उत्तराखण्ड की जनता ने जब उत्तराखण्ड राज्य माँगा तो

उत्तराखण्ड की जनता ने अपने हकों को संवैधानिक तरीके से जब उत्तराखण्ड राज्य माँगा तो केवल अपने विकास व अपने आत्म सम्मान व संस्कृति की रक्षा के लिए। आज राज्य गठन को भले ही 16 साल हो गये हैं परन्तु लोग आज भी अपने आप को ठगा सा महसूस कर रहे हैं। न तो यह राज्य जनता को अपना पन का अहसास ही नहीं है व नहीं कहीं दूर तक विंकास की वह लहर जिसके लिए पृथक राज्य गठन की मांग की गयी , वह देखने को मिला, नहीं वह आत्मसम्मान ही बच पा रहा है जिसकी रक्षा के लिए इस राज्य गठन के लिए लोगों ने लम्बा संघर्ष करते हुए अपनी शहादत तो दी। (www.himalayauk.org) 
14 अगस्त को राजधानी गैरसैंण बनाने की मांग के समर्थन में रैली करने वाले ‘म्यर उत्तराखण्ड’ के नौजवानों का भी प्रदेश के जागरूक लोगों की तरह यह पूरा विश्वास है कि बिना अलग राज्य बने यहाँ की समस्याओं का समाधान नहीं होगा, तो पांच दशक से अधिक समय तक उत्तराखंड राज्य आन्दोलन चला। पांच दशक से अधिक सालों के संघर्ष के बाद उत्तराखंड राज्य भी मिल गया। 42 लोगों की शहादत और सरकारी दमन के खिलाफ सड़कों पर संघर्षरत रही जनता ने जिस राज्य का सपना देखा था वह आज भी पूरा नहीं हुआ। जिन समस्याओं को लेकर अलग राज्य की लड़ाई लड़ी गई थी वही समस्याएं आज भी पहाड़ में, पहाड़ की तरह पहले से अधिक विकराल हो गयी है। उत्तराखंड के लिए सरकार कोई ऐसी नीति नहीं बना पाई जिस से वहां से पलायन रुके और वहां बेरोजगारों को रोजगार मिले। जल, जंगल, जमीन पर लोगों का अपना अधिकार हो। हमारे प्राकृतिक संसाधनों पर मुनाफाखोरों का शिकंजा कसता चला जा रहा है। नदियों को बड़ी कंपनियों के हवाले कर सरकार ने जिस ऊर्जा प्रदेश का सपना देखा है उससे यहाँ के लोग पलायन करने को मजबूर हैं। अलग राज्य बनने के बाद भी यहाँ के लगभग 15 लाख लोग पहाड़ छोड़ चुके हैं। पौने दो लाख घरों में ताले पड़े हैं। अब नई तरह की बेचैनी जनता में है। वह है अपनी आकांक्षाओ, सपनो का राज्य बनाना। अभी भी आन्दोलनों का दौर थमा नहीं, आज भी यहाँ की जनता अपने हक हकूकों के लिए आंदोलनरत है। चाहे बांधों के खिलाफ प्रदर्शन, जल, जंगल, जमीन या फिर राजधानी गैरसैण आन्दोलन हो। जैसा कि आपको विदित है उत्तराखण्ड राज्य को बने 11 साल होने को है और इन 11 सालों में 5 मुख्यमंत्री बदल गए। कभी कांग्रेस कभी बीजेपी दोनों सत्ता बदलते रहे। और अस्थाई राजधानी देहरादून से ही अपना शासन चलाते रहे। मगर अपने इस कार्यकाल के दौरान किसी भी सरकार ने स्थाई राजधानी बनाने की जहमत नहीं उठाई। आजाद भारत में उत्तराखण्ड ऐसा अभागा प्रदेश है, जिसकी राजधानी जनता द्वारा तय किये जाने के बाबजूद सरकारें बलात 11 साल तक अस्थाई राजधानी देहरादून को ही स्थाई राजधानी में तब्दील करने के लिए प्रदेश की राजसत्ता व संसाधनों का खुला दुरप्रयोग कर रहे है। 11 वर्ष से स्थायी राजधानी गैरसैंण बनाने को जानबुझ कर लटकाने का राजनेताओं का षडयंत्र, उत्तराखंड की जनता को निराश करने वाला ही नहीं अपितु लोकशाही को दफन करने वाला भी है । । राज्य के बुद्धिजीवियों, हितचिंतकों, भूगोलवेत्ताओं, अर्थशास्त्रियों, वैज्ञानिकों ने पूरी समझ और शोध के बाद ही तय किया था कि यदि उत्तराखंड राज्य का गठन हुआ तो इसकी राजधानी के लिये गैरसैण से अधिक उपयुक्त स्थान कोई नहीं है।
सन् 1994 में मुलायम सिंह यादव के नेतृत्व वाली उत्तर प्रदेश सरकार द्वारा उत्तराखंड राज्य गठन हेतु रमा शंकर कौशिक समिति का गठन किया गया और इस समिति ने उत्तराखंड राज्य का समर्थन करते हुए 5 मई 1994 को अपनी संस्तुति राज्य सरकार को दी। इस समिति ने पर्वतीय क्षेत्र में स्थान-स्थान पर जाकर लोगों के सुझाव लिए। कुमाऊँ एवं गढ़वाल के मध्य स्थित गैरसैंण (चंद्रनगर) नामक स्थान पर राजधानी बनाने की संस्तुति दी। उस समिति की रिपोर्ट के मुताबिक गैरसैंण को 60.21 फीसदी अंक मिले थे, जबकि नैनीताल को 3.40, देहरादून को 2.88, रामनगर-कालागढ़ को 9.95, श्रीनगर गढ़वाल को 3.40, अल्मोड़ा को 2.09, नरेंद्रनगर को 0.79, हल्द्वानी को 1.05, काशीपुर को 1.31, बैजनाथ-ग्वालदम को 0.79, हरिद्वार को 0.52, गौचर को 0.26, पौड़ी को 0.26, रानीखेत-द्वाराहाट को 0.52 फीसद अंक मिलने के साथ ही किसी केंद्रीय स्थल को 7.25 फीसद अन्य को 0.79 प्रतिशत ने अपनी सहमति दी थी। गैरसैंण के साथ ही केंद्रीय स्थल के नाम पर राजधानी बनाने के पक्षधर लोग 68.85 फीसद थे। उस रिपोर्ट में गैरसैंण (चन्द्रनगर) को राजधानी के लिये सबसे उपयुक्त माना। कौशिक समिति की संस्तुति पर 24 अगस्त 1994 को उत्तर प्रदेश विधानसभा ने उत्तराखंड राज्य बनाने का प्रस्ताव पारित कर दिया।
राज्य बनने के बाद भी वह दुर्भाग्य गया नहीं है। देश की तो दूर, गैरसैंण को राज्य की राजधानी न बनाने के लिये कितने कुतर्क, षडयंत्र और खेल खेले गए और खेले जा रहे हैं। उत्तराखंड की प्रथम सरकार नित्यानंद स्वामी की अगुवाई में बनी, उनकी सरकार ने राजधानी गैरसैण (चंद्रनगर) के नाम पर एक राजनैतिक षडयंत्र के तहत दीक्षित आयोग नाम की एक समिति गठित कर हमारे ऊपर थोप दिया और दीक्षित आयोग ने 11 बार अपना कार्यकाल बढ़ने के बाद वही रिपोर्ट दी जिसकी वहां की जनता को पहले ही आशंका थी। असल में दीक्षित आयोग का गठन ही गैरसैण को राजधानी न बनाने के लिए किया गया था। कौशिक समिति पहले ही राज्य के विभिन्न हिस्सों में जाकर गैरसैण के लिए लोगों की राय ले चुकी थी। एक कैबिनेट मंत्री की अध्यक्षता और वरिष्ठ सचिव के संचालन में इस समिति ने बुद्धिजीवियों, वकीलों, छात्र संगठनों, आन्दोलनकारियों आदि से बात कर अपनी रिपोर्ट तैयार की। इस समिति की सिफारिश को दरकिनार का राष्ट्रीय दलों ने गैरसैण का विरोध शुरू किया। कौशिक समिति की रिपोर्ट की उपेक्षा और दीक्षित आयोग का गठन पहाड़ की जनता के साथ छल था। एक सरकारी समिति जिसने आम लोगों की राय को सही माना उसके ऊपर आयोग बैठाना जनतांत्रिक भावनाओं का अपमान है। गैरसैंण को राजधानी न बनाने के लिये उन्होंने कुतर्क गढ़ने भी शुरू कर दिये। राजधानी के बारे में वे लोग भी तर्क देने लगे जिन्हें यहां का भूगोल पता नही है। जिन लोगों ने कभी गैरसैंण देखा नहीं वे भी उसके विरोध में बयान देने लगे। सरकार भी बार-बार लोगों का ध्यान इससे हटाने लगी। गैरसैंण के विरोध में वे लोग हैं, जो न आन्दोलन में थे और न उनकी कही आन्दोलन में भूमिका रही थी। राज्य आन्दोलन वहां की जनता ने छोटे छोटे तबकों में एकजुट होकर लड़ा था। राज्य के लिए 42 लोगों की शहादत और राजधानी गैरसैण (चंद्रनगर) के लिए बाबा मोहन उत्तराखंडी और छात्र कठैत की शहादत को हम नहीं भूलेंगे। राजधानी गैरसैंण घोषित करने को लेकर 38 दिनों तक आमरण अनशन करने के बाद बाबा मोहन उत्तराखंडी शहीद हुए थे। इन सब बातों को देखने के बाबजूद आज भी प्रदेश के तमाम राजनेताओं को इस बात की होश तक नहीं है कि प्रदेश की राजधानी बनाने से प्रदेश क ी उन लोगों की जनआकांक्षाओं को साकार करने की महत्वपूर्ण पहल होगी जिन्होंने पृथक राज्य गठन के लिए अपना सबकुछ कुर्वान कर दिया था। प्रदेश के उपेक्षित पर्वतीय क्षेत्र के विकास के लिए ही पृथक राज्य की मांग क ी गयी थी न की इन राजनेताओं व नौकरशा हों की ऐशगाह बनाने क े लिए। एक बात इन राजनेताओं को कान खोल कर आत्मसात करनी चा िहए कि राज्य का गठन तभी सार्थक होगा जब राजधानी गैरसैंण में बनेगी। गैरसैंण केवल स्थान हीं नहीं अपितु उत्तराखण्ड में लोकशाही के प्रतीक का भी केन्द्र बिन्दू है । जो जनता अपने आत्मसम्मान के लिए मुलायम व राव के दमनकारी कुशासन का मुहतोड़ जवाब दे कर पृथक राज्य का गठन कर सकती ह ै तो वह अपने भाग्य व लोकशाही पर ग्रहण लगाने वाले अपने ही आस्तीन के सांपों को कुचलने में क्यों मुंह मोड़ेगी। उत्तराखण्डियों के लिए देहरादून लखनऊ से बदतर साबित ह ो रहा है। आज जरूरत है उत्तराखण्डियों को जागरूक हो ने की।
जो जहां भी ह ै जिस संगठन में भी ही अगर प्रदेश व अपनी जन्म भूमि की रक्षा करनी है । अगर आपने अपने शहीदों व राज्य आंदोलनकारियों की शह ादत व संघर्षो का सम्मान करना है तो तमाम संगठन एक स्वर में हमारे राजनेता ब ने इन सत्ता के भैडियों का जो गैरसैंण राजधानी बनाने मे ं शर्मनाक मौन रखे हुए हैं उनका सामाजिक ही नही चुनाव में भी परास्त करने का काम करें। सामाजिक संस्थायें जनहितों कों रोंदने वाले इन भैडियों को फूलों की हार पहनाने मात्र को अपना दायित्व न समझे अपितु इनकी जनहितों क ो रौंदने वालों पर भी अंकुश लगाने का अपने दायित्व का निर्वहन करना चाहिए। नहीं तो आने वाला समाज हमें कभी मा फ नहीं करेंगा।

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