उत्तराखंड- दुर्लभ वानस्पतिक प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में

जैव विविधता के लिए मशहूर 71 फीसद वन भूभाग वाले उत्तराखंड में अनियंत्रित विदोहन के चलते 16 दुर्लभ वानस्पतिक प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है। इन्हें जैव विविधता अधिनियम-2002 की धारा 38 के तहत संकटग्रस्त श्रेणी में अधिसूचित किया गया है। इससे चिंतित सरकार ने अब इनके संरक्षण-संवर्धन को वन प्रभागों की प्रबंध योजनाओं के जैव विविधता संरक्षण कार्यवृत्त में शामिल करने का निश्चय किया है।
हिमालयी बुग्यालों (मखमली घास के मैदान) में भी जलवायु परिवर्तन के दुष्परिणाम सामने आने लगे हैं। डीआरडीओ दिल्ली के वरिष्ठ वैज्ञानिक एवं गढ़वाल केंद्रीय विश्वविद्यालय के पूर्व कुलपति प्रो. एसपी ङ्क्षसह के शोध में यह बात सामने आई है। शोध के अनुसार जलवायु परिवर्तन के कारण अब बुग्यालों में भी निचले क्षेत्र के पेड़ उगने लगे हैं। जिससे बुग्यालों में पाई जाने वाली दुर्लभ वनस्पतियां खतरे की जद में आ गई हैं। इस पर ठोस कार्ययोजना बनाकर ही रोक लगाई जा सकती है।

गढ़वाल विश्वविद्यालय के स्वामी रामतीर्थ परिसर बादशाहीथौल में आयोजित अंतरराष्ट्रीय सेमिनार में यह शोध पत्र प्रस्तुत किया गया। कहा गया है कि पहले मानवीय दखल के चलते बुग्यालों की दुर्लभ वनस्पति खतरे की जद में थी, लेकिन अब बुग्यालों में उगने वाले निचले क्षेत्र के पेड़-पौधों ने वहां संपूर्ण परिवेश के लिए खतरा पैदा कर दिया है। प्रो. एसपी सिंह ने बताया कि समुद्रतल से नौ हजार से 12 हजार फीट से अधिक ऊंचाई पर स्थित बुग्यालों में दुर्लभ औषधीय वनस्पतियां पाई जाती हैं। जो कई तरह की असाध्य बीमारियों के उपचार में काम आती हैं। लेकिन, अब इन वनस्पतियों का अस्तित्व भी मौसम परिवर्तन के कारण खतरे में पड़ गया है। इससे वहां पाए जाने वाले वन्य जीवों की दिनचर्या पर भी प्रतिकूल प्रभाव पड़ रहा है। अगर इसी तेजी के साथ निचले क्षेत्र को पेड़-पौधे बुग्यालों में उगते रहे तो बुग्यालों का अस्तित्व मिटने में देर नहीं लगने वाली। प्रो. सिंह के अनुसार इस स्थिति पर अंकुश लगाने के लिए ठोस कार्ययोजना बनाकर कार्य करना होगा। तभी बुग्याल बचे रह सकते हैं। बुग्यालों में पाई जाने वाली वनस्पति अतीस, दूधिया अतीश, कुटकी, कड़वी कुटकी, अर्चा गडऩी, मीठा विष, जटामासी, वन ककड़ी, चिरायता, ककोली, गुग्गल, सतवा, दूधिया सतवा, जीवक रसबक, शिल्पाहरी, हथजड़ी, पुष्करमोल, चोरु, कपूरकचरी, दौलू अरचा, वज्रदंती, रतनजोत, ब्रह्मकमल आदि।

 

देवभूमि उत्तराखंड में पेड़ पौधों की सैकड़ों ऐसी प्रजातियां हैं जो पर्यावरण संतुलन के लिए तो आवश्यक हैं ही, साथ ही आयुर्वेद में भी अपना अलग स्थान रखती हैं। वर्तमान में पृथ्वी का पर्यावरण संतुलन बहुत कुछ उत्तराखंड जैसे ही ग्रीन बेल्ट वाले भू-भागों पर निर्भर है। भारतीय वनस्पति विभाग द्वारा किये गए एक सर्वेक्षण में कुछ चौकाने वाली रिपोर्ट सामने आयी हैं जिनके अनुसार उत्तराखंड में पायी जाने वाली दुर्लभ 16 वनस्पतियां विलुप्त होने की कगार पर हैं। बताया जा रहा है कि इन वनस्पतियों के अनियंत्रित विदोहन के कारन यह स्थिति उत्पन्न हुई है और यही इसकी मुख्य वजह है। दुर्लभ वनस्पतियों की ऐसी प्रजातियों को बचाने और संवर्धन करने का काम वन प्रभागों के जरिये होगा। जैव विविधता के लिए मशहूर उत्तराखंडप्रदेश में 71 फीसद भू-भाग पर वन हैं। परन्तु उत्तराखंड में इन दुर्लभ वनस्पतियों के अनियंत्रित विदोहन के चलते 16 दुर्लभ वानस्पतिक प्रजातियों का अस्तित्व खतरे में पड़ गया है।

इन दुर्लभ 16 वनस्पतियों को जैव विविधता अधिनियम-2002 की धारा 38 के तहत संकटग्रस्त श्रेणी में शामिल कर दिया गया है। जाहिर है इससे चिंतित सरकार ने अब इन दुर्लभ वनस्पतियों को सुरक्षित रखने और इनके संरक्षण तथा संवर्धन करने के उद्देश्य से वन प्रभागों की प्रबंध योजनाओं के जैव विविधता संरक्षण कार्यवृत्त में शामिल करने का निश्चय किया है। भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण की इस ताजा रिपोर्ट के मुताबिक उत्तराखंड प्रदेश में आवृत्तजीवी (पुष्पीय) वनस्पतियों, जोकि उच्च हिमालयी क्षेत्र में पायी जानती हैं, की 4700 प्रजातियां हैं। इसके साथ ही उत्तराखंड के वन प्रभागों की वन प्रबंध योजनाओं में 920 प्रजातियां भी शामिल की गई हैं, जिनमें कई वनस्पतियां औषधीय महत्व की भी हैं और आयुर्वेद में महत्वपूर्ण दवाइयां बनाने के लिए इस्तेमाल होती हैं। इन वनस्पतियों का अनियंत्रित विदोहन होने के कारण इन वनस्पतियों पर आस्तित्व का संकट गहरा गया है। वन प्रभाग के सुस्त और ढुलमुल रवैये के कारण दुर्लभ और महत्वपूर्ण 16 वानस्पतिक प्रजातियां संकट में आ गई हैं। वैसे कहा जा रहा है कि अब इनके संरक्षण-संवर्धन के लिए प्रक्रिया प्रांरभ कर दी गई है, परन्तु ऐसी नौबत आने के बाद ही प्रक्रिया क्यों प्रारम्भ की जाती है… यह बात समझ से परे है। संकटग्रस्त वानस्पतिक प्रजातियों में अतीस, दूध अतीस, इरमोसटेचिस (वन मूली), कड़वी, इंडोपैप्टाडीनिया (हाथीपांव), पटवा, जटामासी, पिंगुइक्यूला (बटरवर्ट), थाकल, टर्पेनिया, श्रेबेरा (वन पलास), साइथिया, फैयस, पेक्टीलिस व डिप्लोमेरिस (स्नो आर्किड), मीठा विष आदि प्रजातियां हैं।

किवदंतियों के आधार पर आज भी देवालयों का चिकित्सा विज्ञान अपने आप में एक गूढ़ रहस्य बना है.
जिला रुद्रप्रयाग के तल्लानागपुर में क्रोंच पर्वत पर भगवान कार्तिकेय का भव्य मंदिर स्थित है. वैसे तो पहाड़ों पर अनेक जड़ी-बूटियां मिलती हैं. लेकिन क्रोंच पर्वत में मंदिर के चारो तरफ अनेक जड़ी-बूटियां मिलती हैं. जिन से कई रोगों का निवारण किया जाता हैं. इन जड़ी-बूटियों में यहां बज्रदंति, कड़वी, लिगंगडा, कुथडा आदि अनेक जड़ी-बूटियां मिलती हैं. जिनसे डायबिटीज, हार्ट और महिलाओं में आयरन से संबधित कई रोगों का उपचार किया जा सकता है. लेकिन क्रोंच पर्वत एक और विशेष जड़ी मिलती है. जो नैयर के नाम से प्रसिद्ध है. जिससे घेंघा, गलकण्ठ रोग का उपचार किया जाता है. इस पर गढ़वाल विश्वविद्यालय के छात्र लगातार रिसर्च कर रहे हैं

 

भारतीय वनस्पति सर्वेक्षण की रिपोर्ट के अनुसार उत्तराखंड में आवृत्तजीवी (पुष्पीय) वनस्पतियों की 4700 प्रजातियां हैं। इसके अलावा राज्य के वन प्रभागों की वन प्रबंध योजनाओं में 920 प्रजातियां शामिल की गई हैं। इनमें अनेक वनस्पतियां औषधीय महत्व की भी हैं। ऐसे में इनका अनियंत्रित विदोहन भी हो रहा है, जो इनके संकट की वजह बना है। हालांकि, इसके पीछे भी वजह वन समेत अन्य विभागों का ढुलमुल रवैया जिम्मेदार है। परिणामस्वरूप 16 वानस्पतिक प्रजातियां संकट में आ गई हैं। हालांकि, अब इनके संरक्षण-संवद्र्धन के लिए कवायद प्रांरभ कर दी गई है।
संकटग्रस्त वानस्पतिक प्रजातियां मीठा विष, अतीस, दूध अतीस, इरमोसटेचिस (वन मूली), कड़वी, इंडोपैप्टाडीनिया (हाथीपांव), पटवा, जटामासी, पिंगुइक्यूला (बटरवर्ट), थाकल, टर्पेनिया, श्रेबेरा (वन पलास), साइथिया, फैयस, पेक्टीलिस व डिप्लोमेरिस (स्नो आर्किड)।

अपने खास भूगोल और आबो हवा के कारण उत्तराखंड में कई दुर्लभ वनस्पतियां मौजूद हैं, जिनका किसी न किसी रूप में औषधीय महत्व भी है. अमेस भी ऐसी ही एक वनस्पति है. 
दिलचस्प बात ये है कि इस वनस्पति को अब तक मामूली झाड़ी ही समझा जाता था. लेकिन जड़ी बूटी शोध संस्थान गोपेश्वर के वैज्ञानिकों ने इसकी पहचान एक ऐसी औषधी के रूप में की है जो पहाड़ी इलाकों में आजीविका के क्षेत्र में क्रांति ला सकती है. इसे वनस्पति विज्ञान की भाषा में हिप्पोफी (Hippophae) कहा जाता है और चीन में इस वनस्पति पर लगने वाले फलों से करीब पांच हजार उत्पाद बनाए जाते हैं.

विटामिन से भरपूर होने के कारण इसका उच्च गुणवत्ता वाला स्पोर्ट्स ड्रिंक भी कई देशों में बनाया जा रहा है. भारत में उत्तराखंड में ही इसकी दो प्रजातियां पाई जाती हैं. जिसे यहां अमेस कहा जाता है. समुद्र तल से करीब ढाई हजार मीटर की ऊंचाई पर चमोली, पिथौरागढ़ और उत्तरकाशी जिले में यह बहुतायत में उगती है. लेकिन उपयोग के नाम पर सिर्फ इसकी टहनियों को आलू या सेब के बगीचों में बाड़ लगाने के लिए ही किया जाता रहा है. जड़ी बूटी शोध संस्थान के वैज्ञानिक डॅा.विजय प्रसाद के मुताबिक अमेस का फल अपनी खूबियों के कारण ग्रामीणों के लिए आजीविका का बड़ा जरिया बन सकता है. यह वनस्पति जमीन से तीन फीट से सात फीट तक ऊंची और पतली टहनियों और घनी पत्तियों वाली होती हैं. पत्तियों के बीच अमेस का फल जंगली बेर की तरह दिखता है और पकने पर नारंगी और लाल रंग का हो जाता है. इसमें भरपूर मात्रा में विटामिन और एंटी कैंसर तत्व शामिल हैं. उच्च हिमालयी क्षेत्र में होने के कारण इसका औषधीय महत्व भी बढ़ जाता है. अमेस की पहचान होने के बाद उद्यान विभाग ने जड़ी बूटी शोध संस्थान के साथ मिलकर इसके प्रसंस्करण की प्रक्रिया शुरू कर दी है. जिसके तहत उत्तरकाशी जिले के नौगंव समेत चमोली व पिथौरागढ़ जिले में महिला समूहों को इस काम से जोड़ा गया है. अमेस के कृषिकरण के साथ ही ग्रामीणों को तकनीकी प्रशिक्षण और मशीनें उपलब्ध करवाकर अमेस के पांच तरह के उत्पाद बनाए जा रहे हैं. जिसमें कैंसर रोधी दवा समेत, जेली और चटनी और जूस भी शामिल है. राज्य के उद्यान निदेशक डॉ.विजय सिंह नेगी बताते हैं कि अमेस के प्रसंस्करण का बीस लाख रुपए का प्रोजेक्ट शुरू कर दिया गया है. उत्पाद तैयार करने के साथ ही विभाग देश भर में इसकी मार्केटिंग भी व्यवस्था कर रहा है.
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