मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार- त्रिवेंद्र सिंह रावत

त्रिवेंद्र कठघरे में ;त्रिवेंद्र रावत पर  ढैंचा बीज घोटाला में त्रिपाठी जांच आयोग द्वारा सीधे-सीधे सवाल – हिमालयायूके ww.himalayauk.org (HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND) Presents

त्रिवेंद्र सिंह रावत लगातार दो चुनाव हार कर तथा ढैचा घोटाले में त्रिपाठी जांच आयोग द्वारा कठघरे में खडा करने के बाद मुख्यमंत्री पद के प्रबल दावेदार-बन कर उभरे है, हिमालयायूके न्‍यूज पोर्टल के सूत्रों का कहना है कि भाजपा नेशनल प्रेसीडेंट ने उत्‍तराखण्‍ड में भाजपा को बहुमत मिलने पर मुख्‍यमंत्री पद पर त्रिवेन्‍द्र रावत के नाम को हरी झण्‍डी दे दी है,  कोश्यारी, निशंक और खंडूड़ी का नाम मुख्‍यमंत्री पद से कटने के बाद पूर्व कैबिनेट मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत का नाम काफी ऊपर चला गया है। सूबे की तथा राष्ट्रीय स्तर की राजनीति में भी सक्रिय त्रिवेन्‍द्र सिंह रावत ने  सामान्य चुनाव के बाद उपचुनाव में भी हार का स्वाद चखने के बाद फरवरी 2017 के विधानसभा चुनाव में अपनी तैयारियां बदली हैं। वही आरएसएस में उनकी सक्रियता का ही यह असर था कि चुनाव से पूर्व ही चह चर्चा आम है कि अगर भाजपा सरकार बनाने में कामयाब होती है तो मुख्यमंत्री के पद पर उनकी दावेदारी प्रबल है।

त्रिवेंद्र सिंह रावत पूर्ण विश्‍वास से कहते है कि निश्चित रूप से अगली सरकार भाजपा की होगी। उत्तराखंड की जनता कांग्रेस के भ्रष्टाचार और घपले-घोटालों से त्रस्त है। जिस तरह हरीश रावत ने घोषणाएं कर-करके लोगों की आंखों में धूल झोंकने का काम किया है, उससे जनता अनजान नहीं है। भाजपा पूर्ण बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करेगी।

Amit Shah seeks feedback on 5 leaders to choose BJP’s Uttarakhand CM pick

The BJP central leadership has sought feedback on five leaders from Uttarakhand as part of an exercise to pick a chief ministerial candidate if the party wins the assembly elections, sources said on Saturday.Unlike the Congress that ran its election campaign with incumbent Harish Rawat as its CM face, the BJP did not project a local leader for the state’s top job. Prime Minister Narendra Modi was the kingpin of the saffron party’s campaign in the state that went to polls on February 15.

BJP national president Amit Shah has asked for details about the electoral role played by former chief ministers BC Khanduri and Bhagat Singh Koshiyari, party’s national executive member Satpal Maharaj, national secretary and Jharkhand in-charge Trivendra Singh Rawat and state party president Ajay Bhatt, the sources said.

Shah has sought information about how many rallies these leaders addressed and what role they played outside areas of their influence to boost the winning prospects of candidates. Apart from the state leadership, Shah has tapped other sources for information, the sources said.

“Even if there any exercise to seek feedback on leaders, it must have been done at the highest level of the party. We are yet to receive any information, but one thing is clear that picking a chief ministerial name is an open issue in the party. It’s not limited to mere MLAs or groups in the party,” state BJP media in-charge Devendra Bhasin told Hindustan Times on Saturday. Of the five leaders listed by the party leadership, Maharaj, Trivendra Singh and Bhatt contested elections, and Khanduri and Koshiyari are Lok Sabha MPs. According information from the BJP office, Maharaj addressed nearly 10 party rallies outside his own constituency during elections, apart from Parivartan Yatra meetings. He campaigned in four assembly segments — Yamkeshwar, Pauri, Lansdowne, and Srinagar — adjoining Chaubattakhal, his own constituency. Trivendra Singh and Bhatt were confined to their constituencies as their contest was too close. Khanduri and Koshiyari addressed 10 public rallies each in support of party candidates in constituencies outside their areas of influence, Yamkeshwar and Bageshwar. Khanduri camped mostly in Yamkeshwar from where his daughter Ritu Khanduri was a BJP candidate. (HT)

 

त्रिवेंद्र रावत पर  ढैंचा बीज घोटाला में त्रिपाठी जांच आयोग द्वारा सीधे-सीधे सवाल

त्रिवेंद्र सिंह रावत की चूक और कृत्य के कारण ढैंचा बीज घोटाला संभव हो पाया ; त्रिपाठी जांच आयोग

त्रिवेंद्र सिंह रावत भी भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1988 के दायरे में

भाजपा के राष्ट्रीय महासचिव और पूर्व कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत को  ढैंचा बीज प्रकरण में जांच आयोग ने निशाने पर लिया है। ढैंचा बीज खरीद के प्रकरण के समय त्रिवेंद्र रावत भाजपा सरकार में कृषि मंत्री थे और बीज खरीद में तत्कालीन कृषि मंत्री की भी सहमति थी। त्रिपाठी जांच आयोग की ओर से सरकार को सौंपी गई ढैंचा बीज प्रकरण की रिपोर्ट में त्रिवेंद्र रावत पर सीधे-सीधे सवाल उठाए गए हैं। आयोग की रिपोर्ट के निष्कर्ष में साफ कहा गया है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत ने ढैंचा बीज खरीद के मामले में अपने दायित्व की अनदेखी की और उनकी इस चूक का ही परिणाम रहा कि यह घोटाला हो पाया।  यह भी सिद्ध है कि त्रिवेंद्र सिंह रावत के चूक और कृत्य के कारण कृषि निदेशक अनियमितताएं कर पाए तथा एक आपराधिक षड़यंत्र रचकर उसका लाभ उठा पाए। रावत अपने कर्तव्य और दायित्वों के निर्वहन में असफल पाए गए। उनके कृत्य और चूक से एक प्राइवेट फर्म निधी सीड कारपारेशन को लाभ पहुंचा जो लोकहित के विपरीत था।

इससे त्रिवेंद्र सिंह रावत भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1988 की धारा 13 की परिधि में आते हैं।

आयोग की जांच रिपोर्ट के मुताबिक तत्कालीन कृषि मंत्री त्रिवेंद्र रावत ने खरीफ 2010 में कृषि निदेशक के ढैंचा बीज प्रस्ताव को बिना नियमों और प्रक्रिया का पालन किए हुए अनुमोदित कर दिया। रिपोर्ट के मुताबिक ढैंचा बीज की अनियमितताओं की रिपोर्ट आने के बाद कृषि सचिव की संस्तुति पर पहले तो नैनीताल, देहरादून, हरिद्वार और उधमसिंहनगर के मुख्य कृषि अधिकारियों के निलंबन के आदेश पारित कर दिए गए पर बाद में बिना कोई कारण बताए यह आदेश बदल कर केवल विभागीय कार्यवाही तक सीमित कर दिया गया। ऐसे में आयोग ने माना है कि इससे यह साबित हो रहा है कि तत्कालीन कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत की चूक और कृत्य के कारण ढैंचा बीज घोटाला संभव हो पाया। आयोग ने माना है कि इन मामलों को देखते हुए तत्कालीन कृषि मंत्री त्रिवेंद्र सिंह रावत भी भ्रष्टाचार निरोधक अधिनियम 1988 के दायरे में आते हैं। तत्कालीन कृषि मंत्री ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के शासकीय दायित्व का निर्वहन नहीं किया। त्रिपाठी जांच आयोग की यह रिपोर्ट नकरात्‍मक रिपोर्ट से ही त्रिवेंद्र रावत के लिए खासी मुसीबत खड़ी हुई थी । त्रिवेंद्र रावत डोईवाला सीट पूर्व मुख्यमंत्री निशंक के सांसद बनने के बाद खाली हुई सीट से उप चुनाव हार गये थे, भाजपा की सांख पर विपरीत असर  पडा ।

पूर्व कृषि मंत्री के रूप में त्रिवेंद्र सिंह रावत

चिड़ियां तो खेत चुग ही रहीं थीं, अब बाड़ भी फसल चरने लगी।

त्रिवेन्‍द्र रावत का रिपोर्ट कार्ड-  खेती को खत्म  करना ही कृषि मंत्री की उपलब्‍धि

उत्‍तराखण्‍ड में पहाड़ में खेती को खत्म होते देखना ही शायद कृषि मंत्री त्रिवेन्‍द्र रावत की सबसे बडी उपलब्‍धि मानी जा सकती है। उत्‍तराखण्‍ड में कृषि उन्नयन के लिए एक से बढ़कर एक योजनाएं और भारी-भरकम बजट के बावजूद स्थिति बद से बदतर होती गयी थी। प्रदेश में कुल क्षेत्रफल के मात्र 13 फीसदी पर ही खेती की जा रही थी और इतनी ही जमीन बंजर थी, जिसे कृषि योग्य बनाया जा सकता था। इसके लिए बाकायदा योजनाएं भी थी लेकिन यह भूमि उर्वरक  नहीं हो पायी। जाहिर है भ्रष्टाचार की लहलहाती फसल के बीच कृषि भूमि सिमटती गयी थी। उस समय यह आम चर्चा थी चिड़ियां तो खेत चुग ही रहीं थीं, अब बाड़ भी फसल चरने लगी।  फसल बीमा के नाम पर हरिद्वार जिले में खेला गया खेल आम मतदाता भूल सकते है। उस समय किसानों से 60 से 70 फीसदी ज्यादा प्रीमियम वसूला गया था। क्लेम के भुगतान में दिखायी गई तेजी भी सवालों के घेरे में थी।  सूबे में कुल मिलाकर 12 लाख किसान  इनमें से ज्यादातर छोटे अथवा मझौले स्तर के हैं। पहाड़ी इलाकों में पलायन के चलते खेत वीरान हैं और जो थोड़े बहुत बचे हुए हैं, वे मौसम के मोहताज हैं। आपदा उनके हौसले पस्त किए हुए है। मौसम की मार और सरकार की बेरुखी से परेशान किसान खेती से विमुख होता जा रहा है। उसे शायद ही सरकार द्वारा चलायी जा रही योजनाओं की जानकारी हो। वैज्ञानिक शोध प्रयोगशाला की चहारदीवारी में कैद हैं। किसानों को नहीं मालूम कि उनकी तकदीर बदलने के लिए सरकारी स्तर पर कितने ‘गंभीर’ कदम उठाए जा रहे हैं। ये शोध विश्वविद्यालय या शोध केंद्रों से निकलकर खेतों तक नहीं पहुंच पाए। मैदानी क्षेत्रों में भी स्थिति अलग नहीं है। भुगतान की मांग को लेकर गन्ना किसान सड़कों पर है। बिजली मिल नहीं रही, ट्यूबवैल सूखे हैं और नहरों में पानी लगातार कम होता जा रहा है। किसी तरह फसल अच्छी हो भी गई तो विपणन की मुश्किल। ऐसे में जाल फेंकते हैं दलाल। सच तो यह है कि सूखे खेतों की आड़ में जबें जमकर हरी की जा रही हैं। किसान को मिलने वाला लाभ बीच में गुम हो रहा है। जाहिर है खेतों में बिवाइयों के सिवाए मिलेगा भी क्या?

      क्या आप यकीन करेंगे कि त्रिवेन्‍द्र रावत के कृषि मंत्री रहने के दौरान कृषि महकमे में पिछले पांच साल से एक ऐसी योजना चलाई गयी जिसमें  अब तक दो करोड़ से ज्यादा धनराशि खर्च की जा चुकी है मगर विभाग को अब तक यह मालूम ही नहीं कि इसका वर्तमान में क्या स्टेटस है और इससे राज्य या कृषकों को क्या लाभ होगा। सरकारी तंत्र की बेमिसाल कारगुजारी का नमूना ऐसी दूसरी योजना डाटा सेंटर निर्माण की है, जिस पर पौने दो करोड़ खर्च किए गये थे और इसमें पड़े दर्जनों कंप्यूटर सालों से धूल फांक रहे थे। यह है कृषि विभाग की दो महत्वाकांक्षी योजनाओं की जमीनी हकीकत। लगभग पौने चार करोड़ रुपये खर्च और नतीजा, ठन-ठन गोपाल। इन योजनाओं में सबसे गंभीर तथ्य तो यह उभर कर आया है कि कृषि महकमा ही शासन को योजनाओं की इस स्थिति के लिए सीधे तौर पर जिम्मेदार ठहरा रहा था।

उत्तराखंड में चार लाख हेक्टेयर क्षेत्र में खेती हो रही थी, लेकिन इसकी दशा किसी से छिपी नहीं है। खासकर पर्वतीय क्षेत्रों में स्थिति बेहद दयनीय है। साफ है कि अनाज के लिए पूरे राज्य को तीन मैदानी जिलों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ऐसा नहीं कि पर्वतीय क्षेत्र की भूमि उपजाऊ नहीं। उपजाऊ है, लेकिन इसके लिए नीति का अभाव है। ठीक है कि पर्वतीय जनपदों के 71 विकासखंडों में खेती पूरी तरह वर्षा पर निर्भर है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि इतनेभर से ही संतोष कर लिया जाए। पहले भी तो वहां खेती होती रही है, और यही खेती पेट भरने को अनाज देती थी। याद कीजिए, पारंपरिक बारानाजा पद्धति को, जिसकी वजह से अनाज की कोई कमी ही नहीं होती थी मगर वक्त की दीमक ऐसी चढ़ी कि आज इस परंपरा का लोप ही हो गया है। वह भी तब, जबकि बारानाजा पद्धति से होने वाले पौष्टिकता से भरपूर मोटे अनाज मंडुवा, मादिरा, झंगोरा, कौणी, दलहन-तिलहन की दुनियाभर में खासी डिमांड है। इन्हीं के उत्पादन को बढ़ावा देकर कृषि की तकदीर संवारी जा सकती है, लेकिन सवाल वहीं का वहीं है कि इसके लिए पहल करेगा कौन। यदि पहाड़ से पलायन के चलते खेती बंजर हो रही है तो इसका जिम्मेदार कौन है। क्यों खेतों में फसल लहलहाने की बजाए लैंटाना समेत अन्य अनुपयोगी वनस्पतियों के डेरा डालने से ये वन्यजीवों की शरणस्थली बन गए हैं। जंगलों से निकलकर वन्यजीव क्यों गांवों में खेतों के साथ ही घरों की देहरी तक पहुंच रहे हैं। हर साल बरसात में बड़े पैमाने पर बहने वाली उपजाऊ माटी की रोकथाम को क्यों पहल नहीं हो रही। क्यों ऐसे उपाय नहीं किए जा रहे, जिससे खेती लाभकारी बने। क्यों चकबंदी के मामले में ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे। इन मुहबाए खड़े तमाम सवालों का समाधान किए बगैर पर्वतीय क्षेत्र में कृषि की दशा नहीं सुधर सकती। ऐसा नहीं कि इन दिक्कतों को दूर करने के लिए योजनाएं न बनी हों। योजनाएं हैं, लेकिन इनका धरातल पर पूरी इच्छाशक्ति के साथ क्रियान्वयन नहीं हो रहा। गांव के नजदीक कृषि विभाग का ढांचा मौजूद होने के बाद भी खेती के लिए न समय पर खाद-बीज उपलब्ध होता है और न दूसरी सुविधाएं। फिर जो चुनौतियां सामने खड़ी हैं, उनके निदान को राजधानी के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर चिंता जरूर जताई जाती है, योजनाएं भी बनती हैं लेकिन उस चिंतन-मनन का क्या फायदा, जिससे धरातल पर कोई ठोस पहल नहीं होनी।  

त्रिवेन्‍द्र रावत के मंत्री रहने के दौरान भी उत्‍तराखण्‍ड में लोग शहरों की ओर रूख करते रहे                     गांव के गांव खाली होते रहे, पहाडी गांवों से पलायन कर चुके परिवारों के खंडहर मकान में तब्‍दील हो रहे हैं, वहीं कई सालों से बंजर हो चुकी कषि भूिम पर जंगल उग आए हैं, जहां जंगली जानवरों ने डेरा जमा लिया है, जिस कारण पहाडी गांवों में रहने वाले परिवारों की न तो कषि सुरक्षित है और न उनका जीवन, उत्‍तराखण्‍ड के पहाडी क्षेत्रों में विषम परिस्‍थितियों में भी रहने वाले ग्रामीणेां के अस्‍तित्‍व के लिए खतरा पैदा हो गया है,

 

 ऐसा नहीं कि पर्वतीय क्षेत्र की भूमि उपजाऊ नहीं। उपजाऊ है, लेकिन इसके लिए नीति का अभाव रहा है। ठीक है कि पर्वतीय जनपदों के 71 विकासखंडों में खेती पूरी तरह वर्षा पर निर्भर है, लेकिन इसका मतलब यह तो नहीं कि इतनेभर से ही संतोष कर लिया जाए। पहले भी तो वहां खेती होती रही है, और यही खेती पेट भरने को अनाज देती थी। याद कीजिए, पारंपरिक बारानाजा पद्धति को, जिसकी वजह से अनाज की कोई कमी ही नहीं होती थी मगर वक्त की दीमक ऐसी चढ़ी कि आज इस परंपरा का लोप ही हो गया है। वह भी तब, जबकि बारानाजा पद्धति से होने वाले पौष्टिकता से भरपूर मोटे अनाज मंडुवा, मादिरा, झंगोरा, कौणी, दलहन-तिलहन की दुनियाभर में खासी डिमांड है। इन्हीं के उत्पादन को बढ़ावा देकर कृषि की तकदीर संवारी जा सकती है, लेकिन सवाल वहीं का वहीं है कि इसके लिए पहल करेगा कौन। यदि पहाड़ से पलायन के चलते खेती बंजर हो रही है तो इसका जिम्मेदार कौन है। क्यों खेतों में फसल लहलहाने की बजाए लैंटाना समेत अन्य अनुपयोगी वनस्पतियों के डेरा डालने से ये वन्यजीवों की शरणस्थली बन गए हैं। जंगलों से निकलकर वन्यजीव क्यों गांवों में खेतों के साथ ही घरों की देहरी तक पहुंच रहे हैं। हर साल बरसात में बड़े पैमाने पर बहने वाली उपजाऊ माटी की रोकथाम को क्यों पहल नहीं हो रही। क्यों ऐसे उपाय नहीं किए जा रहे, जिससे खेती लाभकारी बने। क्यों चकबंदी के मामले में ठोस कदम नहीं उठाए जा रहे। इन मुहबाए खड़े तमाम सवालों का समाधान किए बगैर पर्वतीय क्षेत्र में कृषि की दशा नहीं सुधर सकती। ऐसा नहीं कि इन दिक्कतों को दूर करने के लिए योजनाएं न बनी हों। योजनाएं हैं, लेकिन इनका धरातल पर पूरी इच्छाशक्ति के साथ क्रियान्वयन नहीं हो रहा। गांव के नजदीक कृषि विभाग का ढांचा मौजूद होने के बाद भी खेती के लिए न समय पर खाद-बीज उपलब्ध होता है और न दूसरी सुविधाएं। फिर जो चुनौतियां सामने खड़ी हैं, उनके निदान को राजधानी के वातानुकूलित कक्षों में बैठकर चिंता जरूर जताई जाती है, योजनाएं भी बनती हैं लेकिन उस चिंतन-मनन का क्या फायदा, जिससे धरातल पर कोई ठोस पहल नहीं होनी। सरकार को चाहिए कि वह पूरी जिम्मेदारी के साथ पर्वतीय क्षेत्र में कृषि को लाभकारी बनाने के साथ ही उन दुश्वारियों को दूर कराने को ठोस रणनीति बनाए, जो इसकी राह में रोड़ा हैं।  

चुनावी रणक्षेत्र में जाने पर विधायकगण क्षेत्र के विकास की ताल ठोककर  क्षेत्र के चहुंमुखी विकास के दावे करते हैं। जनता से सिर्फ एक वोट की गुहार लगाते हैं।  अपने विधानसभा क्षेत्र में मूलभूत सुविधाओं की झडी लगाने का दावा करने वाले इन विधायकों से बाद में जनता मिलने के लिए गुहार लगाती है। वित्तीय वर्ष शुरू होने के बाद विधायकों के खाते में निधि पहुंच जाती है, लेकिन उस निधि को खर्च करने में विधायकों की दिलचस्पी कम रहती है। निधि के उपयोग के लिए बार-बार पत्राचार करने के बाद विधायकगण प्रस्ताव तो भेज देते हैं, लेकिन स्वीकृत प्रस्तावों में कार्य की गति क्या है उसकी कोई सुध नहीं ली जाती है। आलम यह है कि विधायक निधि से सीसी रोड, खडंजा निर्माण, नाली व गूल जैसे कार्य अधिक हो रहे हैं लेकिन यह काम भी समय पर पूरे नहीं हो पा रहे हैं। हाल यह है कि वित्तीय वर्ष २०१०-११ और २०११-१२ में विधायकों द्वारा दिये गए प्रस्तावों में  कई कार्य कागजों में प्रगति पर चलते रहे। यह कार्य कब पूरे होंगे, इसके लिए कोई समय नहीं है। जबकि नये वित्तीय वर्ष में विधायक निधि खातों में पहुंच चुकी है, लेकिन विधायकों के प्रस्ताव नाम के बराबर दिखायी दे रहे हैं। इतना ही नहीं कई काम तो ऐसे हैं जो शुरू तक नहीं हो पाये है।  विधायकों के प्रस्तावों को देखा जाए तो दस-दस हजार तक के काम भी निधि से हो रहे हैं। ऐसे में कार्य की कितना गुणवत्ता होगी यह समझने की बात है। सिर्फ अपने चहेतों को खुश करने और वोट बैंक बचाने के लिए विधायक निधि में प्रस्तावों की संख्या तो बढ रही है लेकिन काम कछुवा गति से चल रहा है।

 

 

 

 

 

 

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