2019-लोकसभा चुनाव -भगवाई जनता पार्टी का मुकाबला भगवाई कांग्रेस से

2019 के लोकसभा चुनाव # भगवाई जनता पार्टी का मुकाबला भगवाई कांग्रेस  से

2019 के लोकसभा चुनाव ; अब मोदी के सामने राहुल गांधी एक मजबूत रणनीतिज्ञ के तौर पर अनुभवी सिपहसालारो के साथ मजबूती के साथ खड़े हो सकेंगे. ; हिमालयायूके की रिपोर्ट

विधानसभा चुनाव में मिली कांग्रेस की जीत के बाद उत्साहित कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भी प्रधानमंत्री मोदी को हराने का दावा किया है. दरअसल, कांग्रेस अध्यक्ष और उनकी पार्टी इस बात से काफी हद तक खुश है कि 2019 में अब मोदी बनाम राहुल की लड़ाई की बात अगर बीजेपी करती है, तो अब इस लड़ाई में मोदी के सामने राहुल गांधी भी मजबूती के साथ खड़े हो सकेंगे. कांग्रेस के भीतर यह ताकत मध्यप्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान में मिली जीत के बाद आई है.

क्या 2019 की लड़ाई हकीकत में राहुल गांधी बनाम नरेंद्र मोदी की होगी और क्या इस लड़ाई में राहुल गांधी मोदी को मात दे पाएंगे ? इन दावों की पड़ताल और हर संभावनाओं को जानने के लिए सबसे पहले हमें तीनों राज्य के विधानसभा चुनाव के परिणाम को समझना होगा.

बीजेपी को इन तीनों राज्यों की कुल 65 लोकसभा सीटों में से 2014 के लोकसभा चुनाव में 61 सीटों पर जीत मिली थी. ऐसे में पार्टी पर 2019 के लोकसभा चुनाव में भी कुछ इसी तरह के प्रदर्शन का दबाव रहेगा. लेकिन, उस वक्त 2013 के विधानसभा चुनाव और 2014 के लोकसभा चुनाव में मोदी लहर का असर था. तीनों राज्यों में एकतरफा जीत दर्ज करने के बाद बीजेपी विजय रथ पर सवार थी.

अब हालात बदल गए हैं. तीनों राज्यों में कांग्रेस की सरकार है. ऐसे में पार्टी के लिए 2014 के प्रदर्शन को दोहरा पाना आसान नहीं होगा. फिर भी, बीजेपी मध्यप्रदेश और राजस्थान में मिले वोटों के प्रतिशत और सीटों के हिसाब से थोड़ी राहत महसूस कर रही है. क्योंकि उसे अभी भी मोदी मैजिक पर भरोसा है. बीजेपी के रणनीतिकारों को लग रहा है कि विधानसभा चुनाव का परिणाम राज्य सरकार के काम के आधार पर आया है. जबकि, 2019 की लड़ाई मोदी सरकार के काम और मोदी के चेहरे पर होगा.

लेकिन, अब 2019 का मुकाबला दिलचस्प होगा, क्योंकि मोदी बनाम राहुल की लड़ाई के नाम पर अबतक ताल ठोंकने वाली बीजेपी को अब मोदी बनाम राहुल की लड़ाई के नाम पर कांग्रेस भी चुनौती देती दिख सकती है.

——- 2019 के चुनाव में एक बदली हुई कांग्रेस लोगों के बीच होगी. जिसका मुखिया मंदिरों में दर्शन की अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर तेजी के साथ पोस्ट कर रहा होगा.

2014 के चुनाव में बीजेपी के हाथों राजनीतिक धोबीपाट खाने के बाद कांग्रेस पर मुस्लिमपरस्त होने का आरोप लगा था. इसके बाद राज्य दर राज्य सत्ता गंवाते राहुल गांधी से जब इंतजार न हुआ तो उन्होंने धर्म के साथ अपने प्रयोग शुरू किए, फिर वो ब्राह्मण, जनेऊधारी, शिवभक्त, रामभक्त राहुल गांधी के रूप में बाहर आए.   

अगर आप राहुल गांधी के इस नए प्रयोग को पूरी तरह नहीं समझ पाए हैं तो एक बार मध्यप्रदेश में कांग्रेस का घोषणा पत्र जरूर पढ़िएगा. आपको बेहद इंटरटेनिंग टॉपिक पढ़ने को मिलेंगे जैसे राज्य की हर पंचायत में गोशाला का निर्माण कराना, राम गमन पथ का निर्माण करवाने जैसे कई दिलचस्प वादे जो सुनने में भले ही भाजपाई लगते हों लेकिन उन्हें जगह राहुल की अगुवाई वाली कांग्रेस पार्टी ने दी है. सबसे दिलचस्प तो ये है कि पार्टी ने राज्य में गोमूत्र के व्यावसायिक उत्पादन का वचन भी जनता को अपने घोषणा पत्र में दिया है.

पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव के दौरान राहुल गांधी धर्म के साथ एक और प्रयोग किया. चुनाव प्रचार के दौरान उन्होंने अपनी गोत्र बताई. गोत्र बताने में राहुल ने धर्म के साथ एक नया प्रयोग किया. सामान्य तौर हिंदू धर्म में किसी व्यक्ति की गोत्र उसके पैतृक पक्ष के आधार पर बताई जाती है लेकिन राहुल गांधी ने अपनी दादी यानी इंदिरा गांधी के पिता जवाहर लाल नेहरू के पक्ष से अपनी गोत्र बताई. चुनाव के बीच इस मुद्दे पर खूब चर्चा हुई.

राहुल गांधी अपने रास्ते अडिग रहे. वे कभी राजस्थान में किसी मंदिर में दिखाई देते तो कभी मध्यप्रदेश में किसी मंदिर में माथा टेकते दिखाई देते. चुनाव प्रचार से कुछ ही समय पहले वो हिंदु धर्म के सबसे पवित्र तीर्थों में से एक मानसरोवर की यात्रा पर भी गए. वहां से उन्होंने अपनी तस्वीरें भी पोस्ट कीं, जिससे लोगों के बीच तैयार की जा रही धार्मिक छवि को और मजबूत किया जा सके.

गुजरात विधानसभा चुनावों से बीजेपी को पटखनी देने के लिए शुरू हुई राहुल गांधी की मंदिर दौड़ एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के चुनाव के दौरा खूब जमकर चली. गुजरात चुनाव में इस मंदिर दौड़ के प्रयोग के फायदे देखकर आए राहुल गांधी एक और प्रैक्टिकल करके देखना चाहते थे कि क्या ये प्रयोग अन्य जगह भी लागू होगा?

एमपी, राजस्थान और छत्तीसगढ़ में राहुल गांधी ने न सिर्फ इस प्रयोग पर जमकर काम किया बल्कि पार्टी का मेनीफेस्टो भी ऐसा तैयार करवाया जिसमें धार्मिकता की तरफ झुकाव शामिल हो. राहुल अपने धार्मिक प्रयोग की पूरी पुष्टि करके देख लेना चाहते थे. इसी वजह से न सिर्फ धार्मिक मुद्दों पर ध्यान केंद्रित किया बल्कि लिखित में गोशाला और राम गमन पथ बनवाने का वादा भी किया. अब जबकि चुनाव नतीजे सामने आ चुके हैं राहुल गांधी धर्म के साथ अपने प्रयोग पर जरूर गौरवांवित महसूस कर रहे होंगे.

ये चुनाव पंडित राहुल गांधी की राजनीति पर मुहर की तरह साबित हुए हैं. पूरे चुनाव प्रचार के दौरान नरेंद्र मोदी सरकार के भ्रष्टाचार के साथ राहुल गांधी ने लोगों के बीच अपनी धार्मिक छवि तैयार करने का काम किया उसका फायदा तो कांग्रेस होता दिख ही रहा है. राहुल भाषण घोटालों पर देते थे और उसके बाद फिर किसी मंदिर दर्शन करने पहुंच जाते थे. उसके मीडिया से अगर बात होती थी तो अपनी सेकुलरिजम की राजनीति पर व्याख्यान भी दे देते थे.

जो चुनावी नतीजे सामने आए उसके बाद अब राहुल गांधी के पास राजनीतिक लड़ाई का एक पक्का हथियार तैयार हो चुका है. जल्द ही इन राज्यों में कांग्रेसी मुख्यमंत्रियों के नामों की घोषणाएं भी हो जाएंगी. संभव है जल्दी ही कुछ हिंदुवादी योजनाओं पर कांग्रेस की तरफ से तेजी काम भी शुरू कर दिया जाए जिससे लोगों की बीच तैयार की गई पार्टी की धार्मिक इमेज को बनाए रखा जा सके.

मजेदार ये है कि बीजेपी राहुल गांधी की इस धार्मिक इमेज से बैकफुट पर आ जाती है और उन पर प्रहार करना शुरू कर देती है. और जैसे ही राहुल की धार्मिक वायदों या फिर धार्मिक क्रियाकलापों पर चर्चा शुरू होती है, वो अपने ध्येय में कामयाब होते हुए दिखाई देते हैं.

लोकसभा चुनावों की गर्मी छाने लगी. कांग्रेस का पीएम फेस राहुल गांधी
है अब राहुल गांधी के पास दो जगहों पर धार्मिक छवि और धर्म के चुनाव में प्रयोग का पॉजिटिव अनुभव भी है. बीजेपी इस मसले पर गुस्साती भी है.

लोगों को पूरी उम्मीद करनी चाहिए कि 2019 के चुनाव में एक बदली हुई कांग्रेस लोगों के बीच होगी. जिसका मुखिया मंदिरों में दर्शन की अपनी तस्वीरें सोशल मीडिया पर तेजी के साथ पोस्ट कर रहा होगा. संभव है कि वो चुनावों के दौरान अल्पसंख्यकों के मुद्दे से कन्नी भी काट जाए ( गुजरात चुनाव की तरह ). लेकिन एक बात तय है इस बार भगवाई जनता पार्टी का मुकाबला भगवाई कांग्रेस से होने वाला है.

1980 के दशक में राजीव गांधी के बाद से नरेंद्र मोदी के राष्ट्रीय परिदृश्य में बेहद ताक़तवर होकर उभरने तक, देश के चुनाव स्थानीय मुद्दों का टकराव बन कर रह गए थे. किसी भी दल की संगठनात्मक क्षमता की अहमियत चुनाव में दोयम दर्जे की बात बन गई थी.

लेकिन, मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के विधानसभा चुनाव के नतीजों को देखें, तो, ऐसा लगता है कि लैंपपोस्ट इलेक्शन का जुमला एक बार फिर से जी उठा है. ख़ास तौर से मध्य प्रदेश के बारे में ये बात तो और पक्के तौर पर कही जा सकती है. मध्य प्रदेश में बीजेपी और संघ परिवार बेहद ताक़तवर संगठन मशीनरी होने का दावा करता है. जो एक ही राजनीतिक लक्ष्य की प्राप्ति के मक़सद से काम करती है. उस मध्य प्रदेश में बीजेपी की हार, भारतीय राजनीति की समझ बढ़ाने वाला सबक़ है.

बार-बार होने वाले चुनावों के चक्र से उकताए भारतीय वोटर ने एक नए चलन का आविष्कार किया है. इसे हम ‘लैंपपोस्ट इलेक्शन’ या ‘बिजली के खंभे’ वाला चुनाव कहते हैं. इस नाम का मतलब ये है कि अगर जनता ठान ले, तो वो किसी बड़े से बड़े प्रत्याशी के मुक़ाबले किसी ‘चूं चूं के मुरब्बे’ को भी इलेक्शन जिता सकती है. किसी असाधारण नेता के मुक़ाबले बिजली के खंभे को भी भारी मतों से विजयी बना सकती है, हमारे देश की जनता.

हालांकि, पिछले कुछ चुनावों से लैंपपोस्ट इलेक्शन के जुमले को लोगों ने भुला सा दिया था. जाति और संप्रदायों के समीकरणों और पूर्वाग्रहों की देश की राजनीति की दशा-दिशा तय करने में अहम भूमिका हो गई थी. भारत के सियासी मानचित्र में अंदरूनी तौर पर कई दरारें खिंच गई थीं.

मध्यप्रदेश की करें तो वहां 15 साल बाद बीजेपी का राज खत्म हो गया है. लेकिन, 15 साल की एंटीइंक्मबेंसी के बावजूद बीजेपी को हराकर कांग्रेस ने उतनी बड़ी जीत दर्ज नहीं की जितनी की सामान्य तौर पर सत्ता के विरोध में होती रही है. मध्यप्रदेश में कांटे की लड़ाई रही जिसमें कांग्रेस ने 230 सीटों में से 114 सीटें दर्ज की जो कि बहुमत से 2 सीट कम रही. दूसरी तरफ, बीजेपी भी कांग्रेस के काफी करीब पहुंच गई. बीजेपी को कांग्रेस से 5 सीटें कम मिली और पार्टी 109 सीटों तक पहुंच सकी.

 बीजेपी का अहंकार. लंबे समय से राज करने का ये सबसे बड़ा दुष्परिणाम था. शिवराज चौहान का करीब 13 साल का राज-पाट चलाना, इस आत्मविश्वास को जन्म दे गया कि वो अजेय हैं. वो अपने पैरों तले से खिसकती जा रही सियासी जमीन, ख़ास तौर से ग्रामीण इलाकों में, का अंदाज़ा ही नहीं लगा सके.

इसकी बड़ी वजह, ग्रामीण इलाकों की बुरी आर्थिक स्थिति और माफिया का आतंक था. ऐसा लगता है कि शिवराज सिंह चौहान इस मुगालते में थे कि सामाजिक कल्याण पर खर्च बढ़ाने के अपने पुराने टोटकों से वो कुछ खास जातियों के वोटरों को साध लेंगे और ये चुनाव भी जीत जाएंगे. पहले जहां शिवराज चौहान के सामाजिक कल्याण पर किए गए निवेश से बहुत से गरीबों का भला हुआ. लेकिन, इन सरकारी योजनाओं से गरीबों को उतना फायदा नहीं हुआ, जितना इन योजनाओं ने भ्रष्टाचार को जन्म दिया.

चौहान को अपने अजेय होने का किस कदर यकीन था, ये बात पूरे सूबे में इस बात से साफ दिखती थी कि प्रचार के हर बैनर-पोस्टर पर शिवराज के साथ उनकी बीवी साधना सिंह की तस्वीर नजर आती थी. ऐसा पहली बार देखा गया था कि किसी चुनाव के प्रचार में मौजूदा मुख्यमंत्री के साथ उनकी पत्नी की तस्वीर दिखी हो.

कांग्रेस और बीजेपी के वोट प्रतिशत का अंतर भी काफी दिलचस्प रहा. कांग्रेस से 5 सीटें पीछे रहने के बावजूद बीजेपी का वोट प्रतिशत कांग्रेस के मुकाबले मामूली अंतर से ज्यादा रहा. कांग्रेस को 40.9 फीसदी वोट मिले जबकि बीजेपी को थोड़ा ज्यादा 41 फीसदी वोट मिले.

 इन आंकड़ों से एक बात साबित हो रही है कि राज्य में बीजेपी के खिलाफ उस कदर माहौल नहीं था जिसका सीधा फायदा कांग्रेस उठा सके या फिर बीजेपी के खिलाफ बने माहौल को कांग्रेस उस तरह भुना नहीं पाई, जैसा कि उसे करना चाहिए था. दूसरी बात ज्यादा सटीक लग रही है, क्योंकि कांग्रेस के पास कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की जोड़ी थी, लेकिन, उनमें शिवराज सिंह चौहान को एकतरफा हराने का माद्दा नहीं था, वरना तस्वीर कुछ और होती. लेकिन, चुनाव परिणाम के बाद मध्यप्रदेश से शिवराज के खत्म होने का मलाल बीजेपी को तो है लेकिन, क्लीन स्वीप से बचने के बाद अभी भी लोकसभा चुनाव में बेहतर प्रदर्शन कर इस हार से उबरने की आशा भी जिंदा है.

अब बात राजस्थान की करें तो राज्य में कांग्रेस को 99 सीटों पर जीत मिली. कांग्रेस का वोट प्रतिशत 39.3 रहा. दूसरी तरफ, बीजेपी को 73 सीटों पर सफलता मिली और बीजेपी का वोट प्रतिशत 38.8 रहा. बीजेपी और कांग्रेस के बीच सीटों का अंतर तो 25 का रहा, लेकिन, वोट प्रतिशत महज 0.50 का रहा.

राजस्थान में बीजेपी की हार का ज़्यादातर ठीकरा वसुंधरा राजे के सिर फोड़ा जा रहा है. राजस्थान में बीजेपी की हार के लिए एक और बात जो ज़िम्मेदार बताई जा रही है, वो है पिछले 25 सालों से यहां का सियासी चलन. जिसमें जनता हर बार, सरकार बदल देती है. एक बार कांग्रेस तो, अगली बार बीजेपी को मौक़ा देती आई है. वसुंधरा राजे ने निज़ाम में नए प्रयोग किए, लेकिन उनका अहंकारी बर्ताव और अलग-थलग रहना हार का कारण बना. वो जनता से कट सी गई थीं.

राजस्थान के लिहाज से कांग्रेस के लिए यह जीत उतनी बड़ी नहीं है, जिसकी उम्मीद की जा रही थी. चुनाव प्रचार शुरू होने के पहले से ही इस बात के कयास लगाए जा रहे थे कि राजस्थान तो कांग्रेस की झोली में जाएगा. मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे के खिलाफ बने माहौल ने पूरे राज्य में बदलाव की बयार का एहसास करा दिया था. इसकी एक झलक तब मिल गई थी जब राज्य में अजमेर और अलवर लोकसभा सीट के उपचुनाव के दौरान कांग्रेस ने बीजेपी के खाते से दोनों सीटें छीनकर कांग्रेस की झोली में डाल दिया था.

इसी साल हुए इन उपचुनावों में कांग्रेस को मिली एकतरफा जीत ने कांग्रेस के भीतर अतिआत्मविश्वास भर दिया था. कांग्रेस तीनों ही राज्यों में सबसे अधिक भरोसे के साथ राजस्थान में अपनी जीत मानकर चल रही थी. लेकिन, कांग्रेस के भीतर की खींचतान और बीजेपी संगठन की मेहनत ने कांग्रेस की बढ़त को काफी हद तक कम कर दिया.

चुनाव के लगभग आखिरी दो हफ्ते में संघ की सक्रियता और बीजेपी संगठन के दम पर बीजेपी ने वसुंधरा के खिलाफ नाराजगी के बावजूद काफी हद तक डैमेज कंट्रोल किया. बीजेपी को भी इसी बात का डर सता रहा था कि अगर राजस्थान में कांग्रेस क्लीन स्वीप कर गई तो बीजेपी के लिए लोकसभा चुनाव से पहले उबर पाना काफी मुश्किल होगा. यही वजह है कि बीजेपी ने अपने लिए राजस्थान में ‘सम्मानजनक हार’ पा कर काफी हद तक संतुष्ट दिख रही है, भले ही निराशा उसके हाथ लगी है.

बीजेपी को लोकसभा चुनाव में निराशा के बादल छंटने के आसार दिख रहे हैं. बीजेपी को लगता है कि ‘मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी खैर नहीं’ का यह नारा लोकसभा चुनाव तक भी अपना असर दिखाएगा. उसे लगता है कि वसुंधरा के खिलाफ नाराजगी का असर दिख गया, अब राजस्थान की जनता लोकसभा चुनाव में मोदी को ही वोट करेगी.

बात अगर छत्तीसगढ़ की करें तो यहां बीजेपी को बड़ी हार मिली है. कांग्रेस ने बीजेपी का पूरी तरह से सफाया कर दिया है. कांग्रेस को 90 सदस्यीय विधानसभा में 68 सीटें मिली हैं, जबकि बीजेपी के खाते में महज 15 सीटें ही गई हैं. वोट प्रतिशत के लिहाज से भी कांग्रेस काफी आगे है. कांग्रेस को 43 फीसदी जबकि बीजेपी को दस फीसदी कम यानी 33 फीसदी ही वोट मिला है. छत्तीसगढ़ का यही अंतर बीजेपी को काफी पीछे धकेल रहा है, जिससे लोकसभा चुनाव से पहले उबर पाना काफी मुश्किल होगा.

वहीं, छत्तीसगढ़ में 15 साल राज करने वाले रमन सिंह आराम से बैठकर चौथी बार जीतने की उम्मीद पाले हुए थे. रमन सिंह इस मुगालते में जी रहे थे कि उन्हें हराना नामुमकिन है.

लेकिन, मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह की बेचैनी साफ़ दिखती थी. वो अपनी सियासी ज़मीन बचाने के लिए लगातार ख़ूब भाग-दौड़ करते आए थे. संघ परिवार के सभी घटक इस काम में शिवराज की जी-जान से मदद करते थे. मध्य प्रदेश के तमाम इलाकों में संघ परिवार के संगठन की कई दशकों से मजबूत पकड़ रही है. फिर भी शिवराज सिंह चौहान, कमजोर संगठन और नेतृत्वविहीन कांग्रेस से मात खा गए. मध्य प्रदेश में बीजेपी पिछले 15 साल से सत्ता में थी. फिर भी ऐसे हालात क्यों बन गए?

राहुल गांधी इन लोगों के लिए किसी अभिशाप की तरह थे, वहीं ‘खुद से बने’, जड़ों से जुड़े और विश्वसनीय नरेंद्र मोदी उनके लिए ताज़ा हवा के झोंके की तरह थे. यहां तक कि जब उनकी चमक फीकी पड़ने लगी, तब भी वे लोग राहुल गांधी को किसी विकल्प के बतौर स्वीकार नहीं कर पाए. उन्होंने पप्पू, बेवकूफ कहकर उनका मज़ाक उड़ाया. तब उनका कहना था कि – ठीक है पर उनके (मोदी) अलावा विकल्प क्या है? राहुल गांधी? कभी नहीं.’

लेकिन अब समय बदल गया है. एक नेता, एक प्रधानमंत्री यहां तक कि एक वोट खींचने वाले व्यक्ति के बतौर भी मोदी की कमज़ोरियों को नज़रअंदाज़ नहीं किया जा सकता. ‘शहज़ादा’ और ‘विधवा’ जैसे तानों से भरी उनकी चुनावी अभियानों की शैली बेहद अशिष्ट लगती है. इस बीच राहुल गांधी एक सभ्य, शिक्षित और विनीत व्यक्ति के रूप में सामने आये हैं. ‘इमेज मेकिंग’ के इस दौर में बात करें तो केवल इसी आधार पर राहुल गांधी मोदी से बीस साबित होते हैं. यहां राहुल गांधी सफल हुए, लेकिन एक लंबे इंतज़ार के बाद. आखिरकर, इसने उनके पक्ष में काम किया. कई झूठी शुरुआतों के बाद, कांग्रेस ने वो कर दिखाया जो 2014 के बाद नामुमकिन लगता था- उसने तीन हिंदी-भाषी राज्यों में  भाजपा को सीधे मुकाबले में हराया है. गुजरात में कांग्रेस का उभार देखने को मिला और कर्नाटक में हारने के बावजूद जेडीएस के साथ गठबंधन कर वो भाजपा को बाहर रखने में कामयाब हुई. इससे पहले हुए गोवा के चुनाव में कांग्रेस असफल रही थी. अब मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ इसने जीत दर्ज की. आज की तारीख में भाजपा की ताकत और मजबूत फंडिंग को देखते हुए यह एक बड़ी उपलब्धि है. इसका श्रेय राहुल गांधी को जाता है. वे अपने मजबूत और स्पष्ट संदेश के साथ न केवल मतदाताओं, बल्कि उससे भी ज़रूरी कांग्रेस पार्टी के अंदर विरोधियों को, उनके बीच के मतभेदों को भुलाकर चुनावी अभियान में एक साथ लाने में कामयाब रहे. दिग्विजय सिंह, कमलनाथ और ज्योतिरादित्य सिंधिया की तिकड़ी की साथ मिलकर काम करना अप्रत्यशित था, जिसका फल भी मिला. राजस्थान में भी ऐसा हुआ, जहां अशोक गहलोत और सचिन पायलट ने साथ मिलकर चुनावी तस्वीर पेश की.

पार्टी का संदेश स्पष्ट था- पुराने खिलाड़ियों को उचित सम्मान दिया जाएगा, और युवा नेताओं को उनका जनाधार बनाने का मौका मिलेगा, भले ही उन्हें नेतृत्व की भूमिकाओं के लिए थोड़ा और इंतज़ार करना पड़े. उनके व्यक्तित्व और एक नेता के बतौर एक डूबती पार्टी को उबारने वाली उनकी छवि ने उनके नए समर्थकों की संख्या बढ़ाई है, यहां तक ऐसे लोगों के बीच भी, जो उन्हें एक अच्छा मगर अनिच्छुक राजनीतिज्ञ समझते थे. उनके बारे में किए गए मज़ाक अब उनकी तारीफ में बदल गए हैं और भाजपा द्वारा उनका लगातार अपमान करते रहना अशिष्ट और घटिया लगता है. भाजपा के प्रवक्ताओं का बात-बेबात, किसी भी विषय के बीच राहुल गांधी को घसीट कर उनको निशाना बनाना अब मूर्खतापूर्ण दिखता है. अब समय आ गया है कि वे कुछ नया बोलें.

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