शिव ने केदारनाथ कांति सरोवर में योग विज्ञान का संचार शुरू किया

Rare Yoga Article: www.himalayauk.org (Web & Print Media) फाइल फोटो- केदारनाथ- आपका से कुछ दिनों पूर्व – जब स्‍वयं शिवपुत्र शुकदेव चैतन्‍य जी महाराज वहां स्‍वयं मौजूद थे – फोटो में वह स्‍वयं मौजूद है-  प्रस्‍तुति- चन्‍द्रशेखर जोशी – सम्‍पादक हिमालय गौरव उत्‍तराखण्‍ड-
शास्‍त्रों के अनुसार भगवान शिव ही पहले योगी हैं और मानव स्वभाव की सबसे गहरी समझ उन्हीं को है। उन्होंने अपने ज्ञान के विस्तार के लिए 7 ऋषियों को चुना और उनको योग के अलग-अलग पहलुओं का ज्ञान दिया, जो योग के 7 बुनियादी पहलू बन गए। वक्त के साथ इन 7 रूपों से सैकड़ों शाखाएं निकल आईं। योग विद्या के मुताबिक 15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की और हिमालय पर एक प्रचंड और भाव विभोर कर देने वाला नत्य किया। वे कुछ देर परमानंद में पागलों की तरह नृत्य करते, फिर शांत होकर पूरी तरह से निश्चल हो जाते। उनके इस अनोखे अनुभव के बारे में कोई कुछ नहीं जानता था।

योग भारत और नेपाल में एक आध्यात्मिक प्रकिया को कहते हैं जिसमें शरीर, मन और आत्मा को एक साथ लाने (योग) का काम होता है। यह शब्द, प्रक्रिया और धारणा बौद्ध धर्म,जैन धर्म और हिंदू धर्म में ध्यान प्रक्रिया से सम्बंधित है। योग शब्द भारत से बौद्ध धर्म के साथ चीन, जापान, तिब्बत, दक्षिण पूर्व एशिया और श्री लंका में भी फैल गया है और इस समय सारे सभ्य जगत्‌ में लोग इससे परिचित हैं। इतनी प्रसिद्धि के बाद पहली बार ११ दिसंबर २०१४ को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने प्रत्येक बर्ष २१ जून को विश्व योग दिवस के रूप में मान्यता दी है। भगवद्गीता प्रतिष्ठित ग्रंथ माना जाता है। उसमें योग शब्द का कई बार प्रयोग हुआ है, कभी अकेले और कभी सविशेषण, जैसे बुद्धियोग, संन्यासयोग, कर्मयोग। वेदोत्तर काल में भक्तियोग और हठयोग नाम भी प्रचलित हो गए हैं। महात्मा गांधी ने अनासक्ति योग का व्यवहार किया है। पतंजली योगदर्शन में क्रियायोग शब्द देखने में आता है। पाशुपत योग और माहेश्वर योग जैसे शब्दों के भी प्रसंग मिलते है। इन सब स्थलों में योग शब्द के जो अर्थ हैं वह एक दूसरे के विरोधी हैं परंतु इस प्रकार के विभिन्न प्रयोगों को देखने से यह तो स्पष्ट हो जाता है, कि योग की परिभाषा करना कठिन कार्य है। परिभाषा ऐसी होनी चाहिए जो अव्याप्ति और अतिव्याप्ति दोषों से मुक्त हो, योग शब्द के वाच्यार्थ का ऐसा लक्षण बतला सके जो प्रत्येक प्रसंग के लिये उपयुक्त हो और योग के सिवाय किसी अन्य वस्तु के लिये उपयुक्त न हो।

योग तत्वात: बहुत सूक्ष्मि विज्ञान पर आधारित एक आध्यावत्मि विषय है जो मन एवं शरीर के बीच सामंजस्यव स्थाेपित करने पर ध्यावन देता है। यह स्वास्थम जीवन – यापन की कला एवं विज्ञान है। योग शब्द संस्कृरत की युज धातु से बना है जिसका अर्थ जुड़ना या एकजुट होना या शामिल होना है। योग से जुड़े ग्रंथों के अनुसार योग करने से व्य क्ति की चेतना ब्रह्मांड की चेतना से जुड़ जाती है जो मन एवं शरीर, मानव एवं प्रकृति के बीच परिपूर्ण सामंजस्यड का द्योतक है। आधुनिक वैज्ञानिकों के अनुसार ब्रह्मांड की हर चीज उसी परिमाण नभ की अभिव्यनक्ति मात्र है। जो भी अस्तित्वअ की इस एकता को महसूस कर लेता है उसे योग में स्थित कहा जाता है और उसे योगी के रूप में पुकारा जाता है जिसने मुक्ते अवस्थात प्राप्तक कर ली है जिसे मुक्ति, निर्वाण या मोक्ष कहा जाता है। इस प्रकार, योग का लक्ष्य आत्मक-अनुभूति, सभी प्रकार के कष्टों् से निजात पाना है जिससे मोक्ष की अवस्थाष या कैवल्य‍ की अवस्थाी प्राप्ती होती है। जीवन के हर क्षेत्र में आजादी के साथ जीवन – यापन करना, स्वायस्थ् ‍य एवं सामंजस्य योग करने के प्रमुख उद्देश्यक होंगे। योग का अभिप्राय एक आंतरिक विज्ञान से भी है जिसमें कई तरह की विधियां शामिल होती हैं जिनके माध्य म से मानव इस एकता को साकार कर सकता है और अपनी नियति को अपने वश में कर सकता है। चूंकि योग को बड़े पैमाने पर सिंधु – सरस्वसती घाटी सभ्यवता, जिसका इतिहास 2700 ईसा पूर्व से है, के अमर सांस्कृअतिक परिणाम के रूप में बड़े पैमाने पर माना जाता है, इसलिए इसने साबित किया है कि यह मानवता के भौतिक एवं आध्याित्मिक दोनों तरह के उत्थाान को संभव बनाता है। बुनियादी मानवीय मूल्य योग साधना की पहचान हैं।

###केदारनाथ कांति सरोवर के किनारे शिव दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर बैठ गए और अपनी कृपा लोगों पर बरसानी शुरू कर दी। इस तरह योग विज्ञान का संचार होना शुरू हुआ।

हमारे यहां योगिक संस्कृति में शिव को ईश्वर के तौर पर नहीं पूजा जाता है। इस संस्कति में शिव को आदि योगी माना जाता है। यह शिव ही थे जिन्होंने मानव मन में योग का बीज बोया। योग विद्या के मुताबिक 15 हजार साल से भी पहले शिव ने सिद्धि प्राप्त की और हिमालय पर एक प्रचंड और भाव विभोर कर देने वाला नत्य किया। वे कुछ देर परमानंद में पागलों की तरह नृत्य करते, फिर शांत होकर पूरी तरह से निश्चल हो जाते। उनके इस अनोखे अनुभव के बारे में कोई कुछ नहीं जानता था। आखिरकार लोगों की दिलचस्पी बढ़ी और वे इसे जानने को उत्सुक होकर धीरे-धीरे उनके पास पहुंचने। लेकिन उनके हाथ कुछ नहीं लगा क्योंकि आदि योगी तो इन लोगों की मौजूदगी से पूरी तरह बेखबर थे। उन्हें यह पता ही नहीं चला कि उनके इर्द गिर्द क्या हो रहा है! उन लोगो ने वहीं कुछ देर इंतजार किया और फिर थक हारकर वापस लौट आए। लेकिन उन लोगों में से सात लोग ऐसे थे, जो थोड़े हठी किस्म के थे। उन्होंने ठान लिया कि वे शिव से इस राज को जानकर ही रहेंगे। लेकिन शिव ने उन्हें नजरअंदाज कर दिया। अंत में उन्होंने शिव से प्रार्थना की उन्हें इस रहस्य के बारे में बताएँ। शिव ने उनकी बात नहीं मानी और कहने लगे, ‘मूर्ख हो तुम लोग! अगर तुम अपनी इस स्थिति में लाखों साल भी गुज़ार दोगे तो भी इस रहस्य को नहीं जान पाआगे। इसके लिए बहुत ज़्यादा तैयारी की आवश्यकता है। यह कोई मनोरंजन नहीं है।’ ये सात लोग भी कहां पीछे हटने वाले थे। शिव की बात को उन्होंने चुनौती की तरह लिया और तैयारी शुरू कर दी। दिन, सप्ताह, महीने, साल गुजरते गए और ये लोग तैयारियां करते रहे, लेकिन शिव थे कि उन्हें नजरअंदाज ही करते जा रहे थे। 84 साल की लंबी साधना के बाद ग्रीष्म संक्रांति के शरद संक्रांति में बदलने पर पहली पूर्णिमा का दिन आया, जब सूर्य उत्तरायण से दक्षिणायण में चला गया। पूर्णिमा के इस दिन आदि योगी शिव ने इन सात तपस्वियों को देखा तो पाया कि साधना करते-करते वे इतने पक चुके हैं कि ज्ञान हासिल करने के लिए तैयार थे। अब उन्हें और नजरअंदाज नहीं किया जा सकता था। शिव ने इन सातों को अगले 28 दिनों तक बेहद नजदीक से देखा और अगली पूर्णिमा पर इनका गुरु बनने का निर्णय लिया। इस तरह शिव ने स्वयं को आदि गुरु में रूपांतरित कर लिया। तभी से इस दिन को गुरु पूर्णिमा कहा जाने लगा। केदारनाथ से थोड़ा ऊपर जाने पर एक झील है, जिसे कांति सरोवर कहते हैं। इस झील के किनारे शिव दक्षिण दिशा की ओर मुड़कर बैठ गए और अपनी कृपा लोगों पर बरसानी शुरू कर दी। इस तरह योग विज्ञान का संचार होना शुरू हुआ।

 

ऐसा माना जाता है कि जब से सभ्याता शुरू हुई है तभी से योग किया जा रहा है। योग के विज्ञान की            उत्पत्ति हजारों साल पहले हुई थी, पहले धर्मों या आस्थाक के जन्मक लेने से काफी पहले हुई थी। योग विद्या में शिव को पहले योगी या आदि योगी तथा पहले गुरू या आदि गुरू के रूप में माना जाता है।

योग हमारे शरीर, मन, भावना एवं ऊर्जा के स्तीर पर काम करता है। इसकी वजह से मोटेतौर पर योग को चार भागों में बांटा गया है : कर्मयोग, जहां हम अपने शरीर का उपयोग करते हैं; भक्तियोग, जहां हम अपनी भावनाओं का उपयोग करते हैं; ज्ञानयोग, जहां हम मन एवं बुद्धि का प्रयोग करते हैं और क्रियायोग, जहां हम अपनी ऊर्जा का उपयोग करते हैं। हम योग साधना की जिस किसी पद्धति का उपयोग करें, वे इन श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी या अधिक श्रेणियों के तहत आती हैं। हर व्ययक्ति इन चार कारकों का एक अनोखा संयोग होता है। ”योग पर सभी प्राचीन टीकाओं में इस बात पर जोर दिया गया है कि किसी गुरू के मार्गदर्शन में काम करना आवश्यीक है।” इसका कारण यह है कि गुरू चार मौलिक मार्गों का उपयुक्तक संयोजन तैयार कर सकता है जो हर साधक के लिए आवश्यमक होता है। योग शिक्षा : परंपरागत रूप से, परिवारों में ज्ञानी, अनुभवी एवं बुद्धिमान व्य क्तियों द्वारा (पश्चिम में कंवेंट में प्रदान की जानी वाली शिक्षा से इसकी तुलना की जा सकती है) और फिर आश्रमों में (जिसकी तुलना मठों से की जा सकती है) ऋषियों / मुनियों / आचार्यों द्वारा योग की शिक्षा प्रदान की जाती थी। दूसरी ओर, योग की शिक्षा का उद्देश्यो व्यंक्ति, अस्तित्वा का ध्याथन रखना है। ऐसा माना जाता है कि अच्छाो, संतुलित, एकीकृत, सच पर चलने वाला, स्व च्छ , पारदर्शी व्याक्ति अपने लिए, परिवार, समाज, राष्ट्रत, प्रकृति और पूरी मानवता के लिए अधिक उपयोगी होगा। योग की शिक्षा स्व् की शिक्षा है। विभिन्नक जीवंत परंपराओं तथा पाठों एवं विधियों में स्व के साथ काम करने के व्यौिरों को रेखांकित किया गया है जो इस महत्विपूर्ण क्षेत्र में योगदान कर रहे हैं जिसे योग के नाम से जाना जाता है।

कई हजार वर्ष पहले, हिमालय में कांति सरोवर झील के तटों पर आदि योगी ने अपने प्रबुद्ध ज्ञान को अपने प्रसिद्ध सप्तेऋषि को प्रदान किया था। सत्पगऋषियों ने योग के इस ताकतवर विज्ञान को एशिया, मध्य पूर्व, उत्तपरी अफ्रीका एवं दक्षिण अमरीका सहित विश्वव के भिन्न – भिन्न् भागों में पहुंचाया। रोचक बात यह है कि आधुनिक विद्वानों ने पूरी दुनिया में प्राचीन संस्कृितियों के बीच पाए गए घनिष्ठच समानांतर को नोट किया है। तथापि, भारत में ही योग ने अपनी सबसे पूर्ण अभिव्यरक्ति प्राप्तध की। अगस्ति नामक सप्ताऋषि, जिन्हों ने पूरे भारतीय उप महाद्वीप का दौरा किया, ने यौगिक तरीके से जीवन जीने के इर्द-गिर्द इस संस्कृ ति को गढ़ा।

योग करते हुए पित्रों के साथ सिंधु – सरस्वकती घाटी सभ्यरता के अनेक जीवाश्मि अवशेष एवं मुहरें भारत में योग की मौजूदगी का संकेत देती हैं।योग करते हुए पित्रों के साथ सिंधु – सरस्वेती घाटी सभ्य ता के अनेक जीवाश्म अवशेष एवं मुहरें भारत में योग की मौजूदगी का सुझाव देती हैं। देवी मां की मूर्तियों की मुहरें, लैंगिक प्रतीक तंत्र योग का सुझाव देते हैं। लोक परंपराओं, सिंधु घाटी सभ्य ता, वैदिक एवं उपनिषद की विरासत, बौद्ध एवं जैन परंपराओं, दर्शनों, महाभारत एवं रामायण नामक महाकाव्योंी, शैवों, वैष्णौवों की आस्तिक परंपराओं एवं तांत्रिक परंपराओं में योग की मौजूदगी है। इसके अलावा, एक आदि या शुद्ध योग था जो दक्षिण एशिया की रहस्योवादी परंपराओं में अभिव्याक्तण हुआ है। यह समय ऐसा था जब योग गुरू के सीधे मार्गदर्शन में किया जाता था तथा इसके आध्यादत्मिक मूल्यस को विशेष महत्वक दिया जाता था। यह उपासना का अंग था तथा योग साधना उनके संस्कामरों में रचा-बसा था। वैदिक काल के दौरान सूर्य को सबसे अधिक महत्वक दिया गया। हो सकता है कि इस प्रभाव की वजह से आगे चलकर ‘सूर्य नमस्का‍र’ की प्रथा का आविष्कावर किया गया हो। प्राणायाम दैनिक संस्का र का हिस्सा था तथा यह समर्पण के लिए किया जाता था। हालांकि पूर्व वैदिक काल में योग किया जाता था, महान संत महर्षि पतंजलि ने अपने योग सूत्रों के माध्यकम से उस समय विद्यमान योग की प्रथाओं, इसके आशय एवं इससे संबंधित ज्ञान को व्येवस्थित एवं कूटबद्ध किया। पतंजलि के बाद, अनेक ऋषियों एवं योगाचार्यों ने अच्छीय तरह प्रलेखित अपनी प्रथाओं एवं साहित्य के माध्यएम से योग के परिरक्षण एवं विकास में काफी योगदान दिया।

सूर्य नमस्का्रपूर्व वैदिक काल (2700 ईसा पूर्व) में एवं इसके बाद पतंजलि काल तक योग की मौजूदगी के ऐतिहासिक साक्ष्यर देखे गए। मुख्य2 स्रोत, जिनसे हम इस अवधि के दौरान योग की प्रथाओं तथा संबंधित साहित्ये के बारे में सूचना प्राप्ते करते हैं, वेदों (4), उपनिषदों (18), स्मृयतियों, बौद्ध धर्म, जैन धर्म, पाणिनी, महाकाव्योंक (2) के उपदेशों, पुराणों (18) आदि में उपलब्धा हैं।

अनंतिम रूप से 500 ईसा पूर्व – 800 ईस्वी सन के बीच की अवधि को श्रेष्ठम अवधि के रूप में माना जाता है जिसे योग के इतिहास एवं विकास में सबसे उर्वर एवं महत्वपपूर्ण अवधि के रूप में भी माना जाता है। इस अवधि के दौरान, योग सूत्रों एवं भागवद्गीता आदि पर व्याैस के टीकाएं अस्तित्वा में आईं। इस अवधि को मुख्यस रूप से भारत के दो महान धार्मिक उपदेशकों – महावीर एवं बुद्ध को समर्पित किया जा सकता है। महावीर द्वारा पांच महान व्रतों – पंच महाव्रतों एवं बुद्ध द्वारा अष्ठ मग्गाे या आठ पथ की संकल्पवना – को योग साधना की शुरूआती प्रकृति के रूप में माना जा सकता है। हमें भागवद्गीता में इसका अधिक स्पगष्टश स्पतष्टींकरण प्राप्त होता है जिसमें ज्ञान योग, भक्ति योग और कर्म योग की संकल्पूना को विस्ताकर से प्रस्तुहत किया गया है। तीन प्रकार के ये योग आज भी मानव की बुद्धिमत्ता के सर्वोच्च उदाहरण हैं तथा आज भी गीता में प्रदर्शित विधियों का अनुसरण करके लागों को शांति मिलती है। पतंजलि के योग सूत्र में न केवल योग के विभिन्ने घटक हैं, अपितु मुख्य रूप से इसकी पहचान योग के आठ मार्गों से होती है। व्याकस द्वारा योग सूत्र पर बहुत महत्व पूर्ण टीका भी लिखी गई। इसी अवधि के दौरान मन को महत्व दिया गया तथा योग साधना के माध्य म से स्पष्टइ से बताया गया कि समभाव का अनुभव करने के लिए मन एवं शरीर दोनों को नियंत्रित किया जा सकता है। 800 ईसवी – 1700 ईसवी के बीच की अवधि को उत्कृिष्टज अवधि के बाद की अवधि के रूप में माना जाता है जिसमें महन आचार्यत्रयों – आदि शंकराचार्य, रामानुजाचार्य और माधवाचार्य – के उपदेश इस अवधि के दौरान प्रमुख थे। इस अवधि के दौरान सुदर्शन, तुलसी दास, पुरंदर दास, मीराबाई के उपदेशों ने महान योगदान दिया। हठयोग परंपरा के नाथ योगी जैसे कि मत्यें द द्र नाथ, गोरख नाथ, गौरांगी नाथ, स्वातत्मांराम सूरी, घेरांडा, श्रीनिवास भट्ट ऐसी कुछ महान हस्तियां हैं जिन्हों ने इस अवधि के दौरान हठ योग की परंपरा को लोकप्रिय बनाया।

1700 – 1900 ईसवी के बीच की अवधि को आधुनिक काल के रूप में माना जाता है जिसमें महान योगाचार्यों – रमन महर्षि, रामकृष्ण परमहंस, परमहंस योगानंद, विवेकानंद आदि ने राज योग के विकास में योगदान दिया है। यह ऐसी अवधि है जिसमें वेदांत, भक्ति योग, नाथ योग या हठ योग फला – फूला। शादंगा – गोरक्ष शतकम का योग, चतुरंगा – हठयोग प्रदीपिका का योग, सप्तंूगा – घेरांडा संहिता का योग – हठ योग के मुख्य जड़सूत्र थे।

अब समकालीन युग में स्वाकस्य्मे के परिरक्षण, अनुरक्षण और संवर्धन के लिए योग में हर किसी की आस्थाे है। स्वममी विवेकानंद, श्री टी कृष्ण्मचार्य, स्वामी कुवालयनंदा, श्री योगेंद्र, स्वाथमी राम, श्री अरविंदो, महर्षि महेश योगी, आचार्य रजनीश, पट्टाभिजोइस, बी के एस आयंगर, स्वा‍मी सत्येंतद्र सरस्वणती आदि जैसी महान हस्तियों के उपदेशों से आज योग पूरी दुनिया में फैल गया है।

बी के एस आयंगर ”आयंगर योग” के नाम से विख्याणत योग शैली के संस्थािपक थे तथा उनको दुनिया के सर्वश्रेष्ठं योग शिक्षकों में से एक के रूप में माना जाता है।भ्रातियों को दूर करना :

कई लोगों के लिए योग का अर्थ हठ योग एवं आसनों तक सीमित है। तथापि, योग सूत्रों में केवल तीन सूत्रों में आसनों का वर्णन आता है। मौलिक रूप से हठ योग तैयारी प्रक्रिया है जिससे कि शरीर ऊर्जा के उच्चक स्तैर को बर्दाश्तग कर सके। प्रक्रिया शरीर से शुरू होती है फिर श्व सन, मन और अंतरतम की बारी आती है।

आम तौर पर योग को स्वाफस्य्ऊर एवं फिटनेस के लिए थिरेपी या व्यासयाम की पद्धति के रूप में समझा जाता है। हालांकि शारीरिक एवं मानसिक स्वांस्य्री योग के स्वाूभाविक परिणाम हैं, परंतु योग का लक्ष्यस अधिक दूरगामी है। ”योग ब्रह्माण्डा से स्वायं का सामंजस्यह स्थावपित करने के बारे में है। यह सर्वोच्च स्त’र की अनुभूति एवं सामंजस्य‍ प्राप्त् करने के लिए ब्रह्माण्डन से स्वैयं की ज्याोमिती को संरेखित करने की कला है।

योग किसी खास धर्म, आस्था पद्धति या समुदाय के मुताबिक नहीं चलता है; इसे सदैव अंतरतम की सेहत के लिए कला के रूप में देखा गया है। जो कोई भी तल्लीअनता के साथ योग करता है वह इसके लाभ प्राप्तभ कर सकता है, उसका धर्म, जाति या संस्कृ ति जो भी हो। योग की परंपरागत शैलियां : योग के ये भिन्न – भिन्नय दर्शन, परंपराएं, वंशावली तथा गुरू – शिष्य् परंपराएं योग की ये भिन्न – भिन्न परंपरागत शैलियों के उद्भव का मार्ग प्रशस्ता करती हैं, उदाहरण के लिए ज्ञान योग, भक्ति योग, कर्म योग, ध्यासन योग, पतंजलि योग, कुंडलिनी योग, हठ योग, मंत्र योग, लय योग, राज योग, जैन योग, बुद्ध योग आदि। हर शैली के अपने स्वजयं के सिद्धांत एवं पद्धतियां हैं जो योग के परम लक्ष्यग एवं उद्देश्यों की ओर ले जाती हैं।

स्वापस्य्जो एवं तंदरूस्तीद के लिए योग की पद्धतियां : वड़े पैमाने पर की जाने वाली योग साधनाएं इस प्रकार हैं : यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्यााहार, धारणा, ध्या‍न, समाधि / साम्याेमा, बंध एवं मुद्राएं, षटकर्म, युक्त आहार, युक्ता कर्म, मंत्र जप आदि। यम अंकुश हैं तथा नियम आचार हैं। इनको योग साधना के लिए पहली आवश्यकता के रूप में माना जाता है। आसन, शरीर एवं मन की स्थिरता लाने में सक्षम ‘कुर्यात तद आसनं स्थैर्यम…’ के तहत काफी लंबी अवधि तक शरीर (मानसिक – शारीरिक) के विभिन्न पैटर्न को अपनाना, शरीर की मुद्रा बनाए रखने की सामर्थ्य- प्रदान करना (अपने संरचनात्मपक अस्तित्वो की स्थिर चेतना) शामिल है।

प्राणायाम की विभिन्न‍ मुद्राएंप्राणायाम के तहत अपने श्वासन की जागरूकता पैदा करना और अपने अस्तित्वर के प्रकार्यात्म्क या महत्वनपूर्ण आधार के रूप में श्वनसन को अपनी इच्छान से विनियमित करना शामिल है। यह अपने मन की चेतना को विकसित करने में मदद करता है तथा मन पर नियंत्रण रखने में भी मदद करता है। शुरूआती चरणों में, यह नासिकाओं, मुंह तथा शरीर के अन्यश द्वारों, इसके आंतरिक एवं बाहरी मार्गों तथा गंतव्यों के माध्युम से श्वानस – प्रश्वामस की जागरूकता पैदा करके किया जाता है। आगे चलकर, विनियमित, नियंत्रित एवं पर्यवेक्षित श्वारस के माध्यवम से इस परिदृश्य को संशोधित किया जाता है जिससे यह जागरूकता पैदा होती है कि शरीर के स्थाृन भर रहे हैं (पूरक), स्थापन भरी हुई अवस्थाा में बने हुए हैं (कुंभक) और विनियमित, नियंत्रित एवं पर्यवेक्षित प्रश्वागस के दौरान यह खाली हो रहा है (रेचक)।

प्रत्यातहार ज्ञानेंद्रियों से अपनी चेतना को अलग करने का प्रतीक है, जो बाहरी वस्तुसओं से जुड़े रहने में हमारी मदद करती हैं। धारणा ध्याोन (शरीर एवं मन के अंदर) के विस्तृ़त क्षेत्र का द्योतक है, जिसे अक्सार संकेंद्रण के रूप में समझा जाता है। ध्याओन शरीर एवं मन के अंदर अपने आप को केंद्रित करना है और समाधि – एकीकरण।

बंध और मुद्राएं प्राणायाम से संबद्ध साधनाएं हैं। इनको योग की उच्चरतर साधना के रूप में देखा जाता है क्योंधकि इनमें मुख्य रूप से श्वससन पर नियंत्रण के साथ शरीर (शारीरिक – मानसिक) की कतिपय पद्धतियों को अपनाना शामिल है। इससे मन पर नियंत्रण और सुगम हो जाता है तथा योग की उच्चकतर सिद्धि का मार्ग प्रशस्तह होता है। षटकर्म विषाक्तोता दूर करने की प्रक्रियाएं हैं तथा शरीर में संचित विष को निकालने में मदद करते हैं और ये नैदानिक स्वचरूप के हैं।

युक्ताेहार (सही भोजन एवं अन्य् इनपुट) स्वचस्थक जीवन के लिए उपयुक्तं आहार एवं खान-पान की आदतों की वकालत करता है। तथापि, आत्मा नुभूति, जिसे उत्कनर्ष का मार्ग प्रशस्ती होता है, में मदद करने वाली ध्याीन की साधना को योग साधना के सार के रूप में माना जाता है।

आजकल, योग की शिक्षा अनेक मशहूर योग संस्थाैओं, योग विश्वाविद्यालयों, योग कालेजों, विश्वकविद्यालयों के योग विभागों, प्राकृतिक चिकित्साि कालेजों तथा निजी न्याजसों एवं समितियों द्वारा प्रदान की जा रही है। अस्पेतालों, औषधालयों, चिकित्साय संस्थांओं तथा रोगहर स्थादपनाओं में अनेक योग क्लीीनिक, योग थेरेपी और योग प्रशिक्षण केंद्र, योग की निवारक स्वांस्य््ल देख-रेख यूनिटें, योग अनुसंधान केंद्र आदि स्थािपित किए गए हैं।

योग की धरती भारत में विभिन्नय सामाजिक रीति-रिवाज एवं अनुष्ठातन पारिस्थितिकी संतुलन, दूसरों की चिंतन पद्धति के लिए सहिष्णुकता तथा सभी प्राणियों के लिए सहानुभूति के लिए प्रेम प्रदर्शित करते हैं। सभी प्रकार की योग साधना को सार्थक जीवन एवं जीवन-यापन के लिए रामबाण माना जाता है। व्यायपक स्वा्स्य्ए स, सामाजिक एवं व्यंक्तिगत दोनों, के लिए इसका प्रबोधन सभी धर्मों, नस्लोंय एवं राष्ट्री यताओं के लोगों के लिए इसके अभ्या स को उपयोगी बनाता है।

आजकल पूरी दुनिया में योग साधना से लाखों व्यनक्तियों को लाभ हो रहा है, जिसे प्राचीन काल से लेकर आजतक योग के महान आचार्यों द्वारा परिरक्षित किया गया है। योग साधना का हर दिन विकास हो रहा है तथा यह अधिक जीवंत होती जा रही है।

*डा. ईश्ववर वी बासावरड्डीमोरारजी देसाई राष्ट्रीहय योग संस्थान के निदेशक हैं।

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