बीजेपी का मूल वोट बैंक लगा दांव पर
HIGH LIGHT; 13 Sep. 2018 सवाल उठ रहे हैं कि बीजेपी दलित-ओबीसी वोटों की खातिर अपने मूलवोट बैंक को को दांव पर नहीं लगा रही है? दलितों की नाराजगी देखते हुए नरेंद्र मोदी सरकार ने SC/ST एक्ट को मूल स्वरूप में बहाल करने के लिए संशोधन विधेयक पेश कर दिया है. इसके बाद सरकार सुप्रीम कोर्ट में SC/ST कर्मचारियों को प्रमोशन में रिजर्वेशन दिए जाने के पक्ष में खड़ी नजर आई – बीजेपी के मूल वोट माने जाने वाले सवर्ण समुदाय में नाराजगी बढ़ सकती है. एससी/एसटी एक्ट के जरिए जहां ग्रामीण इलाके के सवर्ण वोटों में नाराजगी पैदा हो सकती है, वहीं, प्रमोशन में रिजर्वेशन के पक्ष में खड़े होने से शहरी और कर्मचारी वर्ग नाराज हो सकता है. दलित समुदाय के लिए SC/ST एक्ट लाइफलाइन है. ये दलितों के हर क्लास के लिए काफी अहमियत रखता है. जबकि मोदी सरकार के फैसले से सवर्ण और ओबीसी नाराज हो सकता है. नाराजगी 2019 में उसके लिए महंगी न पड़ जाए
Presented by- हिमालयायूके- हिमालय गौरव उत्तराखण्डl www.himalayauk.org
बीजेपी को सवर्ण वोटों की नाराजगी का खामियाजा राजस्थान के अलवर और अजमेर लोकसभा सीट के उपचुनाव में उठाना पड़ा था. अपराधी आनंदपाल एनकाउंटर, फिल्म पद्मावती और जयपुर राजपरिवार की सम्पति राजमहल पैलेस की जमीन पर सरकार के कब्जे जैसे मसलों पर राजपूत समाज ने वसुंधरा राजे से नाराज होकर कांग्रेस को खुलेआम वोट किया था. अगर ये ट्रेंड देशभर में फैला तो बीजेपी के लिए 2019 के मिशन में दिक्कत खड़ी हो सकती है.
चुनावों को देखते हुए दलितों को जोड़ने के लिए भाजपा तरह-तरह के प्रयास कर रही है. लेकिन लगता है कि दलितों को जोड़ना भाजपा के लिए मुट्ठी में रेत बांधने जैसा हो गया है. भाजपा और संघ परिवार ने दलितों को ख़ुद से जोड़ने के लिए अंबेडकर के प्रतीकों को अपनी राजनीति से जोड़ने के लिए तरह-तरह के प्रयास किए.मोदी सरकार ने बाबा साहेब अंबेडकर के लंदन वाले घर को ख़रीदकर उसे मेमोरियल बनाया. हाल ही में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की नागौर में हुई प्रतिनिधि सभा में मंच के बीच में अंबेडकर की तस्वीर रखी और आयोजन मंडप का नाम बाबा साहेब अंबेडकर के नाम पर रखा. वहीं संघ परिवार और भाजपा 90 के दशक से ही दलितों के बीच सामाजिक समरसता अभियान चला रही है, हाल के दिनों में उसे तेज़ भी किया है और इसमें अनेक बदलाव भी किए गए हैं.
एक तरफ भाजपा इसके लिए बड़े प्रयास कर रही है, दूसरी तरफ ऐसी घटनाएं लगातार घट रही हैं, जिनके कारण दलितों के मन में भाजपा को लेकर अविश्वास, भय और गुस्सा बढ़ता जा रहा है.हित वेमुला की आत्महत्या हो, गुजरात में मरी गाय की छाल छील रहे दलितों की पिटाई हो या यूपी भाजपा उपाध्यक्ष दयाशंकर सिंह का मायावती पर दिया गया बयान हो. सब दलितों और भाजपा के बीच की खाई को बढ़ाते जा रहे हैं. इसे संयोग कहें या भाजपा और संघ परिवार के अपने वर्ग चरित्र का अन्तर्विरोध. लगातार अनेक ऐसी घटनाएं घट रही हैं, जो संघ के दलित अभियानों को निरर्थक बनाती जा रही हैं.
अगड़ी जातियां अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2018 – भाजपा विरोधियों की चाल में फंस गयी, इससे भाजपा का परंपरागत अगड़ा वोट में सीधे सीधे सेंध लग रही है,वही दलित वोट भाजपा को मिल जायेगा,इसकी कोई संभावना नही दिख रही है, अगड़ी जातियां अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) संशोधन अधिनियम, 2018 के खिलाफ सड़क पर उतर आईं. इनका भारत बंद मूलतः उत्तर प्रदेश, बिहार, मध्य प्रदेश और राजस्थान तक सिमटा रहा, बाकी राज्यों में इसका सीमित प्रभाव रहा या वह भी नहीं था. प्रदर्शनकारियों का गुस्सा केंद्र सरकार के खिलाफ था;विरोध प्रदर्शन में अगड़ी जाति के कुछ स्थानीय भाजपा कार्यकर्ताओं के शामिल होने की बात को नकारा नहीं जा सकता, क्योंकि वे भी अपने समाज के लोगों की तरह इस कानून को लेकर उत्तेजित थे, अगर भाजपा का समर्थन करने वाली अगड़ी जातियां भाजपा से बिदक जाएं, तो यह विपक्ष के लिए फायदेमंद होगा. भीम आर्मी के मुख्य संरक्षक जय भगवान जाटव कहते भी हैं कि इससे एससी, पिछड़े और मुसलमानों को लामंबद होने का मौका मिलेगा.
पहली नजर में इससे भाजपा को राजनीतिक नुकसान और विपक्ष को फायदा होने की संभावना दिखती है.वही सोशल मीडिया ने आंदोलन खड़ा करने में अपनी मौन भूमिका निभाई है, उससे उसने देश में खास से लेकर आम तक का इस पहलू की ओर ध्यान खींचा है.सोशल मीडिया घर घर यह संदेश देने में सफल रहा है कि उनके साथ गलत हो रहा है,
20 मार्च को सुप्रीम कोर्ट ने अनुसूचित जाति एवं जनजाति (अत्याचार निवारण) अधिनियम, 1989 के दुरुपयोग पर चिंता प्रकट करते हुए इस कानून के तहत की गई किसी शिकायत पर स्वतः गिरफ्तारी पर रोक लगा दी थी. उसने कोई कार्रवाई करने से पहले पुलिस को सात दिन के भीतर प्रारंभिक जांच करने के निर्देश दे दिए. साथ ही उसने अग्रिम जमानत की भी इजाजत दे दी. कोर्ट ने इस तरह का सुरक्षात्मक प्रावधान किसी निर्दोष व्यक्ति को ब्लैकमेल या बदले की कार्रवाई से बचाने और उसकी गरिमा की रक्षा की सोच के तहत किया था.
इस कानून के दुरुपयोग से चिंतित गैर एससी-एसटी जातियों ने राहत की सांस ली थी. लेकिन सदियों से सताया एससी-एसटी समुदाय इसको लेकर उबल पड़ा था. एससी-एसटी वोट का दबाव इतना था कि सरकार ने उनके सामने घुटने टेक दिए. सरकार ने संशोधन विधेयक लाकर इस कानून की पुरानी स्थिति बहाल कर दी, लेकिन इस प्रक्रिया में एससी-एसटी समुदाय की सुरक्षा और इसके दुरुपयोग के बीच संतुलन नहीं बनाया गया. इन्हें ऐसा लग रहा था कि अगड़ी जातियां हमेशा की तरह इनका साथ देंगी और कोई विरोध नहीं करेंगी. कानून पास होने के बाद अब अगड़ी जातियां इसके खिलाफ मुखर हो गईं, तो सरकार के नुमाइंदों की बोलती बंद हो गई. उन्हें न इसका समर्थन करते बन रहा है, न विरोध करते. भाजपा को एससी-एसटी विरोधी बताने वाले विपक्ष ने भी इसमें उसका पूरा साथ दिया था.
ओबीसी मतों को अपने साथ जोड़े रखने के लिए मोदी सरकार ने राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा देने की प्रक्रिया में कदम आगे बढ़ाए हैं. सामाजिक और शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग होगा, जिसे बाकायदा सरकार ने संवैधानिक दर्ज दे दिया है.
देश की कुल जनसंख्या में 20.14 करोड़ दलित हैं. जबकि ओबीसी की आबादी मंडल कमीशन के मुताबिक 52 फीसदी है. देश में कुल 543 लोकसभा सीट हैं. इनमें से 84 सीटें दलित और आदिवासियों के लिए आरक्षित हैं. 2014 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की कामयाबी में इन दोनों समुदाय की काफी अहम भूमिका रही थी. दलित और आदिवासियों के लिए आरक्षित 84 सीटों में से बीजेपी ने 41 पर जीत दर्ज की थी.
SC/ST एक्ट पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के लिए दलित समुदाय मोदी सरकार को जिम्मेदार मानते हुए नाराज चल रहा था. वहीं, विपक्षी दल केंद्र की मोदी सरकार और बीजेपी को दलित विरोधी बताने की कोशिश कर रहे थे. ऐसे में बीजेपी पसोपेश में है कि कहीं दलितों की नाराजगी 2019 में उसके लिए महंगी न पड़ जाए. माना जा रहा है कि इसी को देखते हुए मोदी सरकार ने तीनों अहम कदम उठाए हैं.
एससी-एसटी कानून के दुरुपयोग के खिलाफ अगड़ी जातियों के विरोध प्रदर्शन का राजनीतिक पहलू जितना महत्वपूर्ण है, उससे कहीं ज्यादा इसका सामाजिक पहलू महत्वपूर्ण है. इसके दो कारण हैं- एक तो ऐसा पहली बार हुआ है कि अगड़ी जाति के लोग इस मसले पर सड़क पर उतरे हैं. दूसरे इससे होने वाला राजनीतिक नफा-नुकसान तात्कालिक परिघटना है, लेकिन इससे समाज में जो अंतःक्रिया होगी, वह दीर्घकाल तक चलेगी और समाज परिवर्तन में वह अहम भूमिका निभाएगी. अब पहली बार अगड़ी जातियों द्वारा एससी समुदाय के व्यवहार पर सुप्रीम कोर्ट के फैसले के आलोक में सवाल खड़ा किया गया है. कोई आश्चर्य नहीं कि आने वाले समय में अगड़ों के साथ पिछड़े भी एससी समुदाय के खिलाफ लामबंद हो जाएं.
वही मध्य प्रदेश में जगह-जगह तमाम नेताओं के खिलाफ अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति (एससी-एसटी) अधिनियम को लेकर विरोध का दौर जारी है. ग्वालियर में पार्टी की बैठक में हिस्सा लेने जा रहे भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के नेताओं को एससी-एसटी एक्ट को मूल रूप में लागू करने को लेकर भारी विरोध का सामना करना पड़ा.
मध्य प्रदेश में सवर्ण समाज द्वारा बंद के आह्वान पर व्यापारियों से लेकर छोटे दुकानदारों ने भी इसका समर्थन किया है. प्रदेश के कई हिस्सों में बंद का व्यापक असर देखने को मिल रहा है. मध्य प्रदेश के साथ ही राजस्थान, बिहार और महाराष्ट्र में भी बंद का व्यापक प्रभाव देखने को मिला. बिहार में बंद के चलते पटना में प्रदर्शनकारी ट्रेन की पटरियों पर जा कर बैठ गए हैं, जिससे ट्रेन सेवाएं अवरुद्ध हो गई हैं. वहीं नालंदा में प्रदर्शनकारियों ने आगजनी की घटना को अंजाम देते हुए सभी सड़कों पर जाम लगाया . एक ओर प्रदेश के कई जिलों में स्कूलों, कॉलेजों में छुट्टी घोषित की गई है तो वहीं नेता, मंत्रियों के घरों की सुरक्षा भी बढ़ाई किसी तरह की अप्रिय घटनाएं न हों इसके लिए CM हाउस और भाजपा कार्यालय के बाहर भी सुरक्षा के कड़े इंतजाम किये गए थे. बता दें 2 अप्रैल को आरक्षित वर्ग द्वारा बंद के दौरान ग्वालियर-चंबल अंचल में सबसे ज्यादा हिंसा हुई थी, जिसे देखते हुए मध्य प्रदेश पुलिस पहले से ही चौकन्नी हो गई है उपरोक्त दोनो परिस्थितिया यह दर्शा रही है कि बीजेपी का मूल वोट बैंक दांव पर लग चुका है-
चन्द्रशेखर जोशी की रिपोर्ट- मोबा0 ९४१२९३२०३०
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