जो भक्तों को सर्व प्रकार से भय मुक्त करते हैं वे भैरव हैं; मैदुली जी
हिमालयायूके न्यूज पोर्टल की विशेष प्रस्तुति- परम आदरणीय मैदुली जी- महान साधक तथा ज्योतिषविद- पूर्व वाइस चांसलर स्विटजरलैण्ड तथा यूरोप के 18 देशों में 15 वर्षो से अधिक समय तक निवास कर
जादुई तथा अलौकिक शक्तिओं तथा अचंभित कर देने वाले कृत्यों के संचालक हैं;
भैरव शब्द चार अक्षरों के मेल से बना हैं; भा, ऐ, र और व; भा का अर्थ ‘प्रकाश’, ऐ क्रिया-शक्ति, रव विमर्श हैं। इस प्रकार जो अपनी क्रिया-शक्ति से मिल कर अपने स्वभाव से सम्पूर्ण जगत को विमर्श करता हैं वह भैरव हैं। जो समस्त विश्व को अपने ही समान तथा अभिन्न समझकर अपने भक्तों को सर्व प्रकार से भय मुक्त करते हैं वे भैरव कहलाते हैं।
भैरव! भगवान शिव के अनन्य सेवक के रूप में विख्यात हैं तथा स्वयं उनके ही प्रतिरूप माने जाते हैं। भगवान शिव के अन्य अनुचर जैसे भूत-प्रेत, पिशाच आदि के वे स्वामी या अधिपति हैं। इनकी उत्पत्ति भगवती महामाया की कृपा से हुई हैं परिणामस्वरूप वे स्वयं भी शिव तथा शक्ति के अनुसार ही शक्तिशाली तथा सामर्थ्य-वान हैं एवं भय-भाव स्वरूप में इनका अस्तित्व हैं। भैरव दो संप्रदाय! प्रथम काल भैरव तथा द्वितीय बटुक भैरव से सम्बंधित हैं, तथा क्रमशः काशी या वाराणसी और उज्जैन के द्वारपाल हैं। मुख्य रूप से भैरव आठ स्वरूप वाले जाने जाते हैं; १. असितांग भैरव, २. रुद्र भैरव, ३. चंद्र भैरव, ४. क्रोध भैरव, ५. उन्मत्त भैरव, ६. कपाली भैरव, ७. भीषण भैरव, ८. संहार भैरव, यह आठों मिलकर अष्ट-भैरव समूह का निर्माण करते हैं। मुख्यतः भैरव! श्मशान के द्वारपाल तथा रक्षक होते हैं। तंत्र ग्रंथो तथा नाथ संप्रदाय के अनुसार, भैरव तथा भैरवी इस चराचर जगत की उत्पत्ति, स्थिति तथा प्रलय के कारक हैं। भिन्न-भिन्न भैरवो की आराधना कर, अपनी अभिलाषित दिव्य वस्तुओं तथा शक्तिओं को प्राप्त करने की प्रथा आदि काल से ही हिन्दू धर्म में प्रचलित हैं, विशेषकर किसी प्रकार के भय-निवारण हेतु। भैरव सामान्यतः घनघोर डरावने स्वरुप तथा उग्र स्वभाव वाले होते हैं, काले शारीरिक वर्ण एवं विशाल आकर के शरीर वाले, हाथ में भयानक दंड धारण किये हुए, काले कुत्ते की सवारी करते हुए दिखते हैं। दक्षिण भारत में भैरव! ‘शास्ता’ के नाम से तथा माहाराष्ट्र राज्य में ‘खंडोबा’ के नाम से जाने जाते हैं। तामसिक स्वभाव वाले सभी भैरव तथा भैरवी मृत्यु या विनाश के कारक देवता हैं, काल के प्रतीक स्वरूप, रोग-व्याधि इत्यादि के रूप में प्रकट होकर विनाश या मृत्यु की ओर ले जाते हैं।
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हिन्दू धर्म में कई प्रकार की अलौकिक शक्तिओं का वर्णन प्राप्त होता हैं, जिसके प्रभाव से मनुष्य अपने नाना प्रकार की कामनाओं तथा भोगो को प्राप्त करने में सक्षम होता हैं। इंद्रजाल के तहत कई प्रकार की अचंभित कर देने वाली शक्तियां विद्यमान हैं, जिन्हें जादू या चमत्कार कहा जाता हैं। मारन, वशीकरण, स्तंभन, उच्चाटन, मोहन! काला जादू की श्रेणी में आते हैं तथा मनुष्यों के हितार्थ तथा अहितार्थ दोनों कर्मों में प्रयोग किये जा सकते हैं। तंत्रों में व्याप्त कई प्रकार की साधनायें जातक को इच्छित भोग प्रदान करने में समर्थ हैं। मनुष्यों की तरह ही देह-धरी तथा विवेक-शील! देवता, यक्ष, नाग, किन्नर, राक्षस, नायिका, पिसाच, डाकिनी, भूत, प्रेत होते हैं; परन्तु यह अधिकतर सूक्ष्म तथा परा रूप धारी होते हैं। परन्तु यह सभी अपने स्वाभाविक या प्राकृतिक गुणों के अनुसार मनुष्यों से पृथक तथा भिन्न हैं तथा अपने अंदर विशेष प्रकार की भिन्न-भिन्न अलौकिक शक्तिओं को समाहित किया हुए हैं। इनके निवास स्थान भी अलग-अलग ब्रह्माण्ड के नाना सूक्ष्म, स्थूल तथा परा स्थलों में विद्यमान हैं; मनुष्य जैसे भूमि या पृथ्वी के वासी हैं, वैसे ही देवता! स्वर्ग-लोक के वासी हैं; गन्धर्व! गन्धर्व-लोक के, नाग! नाग-लोक के जो पाताल या पृथ्वी के अंदर हैं वासी हैं। सभी सूक्ष्म, परा तथा स्थूल जीवों के निवास स्थान! भिन्न-भिन्न लोक हैं, जो पाताल, आकाश, वायु तथा पृथ्वी में स्थित हैं। हिन्दू धर्म के अनुसार यह सभी प्राणी भिन्न-भिन्न कार्यों का निर्वाह करते हैं तथा मनुष्यों को इच्छित भोग भी प्रदान करते हैं। भूत-प्रेत, पिसाच, डाकिनी, योगिनियों का सम्बन्ध भोग, जादुई तथा अलौकिक शक्तिओं से हैं एवं यह सभी अचंभित कर देने वाले कृत्यों के संचालक हैं।
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शिव पुराण के अनुसार अंधकासुर नामक दैत्य के संहार हेतु भगवान शिव के रुधिर से भैरव की उत्पत्ति हुई थी। अन्य एक कथा के अनुसार एक बार जगत के सृष्टिकर्ता ब्रह्मा जी ने शिव तथा उनके गाणो की रूप-सज्जा को देखकर अपमान-जनक वचन कहे थे। भगवान शिव ने उस वाचन पर कोई ध्यान नहीं दिया, परन्तु उस समय उनके शरीर से एक प्रचंड काया का प्राकट्य हुआ तथा वह ब्रह्मा जी को मरने हेतु उद्धत हो आगे बड़ा, जिसके कारण वे अत्यंत भयभीत हो गए। अंततः शिव जी द्वारा मध्यस्थता करने के कारण क्रोध तथा विकराल रूप वाला गण शांत हुआ। तदनंतर, भगवान शिव ने उस गण को अपने आराधना स्थल काशी का द्वारपाल नियुक्त कर दिया; काल भैरव जी का भव्य मंदिर काशी में विद्यमान हैं। मार्गशीर्ष मास की कृष्ण अष्टमी के दिन इनका प्राकट्य हुआ था, परिणामस्वरूप यह तिथि काल-भैरवाष्टमी के नाम से भी जानी जाती है। विशेषकर मृत्यु-भय से मुक्ति पाने हेतु इनकी आराधना की जाती हैं, परन्तु वे सर्व प्रकार के कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ हैं। समस्त प्रकार के अभिलाषित भोग तथा अलौकिक शक्तियां प्रदान करने में समर्थ हैं। भारत के भैरव मंदिरों में काशी के काल-भैरव मंदिर तथा उज्जैन के बटुक-भैरव मंदिर मुख्य माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त कुमाऊ मंडल में नैनीताल के निकट घोडाखाल में बटुक-भैरव, जिन्हें गोलू देवता के नाम से जाना जाता हैं तथा विख्यात हैं।
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