तंत्र विद्या भारतीय रीति-रिवाज़ का एक महत्वपूर्ण अंग

वर्तमान समय में तंत्र विद्या के सच्चे जानकार बहुत कम बचे है तंत्र विद्या भारतीय रीति-रिवाज़ का एक महत्वपूर्ण अंग है और वेदों में इस विद्या का विस्तार से वर्णन भी है। तंत्र शास्त्र का मूल अथर्ववेद में पाया जाता है। तंत्र शास्त्र 3 भागों में विभक्त है आगम तंत्र, यामल तंत्र और मुख्य तंत्र। तंत्र को अंग्रेजी में ऑकल्ट कहा जाता है, जिसे अगर सरल शब्दों में समझे तो ये मन्त्रों से काम करने वाली एक तरह की सिस्टम में ढली टेक्नोलॉजी है। जिसका ज्ञान स्वयं आदियोगी शिव ने दिया है। तंत्र के माध्यम से ही प्राचीनकाल में घातक किस्म के हथियार बनाए जाते थे। जैसे पाशुपतास्त्र, नागपाश, ब्रह्मास्त्र आदि। इसी तरह तंत्र से ही सम्मोहन, त्राटक, त्रिकाल, इंद्रजाल, परा, अपरा और प्राण विधा का जन्म हुआ है। भगवान शिव के बाद भगवान दत्तात्रेय तंत्र के दूसरे गुरु हुए है। बाद में 84 सिद्ध, योगी, शाक्त और नाथ परम्परा का प्रचलन रहा है। नाथ परंपरा में गुरु गोरखनाथ और नवनाथों का विशेष स्थान है। गोरखनाथ के गुरु मत्स्येंद्रनाथ थे। तंत्र विज्ञान में यंत्रों की जगह मानव शरीर में मौजूद विधुत शक्ति का उपयोग कर उसे परमाणुओं में बदला जा सकता है। इसलिए चीज़ों की रचना, परिवर्तन और विनाश का बड़ा भारी काम बिना किन्हीं यंत्रों की सहायता के तंत्र द्वारा हो सकता है। भैरव, वीर, यक्ष, गंधर्व, सर्प, किन्नर, विद्याधर, दस महाविद्या, पिशाचनी, योगिनी, यक्षिणियां आदि सभी तंत्रमार्गी देवी और देवता हैं। इसके अलावा तांत्रिक मसान, पिशाच, ब्रह्मराक्षस, वेताल, कर्ण-पिशाचनी, दुर्ग आदि की सिद्धि करने की कोशिश करते है। तंत्र साधना में शांति कर्म, वशीकरण और मारण नामक छह तांत्रिक षट कर्म होते है। इसके अलावा नौ प्रयोगों का भी वर्णन मिलता है जो इस प्रकार है मारण, मोहनं, स्तंभनं, विदेवषण, उच्चाटन, वशीकरण, आकर्षण, यक्षिणी साधना, और रसायन क्रिया। तांत्रिक साधना का मूल उद्देश्य सिद्धि से साक्षात्कार करना है। इसके लिए अंतर्मुखी होकर साधनाएं की जाती हैं। तांत्रिक साधना के साधारणतया 3 मार्ग- वाम मार्ग, दक्षिण मार्ग और मध्यम मार्ग है।

नागपाश शत्रु को बंधन में बाँध लेने वाले प्राचीनकाल के अस्त्र का नाम है।
जब राहु और केतु के घेरे में अन्य सभी ग्रह आ जाएं तो कालसर्प योग का निर्माण होता है। राहु को सर्प का मुंह तथा केतु को उसकी पूंछ कहते हैं। इसे नागपाश योग भी कहा जाता है। काल का अर्थ मृत्यु है। यदि अन्य ग्रह योग बलवान न हों, तो कालसर्प योग से प्रभावित जातक की मृत्यु शीघ्र हो जाती है या फिर जीवित रहने की अवस्था में उसे मृत्युतुल्य कष्ट होता है। कालसर्प योग से प्रभावित जातक को आजीवन भिन्न-भिन्न तरह के कष्टों, ऋण, बेरोजगारी, संतानहीनता, दाम्पत्य जीवन में सुख का अभावआदि का सामना करना पड़ता है। ज्योतिष में नागपंचमी के दिनऔर भाद्रकृष्ण अष्टमी तथा भाद्रशुक्ल नवमी को सर्पों की विशेषपूजा का विधान है। पुराणों में शेषनाग का उल्लेख है जिस परविष्णु भगवान शयन करते हैं।
रावण के पुत्र मेघनाथ ने राम से युद्ध करते हुये राम को नागपाश से बाँध दिया था। देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़, जो कि सर्पभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर राम को नागपाश के बंधन से छुड़ाया। राम के इस तरह नागपाश में बँध जाने पर राम के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को सन्देह हो गया। गरुड़ का सन्देह दूर करने के लिये देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्मा के पास भेजा। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा सन्देह भगवान शंकर दूर कर सकते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका सन्देह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि जी के पास भेज दिया। अन्त में काकभुशुण्डि जी राम के चरित्र की पवित्र कथा सुना कर गरुड़ के सन्देह को दूर किया।
 

काकभुशुण्डि रामचरितमानस के एक पात्र हैं। संत तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के उत्तरकाण्ड में लिखा है कि काकभुशुण्डि परमज्ञानी रामभक्त हैं। रावण के पुत्र मेघनाथ ने राम से युद्ध करते हुये राम को नागपाश से बाँध दिया था। देवर्षि नारद के कहने पर गरूड़, जो कि सर्पभक्षी थे, ने नागपाश के समस्त नागों को खाकर राम को नागपाश के बंधन से छुड़ाया। राम के इस तरह नागपाश में बँध जाने पर राम के परमब्रह्म होने पर गरुड़ को सन्देह हो गया। गरुड़ का सन्देह दूर करने के लिये देवर्षि नारद उन्हें ब्रह्मा जी के पास भेजा। ब्रह्मा जी ने उनसे कहा कि तुम्हारा सन्देह भगवान शंकर दूर कर सकते हैं। भगवान शंकर ने भी गरुड़ को उनका सन्देह मिटाने के लिये काकभुशुण्डि जी के पास भेज दिया। अन्त में काकभुशुण्डि जी ने राम के चरित्र की पवित्र कथा सुना कर गरुड़ के सन्देह को दूर किया। गरुड़ के सन्देह समाप्त हो जाने के पश्चात् काकभुशुण्डि जी गरुड़ को स्वयं की कथा सुनाया जो इस प्रकार हैः
पूर्व के एक कल्प में कलियुग का समय चल रहा था। उसी समय काकभुशुण्डि जी का प्रथम जन्म अयोध्या पुरी में एक शूद्र के घर में हुआ। उस जन्म में वे भगवान शिव के भक्त थे किन्तु अभिमानपूर्वक अन्य देवताओं की निन्दा करते थे। एक बार अयोध्या में अकाल पड़ जाने पर वे उज्जैन चले गये। वहाँ वे एक दयालु ब्राह्मण की सेवा करते हुये उन्हीं के साथ रहने लगे। वे ब्राह्मण भगवान शंकर के बहुत बड़े भक्त थे किन्तु भगवान विष्णुकी निन्दा कभी नहीं करते थे। उन्होंने उस शूद्र को शिव जी का मन्त्र दिया। मन्त्र पाकर उसका अभिमान और भी बढ़ गया। वह अन्य द्विजों से ईर्ष्या और भगवान विष्णु से द्रोह करने लगा। उसके इस व्यवहार से उनके गुरु (वे ब्राह्मण) अत्यन्त दुःखी होकर उसे श्री राम की भक्ति का उपदेश दिया करते थे।
एक बार उस शूद्र ने भगवान शंकर के मन्दिर में अपने गुरु, अर्थात् जिस ब्राह्मण के साथ वह रहता था, का अपमान कर दिया। इस पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके उसे शाप दे दिया कि रे पापी! तूने गुरु का निरादर किया है इसलिये तू सर्प की अधम योनि में चला जा और सर्प योनि के बाद तुझे 1000 बार अनेक योनि में जन्म लेना पड़े। गुरु बड़े दयालु थे इसलिये उन्होंने शिव जी की स्तुति करके अपने शिष्य के लिये क्षमा प्रार्थना की। गुरु के द्वारा क्षमा याचना करने पर भगवान शंकर ने आकाशवाणी करके कहा, “हे ब्राह्मण! मेरा शाप व्यर्थ नहीं जायेगा। इस शूद्र को 1000 बार जन्म अवश्य ही लेना पड़ेगा किन्तु जन्मने और मरने में जो दुःसह दुःख होता है वह इसे नहीं होगा और किसी भी जन्म में इसका ज्ञान नहीं मिटेगा। इसे अपने प्रत्येक जन्म का स्मरण बना रहेगा जगत् में इसे कुछ भी दुर्लभ न होगा और इसकी सर्वत्र अबाध गति होगी मेरी कृपा से इसे भगवान श्री राम के चरणों के प्रति भक्ति भी प्राप्त होगी।”
इसके पश्चात् उस शूद्र ने विन्ध्याचल में जाकर सर्प योनि प्राप्त किया। कुछ काल बीतने पर उसने उस शरीर को बिना किसी कष्ट के त्याग दिया वह जो भी शरीर धारण करता था उसे बिना कष्ट के सुखपूर्वक त्याग देता था, जैसे मनुष्य पुराने वस्त्र को त्याग कर नया वस्त्र पहन लेता है। प्रत्येक जन्म की याद उसे बनी रहती थी। श्री रामचन्द्र जी के प्रति भक्ति भी उसमें उत्पन्न हो गई। अन्तिम शरीर उसने ब्राह्मण का पाया। ब्राह्मण हो जाने पर ज्ञानप्राप्ति के लिये वह लोमश ऋषि के पास गया। जब लोमश ऋषि उसे ज्ञान देते थे तो वह उनसे अनेक प्रकार के तर्क-कुतर्क करता था। उसके इस व्यवहार से कुपित होकर लोमश ऋषि ने उसे शाप दे दिया कि जा तू चाण्डाल पक्षी (कौआ) हो जा। वह तत्काल कौआ बनकर उड़ गया। शाप देने के पश्चात् लोमश ऋषि को अपने इस शाप पर पश्चाताप हुआ और उन्होंने उस कौए को वापस बुला कर राममन्त्र दिया तथा इच्छा मृत्यु का वरदान भी दिया। कौए का शरीर पाने के बाद ही राममन्त्र मिलने के कारण उस शरीर से उन्हें प्रेम हो गया और वे कौए के रूप में ही रहने लगे तथा काकभुशुण्डि के नाम से विख्यात हुऐ।

 

वेद के अनेक मंत्र सर्प से संबंधित – सर्प कुल के नाग श्रेष्ठ 

सर्पों को देव योनि का प्राणी माना जाता है। नए भवन के निर्माण के समय नींव में सर्प की पूजा कर चांदी का सर्प स्थापित किया जाता है। वेद के अनेक मंत्र सर्प से संबंधित हैं। शौनक ऋषि के अनुसार जिस मनुष्य की धन पर अत्यधिक आसक्ति होती है, वह मृत्यु के बाद नाग बनकर उस धन पर जा बैठता है। सर्प कुल के नाग श्रेष्ठ होते हैं। नाग हत्या का पाप जन्म-जन्मांतर तक पीछा नहीं छोड़ता। नागवध का शाप संतान सुख में बाधक होता है। शाप से मुक्ति के लिए नाग का विधिवत् पूजन करके उसका दहन किया जाता है तथा उसकी भस्म के तुल्य स्वर्ण का दान किया जाता है।
शास्त्रों में सर्प को काल का पर्याय भी कहा गया है। मनुष्य का जीवन और मरण काल के आधीन है। काल सर्वथा गतिशील है, यह कभी किसी के लिए नहीं रुकता। काल प्राणियों को मृत्यु के पास ले जाता है और सर्प भी। कालसर्प योग संभवतः समय की गति से जुड़ा हुआ ऐसा ही योग है जो मनुष्य को परेशान करता है तथा उसके जीवन को संघर्षमय बना देता है।
राहु और केतु के बीच एक ओर अन्य सभी ग्रहों के आ जाने पर कालसर्प योग का निर्माण होता है।

 
पशुपतास्त्र मंत्र साधना एवं सिद्धि ब्रह्मांड में तीन अस्त्र सबसे बड़े हैं। पहला पशुपतास्त्र, दूसरा नारायणास्त्र एवं तीसरा ब्रह्मास्त्र। इन तीनों में से यदि कोई एक भी अस्त्र मनुष्य को सिद्ध हो जाए, तो उसके सभी कष्टों का शमन हो जाता है। उसके समस्त कष्ट समाप्त हो जाते हैं। परंतु इनकी सिद्धि प्राप्त करना सरल नहीं है। यदि आपमें कड़ी साधना करने का साहस एवं धैर्य नहीं है तो ये साधना आपके लिए नहीं है। किसी भी प्रकार की साधना करने हेतु मनुष्य के भीतर साहस एवं धैर्य दोनों की आवश्यकता होती है।
मंत्र – ऊँ श्लीं पशु हुं फट्।
विनियोग :- ऊँ अस्य मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छंदः, पशुपतास्त्ररूप पशुपति देवता, सर्वत्र यशोविजय लाभर्थे जपे विनियोगः।
षडंग्न्यास :- ऊँ हुं फट् ह्रदयाय नमः। श्लीं हुं फट् शिरसे स्वाहा। पं हुं फट् शिखायै वष्ट्। शुं हुं फट् कवचाय हुं। हुं हुं फट् नेत्रत्रयाय वौष्ट्। फट् हुं फट् अस्त्राय फट्।
ध्यान:- मध्याह्नार्कसमप्रभं शशिधरं भीमाट्टहासोज्जवलम् त्र्यक्षं पन्नगभूषणं शिखिशिखाश्मश्रु-स्फुरन्मूर्द्धजम्। हस्ताब्जैस्त्रिशिखं समुद्गरमसिं शक्तिदधानं विभुम् दंष्ट्रभीम चतुर्मुखं पशुपतिं दिव्यास्त्ररूपं स्मरेत्।।
विधि :- सर्वप्रथम अपने गुरुदेव से इस मंत्र की दीक्षा प्राप्त करें। इस मंत्र का पुरश्चरण 6 लाख जप करने से होता है। उसका दशांश होम, उसका दशांश तर्पण, उसका दशांश मार्जन एवं उसका दशांश ब्राह्मण भोज होता है। इस मंत्र के साथ में पाशुपतास्त्र स्त्रोत का पाठ भी अवश्य करना चाहिए। इस पाशुपत मंत्र की एक बार आवृति करने से ही मनुष्य संपूर्ण विघ्नों का नाश कर सकता है। सौ आवृतियों से समस्त उत्पातों को नष्ट कर सकता है। इस मंत्र द्वारा घी और गुग्गल के होम से मनुष्य असाध्य कार्यों को भी सिद्ध कर सकता है। इस पाशुपतास्त्र मंत्र के पाठमात्र से समस्त क्लोशों की शांति हो जाती है। पशुपतास्त्र स्त्रोत का नियमित रूप से 21 दिन सुबह-शाम 21-21 पाठ करें। साथ ही निम्नलिखिल स्त्रोत का 108 बार जाप करें। सुबह अथवा शाम को काले तिल से इस मंत्र की 51 आहुतियां भी अवश्य करें।
विनियोग :- ऊँ अस्य मंत्रस्य ब्रह्मा ऋषिः, गायत्री छंदः, पशुपतास्त्ररूप पशुपति देवता, सर्वत्र यशोविजय लाभर्थे जपे
विनियोगः।
।।पाशुपतास्त्र स्त्रोतम।।
मंत्रपाठ :- ऊँ नमो भगवते महापाशुपतायातुलबलवीर्यपराक्रमाय त्रिपञ्चनयनाय नानारूपाय नानाप्रहरणोद्यताय सर्वांगरंक्ताय भिन्नाञ्जनचयप्रख्याय श्मशान वेतालप्रियाय सर्वविघ्ननिकृन्तन-रताय सर्वसिद्धिप्रप्रदाय भक्तानुकम्पिने असंख्यवक्त्रभुजपादय तस्मिन् सिद्धाय वेतालवित्रासिने शाकिनीक्षोभ जनकाय व्याधिनिग्रहकारिणे पापभंजनाय सूर्यसोमाग्निनेत्राय विष्णु-कवचाय खंगवज्रहस्ताय यमदंडवरुणपाशाय रुद्रशूलाय ज्वलज्जिह्वाय सर्वरोगविद्रावणाय ग्रहनिग्रहकारिणे दुष्टनागक्षय-कारिणे।
ऊँ कृष्णपिंगलाय फट्। हुंकारास्त्राय फट्। वज्रह-स्ताय फट्। शक्तये फट्। दंडाय फट्। यमाय फट्। खड्गाय फट्। नैर्ऋताय फट्। वरुणाय फट्। वज्राय फट्। ध्वजाय फट्। अंकुशाय फट्। गदायै फट्। कुबेराय फट्। त्रिशुलाय फट्। मुद्गराय फट्। चक्राय फट्। शिवास्त्राय फट्। पद्माय फट्। नागास्त्राय फट्। ईशानाय फट्। खेटकास्त्राय फट्। मुण्डाय फट्। मुंण्डास्त्राय फट्। कंकालास्त्राय फट्। पिच्छिकास्त्राय फट्। क्षुरिकास्त्राय फट्। ब्रह्मास्त्राय फट्। शक्त्यस्त्राय फट्। गणास्त्राय फट्। सिद्धास्त्राय फट्। पिलिपिच्छास्त्राय फट्। गंधर्वास्त्राय फट्। पूर्वास्त्राय फट्। दक्षिणास्त्राय फट्। वामास्त्राय फट्। पश्चिमास्त्राय फट्। मंत्रास्त्राय फट्। शाकिन्यास्त्राय फट्। योगिन्यस्त्राय फट्। दंडास्त्राय फट्। महादंडास्त्राय फट्। नमोअस्त्राय फट्। सद्योजातास्त्राय फट्। ह्रदयास्त्राय फट्। महास्त्राय फट्। गरुडास्त्राय फट्। राक्षसास्त्राय फट्। दानवास्त्राय फट्। अघोरास्त्राय फट्। क्षौ नरसिंहास्त्राय फट्। त्वष्ट्रस्त्राय फट्। पुरुषास्त्राय फट्। सद्योजातास्त्राय फट्। सर्वास्त्राय फट्। नः फट्। वः फट्। पः फट्। फः फट्। मः फट्। श्रीः फट्। पेः फट्। भुः फट्। भुवः फट्। स्वः फट्। महः फट्। जनः फट्। तपः फट्। सत्यं फट्। सर्वलोक फट्। सर्वपाताल फट्। सर्वतत्व फट्। सर्वप्राण फट्। सर्वनाड़ी फट्। सर्वकारण फट्। सर्वदेव फट्। ह्रीं फट्। श्रीं फट्। डूं फट्। स्भुं फट्। स्वां फट्। लां फट्। वैराग्य फट्। मायास्त्राय फट्। कामास्त्राय फट्। क्षेत्रपालास्त्राय फट्। हुंकरास्त्राय फट्। भास्करास्त्राय फट्। चंद्रास्त्राय फट्। विध्नेश्वरास्त्राय फट्। गौः गां फट्। स्त्रों स्त्रों फट्। हौं हों फट्। भ्रामय भ्रामय फट्। संतापय संतापय फट्। छादय छादय फट्। उन्मूलय उन्मूलय फट्। त्रासय त्रासय फट्। संजीवय संजीवय फट्। विद्रावय विद्रावय फट्। सर्वदुरितं नाशय नाशय फट्।

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