23 नवंबर-3 महापर्व: आकाश से अमृत वृष्टि का दिन ;58वर्ष बाद दुर्लभ संंयोग
हाथ वही धन्य हैं जो भगवान की सेवा करें और कान वही धन्य हैं जो भगवान के लीला गुणगान सुनें- आपको यह अवसर प्रदान करता है. हिमालयायूके. # कार्तिक मास में श्रीकृष्ण केे किस रूप का पूजन करना चाहिए;
HIGH LIGHT#23 नवंबर को गुरुनानक जयंती और कार्तिक पूर्णिमा # कार्तिक पूर्णिमा 23 नवंबर 2018 यानी बुधवार #हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर नाम के एक राक्षस का वध किया# 23 नवंबर (शुक्रवार)-स्नान-दानादि की कृत्तिकायुता पूर्णिमा। गुरुनानक जयंती। पुष्कर मेला। मत्स्यावतार पूर्णिमा # श्री विष्णुसहस्त्रनाम का पाठ करें या फिर भगवान विष्णु के इस मंत्र को पढ़ें.
‘नमो स्तवन अनंताय सहस्त्र मूर्तये, सहस्त्रपादाक्षि शिरोरु बाहवे। सहस्त्र नाम्ने पुरुषाय शाश्वते, सहस्त्रकोटि युग धारिणे नम:।।’ # कार्तिक पूर्णिमा (Kartik Purnima) के दिन ही सिख धर्म के संस्थापक और पहले गुरु, गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ था # 23 नवंबर को कार्तिक पूर्णिमा , गुरु परब और देव दीपावली की धूम # इस दिन भगवान शिव धरती पर आते हैं- देव दीपावली यानी देवताओं की दीपावली # ग्रहों की स्थिति को देखते हुए इस वर्ष गुरु वृश्चिक पर, शनि धनु पर , सूर्य वृश्चिक पर और शुक्रवार का विशेष फलदाई योग # 54 वर्षों बाद महा कार्तिकी योग इस वर्ष 23 नवंबर 2018 को बन रहा है # कार्तिक मास में भगवान दामोदर यानी ओखल से बंधे हुए श्रीकृष्ण का पूजन करना चाहिए। #हिमालयायूके- हिमालय गौरव उत्तराखण्ड www.himalayauk.org
कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि कार्तिक पूर्णिमा कहलाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा का महत्व बहुत अधिक माना जाता हैं। इस साल कार्तिक पूर्णिमा 23 नवंबर 2018 यानी बुधवार को मनाई जाएगी। हिन्दू मान्यताओं के अनुसार इस दिन भगवान शिव ने त्रिपुरासुर नाम के एक राक्षस का वध किया था।
भगवान विष्णु ने इसी दिन मत्स्य अवतार धारण किया था। इस दिन का इतना महत्व होने के कारण इस दिन किए जाने वाले उपायों का भी महत्व बहुत अधिक हैं। माना जाता है कि इस दिन उपाय इतने कारगर होते है कि यदि ज़रा भी आस्था से किए जाएं तो घर में कभी धन की कमी नहीं होती हैं। इस माह में नदियों में अवश्य स्नान करना चाहिए। यह माह सभी प्रकार के पूजन, भजन और जाप के लिए श्रेष्ठ है, तो ऐसे में अधिक-से-अधिक धार्मिक कार्यों में लगने का प्रयास करना चाहिए।
ब्रह्मा, विष्णु, महेश खुद कार्तिक पूर्णिमा को स्वरूप बदल कर स्नान करने आते हैं – इस दिन भगवान नारायण ने मत्स्यावतार धारण किया –
आकाश से अमृत वृष्टि का दिन; कार्तिक पूर्णिमा 23 नवंबर
2018 का अंतिम पर्व कार्तिक पूर्णिमा सनातन धर्म का बहुत ही महत्वपूर्ण पर्व है। यह पर्व कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा को आता है। इसी दिन महादेव ने त्रिपुरासुर नामक असुर का संहार किया था। इसी कारण से इसे त्रिपुरी पूर्णिमा भी कहते हैं। इस अवसर पर पवित्र नदी का स्नान, दीपदान, भगवान की पूजा, आरती, हवन तथा दान का बहुत महत्व है। कार्तिक पूर्णिमा 23 नवंबर 2018 दिन शुक्रवार को पड़ रही है। दिनांक 22 को ही 12 बजकर 55 मिनट पर पूर्णिमा आरंभ होकर 23 को 11 बजकर 11 मिनट पर समाप्त हो जाएगी। यदि इस दिन आप गंगा स्नापन करते हैं तो आपको विशेष फल की प्राप्तिा होगी क्योंपकि इस दिन आकाश से अमृत वृष्टि होती है। इसी अमृत को पाने के लिए लाखों श्रद्धालु धर्मनगरी में स्नादन करने आते हैं।विशेष समृद्धि योग बन रहा है इसलिए शिवलिंग पर जल अवश्य चढ़ाएं .. और 108 बार ओम नम: शिवाय मंत्र का जप करें।
मान्यता है कि इस दिन भगवान विष्णु की खास पूजा और व्रत करने से घर में यश और कीर्ति की प्राप्ति होती है. कार्तिक पूर्णिमा के दिन दीपदान (Deepdan) और गंगा स्नान का बेहद महत्व है. इस बार यह पूर्णिमा 23 नवंबर को है. इसी पूर्णिमा के दिन सिखों के पहले गुरु नानक जी का जन्म हुआ था, जिसे विश्वभर में गुरु नानक जयंती (Guru Nanak Jayanti) के नाम से मनाया जाता है. इस जयंती को गुरु पर्व (Guru Parv) और प्रकाश पर्व (Prakash Parv) भी कहते हैं.
हिन्दू पंचांग के अनुसार कार्तिक पूर्णिमा कार्तिक मास के शुक्ल पक्ष की पूर्णिमा तिथि को मनाई जाती हैं। कार्तिक पूर्णिमा को बहुत विशेष माना जाता हैं। इस साल कार्तिक पूर्णिमा 23 नवंबर 2018, शुक्रवार को मनाई जा रही हैं। कि 23 नवंबर को पूरे दिन कार्तिक पूर्णिमा की तिथि नहीं रहेगी। जब 22 नवंबर, बृहस्पतिवार को पूर्णिमा तिथि लग जाएगी तो 23 नवंबर, शु्क्रवार को कार्तिक पूर्णिमा क्यों मनाई जा रही हैं? हिन्दू धर्म मान्यताओं के अनुसार सदैव उस तिथि को माना जाता है जिस तिथि में सूर्योदय होता हैं।
22 नवंबर को जब पूर्णिमा तिथि लगी तब दोपहर का समय था। इसी कारणवश 23 को पूर्णिमा तिथि पर सूर्योदय होने पर 23 नवंबर 2018, शुक्रवार को ही कार्तिक पूर्णिमा मनाई जाएगी।
कार्तिक पूर्णिमा तिथि आरम्भ – 22 नवंबर 2018 – दोपहर 12:53 बजे से
कार्तिक पूर्णिमा तिथि समाप्त – 23 नवंबर 2018 – सुबह 11:09 बजे तक
कार्तिक पूर्णिमा शुभ मुहूर्त – 23 नवंबर 2018 – दोपहर 12:13 से 13:35 तक
कार्तिक पूर्णिमा अभिजीत मुहूर्त – 23 नवंबर 2018 – सुबह 11:51 से 12:35 तक
कार्तिक मास 2018 शुरू होने वाला है। हिन्दू पंचाग 2018 के अनुसार माना जाएं तो 2018 में कार्तिक मास की आरम्भ 23 अक्टूबर 2018 यानी शरद पूर्णिमा के दिन से हो रहा है। साल 2018 में कार्तिक मास 24 नवम्बर 2018 तक चलेगा।
शास्त्रों में कार्तिक मास का महत्व बहुत अधिक बताया है। कार्तिक मास की महिमा देवों ने भी गाई है। हिंदी पंचांग के अनुसार कार्तिक मास वर्ष का आठवां महीना होता है कार्तिक मास को हिन्दू धर्म ग्रंथों धार्मिक दृष्टि से सर्वाधिक महत्वपूर्ण बताया गया है कार्तिक मास का पुण्यकाल अश्विन शुक्ल पूर्णिमा अर्थात शरद पूर्णिमा से ही आरंभ हो जाता है।
मान्यता है कि इस दिन गंगा में स्नान करने से पूरे साल जितना गंगा स्नान का फल प्राप्त होता है। साथ ही इस दिन गंगा स्नान के बाद दीप दान का पुण्य-फल दस यज्ञों के बराबर होता है। जानकारों के मुताबिक इस दिन गंगा स्नान के दान करना चाहिए। इस दिन मौसमी फल (संतरा,सेब,शरीफा आदि), उड़द दाल, चावल और उजली चीजों का आदि का दान शुभ माना गया है। चावल का दान करना शुभ माना गया है। चावल का संबंध चंद्रमा से है।
अश्विन पूर्णिमा से कार्तिक पूर्णिमा तक का ये एक माह सांसारिक विषयों का त्याग करके धर्म के कार्यों में व्यतीत किया जाता है। मान्यता है कि कार्तिक मास में किया गया धार्मिक कार्य अनन्त गुणा फलदायी होता है। शास्त्रों के अनुसार ये महीना पूरे साल का सबसे पवित्र महीना होता है। इसी महीने में ज्यादातार व्रत और त्यौहार आते है। कार्तिक मास भगवान विष्णु को अत्यंत प्रिय है।
इसलिए इस माह में की गई थोड़ी उपासना से भी भगवान जल्द प्रसन्न हो जाते है। कार्तिक मास में कार्तिक शुक्ल एकादशी को इस मास का सर्वाधिक महत्वपूर्ण दिन माना गया है जिसे हम देव उठान एकादशी कहते हैं। इसी दिन चातुर्मास की समाप्ति होकर देव जागृति होती है।
माता लक्ष्मी को प्रसन्न करने के लिए इस दिन पीपल की पूजा करें .. कार्तिक पूर्णिमा के दिन आप सभी देवी-देवताओं को प्रसन्न कर सकते हैं। यह आध्यात्मिक दिन है – हमेशा अतिथि और भिखारी को खाना-पानी दिए बिना बिना जाने नहीं देना चाहिए।
चार महीने बाद जब भगवान विष्णु जागते है तो मांगलिक कार्यकर्मो की शुरुआत होती है। कार्तिक मास की समाप्ति पर कार्तिक पूर्णिमा का भी बड़ा विशेष महत्व है जिसे तीर्थ स्नान और दीपदान की दृष्टि से वर्ष का सबसे श्रेष्ठ समय माना गया है इसे देव–दीपावली भी कहते हैं।
कार्तिक मास में भगवान दामोदर यानी ओखल से बंधे हुए श्रीकृष्ण का पूजन करना चाहिए। भगवान दामोदर को दीप दान करने का इस माह में विशेष महत्व है। दीप दान का अर्थ यहां दीप प्रज्जवलित कर दामोदर भगवान की आरती करने से है।
केला खजूर नारियल अनार संतरा बैंगन कुमार आदि फलों का दान उत्तम माना जाता है। इस दिन अपनी बहन, भांजे, बुआ और गरीबों को दान करने से भी पुण्य फल प्राप्त होता है। साथ ही मित्र, कुलीन व्यक्ति से पीड़ित और आशा से आए अतिथि को दान देने से स्वर्ग की प्राप्ति होती है।
कार्तिक पूर्णिमा को त्रिपुरी पूर्णिमा (Tripura Purnima) और गंगा स्नान की पूर्णिमा (Ganga Snan Purnima) भी कहते हैं. मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव ने राक्षस त्रिपुरासुर का वध किया था. इसी वजह से इसे त्रिपुरी पूर्णिमा के नाम से भी जाना जाता है. इसी के साथ कार्तिक पूर्णिमा की शाम भगवान विष्णु का मत्स्य अवतार उत्पन्न हुआ था. साथ ही कार्तिक पूर्णिमा के दिन गंगा स्नान करना बेहद शुभ माना जाता है. मान्यता है कि गंगा स्नान के बाद किनारे दीपदान करने से दस यज्ञों के बराबर पुण्य मिलता है.
कार्तिक पूर्णिमा के दिन ही सिखों के पहले गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ। उनका जन्म संवत 1526 को कार्तिक पूर्णिमा के दिन हुआ। सिख समुदाय के लोग इस दिन को प्रकाश उत्सव और गुरु पर्व (गुरु परब) के रुप में मनाते हैं। गुरु नानक देव सिख धर्म के पहले गुरु थे। गुरु पर्व सिखों का सबसे महत्वपू्र्ण पर्वों में से एक है और इस दिन गुरु ग्रंथ साहिब में लिखे नानक देव की शिक्षाएं पढ़ी जाती हैं। गुरु नानकदेवजी की जयंती देशभर में प्रकाश पर्व के रूप में मनाई जाती है। इस दिन प्रकाश उत्सव के दिन प्रभातफेरी निकाली जाती है जिसमें भारी संख्या में संगतें शिरकत करती हैं। इस दिन सभी गुरुद्वारे पर प्रकाश पर्व की रौनक बस देखती ही बनती है। अमृतसर का गोल्डेन टेंपल भी इस दिन रोशनियों से जगमगा उठता है।
मान्यता है कि कार्तिक मास की पूर्णिमा को दीप जलाने से भगवान विष्णु की खास कृपा मिलती है. घर में धन, यश और कीर्ति आती है. इसीलिए इस दिन लोग विष्णु जी का ध्यान करते हिए मंदिर, पीपल, चौराहे या फिर नदी किनारे बड़ा दिया जलाते हैं. दीप खासकर मंदिरों से जलाए जाते हैं. इस दिन मंदिर दीयों की रोशनी से जगमगा उठता है. दीपदान मिट्टी के दीयों में घी या तिल का तेल डालकर करें.
दिवाली के 15 दिनों बाद कार्तिक पूर्णिमा वाले दिन देव दिपावली (Dev Deepawali) मनाई जाती है. भगवान विष्णु के मत्स्य अवतार में जन्म लेने और भगवान शिव द्वारा राक्षस तारकासुर और उनके पुत्रों का वध करने की वजह से मंदिरों में ढेरों दीपक जलाए जाते हैं. देवताओं को चढ़ाए जाने वाले इन्हीं दीपों के पर्व को देव दीपावली कहा जाता है.
जब चंद्रोदय हो रहा हो, तो उस समय शिवा, संभूति, संतति, प्रीति, अनुसूया और क्षमा इन छ: कृतिकाओं का पूजन करने से शिव जी का आशीर्वाद मिलता है. इस तिथि को गंगा दशहरा के नाम से भी जाना जाता है.
कार्तिक पूर्णिमा (Kartik Purnima) के दिन ही सिख धर्म के संस्थापक और पहले गुरु, गुरु नानक देव जी का जन्म हुआ था. इस दिन सिख धर्म से जुड़े लोग सुबह स्नान कर गुरुद्वारे में जाकर गुरु नानक देव की के वचन सुनते हैं और धर्म के रास्ते पर चलने का प्रण लेते हैं. इस दिन शाम को सिख लोग अपनी श्रृद्धा अनुसार लोगों को भोजन कराते हैं. पूर्णिमा के दिन पड़ने वाले गुरु नानक देव जी के जन्म के दिन को गुरु पर्व नाम से भी जाना जाता है.
इस दिन भगवान शिव धरती पर आते हैं
देव दीपावली यानी देवताओं की दीपावली। दीपावली के ठीक 15 दिन बाद देव दिवाली का पर्व मनाया जाता है। यह दीपावली गंगा नदी की पूजा के लिए काशी यानी बनारस में मनाई जाती है। ऐसी मान्यता है कि इस दिन भगवान शिव धरती पर आते हैं। इसलिए भगवान शंकर की नगरी काशी में यह पर्व धूमधाम से मनाया जाता है। इस दिन गंगा नदी के जल पर और किनारे हजारों की संख्या में दीप जलाए जाते हैं।
पौराणिक कथा के मुताबिक तारकासुर नाम का एक राक्षस था. उसके तीन पुत्र थे – तारकक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली. भगवान शिव के बड़े पुत्र कार्तिक ने तारकासुर का वध किया. अपने पिता की हत्या की खबर सुन तीनों पुत्र बहुत दुखी हुए. तीनों ने मिलकर ब्रह्माजी से वरदान मांगने के लिए घोर तपस्या की. ब्रह्माजी तीनों की तपस्या से प्रसन्न हुए और बोले कि मांगों क्या वरदान मांगना चाहते हो. तीनों ने ब्रह्मा जी से अमर होने का वरदान मांगा, लेकिन ब्रह्माजी ने उन्हें इसके अलावा कोई दूसरा वरदान मांगने को कहा.
तीनों ने मिलकर फिर सोचा और इस बार ब्रह्माजी से तीन अलग नगरों का निर्माण करवाने के लिए कहा, जिसमें सभी बैठकर सारी पृथ्वी और आकाश में घूमा जा सके. एक हज़ार साल बाद जब हम मिलें और हम तीनों के नगर मिलकर एक हो जाएं, और जो देवता तीनों नगरों को एक ही बाण से नष्ट करने की क्षमता रखता हो, वही हमारी मृत्यु का कारण हो. ब्रह्माजी ने उन्हें ये वरदान दे दिया.
तीनों वरदान पाकर बहुत खुश हुए. ब्रह्माजी के कहने पर मयदानव ने उनके लिए तीन नगरों का निर्माण किया. तारकक्ष के लिए सोने का, कमला के लिए चांदी का और विद्युन्माली के लिए लोहे का नगर बनाया गया. तीनों ने मिलकर तीनों लोकों पर अपना अधिकार जमा लिया. इंद्र देवता इन तीनों राक्षसों से भयभीत हुए और भगवान शंकर की शरण में गए. इंद्र की बात सुन भगवान शिव ने इन दानवों का नाश करने के लिए एक दिव्य रथ का निर्माण किया.
इस दिव्य रथ की हर एक चीज़ देवताओं से बनीं. चंद्रमा और सूर्य से पहिए बने. इंद्र, वरुण, यम और कुबेर रथ के चाल घोड़े बनें. हिमालय धनुष बने और शेषनाग प्रत्यंचा बनें. भगवान शिव खुद बाण बनें और बाण की नोक बने अग्निदेव. इस दिव्य रथ पर सवार हुए खुद भगवान शिव.
भगवानों से बनें इस रथ और तीनों भाइयों के बीच भयंकर युद्ध हुआ. जैसे ही ये तीनों रथ एक सीध में आए, भगवान शिव ने बाण छोड़ तीनों का नाश कर दिया. इसी वध के बाद भगवान शिव को त्रिपुरारी कहा जाने लगा. यह वध कार्तिक मास की पूर्णिमा को हुआ, इसीलिए इस दिन को त्रिपुरी पूर्णिमा नाम से भी जाना जाने लगा.
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ऊखल-बंधन माखनचोरी की अंतिम लीला; एवं भगवान श्रीकृष्ण संबंधी मंत्र
ऊखल-बंधन माखनचोरी की अंतिम लीला है। ऊखल-बंधन लीला को वात्सल्य-रस का रास कहते हैं। यह लीला कार्तिक मास में हुयी थी जिसे ‘दामोदरमास’ भी कहते हैं क्योंकि इसी मास में यशोदामाता ने श्रीकृष्ण को रस्सी (दाम) से उदर पर बाँधा था इसीलिए उनका एक नाम ‘दामोदर’ हुआ।
पृथ्वी पर यशोदाजी जैसा कोई नहीं, जिसने मुक्तिदाता को ऊखल से बांध दिया है और जिससे मुक्ति कह रही है कि मैया, मुझे मुक्त कर दे, मुक्त कर दे। भगवान का यह प्रसाद न तो ब्रह्मा को प्राप्त हुआ–जो पुत्र हैं, न शंकर को प्राप्त हुआ–जो आत्मा हैं और न लक्ष्मी (पत्नी) को–जो उनके वक्ष:स्थल में विराजती हैं। इसलिए यशोदाजी को जो प्रसाद मिला वह अनिर्वचनीय है।
उस दिन कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा थी। श्रीकृष्ण दो वर्ष दो मास आठ दिन के हो चुके थे। अभी वे माता का दूध ही रुचिपूर्वक पीते थे। घर की दासियां अन्य कामों में व्यस्त थीं; क्योंकि आज गोकुल में इन्द्रयाग (इन्द्र की पूजा) होना था। यशोदामाता ने निश्चय किया कि आज मैं अपने हाथ से दधि-मन्थन कर स्वादिष्ट माखन निकालूंगी और उसे लाला को मना-मनाकर खिलाऊंगी। जब वह पेट भरकर माखन खा लेगा तो उसे फिर किसी गोपी के घर का माखन खाने की इच्छा नहीं होगी।
यशोदामाता सुबह उठते ही दधि-मन्थन करने लगीं क्योंकि कन्हैया को उठते ही तत्काल का निकाला माखन चाहिए। यशोदामाता शरीर से दधि-मन्थन का सेवाकार्य कर रही हैं, हृदय से श्रीकृष्ण की बाललीलाओं का स्मरण कर रही हैं और मुख से उनका गान भी करती जा रहीं हैं। अपने प्यारे पुत्र के बाल चरित्र का स्मरण करना उनका नित्य का कर्म है। यशोदामाता भक्तिस्वरूपिणी हैं क्योंकि तन, मन व वचन सभी श्रीकृष्ण की सेवा में लगे हैं। कर्म भी उसके लिए, स्मरण भी उसके लिए और गायन (वचन) भी उसके लिए। सब कुछ कन्हैया के लिए।
दधि-मन्थन करती हुई यशोदाजी के श्रृंगार का बहुत ही सुन्दर वर्णन श्रीशुकदेवजी ने किया है। यशोदामाता अपनी स्थूल कमर में सूत की डोरी से बाँधकर रेशमी लहंगा पहने हुए हैं। रेशमी लहंगा डोरी से कसकर बंधा है अर्थात् उनके जीवन में आलस्य, प्रमाद और असावधानी नहीं है। रेशमी लहंगा इसीलिए पहने हैं कि किसी प्रकार की अपवित्रता रह गयी तो मेरे कन्हैया को कुछ हो जायेगा (सूती वस्त्र की तुलना में रेशमी वस्त्र ज्यादा पवित्र माना जाता है)। दधि-मंथन करते समय उनके हाथों के कंगन व कानों के कर्णफूल हिल रहे हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि मानो कंगन आज उन हाथों में रहकर धन्य हो रहे हैं जो हाथ भगवान की सेवा में लगे हैं और कुण्डल यशोदामाता के मुख से भगवान की लीला का गान सुनकर आनन्दमग्न हो कानों की धन्यता की सूचना दे रहे हैं। हाथ वही धन्य हैं जो भगवान की सेवा करें और कान वही धन्य हैं जो भगवान के लीला गुणगान सुनें। यशोदामाता थक गयीं हैं इसलिए उनके मुख पर पसीने की बूंदें झलक रही हैं। उनकी चोटी में गुंथे हुए मालती के पुष्प गिरकर उनके चरणों में पड़े हैं मानो सोच रहे हैं कि ऐसी वात्सल्यमयी मां के सिर पर रहने के हम अधिकारी नहीं हैं; हमें तो उनके चरणों में ही रहना है। पर यशोदाजी को अपने श्रृंगार और शरीर का किंचित भी ख्याल नहीं है।
भगवान श्रीकृष्ण की अनन्त लीलाओं में ऐश्वर्य-माधुर्ययुक्त ऊखलबन्धन लीला अत्यन्त शिक्षाप्रद है। कृष्णोपनिषद् के अनुसार जिस प्रकार भगवान के आभूषण, वस्त्र, आयुध सभी दिव्य और चिन्मय हैं; उसी प्रकार भगवान की लीला में भी ऊखल, रस्सी, बेंत, वंशी तथा श्रृंगार आदि सब वस्तुएं देवरूप बतायी गयी हैं। इसी भाव को दर्शाने के लिए ऊखल, रस्सी आदि का स्वरूप इस प्रकार बताया है–जो मरीचिपुत्र प्रजापति कश्यप हैं, वे नन्दगृह में ऊखल बन गये। उसी प्रकार जितनी भी रस्सियां हैं, वे सब देवमाता अदिति के स्वरूप हैं। यशोदाजी ने पकड़कर प्रभु को ऊखल में रस्सियों से बांध दिया और प्रभु का नाम ‘दामोदर’ पड़ा। भगवान अपनी इच्छा से पितृरूप ऊखल में मातृरूप रस्सियों से माता यशोदा के वात्सल्यवश बन्धन में आ गये। यह उनकी कृपा थी। यह है माधुर्यस्वरूप। ऐश्वर्यभाव है कि बन्धन के समय रस्सी का दो अंगुल छोटा पड़ना। इस लीला से प्रभु ने जगत को शिक्षा प्रदान की कि वासना या इच्छा की पूर्ति न होने पर व्यक्ति को क्रोध आता है, क्रोध से वह अपराध करता है और उस अपराध का उसे बन्धन आदि दण्ड मिलता है। अत: वासना या कामना को छोड़कर संयम से ही सुख और भगवत्-प्राप्ति सम्भव है।
हर रोज का यह नियम था कि यशोदामाता के मंगलगीत गाने पर ही कन्हैया जागते थे। यशोदामाता बहुत प्रेम से कन्हैया को जगातीं तब कन्हैया जागते थे। लेकिन आज माता की इच्छा है कि जल्दी से दधि-मन्थन कर माखन निकाल लूं फिर लाला को जगाऊंगी। यशोदामाता दधि मथती जा रही थीं और श्रीकृष्ण की एक-एक लीला का स्मरण करते-करते उनके शरीर में रोमांच हो उठता है, आंखें गीली हो जाती हैं। कन्हैया अभी सो रहे थे। वह कब उठ गये, मैया देख न सकी। भक्त उठकर परिश्रम करे और भगवान आलस्य में सोता रहे–यह संभव नहीं हो सकता। इसलिए श्रीकृष्ण उठे, उठकर अंगड़ाई ली। शय्या पर इधर-उधर लोट-पोट किया और आंखे मलने लगे। फिर वह अपने-आप शय्या से उतरकर आये और मैया के पास आकर ‘मा-मा’ पुकारकर स्तनपान करने की हठ करने लगे। भगवान श्रीकृष्ण स्वयं स्तन्य-काम होकर यशोदामाता के पास आये।
यदि कोई मन, वचन, कर्म से अपने कर्तव्य में तन्मय है तो उसको भगवान के पास जाना नहीं पड़ता, भगवान स्वयं उसके पास आ जाते हैं। केवल आते ही नहीं, दूध पीने के लिए रोने भी लगते हैं। निष्काम भगवान के मन में अपने भक्त का दूध पीने की कामना हो जाती है। यही भक्ति की महिमा है। वह अपुत्र को भी पुत्र बना देती है, निष्काम को भी सकाम बना देती है, नित्य तृप्त को अतृप्त बना देती है, निर्मम में भी ममता जगा देती है, शान्त में भी क्रोध उत्पन्न कर देती है, सबके मालिक को भी चोर बना देती है और निर्बन्ध को भी बन्धनों में बाँध देती है।
निद्रा से जागने के बाद तो कन्हैया की शोभा कुछ और ही होती है। बालकृष्ण के बाल रेशम की तरह मुलायम हैं। काले-काले घुंघराले बाल उनके गालों पर आ गये हैं और प्रेमभरी आंखों से वह माता की ओर देख रहे हैं। माता दधि-मन्थन में तल्लीन थी। मैया ने ध्यान नहीं दिया और न ही साधन (दही मथना) छोड़ा। स्तनपान की जिद करते हुए कन्हैया ने दही की मथानी पकड़कर माता को रोक दिया। मानो कह रहे हों–साधन तभी करना चाहिए, जब तक मैं न मिलूं। मैया, अब तो तू मथना छोड़ दे। यह कहकर श्रीकृष्ण अपने-आप माता की गोद में चढ़ गये। यशोदामाता पुत्र को अंक में लेकर अपने हृदय का रस (दूध) पिलाने लगीं। मां-बेटे की आंखें मिली हुईं हैं। परस्पर रस का आदान-प्रदान हो रहा है।
अर्थात्–अपनी गोद में बैठकर दूध पीते हुए बालगोपालरूप भगवान लक्ष्मीकान्त को देखकर प्रेम में मग्न हुयी यशोदामाता उन्हें ‘ऐ मेरे गोविन्द ! ऐ मेरे दामोदर ! ऐ मेरे माधव !’–इन नामों से बुलाती थीं।
सामने पद्मगंधा गाय का दूध अग्नि पर चढ़ाया था। यह दूध बड़ा विलक्षण है। हजार गायों का दूध सौ गायों को, सौ गायों का दूध दस गायों को और दस गायों का दूध एक पद्मगंधा गाय को पिलाकर उस पद्मगंधा गाय से निकाला हुआ दूध है यह। यही दूध लाला पीता है। यशोदामाता की दृष्टि उफनते हुए दूध पर गयी। मैया ने देखा कि दूध उफनने वाला है; यदि यह दूध उफनकर गिर गया तो कन्हैया क्या पियेगा? स्तनपान तो पीछे भी कराया जा सकता है।
दूध में उफान क्यों आया?–इस की संतों ने बहुत सुन्दर व्याख्या की है। पद्मगंधा गाय के दूध की यह इच्छा थी कि यशोदामाता श्रीकृष्ण को अपना दूध कम पिलावें। कम दूध पिलाने पर लाला को भूख बनी रहेगी तो कन्हैया मुझे पियेगा। इससे मेरा उद्धार हो जायेगा। मैं कन्हैया के होठों का स्पर्श पाने के लिए व्याकुल होकर तप-तपकर मर रहा हूं। किन्तु यशोदामाता कन्हैया को खूब दूध पिलाती हैं अत: मेरा उपयोग कृष्णसेवा में नहीं होगा। इसलिए मेरा जीवन व्यर्थ है। अच्छा होगा कि मैं उनकी आंखों के सामने अग्नि में गिरकर मर जाऊं। दूसरे, दूध ने सोचा परमात्मा के दर्शन से दुख का अंत हो जाता है। मुझे माता की गोद में श्रीकृष्ण के दर्शन हो रहे हैं फिर भी मुझे अग्नि का ताप सहन करना पड़ता है। इससे तो में अग्नि में गिरकर मर जाऊं। इसलिए दूध में उफान आया।
यद्यपि दूध श्रीकृष्ण के लिए ही था, फिर भी स्वयं यशोदामाता का स्तनपान कर रहे श्रीकृष्ण से अधिक महत्वपूर्ण नहीं हो सकता था। अगर कुछ उफनकर गिर भी पड़ता तो क्या अनर्थ हो जाता? शेष तो बर्तन में बचा ही रहता। यशोदामाता अतृप्त बालकृष्ण को गोदी से उतारकर दूध सम्भालने चली गयीं। जीव का एक स्वभाव है कि उसे जो मिलता है, उसकी उपेक्षा करता है। माता ने भी यही सोचा कि कन्हैया कहां जाने वाला है? उसे मैं बाद में दूध पिलाऊंगी, पहले इस दूध को अग्नि में गिरने से बचा लूं। यह कहकर मैया ने दूध को अग्नि पर से उतार दिया।
यशोदामाता ने जलते हुए दूध को उतारा–इसका भी एक भाव संतों ने दिया है। माता ने मानो यह कहा कि जो भगवान का नाम ले, वह तर जाता है और उसको भव-ताप नहीं होता। किन्तु तुम भगवान के सामने भगवान के लिए ताप सहन कर रहे हो, यह उचित नहीं है। यह कहकर माता ने उसको उतार दिया अर्थात् तार दिया।
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विशेष- यह मंत्र जीवन में किसी भी प्रकार के संकट को पास फटकने नहीं देगा।
‘ॐ कृष्णाय वासुदेवाय हरये परमात्मने ।। प्रणतः क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः।।’
अति संकटकाल में – पूर्ण श्रद्धा और विश्वास के साथ ;
‘ॐ नमः भगवते वासुदेवाय कृष्णाय क्लेशनाशाय गोविंदाय नमो नमः।’
इस मंत्र को चलते-फिरते, उठते-बैठते और कहीं भी किसी भी क्षण में दोहराते रहने से कृष्ण से जुड़ाव रहता है- ‘हरे कृष्ण हरे कृष्ण, कृष्ण-कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम, राम-राम हरे हरे।’
जो कृष्ण की शरण में है उसे किसी भी प्रकार से रोग और शोक सता नहीं सकते-
चन्द्रशेखर जोशी- हिमालयायूके वेब एवं प्रिन्ट मीडिया- मोबा0 9412932030