प्रजा सुखी-सम्पन्न होगी तब ही राजा का राज स्थिर रह सकता है
हिमालयायूके न्यूज पोर्टल की रिपोर्ट -राजकार्यो में ज्योतिष सलाह
सर्वा विद्या राजधर्मेषु युक्ताः सर्वे लोका राजधर्मे प्रविष्टाः।
सर्वे धर्मा राजधर्मा प्रधानाः।
राजधर्म विश्व का सबसे बडा उद्देश्य था और इसके अन्तर्गत आचार व्यवहार, प्रायश्चित आदि के सभी नियम आ जाते थे। सभी विद्यायें राजधर्म से युक्त होती हैं सभी देश और प्रदेश राज धर्म से ही स्थित रहते हैं और सभी धर्मो में राज धर्म सबसे प्रधान है। कारण यह है कि यथा राजा तथा प्रजा होती है। राजा धर्म को जिस रुप में स्वीकार करता है उसी रुप में प्रजा को स्वीकार करना होता है। राजा की निष्ठा अनुशासन, नीतिबद्धता और दण्ड व्यवस्था जब संतुलित होती है तभी राजा का राज स्थिर बना रहता है।
राजा प्रजा के लिए भगवान के समान ही होता है। राजा का अनुसरण ही प्रजा किया करती है। इतिहास में किन्हीं राजाओं का नाम उनके कार्य कौशल व नीतिबद्धता के कारण ही अमर है, प्रसिद्ध है। जिस राजा के राज में प्रजा सुख-सम्पन्न थी, सुरक्षित थी तथा समुचित विद्या अर्जन और अर्थोपार्जन होता था, वह राजा भगवान के समान पूजा गया, उसका नाम इतिहास के पन्नों में दर्ज हो गया। चाहे वे राजा राम हो, युधिष्ठिर हो, नल हों, अशोंक हो, अकबर हों अथवा अन्य कोई।
किन्हीं राजाओं की मनमानी और आसुरी प्रवृत्तियों से भी प्रजायें आहत हुई है। वे राजा और उनका काल त्रासदी काल के रुप में इतिहास में उल्लेखित है। राजा अनेकों मर्यादाओं में बद्ध होता है। वह पुरोहित, मंत्री, सेनापति आदि से सलाह लेकर ही निर्णय किया करता था। पुरोहित राजा को धर्म और ज्योतिष के माध्यम से काल शुद्धि के विषय में बतलाता था, मंत्री समसामयिक परिस्थितियों से रूबरू कराता था और सेनापति सैन्य शक्ति का आंकलन किया करते थे। तभी राजा और राज सुरक्षित व स्थिर बना रहता था।
आज वर्तमान में इन नियमों की बडी उपेक्षा हो रही हैं कुपढ और ढीठ व अपराधी राजा होने लगे है। वे समसामयिक चर्चा और आंकलन तो किसी माध्यम से यथावश्यकता कर लेते हैं, कर क्या लेते हैं, करना पडता है लेकिन धर्म और काल के शुभाशुभ का ध्यान नहीं रख पाते क्योंकि राजदरबारों में धर्मगुरु व ज्योतिषाों को स्थान नहीं है। सच कहा जाये तो राजनीति में जो गिरावट आज आ रही है उसका कारण समय व पात्रों के शुभाशुभ अर्थात अनुकूलता और प्रतिकूलता की परख नहीं हो पाती।
ज्योतिष ग्रन्थों में मिलता हैकि राजा को धर्म संबंधी, न्याय संबंधी, योजना संबंधी, सुरक्षा संबंधित चर्चायें कब करनी चाहिए। किस समय आये व्यक्ति से कब मिलना चाहिए अथवा नहीं मिलना चाहिए। समय किसी का गुलाम नहीं, बस जो उसे साधता है वह उसी का हो जाता है।
कभी सुनने में आता है सरकार द्वारा यह योजना बनाई गई। कुछ माह बाद पता चला कि वह निरस्त हो गयी या असफल हो गयी। कभी राजा (राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री) किसी अन्य देश या प्रदेश से समझौता या सुलह की पेशकश करता है लेकिन वह असफल हो जाती है।
ऐसा एक-दो बार नहीं अनेकों बार होता है पर चिंता किसे है क्योंकि अब तो स्वान्तः सुखाय की परम्परा चल पडी है तथा चार्वाक दर्शन का सिद्धान्त प्रत्यक्ष रुप में स्वीकार होता चला जा रहा है जिसमें कहा है-
यावत जीवेत सुखं जीवेत, ऋण कृत्वा घृतं पिवेत, भस्मी भूतस्य देहस्य, पुनरागमनं कुतः।
अर्थात जब तक जीओ (सत्ता में रहो), तब तक स्वयं सुख से रहो, ऋण भी लेना पडे तो लो और सुख भोग करो। कुछ दिनों बाद नहीं रहेगे, किसने पुनः आकर चुकाया है। यही परम्परा आती जा रही है पर यह वास्तविक राजधर्म के विपरीत है। इसमें सिवाय प्रजा की हानि के और कुछ नहीं।
आज राजा केवल राज कर रहा है। धर्म का परित्याग कर दिया गया है। धर्म की अवहेलना से ही तो राजनीति में सब कुछ जायज है, को स्थान मिला है।
किसे परवाह है राजा की यात्रा सफल हुई या असफल। वास्तव में एक यात्रा का सरकारी खर्च जोडा जाये तो एक माह तक एक गांव का पेट भरा जा सकता है। कैसे देश की अर्थव्यवस्था सुधरेगी।
ज्योतिष ग्रन्थों में इन सभी समस्याओं का समाधान उपलब्ध है। बडे राजा जब तक पुरोहित (विद्वान) वाले अंग को पुनः जीवित ना करें तब तक ऐसा अनर्थ ही होगा। इसलिए राजदरबारों में निजी सचिवों के साथ निजी ज्योतिषों की नियुक्ति प्रतियोगिता व योग्यता व अनुभव के आधार पर होनी चाहिए। यद्यपि यह मूलतः भारतीय राजव्यवस्था है परन्तु भारत में ही इसकी खुलकर उपेक्षा हो रही है जबकि ऐसा पढने में आया है कि अमेरिका के व्हाइट हाउस में राजनयिकों के लिए निजी सलाह हेतु एक ज्योतिष कक्ष बना लिया गया है जहां विद्वान ज्योतिष सलाह देते हैं। ज्योतिष वेदांग का निर्माण या उत्पत्ति मुहूर्त के रुप में शुभ कर्मो की सफलता के लिए किया गया। मुहूर्त विद्या ज्योतिष की सबसे वैज्ञानिक और सिद्ध विद्या है जिसके शीघ्र परिणाम प्राप्त होते हैं।
ज्योतिष की आदिम और प्रारम्भिक अवस्था मुहूर्त ही है। परवर्ती काल में इसके अनेक रूपान्तर होते चले गये। ज्योतिषियों को सम्मान व पद न मिलने से ही इस विद्या का मध्य काल में ह्रास भी हुआ और विधिवत शिक्षा प्रणालियों में कमी आई। जिसके कारण नौसिखियें विद्वान ज्योतिष रूपी संजीवनी बूटी का मनमाने ढंग से प्रयोग कर रहे हैं। यद्यपि यह सत्य है कि ज्योतिष की सीमायें अनन्त है पर मनमानी सर्वथा अनुचित है।
अभी ज्यादा देर नहीं है। अभी भी देश के या राज्य के प्रमुख राजा, राजकीय प्रधानपदों के साथ ज्योतिष का पद जोड देवें तो पुनः हरित क्रांति आ सकती है। ऐसा वर्तमान सदी में विश्व में प्रथम प्रयास होगा जिसके परिणाम निसंदेह प्रगतिकारी सिद्ध होगे।
कोई भी राजा हो यदि मुहूर्त का आसरा नहीं ले तो उसके अधिकांश कार्य व्यर्थ होते हैं। यह विडम्बना नहीं तो और क्या है कि मलमास में सरकार की महत्वपूर्ण शाखाओं की आधार शिलाएं रखी जाती हैं।
पहले जो अश्वमेघ यज्ञ, दिग्विजय यज्ञ या किसी देश पर अधिकार करने हेतु जो यात्राएं होती थी, उनका परिवर्तनीय रुप आज की पार्टियों की प्रचार प्रसार यात्रा का आरम्भ माना जा सकता है। इन कार्यो में मुहूर्त ज्योतिष का प्रयोग किया जाये तो खूब लाभ हो सकता है। पर इन राजाओं, नेताओं को प्रत्यक्ष रुप से ज्योतिष को स्वीकार करना होगा। अच्छे ज्योतिषीयों को उचित पद व सम्मान देना होगा। राज्य के अंग के रुप में इन ज्योतिषियों की प्रतिष्ठा होनी चाहिए। ज्योतिष हर महत्वपूर्ण कार्य की सलाह देते हैं, वे विद्या और अपनी मर्यादा का अपमान करते हैं। होना यह चाहिए कि देश के सभी ज्योतिष राजाओं को तभी सलाह देवें जब वे सलाह लेने आये। दावा है कि केवल एक संक्रांति काल में राजनीति में उथल पुथल हो जायेगी। इससे न केवल ज्योतिष का उत्थान होगा वरन देश का और देश की जनता का विकास और सुख समृद्धि की वृद्धि होगी।
Report by; Chandra Shekhar Joshi- Editor in Chief;
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