रहता है कि जाने कब देवी को पसीना आए और उनकी मनोकमना पूर्ण हो जाए।

कुनाल पथरी 

यहा पत्थरो से बना एक मंदिर है जिसे कुनाल पथरी कहते है। इस मंदिर में पत्थरो पर की गई नक्काशी बहुत ही शानदार और कला का अनमोल नमूना है। जिसे देखकर पर्यटक दांतो तले उंगली दबाए बिना नही रह सकते यह मंदिर कोतवाली बाजार से 3 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है

धर्मकोट

धर्मशाला के पर्यटन स्थल में यह स्थान काफी प्रसिद्ध है। यहा वर्ष भर सैलानियो का तांता लगा रहता है। यह एक व्यू प्वाइंट है जहां से कांगडा घाटी सहीत धौलाधार पर्वतमाला साफ दिखाई देती है।यहा का प्राकृतिक सौंदर्य बैमिसाल है जिसे निहारे बिना पर्यटक नही रह सकते। यह स्थान समुंद्र तल से लगभग 2100 मीटर की ऊंचाई पर धर्मशाला से मात्र 11 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

करेरी

यह एक आकर्षक व मनमोहक पिकनिक स्थल है। जोकि समुंद्र तल से 3250 मीटर की ऊचांई पर बसा है। धर्मशाला से करेरी की दूरी लगभग 20 किलोमीटर है। यहा की करेरी झील तथा मखमली चारागाहें पर्यटको को दूर से ही लुभाती है।

मछरियाल व तत्तवानी

यह स्थान धर्मशाला से लगभग 25 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है। यह स्थल अपने खुबसुरत झरने व गर्म पानी के चश्मे के लिए जाना जाता है।

चामुंडा देवी मंदिर

यह स्थान हिन्दुओ का धार्मिक स्थल है यहा चामुंड देवी का एक प्रसिद्ध मंदिर है। इस मंदिर से आप धर्मशाला शहर के प्राकृतिक नजारो का आनंद उठा सकते है चामुंडा देवी मंदिर की धर्मशाला से दूरी लगभग 15 किलोमीटर है।

त्रियूंड

यह स्थान एक बेहद आकर्षक पिकनिक स्थल है। यहा से आप धौलाधार पर्वतमाला का भरपूर नजारा कर सकते है यह स्थल समुंद्र तल से लगभग 2975 मीटर की उचांई पर धर्मशाला से लगभग 10 किलोमीटर की दूरी पर स्थित है।

ऊपरी धर्मशाला या मैक्लॉडगंज के दर्शनीय स्थल

अंग्रेजो ने लगभग 150 वर्ष पहले इस छोटे से पहाडी प्रदेश की तलाश की थी वे अपना नागरिक प्रशासन तथा छावनी मैक्लॉडगंज में ले आए किन्तु 1905 में भूकंप ने अंग्रजो को निचली धर्मशाला की ओर आने को मजबूर कर दिया। अक्टूबर 1959 में चीन द्वारा तिब्बत पर अधिकार कर लेने के बाद ल्हासा से निर्वासित 14वें दलाई लामा यहा आकर बसे। एक दशक से भी कम समय में मैक्लॉडगंज नष्ट होते ब्रटिश जिला शहर से भारत का उन्नतिशील छोटा सा ल्हासा बन गया । इन चंद वर्षो ने इसे दलाई लामा की लोकप्रियता के साथ मात्र एक दुकान वाले शहर से एक सार्वभौमिक केंद्र में बदलते देखा। जहां गंभीर बौद्ध विद्धान और दलाई लामा के अंतर्राष्ट्रिय प्रशंसको की भीड रहती है। समुद्र तल से 1700 मीटर की ऊचाई पर बसे मैक्लॉडगंज को छोटा तिब्बत भी कहा जाता है। ऊपरी धर्मशाला के पर्यटन स्थल में भी कई सुंदर ऐतिहासिक व खुबसूरत दर्शनीय है।

ऊपरी धर्मशाला के पर्यटन स्थल – मैक्लॉडगंज के दर्शनीय स्थल

सुगलाखांग

यह शहर का केंद्र बिंदु दलाई लामा का निवास है जो अपने निजी कार्यालय तथा मंदिर के साथ इतना साधारण है कि वह आसानी से यहा के प्राकृतिक दृश्य में मिल जाता है। प्राकृतिक हरियाली को बाधित न करने के दलाई लामा के सिद्धांतो के अनुकूल गरिमामय दो तल वाले मंदिर सुगलाखांग को बनाने के लिए एक भी वृक्ष नही काटा गया। यह मंदिर ट्रेफिक और शोर से दूर स्वर्ग की तरह है। यहा के हर कोने से आप प्राकृति के मनोहारी दृश्य देख सकते है। हर वर्ष मार्च के महिने में दलाई लामा यहा शिक्षा प्रदान करते है। जिसके लिए देश विदेश से हजारो की संख्या में अनुयायी यहा आते है।

धर्मशाला के सुंदर दृश्य

शिमला के दर्शनीय स्थल

डलहौजी के पर्यटन स्थल

नामग्येमा स्तूप

मंदिर के विपरित नागयेमा स्तूप अपने प्रार्थना चक्रो की पंक्तियो के साथ उसी बाजार की तरह ही भडकीला और रंगबिरंगा है जिसमें वह स्थित है। यह सातूप उन तिब्बतियो का स्मारक है जो अपने गृहदेश में संघर्ष करते हुए मृत्यु को प्राप्त हुए थे।

सेंट जॉन चर्च

धर्मशाला के पर्यटन स्थल में  सेंट जॉन चर्च का प्रमुख स्थान है। उत्कृष्ट रंगीन कांच की खिडकियो वाला मजबूत सेंट जॉन चर्च जिसमे बैप्टिस्ट जॉन को ईशू के साथ प्रदर्शित किया गया है। यह चर्च 1852 में अंग्रेजो द्वारा यहा बनवाई गई आरंभिक ईमारतो मे से एक है। सेट जॉन उस समय का एक मात्र बचा हुआ भवन है ज्यादातर यहा आये 1905के विनाशकारी भूकंप में नष्ट हो गए थे। चर्च की कब्रगाह में पूर्व वाइसराय लॉर्ड एलगिन को दफनाया गया था। उसकी विधवा ने यहा संगमरमर का एक स्मारक बनवाया था। जो अब एएसआई द्वारा संरक्षित है।

डल झील धर्मशाला

डल झील का नाम सुनकर आप सोच रहे हों डल झील तो कश्मीर में है जी हा एक डल झील कश्मीर में है और दूसरी जो धर्मशाला में है इसको भी डल झील के नाम से जाना जाता है इस डल झील के पीछे एक कथा प्रचलित है कथा के अनुसार जब कैलाश पर्वत के नीचे स्थित पवित्र मणिमहेश झील में स्नान के लिए गए एक राजा की सोने की अंगूठी खो गई । वह अंगूठी फिर डल झील में ऊपर आयी जिसे उस समय गरीबो का मणिमहेश माना जाता था जो लोग कैलाश जाने का खर्च वहन नही कर सकते थे वे इस झील में नहाकर मोक्ष प्राप्त करते थे। हांलाकि पुराने लोगो का कहना था कि पुरानी डल झील एक बिल्कुल भिन्न झील थी। जिसका नीला हरा पानी इतना गहरा था कि उसमें नौकायन कर सकते थे।

भगसुनाग मंदिर

स्थानीय लोगो के अनुसार भगसुनाग मंदिर की आयु दस हजार वर्ष से भी अधिक है। शहर से केवल डेढ किलोमीटर की दूरी पर दापर युग में दानव राज भगसुनाग द्वारा स्थापित शिव मंदिर है। इसके परिवेश में पानी के स्त्रोतो और जलप्रपात है जिसमे लोग स्नान भी करते है। इस मंदिर का एक सै अधिक बार पुननिर्माण हुआ है। और अपने वर्तमान रूप में यह सफेद टाइलो से ढका है। मंदिर से थोडा आगे चलने पर भगसुनाग वाटर फॉल है जहा की सुंदरता पर्यटको का मन मोह लेती है।

खरीदारी

धर्मशाला के पर्यटन स्थल की सैर करने के साथ साथ आप यहा के बाजारो में खरीदारी का भी लुफ्त उठा सकते है। ऊपरी धर्मशाला यानी मैक्लॉडगंज के बाजारो में आपको तिब्बती कालीनो, थांगका, पोंचो, जैकेट, चुबा, मुखौटौ, प्रतिमाओ, बैग,फ्रूट और बोतल बंद उत्पाद ताहिनी तथा मुसली आदि की दुकाने मिलेगीं। यहा से आप ऊनी गर्म वस्त्र तिब्बती पनीर तथा चाय, झंडे आदि की खरीदारी भी कर सकते है।

बैजनाथ मंदिर
बैजनाथ मंदिर का निर्माण 12 वीं सदी में हुआ था, जो कांगड़ा घाटी के सबसे प्रभावशाली और महत्वपूर्ण मंदिरों में से एक है। बैजनाथ मंदिर का निर्माण दो भाईयो ने यहां पहले मौजूद मंदिर के ऊपर करवाया था। यह मंदिर वैद्यनाथ के रूप में भगवान शिव को समर्पित है। यह भी माना जाता है कि यहां मौजूद लिंगम भगवान शिव ने खुद रावण को दिया था, और श्रीलंका ले जाने की बजाय रावण को यहीं रखने के लिए विवश किया। मंदिर एक प्रभावशाली स्मारक है, जिसमें भगवान के कई दिलचस्प चित्रण हैं। यहां की मूर्तियां अविश्वसनीय रूप से सुंदर और विस्तृत हैं। यहां के सबसे दिलचस्प त्योहारों में से एक है दशहरा, जहां शेष उत्तर भारत के विपरीत, यहां सम्मान के तौर पर रावण के पुतले जलाते नहीं हैं। 

लोकेशन- बैजनाथ मंदिर कांगड़ा से लगभग 51 किलोमीटर दूर है। 

नूरपुर किला 
नूरपुर किला, पठानकोट से धर्मशाला के मार्ग पर स्थित है। यह प्रभावशाली किला पहाड़ पर स्थित है, यह किसी भी पर्यटक के यात्रा कार्यक्रम में शामिल नहीं होता। यह प्रभावशाली किला एक पहाड़ी पर स्थित है जो हाइवे से थोड़ी दूर है। यहां किले के अंदर मंदिर होने के कारण यहां केवल स्थानीय लोग ही आते हैं। एक समय में यह किला कटोच का गढ़ था उसके बाद मुगलों का, लेकिन आज यह विभिन्न सरकारी कार्यालय और प्राथमिक विद्यालय के रूप में प्रयोग किया जाता है। उन्होंने अपनी अदालत को मंदिर में परिवर्तित कर दिया, और पूरे मंदिर को चित्रों के साथ सजाया, जिसमें भगवान कृष्ण की विभिन्न लीला को 
लोकेशन: नूरपुर पठानकोट से 28 किलोमीटर और धर्मशाला से 60 किलोमीटर की दूरी पर है। 

सेंट जॉन इन द विल्डरनेस 
सेंट जॉन चर्च धर्मशाला/मैक्लॉडगंज में सबसे पुराना एंग्लिकन चर्च है। देवदार के पेड़ों के बीच बसा चर्च आज भी पर्यटकों से घिरा रहता है। चर्च 1852 में बनाया गया था, चर्च का निर्माण यहां रहने वाले ब्रिटिश सैनिकों के लिए किया गया था, और चर्च उन लोगों के स्मारक पत्थरों से भरा हुआ है जिन्होने यहां अंतिम सांस ली थी। यह 1862-1863 से भारत के वायसराय लॉर्ड एल्गिन को समर्पित है। चर्च में दो शानदार ग्लास पैनल और घंटी हैं, और ये सब इंग्लैंड से लाया गया था। 

लोकेशन: सेंट जॉन्स इन द विल्डरनेस चर्च, मैक्लॉडगंज से पहले धर्मशाला रोड पर स्थित है। यह मुख्य बाजार और बस स्टॉप से पैदल दूरी के भीतर है। 

समय: चर्च सुबह 7 बजे से शाम 6 बजे तक खुला रहता है। रविवार को सेवाएं आयोजित की जाती हैं। 

मसरूर टेंपल 
मसरूर मंदिर पत्थरों को काट कर बनाया गया है, जिसे कभी-कभी हिमाचल का एलोरा कहा जाता है। मंदिरों में शानदार संरचनाएं चट्टान में खोदी गई हैं। ये शिव, कार्तिकेय, इंद्र, सूर्य और साथ ही साथ देवी के कई रूपों को दर्शाते हुए विस्तृत नक्काशियों से युक्त हैं। मुख्य मंदिर की खुदाई के समय इसमें राम, सीता और लक्ष्मण की प्रतिमाएं हैं। टीले से धौलाधर पर्वत श्रंखला की पृष्ठभूमि में स्थित मंदिर का शानदार दृश्य दिखाई देता है। 

लोकेशन: मसरुर कांगड़ा से 32 किलोमीटर की दूरी पर और धर्मशाला से 51 किलोमीटर की दूरी पर है। 

कांगड़ा किला 
कांगड़ा किला भारत में सबसे पुराना किला है, और इसका इतिहास सदियों पुराना है। यह काटोच के राजा द्वारा बनवाया गया था। दो नदियों के संगम पर पहाड़ी के ऊपर स्थित इस किले के चारों ओर खाई बनी है, जिसकी वजह से इस किले पर कब्जा करना मुश्किल था। महमूद गजनी के आक्रमण से पहले तक यह किला अजेय था, जो किले और मंदिर में मौजूद अधिकतर खजाने को लूटकर ले गया था। आज किले के अंदर मंदिर में अंबिका की कोई मूर्ति नहीं है, लेकिन महावीर की एक प्रतिमा है जो काफी पुरानी मानी जाती है, यह जैनियों का तीर्थस्थान भी है। कांगड़ा किले की सबसे खास बात यहां की शानदार ऑडियो गाइड है, जिससे किला और इसकी कहानियां जीवित हो जाती हैं। 
लोकेशन: कांगड़ा किला या नगरकोट, जो कांगड़ा रेलवे स्टेशन से सिर्फ 1 किलोमीटर की दूर पर और धर्मशाला से 21 किलोमीटर की दूरी पर पुराने कांगड़ा शहर में स्थित है। 

1885 में जब भारत में ब्रिटिश साम्राज्य का शासन तब हिमालय की पश्चिमी सीमा के पास धौलाधारों में विभिन्न बस्तियों की स्थापना की गई थी। 1849 में दूसरे एंग्लो – सिख युद्ध के समय अंग्रेजो ने कांगड़ा में अपनी जगह बना ली थी। धर्मशाला को छावनी के छोटे रेस्ट हाउस से अपना नाम मिला जहाँ अंग्रेज रहते थे, जिन्हें  ‘धर्मशालाओं’ के रूप में जाना जाता था। बाद में यह स्थान कांगड़ा जिले का प्रशासनिक प्रधान कार्यालय बन गया था, जिसके बाद यहां नागरिक बस्तियों की स्थापना शुरू हुई।  बता दें कि मैकलोडगंज का नाम डेविड मैकलेओड के नाम पर रखा गया जो पंजाब के तत्कालीन लेफ्टिनेंट गवर्नर थे। लॉर्ड एल्गिन 1862 से 1863 तक भारत का ब्रिटिश वायसराय था जिसको इस जगह से प्यार हो गया था। 1863 में धर्मशाला से जाते समय लॉर्ड एल्गिन मृत्यु की हो गई जिसको फोर्सिथगंज में स्थित सेंट जॉन चर्च-इन-वाइल्डरनेस में दफना लिया गया था। फोर्सिथगंज का नाम एक डिवीजनल कमिश्नर के नाम पर रखा गया था। आपको बता दें कि यह शहर 1905 में भूकंप के दौरान नष्ट हो गया था, लेकिन बाद में दलाई लामा ने एक बार फिर से शहर को पुनर्जीवित किया। अपने तिब्बती मठों और प्रार्थना पहियों के साथ मैक्लोडगंज, धर्मशाला क्षेत्र का ऊपरी हिस्सा है, जो तिब्बती और बौद्ध संस्कृति के मिश्रण को प्रदर्शित करता है। यहां पर आप शांतिपूर्ण तिब्बती मठ में आकर अपने मन को शांत कर सकते हैं और ध्यान लगाकर अपनी अंतरात्मा को जान सकते हैं। अपनी यात्रा के दौरान आप कई तिब्बती व्यंजनों का स्वाद चख सकते हैं और मैकलोडगंज बाजार से प्रामाणिक तिब्बती स्मृति चिन्ह खरीदकर अपने साथ ले जा सकते हैं।

बगलामुखी मंदिर हिमाचल प्रदेश में कांगड़ा जनपद के कोटला क़स्बा में स्थित प्रसिद्ध शक्तिपीठ है। यह मंदिर हिन्दू धर्म के लाखों लोगों की आस्था का केन्द्र है। बगुलामुखी का यह मंदिर महाभारत कालीन माना जाता है। पांडुलिपियोंमें माँ के जिस स्वरूप का वर्णन है, माँ उसी स्वरूप में यहाँ विराजमान हैं। ये पीतवर्ण के वस्त्र, पीत आभूषण तथा पीले रंग के पुष्पों की ही माला धारण करती हैं। ‘बगलामुखी जयंती’ पर यहाँ मेले का आयोजन भी किया जाता है। ‘बगलामुखी जयंती’ पर हर वर्ष हिमाचल प्रदेश के अतिरिक्त देश के विभिन्न राज्यों से लोग आकर अपने कष्टों के निवारण के लिए हवन, पूजा-पाठ करवाकर माता का आशीर्वाद प्राप्त करते हैं। हिमाचल प्रदेश देवताओं व ऋषि-मुनियों की तपोस्थली रहा है। कांगड़ा जनपद के कोटला क़स्बे में स्थित माँ श्री बगलामुखी का सिद्ध शक्तिपीठ है। वर्ष भर यहाँ श्रद्धालु मन्नत माँगने व मनोरथ पूर्ण होने पर आते-जाते रहते हैं। माँ बगलामुखी का मंदिर ज्वालामुखी से 22 किलोमीटर दूर ‘वनखंडी’ नामक स्थान पर स्थित है। मंदिर का नाम ‘श्री 1008 बगलामुखी वनखंडी मंदिर’ है। राष्ट्रीय राजमार्ग पर कांगड़ा हवाईअड्डे से पठानकोट की ओर 25 किलोमीटर दूर कोटला क़स्बे में पहाड़ी पर स्थित इस मंदिर के चारों ओर घना जंगल व दरिया है। यह मंदिर प्राचीन कोटला क़िले के अंदर स्थित है। यह माना जाता है कि इस मंदिर की स्थापना द्वापर युग में पांडवों द्वारा अज्ञातवास के दौरान एक ही रात में की गई थी, जिसमें सर्वप्रथम अर्जुन एवं भीम द्वारा युद्ध में शक्ति प्राप्त करने तथा माता बगलामुखी की कृपा पाने के लिए विशेष पूजा की गई थी। कालांतर से ही यह मंदिर लोगों की आस्था व श्रद्धा का केंद्र बना हुआ है। वर्ष भर असंख्य श्रद्धालु, जो ज्वालामुखी, चिंतापूर्णी, नगरकोट इत्यादि के दर्शन के लिए आते हैं, वे सभी इस मंदिर में आकर माता का आशीर्वाद भी प्राप्त करते हैं। इसके अतिरिक्त मंदिर के साथ प्राचीन शिवालय में आदमकद शिवलिंग स्थापित है, जहाँ लोग माता के दर्शन के उपरांत शिवलिंग पर अभिषेक करते हैं। माता बगलामुखी का दस महाविद्याओं में 8वाँ स्थान है तथा इस देवी की आराधना विशेषकर शत्रुओं पर विजय प्राप्त करने के लिए की जाती है। धार्मिक ग्रंथों के अनुसार माता बगलामुखी की आराधना सर्वप्रथम ब्रह्मा एवं विष्णु ने की थी। इसके उपरांत परशुराम ने माता बगलामुखी की आराधना करके अनेक युद्धों में शत्रुओं को परास्त करके विजय पाई थी।[1] बगलामुखी जयंती पर मंदिर में हवन करवाने का विशेष महत्व है, जिससे कष्टों का निवारण होने के साथ-साथ शत्रु भय से भी मुक्ति मिलती है। द्रोणाचार्य, रावण, मेघनादइत्यादि सभी महायोद्धाओं द्वारा माता बगलामुखी की आराधना करके अनेक युद्ध लड़े गए। नगरकोट के महाराजा संसार चंद कटोच भी प्राय: इस मंदिर में आकर माता बगलामुखी की आराधना किया करते थे, जिनके आशीर्वाद से उन्होंने कई युद्धों में विजय पाई थी। तभी से इस मंदिर में अपने कष्टों के निवारण के लिए श्रद्धालुओं का निरंतर आना आरंभ हुआ और श्रद्धालु नवग्रह शांति, ऋद्धि-सिद्धि प्राप्ति सर्व कष्टों के निवारण के लिए मंदिर में हवन-पाठ करवाते हैं।

 हिमाचल प्रदेश के धर्मशाला में डॉ. येशी धोंडेन जानलेवा कैंसर का तिब्बती चिकित्सा पद्धति से इलाज करते हैं। शहर में स्थित उनके तिब्बती हर्बल क्लिनिक पर कैंसर मरीजों की भारी भीड़ जुटती है। यहां कैंसर से पीड़ित लोगों को बहुत ही कम खर्च में दवाइयां दी जाती हैं। इस वजह से तिब्बती हर्बल क्लिनिक पर हर रोज सुबह 5 बजे से ही ट्रीटमेंट कराने आए मरीजों की लंबी लाइन लगती है। डॉ. येशी की इस क्लिनिक में देश ही नहीं विदेशों से भी मरीज अपना इलाज कराने आते हैं। येशी बहुत ही कम पैसे में मरीजों को एक महीने की दवा उपलब्ध कराते हैं।   डॉ. येशी तिब्बत के लोका क्षेत्र के मूलनिवासी हैं। उनका परिवार तिब्बत की बहुप्रचलित चिकित्सा के लिए जाना जाता है। उन्होंने 20 साल की उम्र में ही इस चिकित्सा का प्रशिक्षण प्राप्त कर लिया था। भारत में निर्वासन का जीवन व्यतीत कर रहे येशी 14वें दलाई लामा के निजी चिकित्सक भी रह चुके हैं। उन्होंने साल 1961 से 1980 तक दलाई लामा की निजी चिकित्सा की थी। उन्हीं की देख-रेख में इन्होंने धर्मशाला में तिब्बतियन मेडिकल ऐंड ऐस्ट्रो इंस्टिट्यूट की स्थापना कर इस पद्धति को आगे बढ़ाया। दलाई लामा के साथ रहते हुए येशी ने तिब्बती चिकित्सा पद्धति में शोध करने के अलावा कैंसर जैसे असाध्य रोग के उपचार में भी प्रवीणता हासिल की। 

भारत में शरणार्थी बनकर आए थे 
तिब्बतियन मेडिकल ऐंड ऐस्ट्रो इंस्टिट्यूट से रिटायर होने के बाद डॉ. येशी धोंडेन ने साल 1980 में मैक्लोडगंज में तिब्बतियन हर्बल क्लिनिक से निजी क्लिनिक की शुरूआत की। यहां वह रोगी के पेशाब और नब्ज का अध्ययन कर उनके रोगों की जांच कर तिब्बती आयुर्वेदिक दवाइयां देते हैं। वह 23 मार्च 1961 को तिब्बत से भारत में शरणार्थी बनकर आए थे। उनके क्लिनिक में ट्रीटमेंट कराने के लिए आए मरीज टोकन लेने के लिए सुबह 5 बजे से ही लाइन लगाते हैं। टोकन मिलने के तीन दिन बाद डॉक्टर येशी मरीज से मिलते हैं। वह एक दिन में केवल 45 मरीजों की ही जांच करते हैं। 

पद्मश्री से सम्मानित हैं येशी 
93 वर्षीय डॉ. येशी धोंडेन द्वारा किए गए शोधपत्रों को दुनिया की सबसे बेहतर मॉर्डन मेडिकल साइंस, अमेरिका के वैज्ञानिकों ने भी मान्यता दी है। बौद्ध भिक्षु डॉ. येशी को भारत सरकार ने उनकी तिब्बती आयुर्वेद पद्धति में हासिल की गई उपलब्धियों के चलते पदमश्री पुरस्कार सम्मानित किया गया है।  डॉ. येशी ढोंडेन ने 23 मार्च 1961 को तिब्बत से भारत में शरणार्थी के रूप में आकर तिब्बती चिकित्सा पद्धति की नींव रखी उन्होंने धर्मशाला में तिब्बतियन मेडिकल एंड एस्ट्रो इंस्टीट्यूट की स्थापना कर तिब्बतियन चिकित्सा पद्धति को आगे बढ़ाया  वह वर्ष 1961 से लेकर 1980 तक दलाईलामा के निजी चिकित्सक के रूप में कार्यरत रहे  डॉ. येशी ने दलाईलामा के निजी चिकित्सक के रूप में काम करने के बाद मैक्लोडगंज में अपना निजी क्लीनिक खोला। डॉ. येशी के पास दुनिया भर से विशेषकर कैंसर रोगी इलाज के लिए आते हैं। डॉ. येशी रोगी के पेशाब और नब्ज का अध्ययन कर दवाई देते हैं। यहां पर टोकन सिस्टम से रोगियों का इलाज होता है।

बौद्ध भिक्षु को पद्मश्री मिलने से निर्वासित तिब्बत सरकार में खुशी की लहर है। इस बौद्ध भिक्षु डॉक्टर ने कैंसर जैसी जानलेवा बीमारी का इलाज किया और अब पद्मश्री अवार्ड पाया है।

तिब्बती चिकित्सा पद्धति में बेहतरीन कार्य के बूते भारत सरकार की ओर से पद्मश्री अवार्ड मिलने के बाद धर्मगुरु दलाईलामा के निजी चिकित्सक रह चुके 94 वर्षीय बौद्ध भिक्षु डॉ. येशी ढोंडेन ने केंद्र का धन्यवाद किया।

उन्होंने कहा कि मुझे नहीं मालूम कि यह अवार्ड कैसे मिला। शायद, हजारों मरीजों की दुआओं ने यह सम्मान दिलाया है। डॉ. येशी ने कहा कि अवार्ड मिलने से वह बेहद खुश हैं।

इसका श्रेय पिछले 50 वर्षों में मेरे इलाज से ठीक हुए हजारों मरीजों को जाता है। यह अच्छा है कि तिब्बतियन चिकित्सा पद्धति की वजह से हजारों मरीज ठीक हुए हैं। तिब्बतियन दवाइयां भारत में ही पैदा होती हैं इसलिए यह भारतीय आयुर्वेदा से मिलती-जुलती हैं।

तिब्बतियन दवाइयां 7वीं शताब्दी में तिब्बत में भारत से बुद्धिज्म से लाई गई थीं। भारत सरकार ने शुरू से ही तिब्बतियन दवाओं को विशेष पहचान दी है। उन्होंने कहा कि वह तिब्बतियन चिकित्सा संस्थान धर्मशाला के प्रमुख भी रहे हैं।

निर्वासित तिब्बत सरकार की धर्म एवं संस्कृति मंत्री वेन करमा गेलेक ने बताया कि डॉ. येशी को पद्मश्री मिलने से बेहद खुशी है। डॉ. येशी का तिब्बत के लोका क्षेत्र में 15 मई 1927 को जन्म हुआ है। उनका परिवार तिब्बत की चिकित्सा पद्धति के लिए प्रसिद्ध रहा है। 

एक एसी बीमारी जिसको हम जितना समझना चहते हैं उतना उलझते जा रहे है| यूँ तो केंसर के इलाज के लिये हम हर सम्भव प्रयास करते हैं और इस जटिल बीमारी से निजात पाने का अपने अपने स्तर से कोई ना कोई रास्ता निकालने की उधेडबुन में कितना ही समय यहाँ-वहाँ दौड़-धूप में गवा बेठते है| यदि यही प्रयास समय रहते सही दिशा में करें जाये तो सम्भवत: नतीजे कुछ और हो सकते हैं, उम्मीद की कोई नयी किरन जाग सकती है|

इस ही उम्मीद की किरन का नाम है तिब्बती आयुर्वेदिक डाक्टर श्री येशी धोंदेन, जो आज किसी परिचय के मुहताज नहीं, अपने अद्वितीय अनुभव से केंसर जैसी बीमारी का इलाज सफलतापुर्ण कर पाने में कामयाब हो पाये हैं| वे मेक्लीओडगंज, धरमशाला, हिमाचल प्रदेश में अपने परिवार के साथ रहते है एवं अपनी विद्या का निस्वार्थ भाव से प्रयोग करते है| हम लाखों रुपये खर्च करके भी सफल परिणामों की कामना ही कर पाते हैं, मगर येशी जी की 2 माह की दवाई मात्र कुछ 2 से 2.5 हजार में ही आ जाती है और किमोथेरेपी के साथ अभूतपूर्व परिणाम देती है|

सबसे जरुरी बात जो केंसर के इलाज को जटिल बनती है, वह है कि इसका इलाज हर व्यक्ति विशेष के लिये अलग होना चहिये क्योंकि हर व्यक्ति का शरीर अलग तरीके से केंसर से लड़ने की कोशिश करता है| एक जैसे केंसर से पीडित दो अलग अलग इंसान के लिये इलाज का तरीका अलग हो सकता है और होना भी चहिये|

येशी धोंडेन जी के इलाज का तरीका भी कुछ ऐसा ही है, जो कुछ इस प्रकार है:-

टोकन हासिल करना **

सवेरे के पहले मुत्र को साफ़ शीशी में एकत्र करना

टोकन के अनुसार सही दिन पर अपनी सारी पुरानी रीपोर्ट के साथ क्लीनिक पहुंचना

डोक्टर साहब से मुलाकात एव दवाई हासिल करना

जांनकारी के अभाव में लोगो को लगता है की डो. येशी के क्लिनिक का टोकेन ले पाना किसी पहाड़ चड़ने से कम नहीं है| इस लेख का उद्देश्य इसी मिथक को तोड़ना है|

**टोकन लेने के 3 तरीके हैं:

रात 3-4 बजे से लाईन में लगकर एड्वांस टोकन लेना (सबसे आम और अनिश्चित तरीका)

कभी भी डाक्टर साहब के अशोका तिब्बेतन गेस्ट हाउस (जो उनका घर भी है) में 1-2 दिन रुककर| यह तरीका काफी अच्छा और सहज है| आपको सिर्फ इतना करना है कि अपनी यात्रा इस प्रकार प्लान करे की 3 से 4 दिन का समय निकाल कर किसी भी दिन का टोकन ले सके| विशेष रूप से ध्यान रखे आप जिस दिन भी पहुंचे उस दिन टोकन का कोइ भी जिक्र रीसेप्शन ऑफिस में ना करेंसिर्फ कमरा लेने की बात करें अगले दिन सुबह 8 बजे के आस पास रीसेप्श्न ऑफिस में जाकर टोकन के लिये प्रार्थना करें अगर भाग्य अच्छा हुआ तो उसी दिन का टोकन मिल जायेगा| नहीं तो वेटिंग वाला मिलेगा जो किसी मरीज के अनुपस्थित होने पर आपको मौका दिलाएगा| डाक्टर येशी एक दिन में कुल 60 मरीज देखते हैं- 45 एड्वांस टोकन वाले और 15 वेटिंग टोकन वाले| ध्यान रहे डोक्टर सिर्फ सुबह 9 बजे से दिन के 1 बजे तक ही देखते है|

बिना टोकन के भी क्लिनिक पहुच कर एक सादी पर्ची पर नाम पता लिखकर गेस्ट हाउस से मुहर लगवाकर भी मरीज देखे जाते है, मगर अनुपस्थित मरीज ज्यादा होने पर ही|

पठानकोट  से धरमशाला अशोका तिब्बेतन गेस्ट हाउस तक के लिये टेक्सी ड्राइवर श्री रंधीर सिंघ (मो. +919816278189) की मदद ले सकते हैं

ABOUT DR.YESHI DHONDEN

Dr.Yeshi Dhonden is a world-renowned Tibetan doctor and is one of the world’s best experts in traditional Tibetan Medicine. He was the personal physician to His Holiness The Dalai Lama for 20 years.

He is mostly known for his treatment of Cancer. He has treated thousands of cancer patients from all over the world, with much better survival rates than those undergoing traditional allopathic treatment.

He was awarded the Padma Shri award in Jan 2018 by the Indian government in recognition of his work.

Dr.Yeshi Dhonden established the Tibetan Medical Institute MEN-TSE-KHANG in India, which has now branches all over India and abroad. You can get more details on the MEN-TSE-KHANG website.

GET AN APPOINTMENT

1. Take A Token for An Appointment Date.

Tokens are given at the Tibetan Ashoka Guest House from 10am till the line finishes.

Submit a copy of patient’s ID proof to take Token.

Each Token costs Rs.20 only.

Normally Token will be given for at least 4-5 days later or more if there is a heavy rush of patients.

2. Meet the doctor on the Appointment Date

Come early as patients are seen as per the number on their Token.

Bring the first morning urine of patient. If patient cannot come then you can bring the first morning urine of the day before the appointment.

Normally urine upto a week old can be brought if kept cool using the following steps:

Take the patient’s first morning urine and put in a CLEAN jar.

Keep for at least one hour till it gets cool.

Put urine in a clean bottle. Clean nineral water bottle or any clean container can be used. No need to use ice.

Bring it along with the medical reports.

Bring all medical records of the patient even if the patient cannot come.

Medicines prescribed by the Clinic can be purchased from the Clinic counter.

Cost of medicines will vary according to the patient. Only cash is accepted.

Keep the prescription safely for future reference and follow-up.

http://www.men-tsee-khang.org/branch/index.htm

ऊना

ऊना शहर का दृश्य

ऊना शहर, जो कि जिला मुख्यालय है, स्वां नदी के किनारे स्थित है, जो की सतलुज नदी की सहायक नदी है। इस क्षेत्र में प्रचलित विश्वास के अनुसार, महान ऋषि बाल्मीकि ने रामायण में इस नदी को “सोम भद्रा” के रूप में नाम दिया था, जबकि ऋग्वेद ने कहा था कि यह “स्वस्तु” है।  ऊना का “आएने अकबरी” में जलंधर दोआब के राज्य के रूप में उल्लेख किया गया था, जो की मुगल काल का ऐतिहासिक ग्रंथ था। 

ऊना, जिला मुख्यालय के अलावा, बेदी परिवार का भी निवास होने के महत्व को मानते हैं, जिनके पूर्वज बाबा कलाधारी, जो गुरु नानक के वंशज थे। दसवीं सिख गुरु गोबिंद सिंह के समय में वे कुछ वर्षों से जलंधर दोआबा में विचरण करने के बाद, अंततः यहाँ नीचे बस गए क्योंकि उन्होंने अनुयायियों की एक भीड़ को आकर्षित किया जो पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब पर उनका प्रशंसात्मक भाषण सुनने के लिए आते रहे। आज भी बाबा कलाधारी के वंशज ऊना के किले में रहते हैं।

जिला मुख्यालय बनने के बाद ऊना शहर ने वाणिज्यिक और व्यापार गतिविधियों के अलावा जबरदस्त विस्तार देखा है।

धर्मशाला महन्ता

धर्मशाला महंता

ऊना-धर्मशाला मार्ग पर भरवाई नामक स्थान से लगभग 8 किलोमीटर की दूरी पर धर्मशाला महंता नामक गांव में डेरा बाबा नकोदर दास की गद्दी है। लोगों का विश्वास है कि लगभग चार सौ वर्ष पहले यहां बहुत घना जंगल था। इस स्थान से डेढ़ मील दूर एक गांव था, जिसे नीचे की धर्मशाला कहते थे। वहां से एक ब्राह्मण प्रतिदिन यहां पशु चराने आया करता था। एक दिन उस ब्राह्मण के मन में तपस्या करने की प्रबल इच्छा हुई तथा वह यहां स्थित वट-वृक्ष के नीचे तपस्या में लीन हो गया तथा फिर वापिस अपने घर नहीं गया। तपस्या में लीन रहते हुए वह केवल दूध् का ही प्रयोग करता था। धीरे-धीरे ब्राह्मण की तपस्या की महिमा दूर-दूर तक पहुंचने लगी। तत्पश्चात एक दिन एक महात्मा ब्राह्मण की परीक्षा लेने इस स्थान पर पहुंचे। उन्होंने ढाई चावल के दाने पीस कर दूध् में मिश्रित कर दिए। तब ब्राह्मण ने अपने योग बल से तीन चावल के दाने दूध् में से निकाल लिए। अतः अभी भी यहां के महंत परीक्षा लेने वाले महंत के वंश को  श्रधा सुमन अर्पित करते हैं। 

यहां के महंत पहले गद्दी के चढ़ावे को गरीबों में बांट दिया करते थे, किन्तु माता गौड़ जी ने इस प्रथा को समाप्त करके यहां 24 घंटे का सदाव्रत लंगर खोल दिया। अंग्रेजों के समय में इस क्षेत्र के जिलाधीश रात को वेश बदलकर तथा घोड़े पर सवार होकर इस स्थान पर आए। उन्होंने सुन रखा था कि यहां 24 घंटे का सदाव्रत लंगर रहता है। इस बात को जानने के लिए जब उन्होंने भोजन की मांग की तो उन्हें भोजन प्रदान किया गया। वह बहुत प्रभावित हुए तथा उन्होंने गद्दी पर विराजमान महंत जी को कहा कि तुम बिना किसी आज्ञा से जब चाहो लंगर के लिए लकड़ी ले सकते हो।

इस स्थान पर एक बाबड़ी भी है जिसे ‘पाप खंडन’ के नाम से पुकारा जाता है। लोगों का विश्वास है कि यदि कोई व्यक्ति भूत-प्रेत की छाया से प्रभावित हो और इस बाबड़ी के जल से स्नान करे तो वह बिल्कुल ठीक हो जाता है। इसके अतिरिक्त जल से स्नान करने वाले व्यक्ति की सभी मनोकामनाएं एूर्ण हो जाती हैं।

महंत लक्ष्मीध्र जी के समय डेरे में बहुत से विकासात्मक कार्य हुए हैं। डेरे की दीवारों पर कई भिंत्ती चित्रा उकेरे गए हैं। महंत लक्ष्मीध्र जी की मृत्यु के पश्चात अब टिक्का श्री शरीश चंद्र जी ने यह गद्दी संभाली है।

यहां बैसाखी के दिन तथा सैरी की सक्रान्ति को बहुत बड़े मेलों का आयोजन किया जाता है। श्राद्ध के दिनों में पितृ-पक्ष में श्राद्ध की पष्ठी तिथि को नकोदर दास जी का मुख्य श्राद्ध किया जाता है। इस अवसर पर पांच-सात गांवों के लोगों को यहां आमन्त्रित करके लंगर लगाया जाता है।

शिव बारी  – गगरेट

शिवलिंग, शिवबारी मंदिर गगरेट

होशियारपुर-धर्मशाला रोड पर, स्वां (सोम्भद्रा) के तट पर गग्रेट के पास शिव बारी मंदिर स्थित है, जो कि गुरु द्रोणाचार्य के तीरंदाजी विद्यार्थियों के लिए अभ्यास सीमा थी। एक धारणा के अनुसार शिव बारी में भगवान शिव का मंदिर, गुरु द्रोणाचार्य ने अपनी बेटी जयती को भगवान शिव की पूजा करने के लिए बनबाया था। 

इस क्षेत्र के हजारों लोग जुलाई / अगस्त के महीनों के दौरान शिव लिंग पर फूल चढाने के लिए शिव मंदिर जाते हैं। मंदिर के चारों ओर बहुत घना जंगल है। रात के समय में क्या, लोग दिन में भी जंगल में प्रवेश करने की हिम्मत नहीं करते हैं। शिव बारी के आसपास औद्योगिक क्षेत्र गगरेट है जहां काफी सारे उद्योग स्थित हैं। गगरेट में विकास खंड का मुख्यालय भी है।

पीर निगाह – बसोली 

जिला मुख्यालय ऊना के पास एक और महत्वपूर्ण मेला, पीर निगाहा का मेला आयोजित होता है। पीर निगाहा का मंदिर बसोली गांव में स्थित है जो  कि  ऊना से लगभग आठ किमी दूर है।  पिछले कुछ सालों में इसे प्रसिद्धि मिली थी। इससे पहले प्रत्येक मंगलवार को ‘विक्रमी महीने जेठ’ में एक मेले का आयोजन किया जाता था, जब लोग बुरी नज़र और बीमारियों से बचाने के लिए पशुओं को लाते थे। लेकिन अब हर गुरुवार, और विशेष रूप से महीने के पहले अर्थात् ‘जेठा वीरवार’  को पंजाब के आस-पास राज्य से भी बहुत से श्रधालु आते है। जिला प्रशासन के सक्षम मार्गदर्शन के तहत स्थानीय पंचायत, मंदिर की यात्रा करने वाले भक्तों / तीर्थ यात्रियों को और अधिक सुविधाएं प्रदान करने का प्रयास कर रही है।

ध्युन्सर महादेव -तलमेहरा

धुनसर महादेव मंदिर तलमेरा

ऊना जिले के बंगाना तहसील में तलमेहरा के पास बहई गांव में स्थित, ध्युन्सर महादेव मंदिर धौर्येश्वर सदाशिव तिराथ (मंदिर) का भ्रष्ट रूप है। ऐसा माना जाता है कि पांडवों के ‘कुल-पुरोहित’ (पारिवारिक पुजारी), धौमिया ऋषि इस जगह पर घूमते हुए  आये और यहाँ की शांति और सुंदर परिवेश से आकर्षित हुए, भगवान महादेव की पूजा करने के प्रति सम्मान में बैठे।  ऋषि ने भगवान शिव से प्रार्थना की और यह वरदान माँगा कि जो इस स्थान पर उसकी पूजा करेगा, उसकी इच्छा पूरी हो जाएगी। उस समय के दौरान इस जगह को धुमेश्वर सदाशिव तीरथ का नाम मिला जो आधुनिक समय में ध्युन्सर महादेव हो गया।  ‘शिवरात्रि’ के शुभ अवसर पर, यहां एक मेला आयोजित किया जाता है जब मंदिर में ‘शिव लिंग’ को “ओम नमः शिवय” का जप करते हुए विशाल सभा की उपस्थिति में दूध और मक्खन के दूध से नहाया जाता है। 

पचास साल पहले, स्वामी आनंद गिरि उत्तरकाशी से आए थे और बुरी तरह क्षतिग्रस्त और जलाए गए मंदिर को एक खूबसूरत जगह में पुनर्निर्मित किया था। इस बीच में कुछ नए विश्राम स्थान भी बनाये गए हैं और भक्तों और तीर्थयात्रियों की सुविधा के लिए एक पानी की टंकी भी बनाई गई है।

अंब

अंब, जसवान राज्य का एक भाग, जो कि धर्मशाला-ऊना-चंडीगढ़ रोड पर लगभग 32 किलोमीटर दूर स्थित है। पुराने दिनों में यह जसवाल राजा के बागों के लिए जाना जाता था। 1972  में जिलों के पुनर्गठन के बाद अंब को उप-मंडल मुख्यालय की पहचान मिली। होशियारपुर से हमीरपुर, चंडीगढ़-ऊना-अंबा-नादौन-ज्वालामुखी और काँगड़ा-चंडीगढ़-दिल्ली और तलवार-मुबारिकपुर-ऊना आदि सड़क मार्ग अंब के माध्यम से गुजरते है, इसलिए यह एक महत्वपूर्ण शहर है।अंब में एक सरकारी डिग्री कॉलेज भी है। क्षेत्र के लोग उस दिन उत्सुकता से इंतजार कर रहे हैं जब ऊना-तलवाड़ा- मुकेरियां रेल लिंक आरम्भ हो जायेगा, जो कि निश्चित रूप से आर्थिक विकास के नए रास्ते खोलेगा ।

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