‘अगर किस्मत में हैं हथौड़े, तो कहां से मिलेंगे पकौड़े’
‘अगर किस्मत में हैं हथौड़े, तो कहां से मिलेंगे पकौड़े’ #मोदी सरकार को अपना वादा पूरा करने में 30 साल लग जाएंगे.
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सोचा था कि बीजेपी की सरकार बनने के बाद ‘पांचों उंगलियां घी में होंगी’. मतदाताओं को लगता था कि नरेंद्र मोदी अपने अभिनव विचारों और नई ऊर्जा के साथ भारत को विकास और संपन्नता की तेज राह पर ले जाएंगे. युवाओं का मानना था कि मोदी हर साल एक करोड़ नौकरियों के अवसर पैदा करने का अपना वादा जरूर पूरा करेंगे. लेकिन, जैसा कि ‘द हिंदू’ अखबार में छपी एक रिपोर्ट बताती है कि नई नौकरियों के सृजन की वर्तमान दर से मोदी सरकार को अपना वादा पूरा करने में 30 साल लग जाएंगे. मोदी सरकार में डांवाडोल अर्थव्यवस्था की वजह कई गतिरोध और विघटनकारी उपाय हैं, जैसे- नोटबंदी और जल्दबाजी में जीएसटी का कार्यान्वयन. इन्हीं कुछ वजहों के चलते विकास और निवेश में गिरावट दर्ज की गई. सरकार के वादे के मुताबिक, हर साल एक करोड़ नई नौकरियों के चलते बेरोजगारी कम होना चाहिए थी, लेकिन हो इसका उल्टा रहा है. मोदी सरकार के कार्यकाल में बेरोजगारी दर में इजाफा हुआ है. यूपीए सरकार के दौरान बेरोजगारी दर जहां 4.9 फीसदी थी, वहीं मोदी सरकार में यह संख्या बढ़कर 5 फीसदी हो गई है.
देश में बेरोजगारी की बढ़ती समस्या पर अमित शाह ने तर्क दिया कि, ‘बेरोजगार होने से बेहतर है, पकौड़े बेचना’. अमित शाह के तर्क का मतलब यह हुआ कि, पकौड़े या उस जैसी नाश्ते की दूसरी चीजें बेचने वाले बेरोजगार लोगों को खुद को बेहद भाग्यशाली समझना चाहिए. अमित शाह और उनसे पहले प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अपनी सरकार की कामयाबी की दास्तान के तौर पर पकौड़ाशास्त्र (पकौड़ों का अर्थशास्त्र) को बेचने की कोशिश कर रहे हैं, तो उन्हें याद दिलाया जाना चाहिए कि, वास्तव में यह उनकी नाकामी है. वास्तव में शाह और मोदी ने अपनी दलीलों के जरिए एक निराशाजनक उपाय सुझाया है. उनकी दलीलें देश की जनता की आशाओं और सपनों के अंत का संकेत दे रही हैं. ऐसा लग रहा है कि मोदी सरकार ने विपरीत परिस्थितियों के सामने हथियार डालकर समर्पण कर दिया है. कोई भी सरकार अगर इसका श्रेय लेने का दावा करती है, तो यह समझिए कि वह अपनी नाकामी के लिए खुद पर ही हंस रही है.
वही दूसरी ओर देश के बीजेपी शासित राज्यों में पिछले साल के मुकाबले इस साल सांप्रदायिक हिंसा के मामलों में इजाफा देखा गया है. संसद में मंगलवार को पेश गृह मंत्रालय की रिपोर्ट में यह बताया गया है.
कर्नाटक की बीजेपी इकाई खासी चिंतित है। द हिंदू में छपी एक रिपोर्ट के मुताबिक एक भाजपा नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि प्रधानमंत्री मोदी की बातें उनके जैसे तमाम स्थानीय नेताओं को भी समझ में नहीं आ सकी। दरअसल पहले भाजपा की रैलियों के लिए एक स्थाई कन्नड़ ट्रांसलेटर उपलब्ध रहता था। मगर इधऱ बीच से पार्टी से उसका साथ छूट गया है। तब से भाजपा को ऐसे कार्यक्रमों में असहज स्थिति का सामना करना पड़ रहा है, जिनमें राष्ट्रीय स्तर के हिंदीभाषी नेता जनता को संबोधित करते हैं।
एक भाजपा नेता ने बताया कि जनवरी में चित्रदुर्ग में आयोजित कार्यक्रम में पार्टी को बहुत असहज स्थिति का सामना तब करना पड़ा,जब पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने जनता से पूछा-क्या वे बीएस येदुरप्पा को मुख्यमंत्री के रूप में देखना चाहते हैं ? इस पर जनता ने नो-नो कह दिया। क्योंकि जनता अमित शाह की बात समझ ही नहीं पाई।
इस रिपोर्ट में बताया गया है कि उत्तर प्रदेश में साल 2017 में सांप्रदायिक हिंसा की 195 वारदातें दर्ज की गईं, जबकि इसके पिछले साल यहां 101 ऐसी घटनाएं सामने आई थीं. वहीं राजस्थान में साल 2016 में 63 मामलों के मुकाबले साल 2017 में सांप्रदायिक हिंसा की 91 घटनाएं, बिहार में 2016 में दर्ज 65 के मुकाबले बीते साल 85 मामले और मध्य प्रदेश में 57 मामलों की तुलना में पिछले साल 60 केस सामने आए हैं.
वहीं सांप्रदायिक हिंसा की इस लिस्ट में उत्तर प्रदेश के बाद कांग्रेस शासित कर्नाटक का स्थान आता है, जहां साल 2017 में 100 मामले दर्ज किए गए, जबकि इससे पहले यहां 101 केस दर्ज हुए थे.
ज्ञात हो कि साल 2014 के लोकसभा चुनाव में भारत की जनता ने बीजेपी को इसलिए वोट नहीं दिए थे कि उन्हें और ज्यादा पकौड़े खरीदने पड़ें. लोगों ने बीजेपी को इसलिए बंपर जीत नहीं दिलाई थी कि देश के बेरोजगार युवा गलियों, सड़कों, नुक्कड़ों और चौराहों के किसी कोने पर पकौड़े तलें, अंडे उबालें या पानीपूरी (गोलगप्पों) के स्टॉल लगाएं. भारत की जनता ने अच्छे दिनों की आशा में बीजेपी को वोट दिए थे. लोगों ने बीजेपी को इसलिए चुना था, ताकि उन्हें रोजगार मिल सके, चौतरफा विकास हो और वे इज्जत और उम्मीद के साथ जिंदगी बसर कर सकें. लेकिन अब अपने बचकाने पकौड़ा तर्क के जरिए बीजेपी केवल अपनी विफलता को छिपा रही है.
यूपीए सरकार के दौरान पकौड़े बेचना एक मजबूरी भरा विकल्प था. क्योंकि यूपीए सरकार के वक्त अर्थव्यवस्था कड़ाही (फ्राइंग पैन) में थी. यानी उस दौरान देश की अर्थव्यवस्था में खासी उथल-पुथल मची हुई थी. यूपीए सरकार के दूसरे कार्यकाल के दौरान आर्थिक विकास की दर नई सहस्राब्दी के शुरुआती वर्षों के उच्च स्तर के मुकाबले काफी नीचे आ गई थी. जो कि आर्थिक विकास की गणना की पुरानी पद्धति के मुताबिक पांच फीसदी से भी कम थी. इसलिए, 2014 के चुनाव में भारत की जनता ने अच्छे दिनों की उम्मीद के साथ बीजेपी को वोट दिए थे.
बजट पेश होने के बाद से शेयर खरीदने वाले लोगों के 5 लाख करोड़ से ज्यादा रकम डूब चुकी है। बजट के बाद शेयर बाजार में आज तीसरा कारोबारी दिन है। दो फरवरी और पांच फरवरी यानी सिर्फ दो दिन में निवेशकों के पांच लाख करोड़ रुपये डूबे चुके हैं। इसमें आज का नुकसान शामिल नहीं है। शेयर बाजार बजट के बाद 2800 अंकों की गिरावट झेल चुका है।
देश में हर साल लगभग 13 मिलियन युवा कार्यबल (वर्क फोर्स) में शामिल होते हैं. यानी सालाना करीब 1 करोड़ 30 लाख नए लोग नौकरी या रोजगार की तलाश में सामने आते हैं. मोदी सरकार के कार्यकाल के दौरान इनमें से सिर्फ 3.4 लाख लोगों को ही नौकरियां मिल पा रही हैं. यह कोई हवाई तथ्य नहीं हैं, बल्कि यह आंकड़े श्रम मंत्रालय द्वारा साल 2016 में कराए गए एक सर्वेक्षण (सर्वे) में सामने आए हैं. मोदी सरकार में नौकरियों के सृजन की दर यूपीए-2 सरकार (2009-2014) के मुकाबले आधी है. जाहिर है, ऐसे में जिन लोगों को रोजगार नहीं मिल पाता है, उन्हें जीविका चलाने के लिए पकौड़े बेचने ही पड़ेंगे.
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