1857-जनक्रांति का असली केंद्र था अवध
1857-जनक्रांति का असली केंद्र था अवध विशेष लेख
*अरविंद कुमार सिंह (www.himalayauk.org) Leading Digital Newsportal & Daily Newspapers. Publish at Dehradun & Haridwar
वैसे तो भारत के पहले स्वाधीनता संग्राम की परिधि में देश का एक बड़ा हिस्सा शामिल था। लेकिन इसका असली केंद्र अवध का इलाका था। अवध में 1857 से 1859 तक क्रांति की ज्वाला धधकती रही। अनगिनत क्रांतिकारियों ने शहादत दी और अंग्रेजों की क्रूर नीति का शिकार बने। तमाम परिवार उजड़ गए और खेती बाड़ी से लेकर हरेक इलाके में भयानक तबाही मची। अंग्रेजो ने जनक्रांति के नायकों से जुड़ी यादों को मिटाया, उनके इश्तहार,पत्राचार तथा अन्य दस्तावेजों को नष्ट करा दिया। लेकिन उनके बलिदान स्थलों और लोकगीतों को वे नहीं मिटा सके। अवध के इलाके में आम लोगों ने इन शहीद स्थलों और लोकगीतों को आज भी जीवित रखा है।
प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को लेकर अंग्रेज इतिहासकारों का अलग नजरिया था लेकिन वे भी यह मानते हैं कि 1857 में अवध और बिहार के कुछ इलाके में जनक्रांति हुई। यानि सभी वर्ग इस क्रांति का हिस्सा बना। इतिहासकार सुरेंद्र नाथ सेन के मुताबिक 1856 में जब अंग्रेजों ने अवध हथिया लिया तो अंग्रेजों की रही सही साख जाती रही। अवध के विद्रोह ने राष्ट्रीय स्वरूप हासिल कर लिया था। 17 जून, 1858 को विदेश विभाग की गोपनीय रिपोर्ट में भी अवध की घटनाओं को जनक्रांति जैसा माना गया।
अवध एक अरसे तक भारत का संपन्न क्षेत्र माना जाता था। खुद लखनऊ रेजीडेंट के नायब मेजर बर्ड ने इसे भारत का चमन कहा था। उन्होंने लिखा था कि कंपनी की सेना में अवध के रहने वाले कम से कम 50,000 सिपाही हैं लेकिन वे अपने परिवार को नवाब के राज्य में छोड़ कर निश्चिंत भाव से नौकरी करते हैं। वे फौज से रिटायर होने के बाद अवध में वापस आ कर शांति से रहते हैं। इसी तरह पादरी हेबर ने 1824-25 में अवध की यात्रा के बाद लिखा था कि इतनी व्यवस्थित खेतीबाड़ी और किसानी देख कर मैं आश्चर्यचकित हूं। लोग आराम से रहते है तथा जनता समृद्ध है।
अवध में नवाबों का शासन 136 साल से अधिक चला। नवाब वाजिद अली शाह अवध के आखिरी और ग्यारहवें शासक थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने लंबी तैयारी के बाद नवंबर 1855 में उनकी सत्ता हड़प ली। नवाब को 15 लाख रू.सालाना पेंशन तय हुई लेकिन नवाब ने अंग्रेजों की शर्तें नहीं मानी। धीरे-धीरे कुचक्र फैला कर कंपनी ने अवध का शासन हथिया लिया। वाजिद अली शाह ने 13 मार्च, 1856 को सदा के लिए लखनऊ छोडऩे का फैसला कर लिया। इसके पहले अंग्रेजों ने वाजिद अली शाह को विलासिता का पर्याय प्रचारित किया था जबकि वास्तविकता इससे परे थी। वाजिद अली शाह एक कुशल शासक थे। उन्होंने जन शिकायतों के निराकरण के लिए ठोस तंत्र बनाया हुआ था और अवध राज के 26 विभाग व्यवस्थित रूप से काम कर रहे थे।
जब अंग्रेजो ने अवध में विदेशी कपड़ो का अंबार लगा दिया था तो भी वाजिद अली शाह देशी बुनकरों के हाथ का बना कपड़ा पहनते थे। खुद अंग्रेज अधिकारी स्लीमन ने 1852 में एक पत्र में लिखा था कि अवध की गद्दी पर इतना अच्छा और कटुता रहित बादशाह कभी नहीं बैठा। अवध पर हमारा एक भी पैसा ऋण नहीं है, उलटे कंपनी खुद अवध सरकार की चार करोड़ रूपए की कर्जदार है। फिर भी अंग्रेजों ने इस संपन्न रियासत को जब हड़पा और वाजिद अली शाह लखनऊ छोड़ कोलकाता के लिए रवाना हुए तो जन-शोक मनाया गया। तमाम लोगों को घरों में चूल्हे तक नहीं जले। जगह-जगह जनता ने उनकी मुल्क वापसी के लिए दुआ मांगी।
अब तक हुए कई महत्वपूर्ण अध्ययनों में बहुत से नए तथ्य प्रकाश में आए हैं, पर इनके केंद्र में कुछ जाने-पहचाने चेहरे और चर्चित इलाके ही रहे। कई राजे-रजवाड़े या जागीरदार तो इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने में कामयाब हो गए, पर उनके असली प्रेरक और मददगार हजारों किसानों-मजदूरों तथा अन्य वर्गो और उनके नायकों की बलिदानी और ऐतिहासिक भूमिका को वैसा महत्व नहीं मिल पाया। अवध में कई जिलों में ग्रामीण इलाकों में किसानो तथा मजदूरों ने अग्रणी भूमिका निभायी और लाखों लोग गुमनाम शहीद हो गए।1857 में भारत में मध्यवर्ग का उदय नहीं हुआ था। उस दौरान या तो किसान-मजदूर और कारीगर थे या फिर जागीरदार, राजा या अफसरी तबके के लोग। इस महान क्रांति में जो एक लाख सैनिक शामिल थे उनमें अधिकतर की जड़े अवध के देहाती इलाकों से जुड़ीं थी। 1857 के प्रथम भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम के अग्रदूत और 34वीं पलटन के सिपाही मंगल पांडेय बलिया के एक किसान परिवार से जुड़े थे। 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम में सैनिकों के साथ पूर्व सैनिक और संन्यासियों तक ने भागीदारी की।
अवध में अंग्रेजों ने देहाती इलाकों में क्रांति को कुचलने के लिए भयानक अत्याचार किए। तमाम क्रांतिकारी गांवो को अंग्रेजों ने मिटा दिया। फांसी की सजा देते समय वे इतने अमानवीय हो गए थे कि रास्ता चलते लोगों तक को फांसी दी गयी। अवध में करीब सभी इलाकों में इसके निशान के रूप में तमाम गांवो के फंसियहवा पेड़ आज भी खड़े हैं। अंग्रेजों ने आजादी के नायकों को तो तोप के मुंह पर बांध कर उडाया। अकेले लखनऊ में ही शहीद हुए लोगों की संख्या 20,270 मानी जाती है। इलाहाबाद में नीम के पेड़ पर 800 लोगों को फांसी दी गयी। बस्ती जिले में छावनी कस्बे में पीपल के पेड़ पर 400 से ज्यादा ग्रामीणों को फांसी पर लटका दिया गया,जबकि कानपुर में दो हजार लोगों को एक जगह फांसी दी गयी।
यह भी उल्लेखनीय तथ्य है कि 1857-58 की क्रांति के दौरान भारत में चिट्ठियों और पत्रों की आवाजाही बहुत कम थी। फिर भी डाक विभाग में रिकार्ड 23 लाख पत्र वापस डेड लेटर आफिस में पहुंचे। तर्क यह दिया गया कि उस दौरान बहुत से लोग या तो मार दिए गए या पलायन कर गए थे। यह आंकड़ा बहुत चौंकानेवाला है क्योंकि वापस लौटे पत्रों में सबसे ज्यादा अवध इलाके के थे।
ग्रामीण इलाकों में जिन पेड़ों पर फांसी दी गयी, वे आज भी लोगों के लिए श्रद्धा का विषय हैं। जिन किलों को ध्वस्त किया गया उनके खंडहर आज भी अंग्रेजों के दमन की याद दिलाते हैं। ऐतिहासिक धरोहरें भी 1857 में बदले की भावना से अंग्रेजों ने तोप से उड़ा दीं। घने जंगलों की कटाई करने के साथ तमाम दस्तावेजों को नष्ट कर दिया गया।
अवध में 1857 के पहले कम से कम 574 किले थे। इसमें से 250 राजाओं के निजी किले थे जिसमें 500 तोपें थीं। राज्य में गढिय़ों की संख्या 1569 थीं, जिनको ध्वस्त कर दिया गया। कंपनी सरकार ने जागीरदारो से 720तोपें, 1,92,306 बंदूकें तथा तमंचे, 5.79 लाख तलवारें और 6.94 लाख फुटकर हथियार जब्त कर लिए। बेगमों तथा अवध की जानी मानी हस्तियों को लूटा गया।
खैर अवध में 1857 की क्रांति की असली नायिका बेगम हजरत महल थीं। तमाम झंझावात के बाद भी अवध अंग्रेजी राज से 9 माह और 8 दिन मुक्त रहा। जब लखनऊ पर अंग्रेजों का कब्जा हुआ तो हजरत महल नेपाल चली गयीं और वहीं 1879 में उनका निधन हुआ। अवध में कमांडर इन चीफ सर कोलिन कैंपवेल को बगावत से निपटने के लिए भेजा गया था। वे 3 नवंबर 1857 को कानपुर पहुंचे तो साफ दिख गया था कि पूरा अवध बागी बन गया हुआ है। भारी तैयारी जगह-जगह नजर आ रही थी और उनको स्थानीय लोगों का खुला समर्थन था। लखनऊ में 8 नवंबर 1857 को क्रांतिवीरों की सेना के पास एक लाख लोग थे और अंग्रेजों के पास मात्र आठ हजार। तीन माह की तैयारी कर अंग्रेजों ने 1.20 लाख सैनिकों और 130 तोपों को जुटाया तो क्रांतिवीरो ने उसकी तीन गुना अधिक ताकत जुटा ली। बारीकी से तथ्यों को देखा जाये तो पता चलता है कि अवध में क्रांति की तैयारी और सभी जगहों से अच्छी थी।
10 जून 1857 को पूरे अवध में आजादी का झंडा फहराने लगा था और जब दिल्ली, कानपुर और लखनऊ जैसे प्रमुख केंद्रो का पतन हो गया तो भी अवध के कई इलाको में क्रांतिकारी लड़ाई जारी रखे थे। अंग्रेजों को विवश होकर यमुना, गोमती, घाघरा तथा गंगा के तटीय इलाकों की बगावत को दबाने के लिए नौसेना तक का उपयोग करना पड़ा। सारी कोशिशो के बाद अंग्रेज 14 मार्च 1858 को लखनऊ पर कब्जा कर सके। फिर भारी लूटपाट का दौर चला।
लेकिन अवध के देहाती इलाकों में ग्रामीणों ने जंग जारी रखी। बाराबंकी में 1 साल 7 माह और 5 दिन जंग चली और अंग्रेज केवल 10 रू. का ही राजस्व संग्रह कर पाये। अवध में ही घाघरा तट पर बौंडी किले में (बहराइच) बेगम हजरत महल 1500 की सेना, 500 बागी सिपाही और 16 हजार समर्थकों के साथ जुलाई 1858 तक रहीं। वहां जाने की हिम्मत अंग्रेज नहीं जुटा सके। बाद में दबाव बढ़ा तो क्रांतिवीरो ने नेपाल की तराई में जनता की शरण ली। बेहद तंगी के बीच देश की आजादी के लिए लड़ते हुए उन्होंने अपना सब कुछ बलिदान दे दिया।
अवध की जंग की कई खूबियां थीं। अत्याचारी अधिकारी कर्नल नील को 16 सितंबर 1857 को लखनऊ में ही मारा गया। 10 मार्च 1858 को अत्याचारी हडसन भी लखनऊ में मारा गया, जिसने दिल्ली में निर्दोष शहजादों की हत्या की थी। यही नहीं इंग्लैंड की महारानी के क्षमादान की घोषणा लार्ड कैनिंग ने इलाहाबाद दरबार में सुनायी और कहा कि जो लोग हथियार डाल देंगे उनको क्षमा कर दिया जाएगा और उनकी जागीरे लौटा दी जाएगी,लेकिन इसका असर स्वाभिमानी अवध के राजाओं पर नहीं पड़ा।
अवध में बेगम हजरत महल, बिरजीस कद्र , गंगा सिंह, जनरल दिलजंग सिंह, तिलकराज तिवारी, राणा बेनीमाधव सिंह, राणा उमराव सिंह, राजा दुर्गविजय सिंह, नरपत सिंह, राजा गुलाब सिंह (हरदोई),राजा हरदत्त सिंह बौंडी, राजा देवीबख्श सिंह-गोंडा, राजा ज्योति सिंह (चर्दा-बहाराइच) आदि जंग लड़ते हुए नेपाल की तराई में चले गए। राणा बेनीमाधव, नरपत सिंह, देवीबख्श और गुलाब सिंह को अंग्रेजो ने साथ मिलाने की कोशिश की लेकिन वे नहीं माने और लड़ते रहे। हालांकि उनके पास हथियार और जरूरी साजो सामान नहीं थे। बेगम हजरत महल ने 7 जुलाई 1857 को जब अवध के शासन की बागडोर अपने हाथ में ली थी तो राणा बेनीमाधव उनके सबसे बड़े मददगार थे। उन्होंने जून 1858 में बैसवारा में 10,000 पैदल और घुड़सवार सेना संगठित कर ली थी। फरवरी 1858 की चांदा की लड़ाई में कालाकांकर के 26 वर्षीय युवराज लाल प्रताप चांदा शहीद हुए।
स्वाधीनता संग्राम के नायकों ने अपनी समानांतर डाक व्यवस्था भी बना ऱखी थी। इस नाते अवध क्षेत्र में अंग्रेजों को कदम कदम पर दिक्कतें आयी थीं। अंग्रेजों की जांच पड़ताल में बनारस में इस बात का खुलासा हुआ था कि बड़ी संख्या में हरकारे क्रांतिवीरो की सेवा कर रहे हैं। उनके द्वारा तमाम अहम खबरें आंदोलन के नायको तक पहुंच रही थीं। इस सेवा का प्रबंध बनारस में महाजनों और रईसों की ओर से किया गया था। इसी सेवा के आठ हरकारे 14 सितंबर 1857 को जलालपुर (जौनपुर) में पकड़े गए जिनके पास राजाओं से संबंधित कई पत्र निकले। सेवा संचालक भैरो प्रसाद और हरकारों को भी फांसी दे दी गयी।
*(लेखक वरिष्ठ पत्रकार और कई पुस्तकों के लेखक हैं)