सत्ता के लगातार विपरीत जाता माहौल; बड़ी चुनौती
संयुक्त विपक्ष की बढ़ती ताकत देखकर बीजेपी ने भी अपना कुनबा मज़बूत करने की शुरूआत कर रही है. बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह ने लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष राम विलास पासवान से मुलाकात की है. इस संपर्क समर्थन अभियान के दौरान अमित शाह देश के बड़े नेताओं से मुलाकात करने वाले हैं. इस कड़ी में शिवसेना अध्यक्ष उद्धव ठाकरे के अलावा अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल से भी बीजेपी के अध्यक्ष मुलाकात करेंगे.
बीजेपी अध्यक्ष के सामने बड़ी चुनौती है
बीजेपी के सामने 2004 जैसे हालात खड़े हो गए हैं. बीजेपी का कुनबा घट रहा है. विपक्ष का कुनबा बढ़ रहा है. 2004 में अटल बिहारी वाजपेयी के सामने कोई नेता नहीं था. 2019 में मोदी के सामने कोई नेता टिक नहीं पा रहा है. लेकिन एक बड़ा गठबंधन बीजेपी का साम्राज्य बिखेर सकता है. इसका अंदाजा बीजेपी को हो गया है. खासकर यूपी के उपचुनाव से, जहां कैराना में मुस्लिम उम्मीदवार को जाट और दलित का वोट मिला है. दलित वोट का दरकना और बीएसपी का एसपी के साथ जाना बीजेपी के लिए चिंता का विषय है. यूपी में बीजेपी के पास बैकवर्ड में कुछ जातियां और राजपूत बचे हैं. ब्राह्मण सम्मान ना दिए जाने की वजह से नाखुश हैं. इस बार एकमुश्त बीजेपी को वोट मिलना मुश्किल है.
एनडीए का दक्षिण में कोई साथी नहीं बचा है. एआईएडीएमके बीजेपी के साथ तो है लेकिन लोकसभा चुनाव में एआईएडीएमके की क्या ताकत बचेगी ये कहना मुश्किल है. लेकिन बीजेपी के साथ कोई दल आने के लिए तैयार नहीं है. डीएमके का कांग्रेस के साथ रिश्ता चल रहा है. एमके स्टालिन कांग्रेस का साथ छोड़ने के मूड में नहीं है. सीटों के एतबार से तमिलनाडु बड़ा राज्य है. इस तरह कर्नाटक में जेडीएस वाला दांव कांग्रेस ने मार दिया है. ममता बनर्जी की अदावत बीजेपी से जगजाहिर है, टीआरएस चुनाव पूर्व बीजेपी के साथ आने में दिक्कत है क्योंकि मॉइनॉरिटी वोट खिसकने का डर है. नवीन पटनायक एनडीए से पहले अलग हो चुके हैं. लेकिन पटनायक कांग्रेस के साथ ना जाएं ये कोशिश जरूर बीजेपी कर रही है.
बीजेपी 2019 की बड़ी लड़ाई से पहले सहयोगी दलों के शिकवा शिकायत दूर करने की कोशिश कर रही हैं. अमित शाह के सक्रिय होने से कांग्रेस की विपक्षी महागठबंधन की कोशिश को नुकसान पहुंच सकता है क्योंकि क्षेत्रीय दलों के पास विकल्प रहेगा कि वो बीजेपी वाले गठबंधन का हिस्सा बनें या फिर कांग्रेस के महागठबंधन में शामिल हो जाएं. अमित शाह के इस अभियान का मकसद एनडीए के रूठे साथियों को मनाना है. लेकिन क्षेत्रीय दल चुनावी मौसम के साथ बदल सकते हैं. इस बात से अमित शाह अंजान नहीं हैं. अमित शाह को लग रहा है कि इस बार किसी लहर के अभाव में तिनका-तिनका जोड़कर ही काम चलाया जा सकता है, जिसमें छोटे दलों के नेताओं की भूमिका अहम हो जाएगी.
बीजेपी पर दलित विरोधी होने के इल्जाम लग रहे हैं. कैराना में दलित मुस्लिम की जुगलबंदी की वजह से बीजेपी को हार का सामना करना पड़ा है. इसलिए सोच-समझकर लोक जनशक्ति पार्टी के अध्यक्ष से अमित शाह ने मुलाकात की है. एक तो बीजेपी दलित समुदाय को पैगाम देने की कोशिश कर रही है कि बीजेपी दलित विरोध में नहीं है. अमित शाह ने आश्वासन दिया है कि प्रमोशन में आरक्षण का मसला सरकार अध्यादेश के जरिए सुलझाएगी. दरअसल बीजेपी ने दलित समुदाय को साधने की काफी कोशिश की है. पहले रामनाथ कोविंद को राष्ट्रपति बनाया है. लेकिन एनडीए के पास मायावती के काट के लिए सिर्फ राम विलास पासवान ही हैं, जिनके ज़रिए दलित समुदाय को साधा जा सकता है. हालांकि पासवान का असर सिर्फ बिहार तक सीमित है. बिहार में एक बड़ा गठबंधन ही आरजेडी-कांग्रेस के गठबंधन को रोक सकता है. 7 जून को बिहार बीजेपी की तरफ से महाभोज दिया जा रहा है, जिसमें बिहार के एनडीए के बड़े नेता शामिल हो रहे हैं.
बिहार में अभी बीजेपी के साथ जेडीयू, आरएलएसपी और रामविलास पासवान ही हैं. ये तीनों दल गाहे-बगाहे मोदी सरकार की आलोचना करते रहते हैं. रामविलास पासवान पाला बदलने में माहिर खिलाड़ी हैं. उपेंद्र कुशवाहा ने दिल्ली में लालू प्रसाद से मुलाकात की थी.जिसके कई मायने निकाले जा रहे हैं. दरअसल यूपी में एसपी-बीएसपी के एक साथ आ जाने से बीजेपी सकते में हैं. बीजेपी इस गठबंधन की भरपाई के लिए और राज्यों की तरफ निगाह कर रही है क्योंकि यूपी में अपना दल और ओम प्रकाश राजभर की पार्टी ही बीजेपी के साथ है. लेकिन राजभर के तेवर भी लगातार तल्ख हो रहे हैं.
महाराष्ट्र में गठबंधन की मज़बूती बीजेपी के लिए जरूरी है. शिवसेना महाराष्ट्र में और केंद्र में सरकार का हिस्सा है. लेकिन मोदी सरकार में उद्धव ठाकरे के तेवर कड़े हैं. उद्धव कई बार राहुल गांधी की भी तारीफ कर चुके हैं. बीजेपी शिवसेना ने 2014 में 42 सीटें जीती थीं. गठबंधन में दरार आने से ये सीटों का आंकड़ा काफी कम हो सकता है. ऐसे में जब कांग्रेस और एनसीपी एक साथ चुनाव लड़ने का मन बना रहे हैं, बीजेपी और शिवसेना का अलग होना राज्य में नुकसानदेह साबित होगा. हाल में ही हुए उपचुनाव में शिवसेना ने अलग चुनाव लड़कर ये दिखाया है कि बीजेपी से अलग होने की बात सिर्फ धमकी मात्र नहीं है. उद्धव ठाकरे की बीजेपी से नाराजगी की कई वजहें हैं. विधानसभा चुनाव में सीटों की तकरार के बाद बीजेपी अकेले चुनाव लड़ी. बीजेपी का ही मुख्यमंत्री पहली बार राज्य में बना, इससे पहले एनडीए का मुख्यमंत्री शिवसेना से ही बनता रहा है. लेकिन ये पंरपरा बीजेपी ने तोड़ दी थी. पर्दे के पीछे तमाम बातचीत के बाद शिवसेना सरकार में शामिल हो गई थी,लेकिन उद्धव ठाकरे को लग रहा है कि बीजेपी उसे वो सम्मान नहीं दे रही है. जो कभी बालासाहेब ठाकरे को अटल बिहारी वाजपेयी दिया करते थे.
अमित शाह का मकसद रूठे उद्धव ठाकरे को मनाना है. लेकिन ये इतना आसान नहीं है क्योंकि शिवसेना बीजेपी को नुकसान पहुंचाने के लिए मौके की तलाश में है. आंध्र प्रदेश के मुख्यमंत्री चंद्रबाबू नायडु का बीजेपी का साथ छोड़ना काफी बड़ा नुकसान है क्योंकि नायडु 1998 से बीजेपी के साथ थे. लेकिन अचानक बीजेपी से नाराज होकर अलग हो गए हैं.
हालांकि बीजेपी को लग रहा है कि तेलगुदेशम पार्टी के जाने की भरपाई वो जगन मोहन रेड्डी की पार्टी को साथ लेकर कर सकते हैं. लेकिन नायडु मंझे खिलाड़ी हैं. वो पुराने जनता दल के साथियों के साथ मिलकर बीजेपी के खिलाफ माहौल बनाने में लग गए हैं. बाकी साथी नायडु की राह पर ना चल दें ये बीजेपी अध्यक्ष के सामने बड़ी चुनौती है. इसलिए अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल के साथ बीजेपी अध्यक्ष की मुलाकात के कई मायने हैं. पंजाब में गठबंधन को मजबूत करने के अलावा प्रकाश सिंह बादल के चहेते ओम प्रकाश चौटाला पर भी डोरा डालने का मकसद है, जो किसी भी हाल में कांग्रेस के साथ नहीं जा सकते हैं. लेकिन फिलहाल संयुक्त विपक्ष के नाम पर कांग्रेस के साथ खड़े हो सकते हैं. अमित शाह की निगाह हरियाणा पर है. जहां खट्टर सरकार की साख गिर रही है. अभी कोशिश यही है कि गैर एनडीए दल कांग्रेस के साथ ना खड़े हो जाए.
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