स्वामी भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में कहां फ़िट बैठते हैं?

स्वामी भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में कहां फ़िट बैठते हैं?
सवाल ये है कि स्वामी भारतीय जनता पार्टी की राजनीति में कहां फ़िट बैठते हैं? स्वामी का भारतीय जनता पार्टी के साथ रिश्ता उतार-चढ़ाव वाला रहा है. जब तक भाजपा पर अटल बिहारी बाजपेयी की पकड़ रही स्वामी पार्टी में अपने पैर नहीं जमा पाए. लेकिन आरएसएस और विश्व हिंदू परिषद में ऐसे कुछ लोग थे जो इस पूर्व अर्थशास्त्री के लिए जगह रखते थे. वे स्वामी में सहज बुद्धि, पांडित्य, छल का आदर्श मिश्रण देखते थे. लाल कृष्ण आडवाणी हमेशा से स्वामी को पार्टी में वापस चाहते थे. चेन्नई के चार्टर्ड अकाउंटेंट एस गुरुमूर्ती और संघ के विचारक और पूर्व राज्यसभा सांसद बलबीर पुंज भी इनके समर्थन में थे.
वाजपेयी और आडवाणी के बाद के युग के नेताओं में कुछ ही स्वामी को पसंद करते थे और उन्हें विद्रोही स्वभाव का समझते थे. लेकिन मोदी इसके अपवाद थे. कांग्रेस और गांधी परिवार को कमज़ोर करने का उत्साह जो ‘कांग्रेस मुक्त’ नारे में बदल गया से लबरेज मोदी को स्वामी में अपने एजेंडा आगे बढ़ाने वाला सहयोगी दिखा. 2014 के चुनावों से ठीक पहले मोदी स्वामी को वापस पार्टी में ले आए. स्वामी ने एक बार ‘सही तरीक़े’ से काला धन वापस न लाने के मुद्दे पर अरुण जेटली की आलोचना की थी. लगता है अब स्वामी मन और विचार से बदल गए हैं. अब उनके तरकश के तीर मोदी सरकार पर है,
उन्होंने वाजपेयी के लिए मुश्किले खड़ी कर दीं थी इसके अलावा स्वामी मुलायम सिंह यादव जैसे समाजवादी नेता को सोनिया गांधी की मदद से अगली सरकार का मुखिया बनाना चाहते थे. निश्चित रूप से सोनिया प्रधानमंत्री पद के लिए उनकी पसंद नहीं थीं. जयललिता और उस वक़्त राजनीतिक शुरुआत करने वाली सोनिया गांधी में उन्हें ऐसे दो भरोसेमंद सहयोगी दिखे जो वाजपेयी की सरकार गिराने की उनकी योजना को आगे बढ़ाने और लागू करने में अहम भूमिका निभा सकते थे. पार्टी के पहले प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने स्वामी के प्रति अपनी नापसंदी को कभी नहीं छुपाया. स्वामी ने 1998 में जयललिता की एआईडीएमके के सहयोग वाले एनडीए गठबंधन की सरकार को ख़तरे में ही डाल दिया था. जयललिता इस गठबंधन की बेहद अहम सहयोगी थीं और वो सुब्रमण्यम स्वामी को वित्त मंत्री बनाने पर अड़ गईं थीं. यहां तक की गठबंधन छोड़ने की धमकी तक दे डाली थी. वाजपेयी समीकरणों की मुश्किलें भांप गए थे.
नरसिम्हा राव सरकार के समय विपक्ष में होने के बावजूद स्वामी को कैबिनेट रैंक का दर्जा हासिल था. सोनिया गांधी को मुश्किल में डालने वाले स्वामी ने 1999 में वाजपेयी सरकार को गिराने की कोशिश की थी. इसके लिए उन्होंने सोनिया और जयललिता की अशोक होटल में मुलाक़ात भी कराई. हालांकि ये कोशिश नाकाम हो गई. इसके बाद वे हमेशा गांधी परिवार के ख़िलाफ़ ही नज़र आए. हालांकि एक समय में स्वामी राजीव गांधी के नजदीकी दोस्तों में भी शामिल थे. बोफोर्स कांड के दौरान वे सदन में ये सार्वजनिक तौर पर ये कह चुके थे कि राजीव गांधी ने कोई पैसा नहीं लिया है. एक इंटरव्यू में स्वामी का दावा है कि वे राजीव के साथ घंटों समय व्यतीत किया करते थे और उनके बारे में सबकुछ जानते थे. भाजपा के तेजतर्रार नेता सुब्रमण्यरम स्वानमी अपने बयानों और ट्वीट को लेकर विरोधियों के लिए मुश्किलें खड़ी करते रहे हैं। लेकिन हाल ही में यह दांव उन पर ही उल्टाा पड़ गया जब अनजाने में उन्होंलने अपनी पत्रकार बेटी को ही निशाने पर ले लिया। हालांकि बाद में उन्हेंग गलती का अहसास हुआ तो उन्होंोने बेटी के बचाव में सफाई दी। उनकी बेटी सुहासिनी हैदर भी थी। सुहासिनी वर्तमान में अंग्रेजी अखबार ‘द हिंदू’ में काम करती हैं। सुब्रमण्यम स्वामी राज्य सभा में कांग्रेस के ख़िलाफ़ काफ़ी आक्रामक रहे हैं. नेशनल हेरल्ड मामले में सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अदालत तक लाने वाले सुब्रमण्यम स्वामी अपने सार्वजनिक जीवन में कई वजहों से चर्चा में रहे हैं. कभी प्रतिभाशाली गणितज्ञ के तौर पर मशहूर रहे स्वामी को कानून का जानकार भी माना जाता है. स्वामी के पिता सीताराम सुब्रमण्यम जाने माने गणितज्ञ थे. वे एक समय में केंद्रीय सांख्यिकी इंस्टीच्यूट के डायरेक्टर थे. पिता की तरह ही स्वामी भी गणितज्ञ बनना चाहते थे. उन्होंने हिंदू कॉलेज से गणित में स्नातक की डिग्री ली. इसके बाद से भारतीय सांख्यिकी इंस्टीच्यूट, कोलकाता पढ़ने गए.
2- स्वामी के जीवन का विद्रोही गुण पहली बार कोलकाता में ज़ाहिर हुआ. उस वक्त भारतीय सांख्यिकी इंस्टीच्यूट, कोलकाता के डायरेक्टर पीसी महालानोबिस थे, जो स्वामी के पिता के प्रतिद्वंद्वी थे. लिहाजा उन्होंने स्वामी को ख़राब ग्रेड देना शुरू किया. स्वामी ने 1963 में एक शोध पत्र लिखकर बताया कि महालानोबिस की सांख्यिकी गणना का तरीका मौलिक नहीं है, बल्कि यह पुराने तरीके पर ही आधारित है. स्वामी ने महज 24 साल में हार्वर्ड विश्वविद्यालय से पीएचडी की डिग्री हासिल कर ली. 27 साल में वे हार्वर्ड में गणित पढ़ाने लगे थे. 1968 में अमृत्य सेन ने स्वामी को दिल्ली स्कूल ऑफ़ इकॉनामिक्स में पढ़ाने का आमंत्रण दिया. स्वामी दिल्ली आए और 1969 में आईआईटी दिल्ली से जुड़ गए. इंदिरा गांधी की नाराजगी के चलते स्वामी को दिसंबर, 1972 में आईआईटी दिल्ली की नौकरी गंवानी पड़ी. वे इसके ख़िलाफ़ अदालत गए और 1991 में अदालत का फ़ैसला स्वामी के पक्ष में आया. वे एक दिन के लिए आईआईटी गए और इसके बाद अपना इस्तीफ़ा दे दिया.  नानाजी देशमुख ने स्वामी को जनसंघ की ओर से राज्यसभा में 1974 में भेजा. आपातकाल के 19 महीने के दौर में सरकार उन्हें गिरफ़्तार नहीं कर सकी. इस दौरान उन्होंने अमरीका से भारत आकर संसद सत्र में हिस्सा भी ले लिया और वहां से फिर ग़ायब भी हो गए.
1977 में जनता पार्टी के संस्थापक सदस्यों में रहे. 1990 के बाद वे जनता पार्टी के अध्यक्ष रहे. 11 अगस्त, 2013 को उन्होंने अपनी पार्टी का विलय भारतीय जनता पार्टी में कर दिया.

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