चिंतित भाजपा ने राज्यो में नया नेत़त्व उभारने पर जोर दिया-आंखे खोलने वाली हार
हिमालयायूके न्यूज पोर्टल की एक्सक्लुसिव रिपोर्ट – # बीजेपी के लिए आंखे खोलने वाली हार #छह महीने पहले हुए लोकसभा चुनाव में बीजेपी को इन तीनों ही राज्यों में बड़ी जीत मिली थी। लेकिन विधानसभा चुनाव में आख़िर ऐसा क्या हो गया कि बीजेपी को लोकसभा चुनाव जैसा जनसमर्थन नहीं मिल सका। शायद लोगों ने अपनी नाराज़गी का संकेत दिया है। इसलिए इन तीनों राज्यों के परिणाम से पार्टी और मोदी सरकार को सचेत ज़रूर हो जाना चाहिए # राज्यों की चुनाव रणनीति बनानी होगी # सिलसिला इतनी आसानी से रुकने वाला नहीं है # बीजेपी के लिए अब राजनीतिक हालात आसान नहीं # झारखंड की राजनीति का बहुत हद तक प्रभाव बिहार में पड़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। और बिहार में चुनाव ज़्यादा दूर नहीं हैं।
भाजपा हाईकमान ने राज्यो को फ्री हैण्ड दिया, इसके बावजूद बीजेपी के गढ ढहते जा रहे हैं, इससे चिंतित भाजपा ने राज्यो में नया नेत़त्व उभारने पर जोर दिया है, वही यह भी तथ्य सामने आया कि मोदी के नाम पर कुर्सी पर बैठाये गये नेता सूबे में अपनी मजबूत छवि बनाने में कामयाब नही हो पाये हैं, जबकि पार्टी आलाकमान ने उन्हे पूरी तरह से मजबूत बनाकर शासन करने को दिया, फ्री हैण्ड दिया, और विरोधी धडे की आवाज को रत्तीभर तवज्जो नही दी, महाराष्ट में पूर्व मुख्यमंत्री देवेन्द्र फडणवीस, हरियाणा में मनोहर लाल और अब झारखण्ड में रघुबर दास ने पार्टी की साख को कमजोर किया और पार्टी के लिए मुसीबत बन गये, वही दिल्ली,बिहार, पश्चिम बंगाल में विधानसभा चुनाव होने है, तीनो राज्यो में पार्टी के पास कोई करिश्माई चेहरा नही है, वही 2022 में उ0प्र0 और उत्तराखण्ड में भी विधानसभा चुनाव प्रस्तावित है,सोशल मीडिया में इन दोनो राज्यो पर अभी से कठोर प्रतिक्रिया की हवा आ रही है, जो धीरेधीरे तूफानी रूख अख्तियार कर सकती है, अब राजनीति में सोशल इंजीनियरिंग पर ध्यान देना पड़ेगा। राजनीतिक मिट्टी फिसलन भरी है, यहां संभल कर चलना होता है। नही तो कुमार विश्वास की पंक्तिया सही चरितार्थ हो जायेगी, “सरयू” की धवल-धार में “रघुबर” डूब गए
Report by: CHANDRA SHEKHAR JOSHI- EDITOR #www.himalayauk.org (Uttrakhand Leading Newsportal & Print Media) Mail us; himalayauk@gmail.com Mob. 9412932030##
आने वाले जिन राज्यों में विधानसभा के चुनाव होने हैं, उन राज्यों में बीजेपी के लिए अब राजनीतिक हालात आसान नहीं रहेंगे। दो महीने के भीतर दिल्ली में विधानसभा के चुनाव होने हैं और निश्चित रूप से झारखंड की हार से बीजेपी पर एक मनोवैज्ञानिक दबाव ज़रूर बन गया है। राजनीति में मनोवैज्ञानिक दबाव से निपटना बेहद मुश्किल होता है और जिसने इस दबाव का सामना सफलतापूर्वक कर लिया, जीत उसके क़दम चूमती है।
झारखंड के इतिहास में पहली बार पूरे 5 साल स्थायी सरकार चलाने के बाद भी बीजेपी के रघुबर दास पार्टी को ले डूबे, लेकिन ये नतीजे ना तो बीजेपी के केन्द्रीय नेतृत्व के लिए चौंकाने वाले रहे होंगे और ना ही झारखंड बीजेपी के लिए, बल्कि प्रदेश में बीजेपी के बहुत से नेता तो शायद इन नतीजों का इंतज़ार कर रहे थे। साल 2014 के विधानसभा चुनावों के बाद बीजेपी केन्द्रीय नेतृत्व ने एक और प्रयोग महाराष्ट्र, हरियाणा और झारखंड में किया था कि वहाँ एक ख़ास वर्ग के मुख्यमंत्री बनाने के दबाव की राजनीति को बदलने की कोशिश। इसके लिए महाराष्ट्र में ग़ैर-मराठा देवेन्द्र फडनवीस को, हरियाणा में ग़ैर-जाट मनोहर लाल खट्टर को और झारखंड में ग़ैर-आदिवासी रघुबर दास को मुख्यमंत्री पद की कमान सौंपी।
तीनों राज्यों में पूरे 5 साल सरकार चली, लेकिन महाराष्ट्र और झारखंड में दोनों नेता अपनी सरकार फिर से नहीं ला पाए और हरियाणा में बड़ी मुश्किल से सरकार बनी। इस सोशल इंजीनियरिंग पर भी हो सकता है कि फिर से सोचना पड़े।
महाराष्ट्र में बीजेपी को पिछली बार अकेले लड़ने के बाद भी 122 सीटें मिली थीं, लेकिन इस बार मिलीं 105। महाराष्ट्र में वह बड़ी जीत मिलने के दावे कर रही थी लेकिन ऐसा नहीं हुआ। हरियाणा में उसका नारा था 75 प्लस लेकिन सीट मिलीं 40। जबकि लोकसभा चुनाव में उसने सभी 10 सीटें जीती थीं। इसी तरह झारखंड में भी उसने नारा दिया था 65 प्लस का। हालाँकि यह नारा सहयोगी दल ऑल झारखंड स्टूडेंट्स यूनियन (आजसू) के साथ लड़ने को लेकर था लेकिन फिर भी उसे सरकार बनाने के लिए ज़रूरी 41 सीटें जीतने की पूरी उम्मीद थी। लेकिन वह 25 सीटों पर आकर अटक गयी। जबकि झारखंड में भी वह लोकसभा चुनाव में 11 सीटें अपने दम पर जीती थी।
रघुबर दास का मुख्यमंत्री बनने के बाद का बर्ताव शंहशाह या तानाशाह जैसा रहा। उन्होंने किसी की परवाह नहीं की, ना तो पार्टी में अपने साथी नेताओं की और ना ही सहयोगी दलों की। बीजेपी के स्थानीय नेताओं की बात मानें तो इन चुनाव में हार की बड़ी वजह मुख्यमंत्री रघुबरदास की व्यक्तिगत छवि का ख़राब होना है। इसकी जानकारी कई बार केन्द्रीय नेतृत्व को भी दी गई। बीजेपी में घर में अंदरूनी नाराज़गी का नुक़सान यह हुआ कि जो अच्छे काम भी रघुबर दास की सरकार ने किए थे, उनको भी पार्टी ठीक से वोटर तक नहीं पहुँचा पाई। मुख्यमंत्री ने महिलाओं के लिए रजिस्ट्री पूरी तरह मुफ्त करने जैसे ऐतिहासिक निर्णय भी किए थे। प्रधानमंत्री की 9 और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की करीब एक दर्ज चुनावी रैलियाँ इस नाराज़गी़ को दूर नहीं कर पाईं। ना ही खुद रघुबर दास की 50 से ज़्यादा रैलियों का कोई पॉजिटिव असर वोटर पर पड़ा। पार्टी अपनी करीब पचास फ़ीसदी सीटें हार गई। खुद मुख्यमंत्री समेत कई मंत्रियों को हार का सामना करना पड़ा।
बीजेपी के हाथ से झारखंड भी निकल गया। झारखंड हारने के दुख ने महाराष्ट्र और हरियाणा से मिले ज़ख्मों को ताज़ा कर दिया है। महाराष्ट्र और हरियाणा में बीजेपी जिस जीत की उम्मीद लगाए बैठी थी, वह उसे नहीं मिली। इसके बाद उसने झारखंड में पूरी ताक़त झोंकी लेकिन यहाँ से भी उसे निराशा मिली है। कुल मिलाकर झारखंड की हार बीजेपी के लिए आंखे खोलने वाली है। यह हार बताती है कि राज्यों के चुनाव राष्ट्रीय मुद्दों पर नहीं लड़े जा सकते। यही बात महाराष्ट्र और हरियाणा के परिणाम से भी पता चलती है। विधानसभा चुनाव लड़े जाते हैं स्थानीय मुद्दे पर लेकिन मोदी-शाह ने मानो हर विधानसभा चुनाव को राष्ट्रीय मुद्दों पर लड़ने की ठान ली है। इसलिए बीजेपी नेतृत्व को इस हार को हल्के में न लेते हुए और अपनी ग़लतियों से सबक लेते हुए आने वाले राज्यों की चुनाव रणनीति बनानी होगी, वरना एक के बाद एक कई राज्यों में जिस तरह से जनसमर्थन घट रहा है और हार भी मिल रही है, उससे लगता है कि यह सिलसिला इतनी आसानी से रुकने वाला नहीं है।
महाराष्ट्र और हरियाणा के नतीजों ने विपक्षी दलों को संजीवनी दे दी थी। इन दलों के नेताओं को एक बात समझ में आ गई थी कि बीजेपी अजेय नहीं है और अगर मिलकर चुनाव लड़े तो बीजेपी को हराया जा सकता है। झारखंड में इस दिशा में काम शुरू हुआ और अंतत: झारखंड मुक्ति मोर्चा, कांग्रेस और राष्ट्रीय जनता दल ने गठबंधन कर लिया और परिणाम अब आपके सामने है।
दिल्ली में बीजेपी के विपक्षी दल आम आदमी पार्टी, कांग्रेस के कार्यकर्ता अब अप्रत्यक्ष रूप से यह प्रचारित करने की कोशिश करेंगे कि देखो, झारखंड की जनता ने बीजेपी को नकार दिया है और महाराष्ट्र और हरियाणा में भी जनता का अपेक्षित सहयोग उसे नहीं मिला है। ऐसे में बीजेपी के सामने इससे निपटना एक बड़ी चुनौती होगी।
दिल्ली के बाद बड़ी चुनौती है बिहार में। बिहार झारखंड से सटा हुआ राज्य है और सीधे बोलें कि झारखंड बिहार से ही निकला है। झारखंड में जिस राजनीतिक गठबंधन ने बीजेपी को मात दी है, उस गठबंधन में शामिल दो दलों – राष्ट्रीय जनता दल और कांग्रेस से बीजेपी को बिहार में लड़ाई लड़नी है। इसके अलावा उसकी सहयोगी जनता दल यूनाइटेड (जेडीयू) उसके ख़िलाफ़ झारखंड में ताल ठोक चुकी है। एनडीए की एक और सहयोगी लोक जनशक्ति पार्टी (एलजेपी) ने भी झारखंड में बीजेपी के ख़िलाफ़ चुनाव लड़ा। झारखंड की राजनीति का बहुत हद तक प्रभाव बिहार में पड़ने की संभावना से इनकार नहीं किया जा सकता। और बिहार में चुनाव ज़्यादा दूर नहीं हैं। बमुश्किल 11 महीने के अंदर सरकार बन जानी है। बिहार बीजेपी के अंदर कई नेता ऐसे हैं जिनकी जिद है कि राज्य में बीजेपी अपने दम पर चुनाव लड़े। हालाँकि अमित शाह ने साफ़ कर दिया है कि चुनाव नीतीश कुमार के नेतृत्व में ही लड़ा जाएगा। लेकिन नागरिकता संशोधन क़ानून, एनआरसी के मुद्दे पर बीजेपी की जेडीयू के साथ खटपट हुई है और ऐसे में जेडीयू के साथ उसके रिश्ते बहुत अच्छे नहीं हैं।