उत्तराखंड में सरकार आर्थिक संकट में

#उत्‍तराखण्‍ड में भाजपा सरकार के 2 माह  #उत्तराखण्डं में सरकारी खजाने की कमजोर स्थिति #उत्तराखंड में सरकार आर्थिक संकट में है# सूबे की माली हालत की स्थिति बेहद खराब # सरकारी खजाना तो केवल नाम का ही रह गया है #कुल बजट का 17 फीसद भी विकास कार्यों के लिए बच नहीं पा रहा है #वेतन और पेंशन का खर्च और ज्यादा बढ़ने से तो हालत और बुरे # विकास की दौड़ में पहले से ही पिछड़े क्षेत्रों को ढांचागत सुविधाओं के विस्तार की चुनौती और बढ़ जाएगी# इस तल्ख सच्चाई का  सामना करने को त्रिवेन्‍द्र सरकार शायद ही तैयार हो#   एम0डी0डी0ए0, पी0डब्‍ल्‍यू0डी0, पेयजल समेत राज्‍य सरकार के किसी भी विभाग मे सरकार के पास पैसा ही नही, मुख्‍यमंत्री के रूप में त्रिवेन्‍द्र रावत के 2 माह, परन्‍तु उनके द्वारा एक भी विकास कार्य की शुरूआत नही की गयी # विधायकों और नौकरशाहों में भिडंत हो रही है, मंत्रीगण भी नाराज है, नौकरशाह कह रहे हैं धनराशि नही है हम क्‍या करे# www.himalayauk.org (Leading Web & Print Media)

भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अमित शाह ने उत्तराखंड की सरजमीं से कहा था कि भाजपा ने उत्तराखंड बनाया, अब वही इसे संवारेगी भी। इसके लिए केंद्र व राज्य के डबल इंजन की दरकार है। उन्होंने जनता से अपील की थी कि उत्तराखंड का भाग्य बदलने के लिए भाजपा को पूर्ण बहुमत से विजयी बनाए।  जनता ने अपना फर्ज पूरा किया परन्‍तु उत्‍तराखण्‍ड के आर्थिक हालात सुधारना भूल गये अमित शाह, शायद तभी हरक सिंह रावत को डबल इंजन का बयान देना पडा-

हाल ये है कि गैर विकास मदों में बढ़ते खर्च ने राज्य को ये सोचने को मजबूर कर दिया है कि हर शहर-मुहल्ले, गांव-तोक तक बिजली और पानी की सुचारु आपूर्ति, संपर्क मार्ग, अच्छी सड़कें, संसाधनों से सरसब्ज स्कूल-कॉलेज और आत्मनिर्भर इलाके  “डबल इंजन की दरकार” नारों तक सिमटे न रह जाएं। इन्हें हकीकत तक पहुंचाने के विकास मद में जितने धन की दरकार है, मौजूदा हालत में तो नजर नहीं आ रहा है।

त्रिवेन्‍द्र सरकार  को  सबसे पहले विकास कार्यों के लिए धन जुटाने की चुनौती से जूझना है। सिर्फ सातवें वेतन आयोग की सिफारिशें लागू होते ही प्रदेश में सिर्फ वेतन, भत्तों और पेंशन पर होने वाला खर्च बढ़कर तकरीबन 14 हजार करोड़ तक पहुंच रहा है। नए वेतन से पहले सिर्फ वेतन मद और भत्तों की मद में सरकार को सालाना 9500 करोड़, पेंशन के रूप में सालाना 2500 करोड़ समेत सिर्फ वेतन-भत्ते और पेंशन पर ही सालाना 12 हजार करोड़ खर्च की नौबत आ रही थी। सातवां वेतनमान लागू होने के बाद यह राशि बढ़कर साढ़े 14 हजार करोड़ पहुंचने जा रही है। वेतन और पेंशन के रूप में बढ़ने वाली 2500 करोड़ से ज्यादा धनराशि से विकास मद के खर्च में ही कटौती की जानी है। वर्तमान में बाजार से लिये जाने वाले कर्ज को चुकता करने में 2500 से 3000 करोड़ खर्च हो रहे हैं। सातवां वेतनमान लागू होने के बाद राज्य पर सालाना ढाई से तीन हजार करोड़ का अतिरिक्त खर्च बढ़ गया है। यानी राज्य को हर महीने वेतन और पेंशन के भुगतान के लिए 200 से 300 करोड़ अतिरिक्त की दरकार है। वेतन और पेंशन के भुगतान के लिए राज्य को पहले ही जब कर्ज लेने को मजबूर होना पड़ रहा है, नई परिस्थितियों में तो कर्ज का बोझ और बढऩा तय है। वर्तमान में ही सूबे पर कर्ज का बोझ 40 हजार करोड़ से ज्यादा हो चुका है। नॉन प्लान और प्लान के बीच फासला तिगुना होने को है। कुल बजट का 83 फीसद गैर विकास मदों पर ही जाया हो रहा है तो महज 17 फीसद बजट से विषम भौगोलिक परिस्थितियों वाले राज्य की जन अपेक्षाओं को किस कदर पूरा किया जा सकता है। 
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) ने उत्तराखंड विधानसभा चुनावों के लिए अपने घोषणापत्र में कई वादे किए थे। इनमें 2019 तक सभी गांवों को सड़कों से जोड़ना, 24 घंटे बिजली आपूर्ति और सत्ता संभालने के छह महीने के भीतर खाली पड़े सभी सरकारी पदों पर नियुक्ति शामिल है। चुनावों में पार्टी को प्रचंड बहुमत मिलने के बाद अब अगर घोषणापत्र में किए गए वादों को देखा जाए तो इनमें से अधिकांश को पूरा करना  मुश्किल है।  ऐसे में चर्चा आम है कि डबल इंजन क्‍या चुनावी जुमला साबित होगा

ग्रामीण सड़कों की बात करे तो ‘पर्वतीय इलाकों में सड़क बनाना मुश्किल
ग्रामीण सड़कों की बात करे तो ‘पर्वतीय इलाकों में सड़क बनाना मुश्किल है। वही दूसरी चुनौती  मॉनसून और सर्दियों का मौसम की आ गयी है। इसलिए काम करने के लिए केवल चार महीने का समय मिलता है।  पीएमजीएसवाई में कोई गांव सड़क से 1.5 किमी दूर है तो उसे सड़क से जुड़ा हुआ माना जाता है। दो साल पहले राज्य सरकार ने इस 1.5 किमी को भी बनाने का फैसला किया। इस योजना के तहत दो साल में करीब 150 किमी बननी थी लेकिन इसकी प्रगति बहुत धीमी है।

भाजपा सरकार का दूसरा वादा चौबीसो घण्‍टे बिजली देने का था # उत्तराखंड में गुणवत्तापरक शिक्षा अभी भी दूर की कौड़ी

भाजपा का एक और चुनावी वादा आर्थिक रूप से कमजोर वर्ग के छात्रों को स्नातकोत्तर के स्तर तक मुफ्त शिक्षा देना है। शिक्षा पर राज्य का खर्च पिछले सात सालों में लगातार गिरा है। 2010-11 में यह 23.5 फीसदी था जबकि 2016-17 में 17.1 फीसदी (बजट अनुमान) रह गया। इस तरह शिक्षा पर खर्च बढ़ाने की गुंजाइश है लेकिन इसे खाली पड़े सभी सरकारी पदों को छह महीने में भरने के वादे के साथ देखें तो इसमें वित्तीय पेच है। वर्ष 2015-16 में उत्तराखंड ने वेतन पर 9,900 करोड़ रुपये खर्च किए जो राज्य के कुल खर्च का 30 फीसदी है और राज्य के कुल पूंजीगत खर्च 6,954 करोड़ रुपये से अधिक है। वेतन में किसी तरह की बढ़ोतरी से राजकोषीय दबाव बढ़ेगा। राज्य का राजकोषीय घाटा 14वें वित्त आयोग द्वारा तय 3 फीसदी की सीमा को पार कर गया है। वर्ष 2016-17 में राज्य के सकल घरेलू उत्पाद का 3.4 फीसदी था जबकि 2015-16 में यह 3 फीसदी (संशोधित अनुमान) था। अगर नई सरकार खाली पड़े सभी पदों को पूरा करती है तो वे संसाधन कर्मचारियों के वेतन में चले जाएंगे जिनका शिक्षा के लिए इस्तेमाल हो सकता था।

उत्‍तराखण्‍ड  के तमाम शहर शिक्षा हब के रूप में जाने जाते हैं। सरकारें भी कई मौकों पर राज्य को शिक्षा हब के रूप में विकसित करने के दावे कर चुकी हैं। ये तमाम दावे धरातल पर हवा नजर आते हैं। भाजपा के घोषणा पत्रों में शिक्षा का मुद्दा सर्वोच्च प्राथमिकता पर दिख रहा था लेकिन ये सिर्फ मुद्दा बनकर ही रह गया है।
राज्य में स्कूली शिक्षा से लेकर उच्च, तकनीकी और चिकित्सा शिक्षा तक बदहाल हैं। स्कूली शिक्षा जहां गुणवत्ता के मोर्चे पर जूझ रही है, वहीं उच्च शिक्षा, तकनीकी शिक्षा और चिकित्सा शिक्षा जुगाड़ तंत्र के सहारे रेंग रही है। राजनीतिक इच्छा शक्ति की कमी ही है कि आर्थिक रूप से कमजोर राज्य के किशोर-युवा निजी संस्थानों से महंगी शिक्षा प्राप्त करने को मजबूर हैं।

भाजपा का एक ओर चुनावी जुमला सामने आने वाला है – भाजपा ने उत्तराखंड बनाया, इसे संवारेगी भी- 
राज्य की शिक्षा व्यवस्था की स्थिति पर गौर करें तो सैकड़ों रिक्त पद, संविदा और अतिथि शिक्षकों के भरोसे और कर्मचारी आंदोलनों के कारण राज्य शिक्षा गुणवत्ता के मोर्च पर सफल नहीं हो पा रही है। तमाम सर्वे रिपोर्ट बताती हैं कि राज्य में सरकारी शिक्षा बदहाल है। वहीं, उच्च शिक्षा की बात करें तो सरकार राज्य में बेहतर शिक्षा संस्थानों की स्थापना से लेकर मौजूदा संस्थानों में गुणवत्तापरक शिक्षा संसाधन विकसित करने में नाकाम नजर आती है। राज्य के सौ से अधिक महाविद्यालयों में शिक्षकों की भारी कमी हैं। पुराने मानकों पर भी शिक्षकों की तैनाती नहीं हो सकी। नए मानकों की बात करें तो 50 फीसद पद रिक्त दिखते हैं। छात्रों को न शिक्षक मिल पा रहे हैं, न कक्षाएं लग पा रही हैं और न ही यूजीसी मानकों के अनुसार 180 दिन के न्यूनतम कार्यदिवस ही संचालित हो पा रहे हैं।

मेडिकल, तकनीकी और व्यवसायिक शिक्षा की स्थिति भी कमोबेश यही है। हर साल तकनीकी शिक्षण संस्थानों में प्रवेश का ग्र्राफ गिरता जा रहा है। तमाम संस्थान बंदी की कगार पर हैं। सरकारी संस्थानों से भी छात्रों का मोह भंग हो रहा है। राज्‍य गठन हुए 16 साल हो गये परन्‍तु तकनीकी विश्वविद्यालय की परिनियमावली तक अस्तित्व में नहीं आ पाई। स्थाई तैनातियों के लिए अभी तक ठोस नीति नहीं बन पाई है।

उत्‍तराखण्‍ड के  प्राथमिक से लेकर उच्च शिक्षा तक राज्य के संस्थान कहीं नहीं ठहरते हैं। राज्य को अगर शिक्षा के क्षेत्र में कुछ पहचान मिली है तो वह निजी क्षेत्र के खाते में जाती है। राज्य के सरकारी स्कूलों में शिक्षा और संसाधनों की स्थिति पर जारी प्रथम एजुकेशन फाउंडेशन की एनुअल स्टेटस ऑफ एजुकेशन रिपोर्ट (असर) के आंकड़े इसकी तस्दीक करते हैं।
इस रिपोर्ट को आधार माना जाए तो उत्तराखंड में गुणवत्तापरक शिक्षा अभी भी दूर की कौड़ी दिखाई पड़ रही है। इस रिपोर्ट में राज्यवार बच्चों के लर्निंग लेवल, आरटीई के मानक, उपलब्ध संसाधन आदि पर सर्वे किया गया है। वर्ष 2016 में उत्तराखंड में 388 गांवों का सर्वे किया गया। इनमें 7528 घरों व तीन से 16 आयु वर्ग के 11255 बच्चों को शामिल किया गया। इस रिपोर्ट को गुणवत्ता के आईने में देखें तो करीब 40 फीसद छात्रों की शैक्षिक गुणवत्ता औसत से कम है।
अभी भी छात्रों की एक बड़ी संख्या हिंदी व अंग्रेजी पढऩे-लिखने और गणित के सवाल हल करने में पिछड़ी है। राहत की बात यह है कि शिक्षा का अधिकार अधिनियम लागू होने के बाद नामांकन बढ़ा है। यह अलग बात है कि आरटीई के अनुरूप अभी भी सुविधाओं का अभाव दिखता है।

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