6 मई, शनिवार; बडा ही विशेष दिन- पाये अखंड सौभाग्य

6 मई; इस दिन पूजा-पाठ करने से आपकी हर मनोकामना पूर्ण# अपार सुख-संपत्ति, ऐश्वर्य और वैभव # #मोहिनी एकादशी करें ये उपाए #मनचाही इच्छा होगी पूरी #शनिवार और एकादशी का योग 6 मई को# मोहिनी एकादशी व्रत, वैशाख शुक्ल एकादशी तिथि, 6 मई 2017, दिन शनिवार को है यह पाप से मुक्ति दिलाता है। मोहिनी एकादशी व्रत प्रत्येक वर्ष वैशाख शुक्ल एकादशी तिथि को मनाया जाता है। जो व्यक्ति इस व्रत को करता है वह समस्त मोह बंधन से मुक्त हो जाता है। वैशाख मास की यह एकादशी श्रेष्ठ मानी गयी है। यही नहीं इस व्रत को करने से जाने अनजाने में किये गए पापाचरण भी शीघ्र ही समाप्त हो जाता है। वस्तुतः मोहिनी एकादशी करने से मनुष्य सभी प्रकार के मोह बन्धनों से मुक्त हो जाता है साथ ही उसके द्वारा कृत्य पाप भी नष्ट हो जाता है परिणामस्वरूप वह मोक्ष को प्राप्त करता है।

भगवान बद्री विशाल (विष्णु) का पवित्र स्थल बद्रीनाथ धाम चमोली जिले में स्थित है। चार धाम तीर्थ की यात्रा का अंतिम पड़ाव बद्रीनाथ के दर्शन होता है। नर-नारायण पर्वत के बीच बसा यह धाम मोक्ष स्थली माना गया है। यहां के कपाट 6 मई को 4 बजकर 15 मिनट पर खुलेंगे।  इस अवसर पर देश के महामहिम प्रेसीडेंट भी उपस्‍थित रहेगे-  शनिवार 6 मई को बद्रीनाथ धाम के कपाट खुलेंगे और उस दिन राष्ट्रपति प्रणब मुखर्जी भगवान बद्रीविशाल के दर्शन करेंगे।

ग्रहों-नक्षत्रों की गति पल-पल बदलती रहती है और इसी के अनुसार हर प्राणी प्रभावित होता है। भविष्य एक रहस्य है लेकिन ज्योतिषविद्या से आप पहले ही इसके बारे में जान सकते हैं।

इस बार मोहिनी एकादशी 6 मई, शनिवार – इस दिन भगवान विष्णु की पूजा से महालक्ष्मी की कृपा प्राप्त हो सकती है। इस बार शनिवार को एकादशी होने से इस दिन शनि दोष दूर करने के उपाय करेंगे तो बहुत जल्दी सकारात्मक फल मिल सकते हैं।
(www.himalayauk.org) Web & Print Media; CS JOSHI- EDITOR 
शनिवार, 6 मई को एकादशी तिथि है। इस दिन भगवान विष्णु का पूजन करने के साथ शनि के निमित्त ये खास उपाय भी किया जा सकता है। ये अपना प्रभाव शीघ्र दिखाता है, जिससे सुनहरी भविष्य के आगाज के साथ संवरता है भाग्य। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार शनिवार को घर में तेल खरीद कर नहीं लाना चाहिए क्योंकि ऐसा करने से शनिदेव का कुप्रभाव घर-परिवार पर पड़ता है। शनिदेव की कृपा पाने के लिए हर शनिवार शनिदेव पर तेल चढ़ाना चाहिए। लोग हर शनिवार मंदिर में शनिदेव की मूर्ति पर तिल के तेल को अर्पित करते देखे जा सकते हैं। अधिकांश लोग इस कर्म को शनि की कृपा प्राप्त करने की प्राचीन परंपरा मानते हैं। वास्तविकता में इस परंपरा के पीछे धार्मिक और ज्योतिषी महत्व है। धार्मिक मतानुसार तिलहन अर्थात तिल भगवान विष्णु के शरीर का मैल है तथा इससे बने हुए तेल को सर्वदा पवित्र माना जाता है।
पद्मपुराण के अनुसार इस एकादशी के बारें में श्री कृष्ण ने कहा है कि इस व्रत को करने से लोक और परलोक मंं सौभाग्य की प्राप्ति होती है। साथ ही सभी प्रकार के पापों का नाश होता है। साथ ही माना जाता है कि इस व्रत को करने से आपको 10 हजार सालों की तपस्या के बराबर फल मिलता है। हिंदू धर्म के शास्त्रों के अनुसार जो इंसान विधि-विधान से एकादशी का व्रत और रात्रि जागरण करता है उसे वर्षों तक तपस्या करने का पुण्य प्राप्त होता है। इसलिए इस व्रत को जरुर करना चाहिए। इस व्रत से कई पीढियों द्वारा किए गए पाप भी दूर हो जाते है।
इस एकादशी के दिन जो व्यक्ति व्रत रखता है। वह इस दिन प्रात: स्नान करके भगवान को स्मरण करते हुए विधि के साथ पूजा करें और उनकी आरती करनी चाहिए साथ ही उन्हें भोग लगाना चाहिए। इस दिन भगवान नारायण की पूजा का विशेष महत्व होता है। साथ ही ब्राह्मणों तथा गरीबों को भोजन या फिर दान देना चाहिए। यह व्रत बहुत ही फलदायी होता है। इस व्रत को करने से समस्त कामों में आपको सफलता मिलती है। जानिए इसकी पूजा-विधि, और कथा के बारे में।
धर्मसिंधु के अनुसार एकादशी दो प्रकार की होती हैं, पहली विद्धा और दूसरी शुद्धा. यदि एकादशी तिथि दशमी तिथि से युक्त हो तो वह विद्धा एकादशी कही जाती है. यदि सूर्योदय के समय एकादशी तिथि द्वादशी तिथि से युक्त होती है तब वह शुद्धा एकादशी कही जाती है. सामान्य जन साधारण को शुद्धा एकादशी का व्रत रखना ही पुण्यदायक माना गया है.

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मोहिनी एकादशी के विषय में कहा गया है कि समुद्र मंथन के बाद अमृत कलश पाने के लिए दानवों एवं देवताओं के मध्य जब विवाद हो गया तब भगवान् विष्णु ने अति सुन्दर स्त्री का रूप धारण कर दानवों को मोहित कर दिए थे और अमृत कलश लेकर देवताओं को सारा अमृत पीला दिया था और सभी देवता अमृत पीकर अमर हो गये। कहा जाता है कि जिस दिन भगवान विष्णु मोहिनी रूप धारण किये थे उस दिन वैशाख शुक्ल एकादशी तिथि थी इसी कारण भगवान विष्णु के इसी मोहिनी रूप की पूजा मोहिनी एकादशी के रूप में की जाती है। यही जो भक्त यह व्रत करता है वह अपने समस्त परेशानियों को मोहिनी रूप धारण कर समाधान करने का सामर्थ्य रखेगा।

प्रचलित मोहिनी एकादशी व्रत कथा के अनुसार सरस्वती नदी के तट पर भद्रावती नाम की एक नगरी थी। वहां चन्द्रवंश में उत्पन धृतिमान नामक राजा राज करते थे। उसी नगर में धनपाल नाम का एक वैश्य भी रहता था जो धनधान्य से परिपूर्ण और सुखी जीवन यापन कर रहा था। वह सदा पुन्यकर्म में ही लगा रहता था। भगवान विष्णु की भक्ति में लीन रहता था। उसके पाँच पुत्र थे। सुमना, द्युतिमान, मेधावी, सुकृत तथा धृष्ट्बुद्धि। धृष्ट्बुद्धि पांचवा पुत्र था। वह हमसह अकृत्य कामो ( जुआ, चोरी इत्यादि ) में लगा रहता था। वह वेश्याओं के ऊपर अपने पिता का धन बरबाद किया करता था । एक दिन उसके पिता से यह सब सहन नहीं हो सका और परेशान होकर उसे उसे अपने घर से निकाल दिया इसके बाद इधर-उधर भटकने लगा। इसी क्रम में भूख-प्यास से व्याकुल वह महर्षि कौँन्डिन्य के आश्रम जा पहुँचा और वह मुनिवर कौँन्डिन्य के पास जाकर करबद्ध होकर बोला : भगवन मेरे ऊपर दया करे मुझे कोई ऐसा मार्ग बताये जिससे मुझे मुक्ति मिल जाए।
कौँन्डिन्य ऋषि बोले – वैशाख मास के शुक्ल पक्ष में ‘मोहिनी’ नाम से प्रसिद्द एकादशी का व्रत करो। ‘मोहिनी’ एकादशी के दिन उपवास करने से प्राणियों के अनेक जन्मों के किए हुए मेरु महापाप भी नष्ट हो जाते हैं।’ मुनि का यह वचन सुनकर धृष्ट्बुद्धि का प्रसन्न हो गया और उन्होंने कौँन्डिन्य के उपदेश से विधिपूर्वक ‘मोहिनी एकादशी’ का व्रत किया और इस व्रत के करने से उसके सभी पाप कर्म करना बंद कर दिया तथा भगवान विष्णु के आशीर्वाद से पाप मुक्त हो गया और स्वर्गलोक में प्रस्थान कर गया। इसलिए यह व्रत अत्यन्त श्रेष्ठ व्रत माना गया है इस व्रत को करने से व्यक्ति का कल्याण होता है।
जो व्यक्ति मोहिनी एकादशी का व्रत करता है उसे एक दिन पहले अर्थात दशमी तिथि की रात्रि से ही व्रत के नियमों का पालन करना चाहिए। उस दिन शाम में सूर्यास्त के बाद भोजन नहीं करना चाहिए और रात्रि में भगवान का ध्यान करते हुए सोना चाहिए। व्रत के दिन सुबह सूर्योदय से पहले उठकर नित्य क्रिया से निवृत्य होकर स्नान कर लेना चाहिए। यदि सम्बव हो तो गंगाजल को पानी में डालकर नहाना चाहिए।स्नान करने के लिए कुश और तिल के लेप का प्रयोग करना श्रेष्ठ माना गया है। स्नान करने के बाद साफ वस्त्र धारण कर विधिवत भगवान श्री विष्णु की पूजा करनी चाहिए।
भगवान् विष्णु की प्रतिमा के सामने घी का दीप जलाएं तथा पुनः व्रत का संकल्प ले, कलश की स्थापना कर लाल वस्त्र बांध कर कलश की पूजन करें। इसके बाद उसके ऊपर भगवान की प्रतिमा रखें, प्रतिमा को स्नानादि से शुद्ध करके नव वस्त्र पहनाए। उसके बाद पुनः धूप, दीप से आरती उतारनी चाहिए और नैवेध तथा फलों का भोग लगाना चाहिए। फिर प्रसाद का वितरण करे तथा ब्राह्मणों को भोजन तथा दान-दक्षिणा अवश्य देनी चाहिए। रात्रि में भगवान का भजन कीर्तन करना चाहिए। दूसरे दिन ब्राह्मण भोजन तथा दान के पश्चात ही भोजन ग्रहण करना अच्छा होता है।
एकादशी का व्रत शुद्ध मन से करना चाहिए। मन में किसी प्रकार का पाप विचार नहीं लाना चाहिए। झूठ तो अंजान में भी नहीं बोले तो अच्छा रहेगा। रखने वाले को अपना मन साफ रखना चाहिए। व्रती को पूरे दिन निराहार रहना चाहिए तथा शाम में पूजा के बाद फलाहार करना चाहिए।

तिल के तेल चढ़ाने का धार्मिक महत्व: शास्त्र आंनद रामायण के अनुसार हनुमान जी पर जब शनि की दशा प्रांरभ हुई उस समय समुद्र पर रामसेतु बांधने का कार्य चल रहा था। राक्षस पुल को हानि न पहुंचाए, यह आंशका सदैव बनी हुई थी। पुल की सुरक्षा का दायित्वं हनुमान जी को सौपा गया था। शनिदेव हनुमान जी के बल और कीर्ति को जानते थे। उन्होंनें पवनपुत्र को शरीर पर ग्रह चाल की व्यवस्था के नियम को बताते हुए अपना आशय बताया।

हनुमान जी ने कहां कि वे प्रकृति के नियम का उल्लआघंन नहीं करना चाहते लेकिन राम-सेवा उनके लिए सर्वोपरि हैं। उनका आशय था कि राम-काज होने के बाद ही शनिदेव को अपना पूरा शरीर समर्पित कर देंगे परंतु शनिदेव ने हनुमान जी का आग्रह नहीं माना।

वे अरूप होकर जैसे ही हनुमान जी के शरीर पर आरूढ़ हुए, हनुमान जी ने विशाल पर्वतों से टकराना शुरू कर दिया। शनिदेव शरीर पर जिस अंग पर आरूढ़ होते, महाबली हनुमान जी उसे ही कठोर पर्वत शिलाओं से टकराते। फलस्वरूप शनिदेव बुरी तरह घायल हो गए। उनके शरीर पर एक-एक अंग आहत हो गया। शनिदेव जी ने हनुमान जी से अपने किए की क्षमा मांगी। हनुमान जी ने शनिदेव से वचन लिया कि वे उनके भक्तों को कभी कष्ट नहीं पहुंचाएगें। आश्वस्ति होने के बाद रामभक्त अंजनीपुत्र ने कृपा करते हुए शनिदेव को तिल का तेल दिया, जिसे लगाते ही उनकी पीड़ा शांत हो गई। तब से शनिदेव को प्रसन्न करने के लिए उन पर तिल के तले से अभिषेक किया जाता हैं।

तिल के तेल चढ़ाने का ज्योतिषीय महत्व: ज्योतिष शास्त्र के अनुसार शनि की धातु सीसा है। इसे संस्कृत भाषा में नाग धातु भी कहते हैं। इसी धातु से सिंदूर का निर्माण होता हैं। सीसा धातु विष भी हैं। तंत्र शास्त्र में इसके विभिन्न प्रयोगों की विस्तार से चर्चा की गई है। सिंदूर पर मंगल का अधिपत्य होता है। लोहा पृथ्वी के गर्भ से निकलता है और मंगल ग्रह देवी पृथ्वी के पुत्र माने जाते हैं अतः लोहा मंगल ग्रह की धातु है। तेल को स्नेह भी कहा गया है। यह लोहे को सुरक्षित रखता है। लोहे पर यह जंग नहीं लगने देता और यदि लगा हुआ हो तो उसे साफ कर देता है। मंगल प्रबल हो तो शनि का दुष्प्रभाव खत्म हो जाता है। इसे शनि को शांत करने का सरल उपाय कहा गया हैं। तिल का तेल चढाने का अर्थ हैं समर्पण।

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आज लाखों की संख्या में लोग चारधाम यात्रा के लिए पहुंचते हैं। लेकिन जेहन में सवाल उठता है कि आखिर यह चारधाम यात्रा पहली बार कब शुरू हुई। कहा जाता है कि 8वीं-9वीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य ने बद्रीनाथ की खोज की थी। उन्होंने ही धार्मिक महत्व के इस स्थान को दोबारा बनाया था. बताया जाता है कि भगवान बद्रीनाथ की मूर्ति यहां तप्त कुंड के पास एक गुफा में थी और 16वीं सदी में गढ़वाल के एक राजा ने इसे मौजूदा मंदिर में रखा था. जबकि केदारनाथ भगवान शिव के 12 ज्योतिर्लिंगों में से एक है। स्थानीय लोग चारों धामों में श्रद्धा पूर्वक जाते थे, लेकिन 1950 के दशक में यहां धार्मिक पर्यटन के लिहाज से आवाजाही बढ़ी। 1962 के चीन युद्ध के चलते क्षेत्र में परिवहन की व्यवस्था में सुधार हुआ तो चारधाम यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं की संख्या भी बढ़ने लगी।

किसने की चारों धामों की स्थापना

स्कंद पुराण के अनुसार गढ़वाल को केदारखंड कहा गया है। केदारनाथ का वर्णन महाभारत में भी है। महाभारत युद्ध के बाद पांडवों के यहां पूजा करने की बातें सामने आती हैं। माना जाता है कि 8वीं-9वीं सदी में आदिगुरु शंकराचार्य द्वारा मौजूदा मंदिर को बनवाया था। बद्रीनाथ मंदिर के बारे में भी स्कंद पुराण और विष्णु पुराण में वर्णन मिलता है। बद्रीनाथ मंदिर के वैदिक काल (1750-500 ईसा पूर्व) भी मौजूद होने के बारे में पुराणों में वर्णन है। कुछ मान्यताओं के अनुसार 8वीं सदी तक यहां बौद्ध मंदिर होने की बात भी सामने आती है, जिसे बाद में आदिगुरु शंकराचार्य ने हिंदू मंदिर में दिया।

गंगा को धरती पर लाने का श्रेय पुराणों के अनुसार राजा भगीरथ को जाता है। गोरखा लोग (नेपाली) ने 1790 से 1815 तक कुमाऊं-गढ़वाल पर राज किया था, इसी दौरान गंगोत्री मंदिर गोरखा जनरल अमर सिंह थापा ने बनाया था। उधर यमुनोत्री के असली मंदिर को जयपुर की महारानी गुलेरिया ने 19वीं सदी में बनवाया था। हालांकि कुछ दस्तावेज इस ओर भी इशारा करते हैं कि पुराने मंदिर को टिहरी के महाराज प्रताप शाह ने बनवाया था। मौसम की मार के कारण पुराने मंदिर के टूटने पर मौजूदा मंदिर का निर्माण किया गया है।

कितने श्रद्धालु हर साल पहुंचते हैं

हर साल लाखों की संख्या में श्रद्धालु यहां चारों धामों की दर्शनों के लिए पहुंचते हैं। साल 2012 में करीब पौने 10 लाख श्रद्धालु यहां पहुंचे थे, जबकि साल 2013 में केदारनाथ त्रासदी से पहले करीब 5 लाख श्रद्धालुओं ने चारधाम दर्शन का पुण्य कमाया। 2014 में भी करीब पौने 2 लाख श्रद्धालु यहां पहुंचे थे, जबकि 2015 में यह संख्या बढ़कर करीब साढ़े तीन लाख और पिछले साल करीब सवा 6 लाख श्रद्धालु चारधाम यात्रा के लिए पहुंचे।

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