स्वामी विवेकानंद देेहरादून, अल्‍मोडा में तपस्यारत रहे

Execlusive Report: विवेकानंद देहरादून के  राजपुर स्थित बावड़ी के प्राचीन शिव मंदिर में अपने गुरु भाई तुर्यानंद को तपस्यारत देखकर स्वामी जी शिव मंदिर में ही रुक गए एवं लगभग एक पक्ष तक तपस्यारत रहे।. 

भारत की पावन माती में, हुए अनेकों संत l   एक उन्ही में उज्जवल तारा, हुए विवेकानंद ll

154वीं जयंती ;स्वामी विवेकानंद जी ;पर हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल की विशेष प्रस्‍तुति – चन्‍द्रशेखर जोशी सम्‍पादक  

नैनीताल से बद्रीकाश्रम की ओर होते हुए तीसरे दिन कौसी नदी तट पर पुराने पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान मग्न ; 25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिया 19 ‌सितंबर 1893 को शिकागो के ब्याख्यान के जिस मूल तत्व की वजह से स्वामी विववेकानंद को दुनिया ने सिर-आंखों पर बैठा ‌लिया, कम लोग ही जानते होंगे कि यह ज्ञान उन्हें नैनीताल से बद्रीकाश्रम की ओर जाते वक्त कोसी नदी तट पर पुराने पीपल के पेड़ के नीचे मिला था।  1890 में बद्री नारायण क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ने के कारण श्रीनगर के रास्ते टिहरी होते हुए विवेकानंद देहरादून के पर्वतीय क्षेत्र पहुंचे। राजपुर स्थित बावड़ी के प्राचीन शिव मंदिर में अपने गुरु भाई तुर्यानंद को तपस्यारत देखकर स्वामी जी शिव मंदिर में ही रुक गए एवं लगभग एक पक्ष तक तपस्यारत रहे।.

साल 1890 में स्वामी विवेकानंद कलकत्ते से निकलकर सीधे उत्तराखंड के हिमालय पहुंचे। नैनीताल से बद्रीकाश्रम की ओर होते हुए तीसरे दिन कौसी नदी तट पर पुराने पीपल के पेड़ के नीचे ध्यान मग्न हो गए। ध्यान टूटने पर उन्होंने अपने साथी गंगाधर से कहा कि आज इस वृक्ष तले मेरे जीवन की एक प्रधान समस्‍या का समाधान हुआ है। उन्होंने अणु ब्रह्मांड एवं विश्व ब्रह्मांड की एकात्मकता का अनुभव किया। इस विश्व में जो कुछ भी विद्यमान है वही इस देह में है। काकड़ी घाट अल्मोड़ा हुए माइक्रोकॉज्म एवं मैक्रोकॉज्म के सिद्घांत को विवेकानंद द्वारा शिकागो के भाषण में 19 सितंबर 1893 को व्याख्यान का मुख्य विषय बनाया गया।
4 जुलाई, सन्‌ 1902 को उन्होंने अलौकिक रूप से अपना देह त्याग किया। बेल्लूर मठ में अपने गुरु भाई स्वामी प्रेमानंद को मठ के भविष्य के बारे में निर्देश देकर रात में ही उन्होंने जीवन की अंतिम सांसें लीं। उठो जागो और तब तक ना रुको जब तक मंजिल प्राप्त न हो जाए, स्वामी विवेकानंद के यही आदर्श आध्यात्मिक हस्ती होने के बावजूद युवाओं के लिए एक बेहतरीन प्रेरणास्त्रोत साबित करते हैं। आज भी कई ऐसे लोग हैं, जो केवल उनके सिद्धांतों को ही अपना मार्गदर्शक मानते हैं।
1890 में अल्मोड़ा पहुंचने से पहले विवेकानंद एवं अखंडानंद घने वन प्रांत को पार कर करबला के ‌कब्रिस्तान पहुंचे। प्यासे थके हारे नरेंद्र ‌निढाल पड़ गए। तब कहीं जाकर उन्हें यहां के रखवाले फकीर जुल्फिकार अली ने देखा और उनके हाथ में एक पहाड़ी खीरा दिया जिससे वे अपनी प्यास बुझा सके। लेकिन विवेकानंद में इतनी ताकत नहीं थी कि वे इसे खुद खा सकें। फकीर मुसलमान होने के कारण विवेकानंद को खीरा खिलाने में हिचक रहा था, लेकिन विवेकानंद ने उनके हाथ से खीरा खा लिया। फिर जब दोबारा विवेकानंद अल्मोड़ा आए तो सभा में दूर खड़े इस ‌फकीर को मंच पर ले आए और लोगों को बताया कि इस फकीर ने उनकी जान बचाई है।

स्वामी विवेकानंद देहरादून शिव मंदिर में ही रुक गए ; 
19 ‌सितंबर 1893 को शिकागो के ब्याख्यान के जिस मूल तत्व की वजह से स्वामी विववेकानंद को दुनिया ने सिर-आंखों पर बैठा ‌लिया, कम लोग ही जानते होंगे कि यह ज्ञान उन्हें नैनीताल से बद्रीकाश्रम की ओर जाते वक्त कोसी नदी तट पर पुराने पीपल के पेड़ के नीचे मिला था। अपने लंदन प्रवास में आल्पस की पहाड़ियों को देखकर स्वामी जी ने हिमालय की वादियों में एक आश्रम को प्रतिष्ठित करने का संकल्प लिया। स्वामी विवेकानंद की प्रेरणा से स्वामी स्वरूपानंद एवं सेवियर दंपत्ति ने 19 मार्च 1899 में अद्घैत आश्रम की स्‍थापना की। 1890 में बद्री नारायण क्षेत्र में भीषण अकाल पड़ने के कारण श्रीनगर के रास्ते टिहरी होते हुए विवेकानंद देहरादून के पर्वतीय क्षेत्र पहुंचे। राजपुर स्थित बावड़ी के प्राचीन शिव मंदिर में अपने गुरु भाई तुर्यानंद को तपस्यारत देखकर स्वामी जी शिव मंदिर में ही रुक गए एवं लगभग एक पक्ष तक तपस्यारत रहे।.
25 वर्ष की अवस्था में नरेंद्र दत्त ने गेरुआ वस्त्र पहन लिया। तत्पश्चात उन्होंने पैदल ही पूरे भारतवर्ष की यात्रा की। सन्‌ 1893 में शिकागो में विश्व धर्म परिषद् हो रही थी। स्वामी विवेकानंद जी उसमें भारत के प्रतिनिधि के रूप से पहुंचे। यूरोप व अमेरिका में लोग उस समय पराधीन भारतवासियों को बहुत हीन दृष्टि से देखते थे। वहां लोगों ने बहुत प्रयत्न किया कि स्वामी विवेकानंद को सर्वधर्म परिषद् में बोलने का समय ही न मिले। एक अमेरिकन प्रोफेसर के प्रयास से उन्हें थोड़ा समय मिला किंतु उनके विचार सुनकर सभी विद्वान चकित हो गए। फिर तो अमेरिका में उनका बहुत स्वागत हुआ। वहां इनके भक्तों का एक बड़ा समुदाय हो गया। तीन वर्ष तक वे अमेरिका में ही रहे और वहां के लोगों को भारतीय तत्वज्ञान की अद्भुत ज्योति प्रदान करते रहे। विद्या और भारतीय दर्शन के बिना विश्व अनाथ हो जाएगा यह स्वामी विवेकानंदजी का दृढ़ विश्वास था। अमेरिका में उन्होंने रामकृष्ण मिशन की अनेक शाखाएं स्थापित की। अनेक अमेरिकन विद्वानों ने उनका शिष्यत्व ग्रहण किया। वे सदा खुद को गरीबों का सेवक मानते थे। भारत के गौरव को देश दुनियां तक पहुंचाने के लिए वह सदा प्रयत्नशील रहते थे।

भारतीय पुनर्जागरण के अग्रदूत महापुरुषों में स्वामी दयानंद तथा स्वामी विवेकानंद का अन्यतम स्थान हैl भारतीय पुनर्जागरण के महान सेवक स्वामी विवेकानंद का जन 12 जनवरी सन 1863 में कल्केज में एक सम्मानित परिवार में हुआ था l इनकी माता आध्यात्मिकता में पूर्ण विशवास करती थी परन्तु इनके पिता स्वतंत्र विचार के गौरवपूर्ण व्यक्ति थे l इनका पहला नाम नरेन्द्रनाथ था, शारीरिक दृष्टि से नारेंद्नाथ हष्ट-पुष्ट व् शौर्यवान थे l उनका शारीरिक गठन और प्रभावशाली मुखाकृति प्रत्येक को अपनी और आकर्षित कर लेती थी l
रामकृष्ण के शिष्य बन्ने से पूर्व वे कुश्ती, घुन्सेबाजी, घुड़सवारी और तैरने आदि में भी निपुणता प्राप्त कर चुके थे l उनकी वृद्धि विलक्षण थी, जो पाश्चात्य दर्शन में ढाली गयी थी l उन्होंने देकार्त, ह्य म, कांट, फाखते, स्प्नैजा, हेपिल, शौपेन्हावर, कोमट, डार्विन और मिल आदि पाश्चात्य दार्शनिको कि रचनाओं को गहनता से पढ़ा था l इस अध्ययनों के कारण उनका दृष्टिकोण आलोचनात्मक और विश्लेष्णात्मक हो गया था l प्रारंभ में वे ब्रह्मसमाज कि शिक्षाओं से प्रभावित हुए, परन्तु वैज्ञानिक अध्ययनों के कारण ईश्वर से उनका विश्वास नष्ट हो गया था l पर्याप्त काल तक वे नास्तिक बने रहे और कलकत्ता शहर में ऐसे गुरु कि खोज में घूमते रहे जो उन्हें ईश्वर के अस्तित्व का ज्ञान करा सके l
भारत की पावन माती में, हुए अनेकों संत l   एक उन्ही में उज्जवल तारा, हुए विवेकानंद ll

जब विवेकानंद परमहंस से मिले तो उनकी आयु केवल 25 वर्ष की थी l परमहंस से उनका मिलना मानो दो विभिन्न व्यक्तियों का मिलन प्राचीन तथा नविन विचारधारा का मिलन था l परमहंस की अध्यात्मिक विचारधारा ने विवेकानंद को विशेष रूप से प्रभावित किया l परमहंस से मिलने पर विवेकानंद ने उनसे प्रशन किया कि क्या तुमने ईश्वर को देखा है ? परमहंस ने मुस्कुराते हुए कहा हाँ देखा है l मैं इसे देखता हूँ, जैसे मैं तुम्हे देखता हूँ l इसके पश्चात परमहंस ने विवेकानंद का स्पर्श किया l इस स्पर्श से विवेकानंद को एक झटका सा लगा और उनकी आंतरिक आत्मा चेतन हो उठी l अब उनका आकर्षण परमहंस के प्रति दिन प्रतिदिन बढ़ने लगा l अब उन्होंने रामकृष्ण के आगे अपने को पूर्णरूप से अर्पित कर दिया और उनके शिष्य बन गए l
इन दिनों हिन्दू धर्म कि पाश्चात्य विचारक कड़ी आलोचना करते थे जिससे विवेकानंद के ह्रदय को गहरा आघात लगता था l इन आलोचनाओं का प्रत्युतर देने के लिए उन्होंने निश्चय किया कि संसार के सामने भारत की आवाज बुलंद की जाय l 31 मई सन 1893 में वे अमेरिका गए और 11 सितम्बर, सन 1893 शिकागो में उन्होंने ‘विश्वधर्म संसद’ में अत्यंत प्रतिभाशाली सारगर्भित भाषण दिए l विवेकानंद का भाषण संकीर्णता से परे सार्वदेशिकता और मानवता से ओत-प्रोत था l वहां की जनता उनकी वाणी को सुनकर मुग्ध हो जाती थी l विवेकनद के शब्दों में ‘जिस प्रकार साड़ी धाराएँ अपने ताल को सागर में लाकर मिल देती है, उसी प्रकार मनुष्य के सारे धर्म ईश्वर की और ले जाते है l
स्वामी विवेकानंद ने फरवरी, 1896 में न्यूयार्क अमेरिका में वेदांत समाज की स्थापना की l 1899 में उन्होंने अपने गुरु के नाम पर रामकृष्ण सेवाधर्म की स्थापना की l इस समय ही भारत में भीषण अकाल पड़ा l अकाल पीड़ितों की मिशन के साधुओं ने हृदय से सेवा की l 4 जुलाई सन 1902 में उनका स्वर्गवास हो गया l विवेकानंद जी की प्रमुख रचनाये (1) ज्ञान योग, (2) राजयोग, (3) भक्ति योग, और (4) कर्मयोग है l
स्वामी विवेकानंद के राजनैतिक विचार
यह सत्य है कि विवेकानंद राजनैतिक आन्दोलन के पक्ष में नहीं थे इस पर भी उनकी इच्छा थी कि एक शक्तिशाली बहादुर और गतिशील राष्ट्र का निर्माण हो l वे धर्म को राष्ट्रीय जीवन रूपी संगीत का स्थायी स्वर मानते थे l हिंगल के समान उनका विचार था कि प्रत्येक राष्ट्र का जीवन किसी एक तत्व कि अभिव्यक्ति है l उदाहरण के लिए धर्म भारत के इतिहास का एक प्रमुख निर्धारक तत्व रहा है l स्वामी विवेकानंद शब्दों में “जिस प्रकार संगीत में एक प्रमुख स्वर होता है वैसे ही हर रह्स्त्र के जीवन में एक प्रधान तत्व हुआ करता है l अन्य सभी तत्व इसी में केन्द्रित होते है प्रत्येक राष्ट्र का अपना अन्य सब कुछ गौण है l” भारत का तत्व धर्म है l समाज-सुधार तथा अन्य सब कुछ गौण है l” अन्य शब्दों में विवेकानंद ने राष्ट्रवाद के धार्मिक सिंद्धांत का प्रतिपादन किया l उनका विशवास था कि धर्म ही भारत के राष्ट्रीय जीवन का प्रमुख आधार बनेगा l उनके विचार में किसी राष्ट्र को गौरवशाली, उसके अतीत कि महत्ता की नींव पर ही बनाया जा सकता है l अतीत की उपेक्षा करके राष्ट्र का विकास नहीं किया जा सकता l वे राष्ट्रीयता के अध्यात्मिक पक्ष में विश्वास करते थे उनका विचार था कि भारत में स्थायी राष्ट्रवाद का निर्माण धार्मिकता के आधार पर ही किया जा सकता है l
भारतीय संस्कृति के प्रति गहन आस्था
स्वामी विवेकानंद भारतीय संस्कृति के महान पुजारी थे l उनका कथन था कि देश के बुद्धि जीवियों को पाश्चात्य संस्कृति कि चमक दमक में भारतीय संस्कृति को नहीं भूल जाना चाहिए l स्वामी जी का विचार था कि भारतवासियों को अपनी एकता को बनाये रखने का प्रयास करना चाहिए l यदि देशवासी ब्राह्मण, अब्राह्मण, द्रविड़-आर्य आदि विवादों में ही पड़े रहेंगे तो उनका कल्याण नहीं हो सकेगा l स्वामी विवेकानंद ने सम्पूर्ण भारत का भ्रमण करने के पश्चात् देखा कि देश की अधिकांश निर्धन जनता अत्यंत दरिद्रता का जीवन व्यतीत करती है l उन्होंने यह भी अनुभव किया कि इस व्यापक दरिद्रता और निर्धनता का मूल कारण यहाँ के निवासियों का आलसी और भाग्यवादी होना है l
संसार के सन्मुख भारतीय संस्कृति और सभ्यता की श्रेष्ठता की सर्वोच्चता का डंका बजने का श्री विवेकानंद को ही जाता है अपनी ओजस्वी वाणी के द्वारा सोये हुए हिन्दुओं में स्वाभिमान और आत्मगौरव की भावना का जो संचार किया वह उपेक्षित नहीं किया जा सकता l

अद्वैत आश्रम रामकृष्ण मठ की एक शाखा है जो भारत के उत्तराखण्ड राज्य के चम्पावत जिले में मायावती नामक स्थान पर स्थित है। यह स्थान समुद्र तट से ६४०० फीट ऊंचाई पर टनकपुर रेलवे स्टेशन से ८८ किमी तथा काठगोदाम रेलवे स्टेशन से १६७ किमी दूर चम्पावत जिले के अंतर्गत लोहाघाट नामक स्थान से उत्तर पश्चिम जंगल में ९ किमी पर है, देवदार, चीड़, बांज व बुरांश की सघन वनराजि के बीच अदभुत नैसर्गिक सौन्दर्य के मध्य मणि के समान यह आश्रम आगंतुकों को निर्मल शान्ति प्रदान करता है।
स्वामी विवेकानन्द की प्रेरणा से उनके संन्यासी शिष्य स्वामी स्वरूपानंद और अंग्रेज शिष्य कैप्टन जे एच सेवियर और उनकी पत्नी श्रीमती सी ई सेवियर ने मिलकर १९ मार्च १८९९ में इसकी स्थापना की थी। सन् १९०१ में कैप्टन जे एच सेवियर के देहांत का समाचार जानकर स्वामी विवेकानंद श्रीमती सेवियर को सांत्वना देने के निमित्त मायावती आये थे। तब वे इस आश्रम में ३ से १८ जनवरी तक रहे। कैप्टेन की मृत्यु के पंद्रह वर्ष बाद तक श्रीमती सेवियर आश्रम में सेवाकार्य करती रहीं। स्वामी विवेकानंद की इच्छानुसार मायावती आश्रम में कोई मंदिर या मूर्ति नहीं है इसलिए यहाँ सनातनी परम्परानुरूप किसी प्रतीक की पूजा नहीं होती। सांय काल मधुर वाणी में सामूहिक रूप से संगीत वाद्यों के साथ राम नाम संकीर्तन होता है। १९०३ में यहाँ एक धर्मार्थ रूग्णालय की स्थापना की गई, जिसमें गरीबों की निशुल्क चिकित्सा की जाती है। यहाँ की गौशाला में अच्छी नस्ल की स्वस्थ्य गायें हैं, यात्रीगण इनके शुद्ध, ढूध का रसास्वादन प्रात: नाश्ते के समय और रात्रि भोजन के उपरांत ले सकते हैं।
आश्रम में १९०१ में स्थापित एक छोटा पुस्तकालय भी है, जिसमें अध्यात्म व् दर्शन सहित अनेक विषयों से सम्बद्ध पुस्तकें संकलित हैं। आश्रम से लगभग दो सो मीटर दूर एक छोटी अतिथिशाला भी है, जहां बाहर से आने वाले साधकों के ठहरने की व्यवस्था है। प्रबुद्ध भारत पत्रिका का प्रकाशन यहीं से आरम्भ हुआ।

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