दबा रखा है सरकार ने प्रोन्नति में आरक्षण का मामला

छः सालों से दबा रखा है सरकार ने प्रोन्नति में आरक्षण का मामला
ढाई साल से अध्ययन को उच्च स्तरीय समिति के पास है एक करोड की लागत से बनी आयोग की रिपोर्ट
कैबिनेट पेपर्स के बहाने रिपोर्ट की प्रति सूचना अधिकार के अन्तर्गत उपलब्ध कराने से भी इंकार
उत्तराखंड उच्च न्यायालय के १० जुलाई २०१२ के विनोद प्रकाश नौटियाल मामले कें निर्णय से उत्तराखंड में नौकरियों म प्रोन्नति में आरक्षण समाप्त कर दिया गया है। इसी निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के एम.नागराज के निर्णय के अनुसार राज्य सरकार को प्रोन्नति में आरक्षण के लिये नया कानून बनाने की छूट दी गयी है। उत्तराखंड सरकार ने उत्तराखंड राज्य के अधीन सरकारी नौकरियों में आरक्षण के सम्बन्ध में संस्तुति करने के लिये जस्टिस इरशाद हुसैन आयोग का गठन किया जिससे १५ जनवरी २०१६ को अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सपी। इस पर ९९.८१ लाख रूपये का खर्च आया। इसके बाद अभी तक न तो इस पर कोई निर्णय लिया गया है और न ही रिपोर्ट सार्वजनिक ही की जा रही है। सूचना अधिकार के अन्तर्गत सूचना मांगने पर उच्च स्तरीय समिति के पास इसे अध्ययन के अधीन होने व कैबिनेट पेपर के अन्तर्गत आने का बहाना करके उपलब्ध कराने से इंकार कर दिया गया है।

इसी निर्णय में सुप्रीम कोर्ट के एम.नागराज के निर्णय के अनुसार राज्य सरकार को प्रोन्नति में आरक्षण के लिये नया कानून बनाने की छूट दी गयी है। उत्तराखंड सरकार ने उत्तराखंड राज्य के अधीन सरकारी नौकरियों में आरक्षण के सम्बन्ध में संस्तुति करने के लिये जस्टिस इरशाद हुसैन आयोग का गठन किया जिससे १५ जनवरी २०१६ को अपनी रिपोर्ट मुख्यमंत्री को सपी। इस पर ९९.८१ लाख रूपये का खर्च आया।

काशीपुर निवासी सूचना अधिकार कार्यकर्ता नदीम उद्दीन एडवोकेट ने कार्मिक विभाग से नौकरियों में अनुसूचित जाति वर्ग के प्रतिनिधित्व के सम्बन्ध में इरशाद हुसैन आयोग, उसकी रिपोर्ट व उस पर कार्यवाही के सम्बन्ध में सूचना मांगी। इसके उत्तर में लक सूचना अधिकारी/अनुसचिव ने अपने पत्रांक २२३ से रिपोर्ट की प्रति के अतिरिक्त अन्य सूचनायें उपलब्ध करायी जिस पर प्रथम अपील अपर सचिव को की गयी तथा उनके निर्णय से संतुष्ट न होने पर दूसरी अपील उत्तराखंड सूचना आयोग म की गयी। उत्तराखंड सूचना आयोग में मुख्य सूचना आयुक्त शत्रुध्न सिंह के समक्ष भी उत्तराखंड शासन के कार्मिक विभाग के लक सूचना अधिकारी ने कैबिनेट पेपर के अन्तर्गत धारा ८(१)(झ) के अन्तर्गत छूट प्राप्त होने के आधार पर रिपोर्ट की प्रति उपलब्ध कराने से इंकार किया है। २५ मई २०१८ के अपील सं० २५८७८ के आदेश में स्पष्ट लिखा गया है कि संबंधित रिपोर्ट मा०मुख्यमंत्री जी के समक्ष प्रस्तुत की गयी थी तथा उत्तराखंड शासन के मुख्य सचिव की अध्यक्षता में उच्च स्तरीय समिति का गठन किया गया है। संदर्भित रिपोर्ट गठित समिति के विचाराधीन है तथा उच्च स्तर पर लिये गये निर्णयानुसार समिति की आख्या मा० मंत्रिमंडल को प्रस्तुत किया जाना है यह कार्यवाही पूरी नहीं हुई है एवं मा० मंत्रिमण्डल के अन्तिम आदेश पारित नहीं हुये है। सूचना का अधिकार अधिनियम २००५ की धारा ८.१(झ) के अन्तर्गत सूचना आच्छादित होने के कारण लक सूचना अधिकारी ने सूचना प्रदान करने से इंकार किया है।
मुख्य सूचना आयुक्त ने निर्णय दिया कि समिति की रिपोर्ट पर अभी तक मा० मंत्रिमंडल के आदेश नहीं हुए हैं अतः इसे सार्वजनिक करने का अवसर अभी उत्पन्न नहीं हुआ है। ऐसे में सम्बन्धित रिपोर्ट की प्रति सम्बन्धी सूचना प्रदान किया जाना संभव नहीं है।
श्री नदीम को प्रोन्नति में आरक्षण विषयक एक सदस्यीय आयोग पर कुल ९९ लाख ८१ हजार ४३० रू. खर्च होने की सूचना सचिवालय प्रशासन लेखा अनुभाग के अनुसचिव द्वारा उपलब्ध करायी गयी है। श्री नदीम को उपलब्ध सूचना के अनुसार अध्यक्ष व सचिव के वेतन भत्तों पर रू. ७६ लाख ४८ हजार ७५४ रूपये तथा ४ सदस्यीय स्टॉफ (निजि सचिव, कम्प्यूटर ऑपरेटर, २ अनुसेवक) के मानदेय पर २२ लाख ३२ हजार ३८ रूपये तथा अन्य खर्चो पर कुल १ लाख ६३८ रू. खर्च हुये है।
श्री नदीम ने बताया कि प्रोन्नति में आरक्षण विषय पर निर्णय लेने से सरकार छः साल से बच रही है इसीलिये उन्हें उपलब्ध सूचना के अनुसार पहले जो हाईकोर्ट के निर्णय के तीन माह बाद ०५ सितम्बर २०१२ की अधिसूचना से आरक्षण पर संस्तुति करने को आयोग बनाया जिसे ३ माह में रिपोर्ट देनी थी। १५ जनवरी २०१६ को आयोग ने अपनी रिपोर्ट तत्कालीन मुख्यमंत्री को सौंपी। इसे सार्वजनिक होने से बचाने के लिये रिपोर्ट पर विस्तृत अध्ययन कर मा० मंत्रिमंडल को आख्या प्रस्तुत करने के लिये मुख्य सचिव की अध्यक्षता में समिति बना दी गयी जिसमें प्रमुख सचिव कार्मिक, सचिव वित्त, अपर सचिव न्याय तथा विशेष आमंत्री सेवा निवृत्त पी०सी०एस० सतीश चन्द्र बडोनी को शामिल किया गया। उपलब्ध सूचना के अनुसार ढाई वर्ष में इस समिति द्वारा कोई कार्यवाही नहीं की गयी है यहां तक कि अप्रैल २०१६ के बाद से इस समिति की कोई मीटिंग भी नहीं हुई है। इस प्रकार सूचना अधिकार के अन्तर्गत रिपोर्ट को सार्वजनिक होने से बचाने व मामला टालने के लिये इस समिति को बनाया गया है।

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