‘द हिन्दू’ के पत्रकार एन राम का खुलासा

वरिष्ठ  पत्रकार एन राम ने ‘द हिन्दू’ अख़बार में अपनी विस्तृत रिपोर्ट में खुलासा किया – फ़्रांसीसी कंपनी दसॉ से 126 लड़ाकू विमान के बदले सिर्फ़ 36 जहाज़ ख़रीदने के नरेंद्र मोदी सरकार के फ़ैसले की वजह से इन विमानों की क़ीमत बढ़ गई। भारत सरकार ने विमान में अपनी ज़रूरतों के मुताबिक़ डिज़ायन और तकनीकी में 13  बदलाव करने को कहा था। सॉफ़्टवेअर और हार्डवेअर में होने वाले इन बदलावों के लिए दसॉ ने अतिरिक्त 1.3 अरब यूरो (उस समय की विनिमय दर के हिसाब से लगभग 98 अरब रुपये) की माँग की। अगर सरकार ने मूल प्रस्ताव के हिसाब से 126 विमान ख़रीदे होते तो यह लागत उन सब में बँट जाती। लेकिन सरकार ने अचानक सिर्फ़ 36 विमान ही ख़रीदने का फ़ैसला इसलिए इस बदलाव के बाद रफ़ाल विमानों की कीमत में लगभग 41 प्रतिशत का इज़ाफ़ा हो गया। 

ख़बर के मुताबिक़, यूपीए सरकार ने जब 126 विमान खरीदने का ठेका जारी किया तो दसॉ एविएशन के प्रस्ताव को सबसे सस्ता पाया गया और इसे ही चुन लिया गया। इसके तहत 18 तैयार विमान भारत आने थे और सरकारी कंपनी हिन्दुस्तान एअरोनॉटिक्स को बाकी के 108 जहाज़ भारत में ही बनाने थे। उस समय के समझौते के मुताबिक़, एक विमान की क़ीमत 79.30 मिलियन यानी 7 करोड़ 93 लाख यूरो थी। लेकिन 2011 में एक विमान की क़ीमत 100.85 मिलियन यानी 10 करोड़ यूरो हो गई। बाद में दसॉ ने एनडीए सरकार के समय 2016 में इस पर 9 प्रतिशत छूट दी और प्रति विमान क़ीमत घट कर 91.75 मिलियन यूरो हो गई। 

पर यह रफ़ाल की क़ीमत की पूरी कहानी नहीं है। भारत सरकार ने अपनी ज़रूरत के हिसाब से 13 बदलाव करने को कहा और उसके लिए दसॉ ने कुल 1.4 अरब यूरो अलग से माँगे। इसे बाद में घटा कर 1.30 अरब यूरो कर दिया। पर असली पेच यहीं फँसा हुआ है। इन बदलावों के लिए सॉफ़्टवेअर और हार्डवेअर का जो विकास करना था, उस पर कंपनी ने जो पैसे माँगे, वह दरअसल 126 विमानों के लिए थे। उस लिहाज से यह ख़र्च प्रति विमान सिर्फ़ 11.11 मिलियन यूरो बैठता था।  

अब इस अतिरिक्त ख़र्च को जब रफ़ाल की मूल क़ीमत में जोड़ा गया तो दाम 127.86 मिलियन यानी 12 करोड़ 78 लाख यूरो हो गया, यानी पहले के 90.41 मिलियन यूरो से 41.42 प्रतिशत अधिक।  मामला इतना ही नही है। दसॉ से बात करने के लिए बनी भारतीय टीम के सात में से तीन लोगों ने इस अतिरिक्त पैसे का विरोध किया। उनका कहना था कि भारतीय ज़रूरतों के मुताबिक ढालने के लिए यह रकम बहुत ही अधिक है। टीम के सदस्यों को इस सौदे की दूसरी कुछ बातों से भी विरोध था। इसलिए उन्होंने इस मामले को डीफ़ेंस अक्वीजिशन कमिटी यानी सुरक्षा उपकरण खरीदने वाली समिति को सौंप दिया। 

सरकार रफ़ाल से सौदा तय करना चाहती थी। डीएसी के प्रमुख रक्षा मंत्री मनोहर पर्रिकर थे। बातचीत करने वाली टीम को कई मुद्दों पर आपत्तियाँ थीं, लेकिन डीएसी बार बार उसी टीम के पास प्रस्ताव वापस भेजता रहा और टीम में 4-3 से फ़ैसले लिए जाते रहे। यानी सौदे के विभिन्न पहलुओ पर आम राय नहीं बनी और चार सदस्यों के मुक़ाबले तीन सदस्य कुछ बिंदुओ पर विरोध जताते रहे।  सात सदस्यीय टीम को डीएसी ने पाँच बार प्रस्ताव वापस भेज था। डीएसी को यह हक़ था कि वह सौदे पर अंतिम मुहर लगा दे, पर उसने ऐसा न कर मामले को सुरक्षा पर बनी कैबिनेट समिति यानी सीसीएस को सौंप दिया। 

सवाल यह उठता है कि क्या भारत सरकार दाम कम करने के लिए दसॉ पर दबाव डाल सकती थी या मोल भाव कर सकती थी? बिल्कुल कर सकती थी। इसकी वजह है। यूरोपियन एअरोनॉटिक्स एंड डीफ़ेन्स एंड स्पेस (ईएडीएस) सुरक्षा उपकरण बनाने वाली बहुत बड़ी कंपनी है। बोइंग ने ईएडीएस और दूसरी कंपनियों के साथ मिल कर यूरोफ़ाइटर कंसोर्शियम बनाया और भारत को 126 टाइफ़ून लड़ाकू विमान देने का प्रस्ताव दिया और वह भी क़ीमत में 20 प्रतिशत छूट के साथ। भारत ने इसमें दिलचस्पी ली और उसके साथ बातचीत शुरू भी हुई। इसका यह सबूत है कि कंसोर्शियम के प्रमुख डॉमिंगो यूरेना रासो ने 4 अक्टूबर 2014 को अरुण जेटली को चिट्ठी लिख कर उसकी याद दिलाई। उन्होंने कहा कि हमारी कंपनी भारत में टाइफ़ून औद्योगिक पार्क स्थापित करने, वहां विमान बनाने और भारत की ज़रूरतों के मुताबिक़ उपकरण लगाने को तैयार है और आपको क़ीमत में छूट भी देंगे। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि उनके राजदूत ने मुलाक़ात की थी। भारत इस आधार पर दसॉ से मोलभाव कर सकता था। पर उसने ऐसा नहीं किया। 

अभी कहानी बाकी है। दसॉ के साथ क़रार तो सिर्फ 18 विमान वहां से लाने पर हुआ था। भारत में 108 विमान बनाने से जुड़े प्रस्ताव पर बात चल ही रही थी। लेकिन अप्रैल 2016 में फ़्रांस की यात्रा पर गए नरेंद्र मोदी ने यकायक 36 विमान ख़रीदने का एलान कर दिया। वह भी बिल्कुल तैयार स्थिति में, जो फ्रांस से उड़ कर भारत पहुँचता। 

पत्रकार एन राम ने अपनी ख़बर में मोदी सरकार पर गंभीर आरोप लगाए हैं। उनका कहना है कि पूरा सौदा ही 5.20 अरब यूरो का था, जिसे मनमर्जी से राजनीतिक कारणों से बढ़ा कर 8.20 अरब यूरो कर दिया गया। ऑफ़सेट पार्टनर का चुनाव पूरी तरह ‘क्रोनी कैपिटलिज़्म’ का उदारण है। (जब सरकार अपने मित्रों और परिचितों को ग़लत तरीके से व्यवसायिक फ़ायदे पहुँचाने के लिए फ़ैसले लेती है तो उसे क्रोनी कैपिटलिज़्म का उदाहरण माना जाता है। ) वे रफ़ाल सौदे की तुलना बोफ़ोर्स डील से करते हुए कहते हैं कि दोनोें मामलों में राजनीतिक फ़ैसले लिए गए थे, बोफ़ोर्स मामले में कमशीन की बात कही गई थी, इस मामले में अब तक ऐसा नहीं स्थापित हुआ है, पर रफ़ाल मुद्दे पर अभी बहुत कुछ ख़ुलासा होना बाकी है 

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