असाधारण क्षेत्र; चन्‍द्रशिला- तुंगनाथ; सेम मुखेम

#कहां लाईलाज बीमारी कृष्ण के नागराजा स्वरूप का दर्शन/पूजा अर्चना से सही होती है#  उत्‍तराखण्‍ड हिमालय का विराट रूप#पाण्‍डव भी भागवान भोलेनाथ की शरण मे उत्तराखण्ड आए # भागवान भोले नाथ कैलास से उतरकर उत्तराखण्ड मे रहने का वचन किसे दिया था#  प्रभु ने बचन दे रखाथा कि कृष्‍ण के लौट जाने से कुछ वर्ष पूर्व तक वो यही रहेेगे #वासुदेव श्रीकृष्‍ण का भी धाम है उत्‍तराखण्‍ड में# किस जगह उत्‍तराखण्‍ड में प्रकट हुए थे भगवान श्रीकृष्ण# क्‍या वरदान दिया था उस गांव #एक विशेष बीमारी – जो लाईलाज है- उस बीमारी के सामने विज्ञान आज भी फेल है– भगवान श्रीकृष्ण द्वारा दिये गये वरदान से यहां सही होती हे-   हर तीसरे वर्ष 11 गते मार्गशीर्ष (नवम्बर दिसंबर ) को यहाँ कृष्ण जात (धार्मिक यात्रा ) के रूप में एक भव्य मेला आयोजित होता है,

देवभूमि उत्‍तराखण्‍ड को यूं ही नही कहा जाता- परन्‍तु आज राजनैतिज्ञों ने इसे बर्बाद कर दिया- 
चन्‍द्रशेखर जोशी सम्‍पादक की एक्‍सक्‍लूुसिव प्रस्‍तुति- 

; उत्‍तराखण्‍ड- असाधारण क्षेत्र  कस्तूरी मृगों की सुंदरता को निकटता से # ब्रिटिश कमिश्नर एटकिन्सन ने कहा था कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में यह क्षेत्र नहीं देखा उसका इस पृथ्वी पर जन्म लेना व्यर्थ है; (www.himalayauk.org) HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND (Leading Digital Newsportal & Daily Newspaper) publish at Dehradun & Haridwar ; CS JOSHI- EDITOR 

तुंगनाथ उत्तराखण्ड के गढ़वाल के रुद्रप्रयाग जिले में स्थित एक पर्वत है। तुंगनाथ पर्वत पर स्थित है तुंगनाथ मंदिर, जो ३,६८० मीटर की ऊँचाई पर बना हुआ है और पंच केदारों में सबसे ऊँचाई पर स्थित है। यह मंदिर १,००० वर्ष पुराना माना जाता है और यहाँ भगवान शिव की पंच केदारों में से एक के रूप में पूजा होती है। ऐसा माना जाता है की इस मंदिर का निर्माण पाण्डवों द्वारा भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए किया गया था, जो कुरुक्षेत्र में हुए नरसंहार के कारण पाण्डवों से रुष्ट थे। तुंगनाथ की चोटी तीन धाराओं का स्रोत है, जिनसे अक्षकामिनी नदी बनती है। मंदिर चोपता से ३ किलोमीटर दूर स्थित है।
बारह से चौदह हजार फुट की ऊंचाई पर बसा ये क्षेत्र गढ़वाल हिमालय के सबसे सुंदर स्थानों में से एक है। जनवरी-फरवरी के महीनों में आमतौर पर बर्फ की चादर ओढ़े इस स्थान की सुंदरता जुलाई-अगस्त के महीनों में देखते ही बनती है। इन महीनों में यहां मीलों तक फैले मखमली घास के मैदान और उनमें खिले फूलों की सुंदरता देखने योग्य होती है। इसीलिए अनुभवी पर्यटक इसकी तुलना स्विट्जरलैंड से करने में भी नहीं हिचकते।
यह पूरा पंचकेदार का क्षेत्र कहलाता है। ऋषिकेश से श्रीनगर गढ़वाल होते हुए अलकनंदा के किनारे-किनारे यात्रा बढ़ती जाती है। रुद्रप्रयाग पहुंचने पर यदि ऊखीमठ का रास्ता लेना है तो अलकनंदा को छोडकर मंदाकिनी घाटी में प्रवेश करना होता है। यहां से मार्ग संकरा है। इसलिए चालक को गाड़ी चलाते हुए बहुत सावधानी बरतनी होती है। मार्ग अत्यंत लुभावना और सुंदर है। आगे बढ़ते हुए अगस्त्य मुनि नामक एक छोटा सा कस्बा है जहां से हिमालय की नंदाखाट चोटी के दर्शन होने लगते हैं।

तुंगनाथ मंदिर।
चोपता की ओर बढते हुए रास्ते में बांस और बुरांश का घना जंगल और मनोहारी दृश्य पर्यटकों को लुभाते हैं। चोपता समुद्रतल से बारह हज़ार फुट की ऊंचाई पर स्थित है। यहां से तीन किमी की पैदल यात्रा के बाद तेरह हज़ार फुट की ऊंचाई पर तुंगनाथ मंदिर है, जो पंचकेदारों में एक केदार है। चोपता से तुंगनाथ तक तीन किलोमीटर का पैदल मार्ग बुग्यालों की सुंदर दुनिया से साक्षात्कार कराता है। यहां पर प्राचीन शिव मंदिर है। इस प्राचीन शिव मंदिर से डेढ़ किमी की ऊंचाई चढ़ने के बाद चौदह हज़ार फीट पर चंद्रशिला नामक चोटी है। जहां ठीक सामने छू लेने योग्य हिमालय का विराट रूप किसी को भी हतप्रभ कर सकता है। चारों ओर पसरे सन्नाटे में ऐसा लगता है मानो आप और प्रकृति दोनों यहां आकर एकाकार हो उठे हों। तुंगनाथ से नीचे जंगल की सुंदर रेंज और घाटी का जो दृश्य उभरता है, वो बहुत ही अनूठा है। चोपता से लगभग आठ किलोमीटर की दूरी तय करने के बाद देवहरिया ताल पहुंचा जा सकता है जो कि तुंगनाथ मंदिर के दक्षिण दिशा में है। इस ताल की कुछ ऐसी विशेषता है जो इसे और सरोवरों से विशिष्टता प्रदान करती है। इस पारदर्शी सरोवर में चौखंभा, नीलकंठ आदि हिमाच्छादित चोटियों के प्रतिबिंब स्पष्ट दिखाई देने लगते हैं। इस सरोवर का कुल व्यास पांच सौ मीटर है। इसके चारों ओर बांस व बुरांश के सघन वन हैं तो दूसरी ओर एक खुला सा मैदान है।

तुंगनाथ मंदिर
चोपता से गोपेश्वर जाने वाले मार्ग पर कस्तूरी मृग प्रजनन फार्म भी है। यहां पर कस्तूरी मृगों की सुंदरता को निकटता से देखा जा सकता है। मार्च-अप्रैल के महीने में इस पूरे मार्ग में बुरांश के फूल अपनी अनोखी छटा बिखेरते हैं। जनवरी-फरवरी के महीने में ये पूरा क्षेत्र बर्फ से ढका रहता है। चोपता के बारे में ब्रिटिश कमिश्नर एटकिन्सन ने कहा था कि जिस व्यक्ति ने अपने जीवनकाल में चोपता नहीं देखा उसका इस पृथ्वी पर जन्म लेना व्यर्थ है। एटकिन्सन की यह उक्ति भले ही कुछ लोगों को अतिरेकपूर्ण लगे लेकिन यहां का सौन्दर्य अद्भुत है, इसमें किसी को संदेह नहीं हो सकता। किसी पर्यटक के लिए यह यात्रा किसी रोमांच से कम नहीं है।
ऋषिकेश से गोपेश्वर होकर। ऋषिकेश से गोपेश्वर की दूरी २१२ किलोमीटर है और फिर गोपेश्वर से चोपता चालीस किलोमीटर और आगे है, जो कि सड़क मार्ग से जुड़ा है।
ऋषिकेश से ऊखीमठ होकर। ऋषिकेश से उखीमठ की दूरी १७८ किलोमीटर है और फिर ऊखीमठ से आगे चोपता चौबीस किलोमीटर है, जो कि सड़क मार्ग से जुड़ा है।

###Chandrashila
Chandrashila is summit of the Tungnath . It literally means “Moon Rock”. It is located at a height of about 4,000 metres (13,000 ft) above sea level. This peak provides a spectacular view of Himalayas,especially Nandadevi, Trisul, Kedar Peak, Bandarpunch and Chaukhamba peaks. There are various legends associated with this place. According to one of the popular legend, this is the place where Lord Rama meditated after defeating the demon-king Ravana.Another legend says that moon-god Chandra spent time here in penance.The Beauty of Chandrashila is Incredible.It is an impressive vantage point that offers 360 degrees panoramic views of the mighty Himalayas.This is a beautiful trek, with difficulty level rated as easy to moderate. Bus can be directly taken up to Okhimath or Gopeshwar from Haridwar or Dehradun which takes about 10 hours to reach from there to Chopta hiring a jeep or shared basis. Chopta is well connected by motorable roads with major towns of Garhwal region of Uttarakhand state. Follow NH58 until you reach Rudraprayag and after reaching Rudraprayag follow the route to Kedarnath and take right turn to Ukhimath. Chopta is situated 29 km from Ukhimath. Chopta is also accessible from Gopeshwar. Buses and taxis to Chopta are available from major towns of Uttarakhand region.

By Rail: The nearest railhead to Chopta is Rishikesh situated 209 km away. Rishikesh is well connected by railway networks with major cities of India. Buses and Taxis to Chopta and Ukhimath are easily available from Rishikesh. By Air: Jolly Grant Airport is the nearest Airport of Chopta, situated 226 km away in Dehradun district of Uttarakhand state. The remaining journey has to be covered ether in a taxi or in a bus. Taxis are easily available to Rishikesh, Rudraprayag, Ukhimath and Chopta from Jolly Grant Airport.

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धर्मात्मा पाण्डब ब्रह्महत्या, गुरुहत्या और गोत्र हत्याके पापसे मुक्त होने और बिश्वमे शांति , राज्य मे समृद्धि, और यज्ञ हेतु भागवान भुतनाथ इश्वर से आशीर्बाद लेने हेतु और क्षमा पुजा करने हेतु भागवान भोलेनाथ की शरण मे उत्तराखण्ड आए । उपमन्यु को दिए बचन के मुताबिक भागवान भोले नाथ कालीयुग आने से १०० वर्ष तक कैलास से उतरकर उत्तराखण्ड मे रहने लगे । प्रभु ने उपमन्यु को बचन दे रखाथा कि कृष्‍ण के लौट जाने से कुछ वर्ष पूर्व तक वो यही रहेेगे । पान्डवो को अपने गुरु, भाईयों, पितामह ,पुत्रों की याद सताने लगती, रात दिन रोने लगते, सारा संंसार उन्हे शून्‍य लगने लगा। भगवान कृष्‍ण समीप होते तो उन्हे शान्‍ति मिलती जब वो सम्मुख नही होते उन्हे युद्धा और बिगत उन्हे भयन्कर दुख देने लगा । वो अकर्मण्य बन गए । ब्रह्महत्या और कुल हत्या उन्हे सताने लगी । इस्के बाद उन्होने प्रभु कृष्ण को हस्तिनापुर बुलााया और अपनी मुक्ती का मार्ग पुछा । प्रभु कृष्ण ने कहा, हे पाण्डु पुत्रो तुमने क्षत्रिय धर्म का पालन किया सो तुम ने कोइ पाप नही किया, तुम तो मुक्त हो फिर भीी तुम्हारे मन मे जो बिशालतम दया है इसिलिए वो तुम्हे प्रायश्‍चित के मार्ग लेजा रही है और भागवान भोलेनाथ शंकर यह नही चाह्ते है कि तुम लोग शरीर त्यागे बिना स्वर्ग जाए । उन्होने केबल पापियौ को नष्‍ट करने हेतु तुम्हे पशुपातास्त्र दिया था जो तुमने अभी नही लौटाया । इसके बाद पाण्डब और नारायण कृष्‍ण बेदव्यासके शरण मे गए और मधुशुदन ने प्रभु बेद व्यास को अप्ने पाण्डबौ को दिए पाप मुक्त होने के सुझाव के बारे मे बताया । महात्मा ब्यास ने सुझाव को सर्बोतम कहते हुए पान्डबो को बिलम्ब किए बिना भगवान चन्द्रमौली के शरण मे जाने को कहा । पान्डब द्रोपदी सहित उत्तराखण्ड की यात्रा मे चल पडे | पाण्डब बिना कृष्‍ण के अकेले दर्शन कर्ने गए । पान्डबो को नारायण कृष्‍ण ने यह कहकर बिदा किया था कि भागवान भुतनाथ अब लौकिक रुप के बजाय ज्योतिर्लिङ के रुप मे कुछ शक्ती धर्ती मे छोडना चाह्ते है क्यु कि उपम्न्यु को दिए बरदान का समय ब समाप्त हो रहे । इसीलिए तुम्हे वो बैल के रुप मे मिलेगे तुम उस बैल को पकडना ताकि इश्वर के उस बहु रुप के दर्शन कर सके क्यु कि तुम्हे दिया हुवा पशुपताश्त्र ब तुम्हार शरीर का हिस्सा बन गया, इसीलिए वो जैसे तुमने पाया था उसि मार्ग से वो भीी प्रभुमे समाहित होना चाहता है, सो तुमने शिब के सरणमे जाना ही होगा । श्रीकृष्ण और भागवान बेदब्यास की आज्ञा पाकर पान्डब केदार का दर्शन गए । उन्होने केदारखण्ड की केदार घाटी मे पहुचते की रात्री मे अति सुन्दर तेजस्ह्वी बैल को देखा। वो समय मार्ग्शिर्सका महिना था,दिपावाली के बाद का समय था । आकाश खुला था कोइ बादल नही थे और खुला आकाशमे तारे और अन्य आकाशिय पिण्ड स्पस्ट दिखाई दे रहेथे । बस्तियों मे फुल फुले थे , वो बैले बिचित्र था, वो इतना बिशाल था कि उस बैले से दिखाइ देने वाला सारा आकाश ब्यप्त था, उसके सिग मानो तारौ को छेद कर रहे थे, तारा पुन्ज उस बैले के सिगो मे ऐसे लग रहे थे मानो कोइ मोतिकी माला हो, उस बैले के सर के रोमौ ने पुरा आकाश गङ्गा ब्याप्त कर रखीी थी , उस बैले का सिर हिलता तो कोइ नए तारे दिखायी देते और कोइ तारे सिगो की ओट मे छिप जाते और उसके सिर मे चन्द्रमा था, इस बिचित्र अनन्त बिशाल बैल को देख कर पान्डब प्रसन्न हुए|वो बैल रात मे तारो की और चन्द्रमा की कान्ति को फिका कर रहा था। उस बैल का रंंग सफेद था और बैल के तीन नेत्र स्पस्ट दिखायी देते थे । बैले के घाटी मे मालथी वो सारे रुद्राक्ष और सर्प डोरी बन बैठे थे । डमरू घन्टे का रुप बनाके उस बैल के गलेमे लटक रही थी, पान्डबो मे से नकुल उस उसके दर्शन कर उसकी बिशालता को मापते मगर उस का पछला भाग कहा तक है अनुुमान नही लगापाए । अर्जुन पाशुपताश्त्र के सहारे बैल के सिगो तक जाने की कामना करने लगे, भीम अपनी गदा के चमत्कार के सहारे उस बैलेके आकाशमे ब्याप्त मुख के सम्मुख पहुच्ने के कल्पना करने लगे । पाण्डब भागवान की स्तुति करने लगे, उसी समय जो अनन्त बैल था उसकी पुछ नजदीीक दिखायी दिया और युधिस्ठिर ने आज्ञा दी कि हे बलशाली भीम तुम इसकी पुछ को पकडो और अर्जुन तुम्हे पकडे क्यूूकि श्रीहरी कृष्‍ण की यही आज्ञा है । यही हमारी बडी प्रार्थना है
जैसे ही भीम ने बैल के पुछ पकड्कर अपने सिर मे लगाया, भागवान भुतनाथ प्रकट हुए । पान्डबौ को पापमुक्त होने का बरदान दिया और आज्ञा की कि हे पाण्डबौ मैं भी अब कृष्‍ण के जाने के बाद यहाँ केबल अपनी कुछ शक्ती छोडुङा और काली युग मे साक्षात नही मिलुगा इसिलिए मै अप्ने सारे अङौसे ज्योतिर्लिङ मे शक्ती स्थापित कर्ता हु और जहाँ जहाँ तुम मेरे इन अङौको जाते देखोगे और जहाँ वो प्रकट होङे वहा मेरे मन्दिर बनवाओ । पान्डबौ ने ऐसा की किया और सारे मन्दिरो का निर्माण किया, बाद मे कत्युर शासकों ने इन सारे मन्दिरों का जिर्णोद्धार किया ।
गुरु पुत्र अश्व्स्थामा की भयन्कर पिडा देखकर द्रोपदी का मन द्रबित हुवा और उन्की पिडा को भी मुक्त करने के लिए प्रभु से प्रर्थाना की । द्रोपदी कि यही प्रर्थाना कालीयुग मे पिछे जाकर भारतके लिए अभिशप्त बनी। भोलेनाथ ने अश्वस्थामा को जो कल्पान्तर की पिडा का श्राप मिला था उसे घटाके २८०० वर्ष कर दी। ठीक पान्डबौ की उत्तराखण्ड् की यात्रा के ४० बर्स बाद नारायण बैकुन्ठ चले गए और पान्डब दुबारा उत्तराखण्ड की यात्रा मे निक्ले, मृत्यु बरण करने और हिमालय के कठिन निर्जन पहाडौ मे उन्हौने अपने प्राण त्यागे ,ठीक इसी वक्‍त कली पृथ्‍वी यात्रा मे चल पडा,
पान्डबों की उत्तराखण्ड की यात्रा के २६०० बर्स बाद अश्वस्थामा पिडा मुक्त होकर भारत से बाहर के जगलौ मे चले गए
भोलेनाथ पाण्डबौ को पापमुक्त होने और अश्स्वथामा की पीडा का समय घटा देने के पश्‍चात प्रभु अन्तर्ध्यान हो गए और बिभिन्न जगह उन्के ज्योतिर्लिङ प्रकट हुए, सिर के भाग के प्रतिकके रुप मे पशुपति, बाहु के रुप मे केदार (उन्के नौ भुजा थि यिसिलिए नौ केदार उतपन्न हुए) जिसमे पन्चकेदार कुमाउ गढ्वाल मे और सयुक्त चारभुजा नेपाल के बैतडी मे , बाद मे वो चार भुजा भि अलग होकर आज उत्तराख्ण्डमे ९ केदार है अन्य चार स्थलों पर शेष भाग दिखाई दिए, जो कि शिव के उन रूपों के आराधना स्थल बने। रुद्रनाथ, कल्पेश्वर, मध्यमेश्वर , तुंगनाथ , श्रीकेदार्, रौलाकेदार्, ध्वाजकेदार्, अशिमकेदार । कहा जाता है की इस वक्‍त पाण्डब पुरेे एक वर्ष तक उत्तराखण्ड और डोटी क्षेत्र मे रहे यहाँ सारे मन्दिरौ का निर्माण करने के पस्चात वो हस्तिनापुर लौटे और दूसरे वर्ष नेपाल के पशुपती मन्दिर और उज्ज्यानिका महाकाल मन्दिर एबम काशी बिश्वनाथका मन्दिर निर्माण किया ।

#भगवान कृष्ण के नागराजा स्वरूप का दर्शन # पवित्र जगह प्रकट हुए थे भगवान श्रीकृष्ण
भगवान कृष्ण के नागराजा स्वरूप का दर्शन व पूजो अर्चना करने से एक विशेष रोग सही होता है जिसका वैज्ञानिक युग में, अंग्रेजी दवाइयों मे कोई इलाज ही नही है- सिर्फ भगवान कृष्ण के नागराजा स्वरूप का दर्शन व विशेष पूजा अर्चना करने से यह बीमारी ठीक होती है- देश में भगवान कृष्ण के नागराजा स्वरूप केे सिर्फ दो ही मदिर है जिससे यह बीमारी ठीक होती है- एक असम में है दूसरी उत्तरकाशी जिले में है- 
आप बैचेन हो रहे होगे कि वो कौन सी बीमारी है- जो भगवान कृष्ण के नागराजा स्वरूप का दर्शन, पूजा अर्चना से सही होती है- वह है कोढ की बीमारी-
धार्मिक अनुष्ठानो के अनुसार वैशाखी एवं कृष्ण जन्माष्टमी के दौरान यहाँ वृहद पूजा अर्चना संम्पन होती है! हर तीसरे वर्ष 11 गते मार्गशीर्ष (नवम्बर दिसंबर ) को यहाँ कृष्ण जात (धार्मिक यात्रा ) के रूप में एक भव्य मेला आयोजित होता है,
भगवान श्री कृष्ण को हम बहुत से रूप में पूजते है…. कभी बांसुरी लिए मुरलीमनोहर के रूप में गोपिओं को बेचैन करते हुए तो कभी विराट रूप धारण कर शत्रु का नाश करने के लिए सुदर्शन उठा लेने वाले के रूप में…मधुसूदन के अनेक रूपों में एक स्वरूप ‘नागाराजा’ का भी है जिसका टिहरी के सेम मुखेम में पूजन होता है….जनश्रुतियों के साथ-साथ धार्मिक ग्रन्थों में भी इसका उल्लेख मिलता है
सेममुखेम नागराज उत्तराखण्ड के उत्तरकाशी जिले में स्थित एक प्रसिद्ध नागतीर्थ है। श्रद्धालुओं में यह सेम नागराजा के नाम से प्रसिद्ध है। मन्दिर का सुन्दर द्वार १४ फुट चौड़ा तथा २७ फुट ऊँचा है। इसमें नागराज फन फैलाये हैं और भगवान कृष्ण नागराज के फन के ऊपर वंशी की धुन में लीन हैं। मन्दिर में प्रवेश के बाद नागराजा के दर्शन होते हैं। इसकी गिनती उन छह मंदिरों में की जाती है जिन्हें कृष्ण के कहने पर गंगू रमोला ने बनवाया था। सेम मंदिर से तकरीबन एक किलोमीटर की दूरी पर अर्कटा सेम है। कहा जाता है यहां पर हिडंबा रहा करती थी। यहां हिडंबा की हिंडोली थी जिस पर बैठकर वह अपने शत्रुओं को मारती थी। यहां कृष्ण ने हिडंबा को हिंडोली पर बैठाकर उसे जोरदार धक्का दिया था जिसके चलते हिडंबा के पेट का कुछ हिस्सा तलबला सेम में और मुख मुखेम में गिरा था। इसीलिए इसका नाम मुखेम पडा
मन्दिर के गर्भगृह में नागराजा की स्वयं भू-शिला है। ये शिला द्वापर युग की बतायी जाती है। मन्दिर के दाँयी तरफ गंगू रमोला के परिवार की मूर्तियाँ स्थापित की गयी हैं। सेम नागराजा की पूजा करने से पहले गंगू रमोला की पूजा की जाती है। द्वापर युग में कृष्ण जन्म के बाद भागवत गीता के 18 वें अध्याय में इस तीर्थ का उल्लेख किया गया है कि यमुना नदी पर एक कालिया नाग वास करता था, जिससे यमुना नदी का जल दूषित होने के साथ-साथ यमुनावासियों के लिए यमुना के दर्शन बड़े दुर्लभ हो गए थे। तब भगवान ने यमुना वासियों के दुख दर्द को समझते हुए अपने ग्वाल बाल साथियों के साथ यमुना तट पर गेंद खेलने का बहाना बनाया तथा गेंद को जानबूझकर यमुना नदी में फेंक दिया। गेंद लाने के बहाने श्रीकृष्ण ने यमुना में छलांग लगाकर उस कालिया नाग के सिर पर जा बैठे।

श्रीकृष्ण ने कालिया नाग को यमुना छोड़ने को कहा, तो उसने कहा कि वह उन्हें कोई दूसरा स्थान बता दें, जहां पर वह रह सके, क्योंकि उसने कोई अन्य स्थान नहीं देखा है। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण कालिया नाग को लेकर सेम मुखेम में पहुंचे, जहां पर उन दिनों अहंकारी शासक गंगू रमोला का शासन था। जनता गंगू रमोला के उत्पीड़न से काफी परेशान थी।

भगवान श्रीकृष्ण ने गंगू रमोला के आतंक से लोगों को भी मुक्ति दिलाई थी। माना जाता है कि तभी से जन्माष्टमी के अवसर पर सेममुखेम में हर वर्ष मेला आयोजित होता है। इस मेले में दीन गांव, घंडियाल, सेमवाल गांव, मुखमाल, खंबाखाल, कंडियाल गांव के ग्रामीणों के अलावा दूर-दूर के लोग भी पहुंचते हैं।
यह जगह समुद्र तल से 2903 मीटर की ऊंचाई पर स्थित है। यह मंदिर नाग राज का है। यह मंदिर पर्वत के सबसे ऊपरी भाग में स्थित है। मुखेम गांव से इस मंदिर की दूरी दो किलोमी.है। माना जाता है कि मुखेम गांव की स्थापना पंड़ावों द्वारा की गई थी।

यहां बांज, बुरांश और नैर-थुनैर के वृक्षों के अलावा बहुमूल्य जडी-बूटियां भी पाई जाती हैं।
जनपद टिहरी गढ़वाल की प्रताप नगर तहसील में समुद्र तल से तकरीबन 7000 हजार फीट की ऊंचाई पर भगवान श्रीकृष्ण के नागराजा स्वरूप का मंदिर है…जहां प्राचीन काल से भगवान कृष्ण नागराजा के नाम से पूजे जाते हैं…कहा जाता है की श्री कृष्ण नागवेश में केदारी कांठा होते हुए चमियाला चौंरी से नैपड गांव आए थे…इसीलिए गढ़वाली जागरों में भगवान कृष्ण को नौछमी नारायण (छदम वेश बदलने वाला) भी कहा जाता है….पुराणों में कहा गया है कि राक्षस राज वाणासुर ने कृष्ण के नाती प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध को हिमालय में बंदी बनाया था… श्री कृष्ण ने अपनी दस करोड़ महानारायणी सेना के साथ वाणासुर से युद्ध किया था.
इस युद्ध से घबराकर वाणासुर ने भगवान शिव की तपस्या की थी, जिससे प्रसन्न होकर भगवान शिव ने स्वयं युद्ध में उतरकर अपने भक्त की रक्षा की थी….भगवान शंकर ने क्रोधित होकर जब अपने सभी दिव्यारु को वैष्णवी शक्ति के सामने नष्ट होते देखा तो प्रलयकारी अमोघ दिव्यशक्ति त्रिसिरा को महानारायणी सेना पर फेंक दिया…भगवान शिव की इस शक्ति से कृष्ण चिन्ता में डूब गए…कृष्ण ने त्रिसिरा शक्ति के भय से अपने आपको नागरूप में बदल दिया और केदारखंड आ गए….

एक जनश्रुति यह भी है कि महाभारत युद्ध के बाद शान्ति की तलाश में भगवान कृष्ण हिमालय पर आए….जानकारों के अनुसार श्रीमद् भागवत व पुराणों में इसका वर्णन मिलता है….सोनूगढ़ में कृष्ण ने गंगू रमोला से अपने लिए स्थान मांगा, लेकिन उसने कृष्ण को जगह देने से इंनकार कर दिया था।
इस बात से नाराज होकर कृष्ण ने अपनी लीला से गंगू के सारे पशुओं को शिला रूप में बदल दिया…इस घटना से गंगू की पत्नी रत्ना ने अपने पति को समझाया और भगवान श्री कृष्ण के नागराजा रूप में स्तुति की व उन्हें स्थान देने का वचन दिया…तब श्री कृष्ण का नागराजा मंदिर बनवाया गया….लोक कथा के अनुसार अनेक स्थानों पर मंदिर बनाने पर भी वे लुप्त हो जाते थे..
इस प्रकार छह मंदिरों के लुप्त होने बाद बना सातवां मंदिर जो आज भी विद्यमान है…इस स्थान पर प्रति वर्ष हजारों श्रद्धालु भगवान कृष्ण के नागराजा स्वरूप का दर्शन कर पुण्य कमाते हैं…
टिहरी से 50 किलोमीटर की दूरी पर लम्बगॉव है। लम्बगॉव से नौगार गॉव होते हुए चार किलोमीटर की दूरी मोटर मार्ग पर सेम मुखेम नागराज देवता का प्राचीन एवं ऐतिहासिक मंदिर हिमालय की सुरम्य घाटी के बीच 10,000 फीट ऊँचाई पर 6 किलोमीटर लम्बे चौडे वर्गाकार मैदान में स्थापित है। मंदिर के गर्भगृह में स्वयं भू-शिला है। ये शिला द्वापर युग की बताई जाती है जिसकी लोग नागराजा के रूप में पूजा-अर्चना करते है। मंदिर के दाईं तरफ गंगू रमोला के परिवार की मूर्तियां स्थापित की गई हैं। सेम नागराजा की पूजा करने से पहले गंगू रमोला की पूजा की जाती है।
जिला मुख्यालय से करीब 90 किमी दूर प्रतापनगर प्रखंड के अंतर्गत सेममुखेम में द्वापर युग में यमुना नदी में काले नाग का वास था इस कारण यहां के लोग भयभीत थे और नदी का पानी भी दूषित हो गया था इस कारण आस-पास के क्षेत्र में पानी की समस्या पैदा हो गई।

जब भगवान श्रीकृष्ण को इस बात का पता चला तो उन्होंने बालक रूप में गेंद खेलते समय उसे जानबूझकर यमुना नदी में डाल दिया। जब भगवान गेंद को लेने नदी में गए तो वहां उनका सामान काले नाग से हो गया दोनों के बीच युद्ध हुआ और अंत में नाग ने भगवान से क्षमा मांग ली।

इसके बाद श्री कृष्ण ने उसे इस स्थान को छोड़ने को कहा इस पर नाग ने भगवान से कहा कि वहीं उन्हें किसी स्थान पर छोड़ दें। इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण भी डांडानागराजा (पौड़ी) चले गए किंतु वहां उन्हें रास नहीं आया। इसके बाद वह सेममुखेम आ पहुंचे और उस समय यहां का गंगू रमोला गढ़पति था जो काफी वृद्ध हो चुका था, लेकिन उनकी कोई संतान नहीं थी, पर उनकी पत्‍‌नी की भगवान के प्रति आगाध आस्था थी।

वह रोज पुत्र रत्‍‌न प्राप्ति की मन्नतें भगवान से मांगती थी किंतु गंगू रमोला के आगे उनकी कुछ नहीं चलती थी। इसी दौरान भगवान श्रीकृष्ण छद्म रूप धारण कर गंगू रमोला से थोड़ा जमीन मांगी पर गंगू एक इंच भूमि देने को तैयार नहीं हुआ।

अंत में श्रीकृष्ण ने गंगू रमोला की पत्‍‌नी के सपने में दर्शन देकर कहा कि यदि गंगू रमोला उन्हें थोड़ा जमीन दे दे तो उन्हें पुत्र की प्राप्ति होगी। पत्‍‌नी के कहने पर गंगू रमोला ने भगवान श्रीकृष्ण को जमीन देने की बात स्वीकारी, लेकिन वह मन ने संतुष्ट नहीं था। वह एक के बाद एक मंदिर दिन में बनाता गया और वह रात को टूटते गए। इसके बाद श्रीकृष्ण फिर गंगू की पत्‍‌नी के सपने में आये और कहा कि गंगू रमोला मन से मंदिर नहीं बना रहे हैं। इस लिए तुम्हें पुत्र की प्राप्ति नही हो सकती इसके बाद फिर गंगू रमोला ने मन से मंदिर बनाया इसके बाद भगवान श्रीकृष्ण प्रकटा सेम के नाम से प्रकट हुए और उन्हें आशीर्वाद दिया कि तुम्हारे दो पुत्र पैदा होंगे। इसके बाद गंगू रमोला ने सिदवा और विद्धवा दो पुत्रों को जन्म दिया बाद एक भाई रमोल गढ़ का गढ़पति बना और दूसरा कुमायूं चला गया था। इस दौरा की शिलाएं आज भी यहां पर गाय के खुर के रूप में मौजूद है।

”इति- हिमालयायूके-

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