भाजपा को आभास- चुनाव जीतना असंभव;राजनाथ एकमात्र विकल्प
#हिमालयायूके न्यूज पोर्टल केे सर्वे रिपोर्ट को भाजपा केन्द्रीय हाईकमान ने भी स्वीकारा#भाजपा को आभास- यूपी में विजय सम्भव नही #एक्सक्लूसिव #-भाजपा/संघ-* राजनाथ सिंह के सामने नतमस्तक#यूपी जाकर कमान संभालो-#संघ राजनाथ सिंह को इस बात के लिए राजी कर रहा है कि बीजेपी चुनाव हारे या जीते वो केंद्र सरकार में गृहमंत्री बने रहेंगे # संघ/भाजपा को आभास- बीजेपी के सांसदों के प्रति जनता में बहुत ज्यादा नाराजगी #उत्तराखण्ड में तो हालात और भी खराब है* # राजनाथ सिंह यूपी की राजनीति के पुराने माहिर खिलाड़ी रहे हैं. राजनाथ सिंह जानते हैं कि 2014 के लोकसभा चुनाव में जो माहौल बीजेपी के लिए बना था वो अब नहीं है#राजनाथ सिंह के करीबी कहते हैं कि बीजेपी के सांसदों के प्रति जनता में बहुत ज्यादा नाराजगी है #जिस जातिगत ढांचे पर पार्टी को खड़ा किया गया है वो दूसरी पार्टियों के सामने टिक नहीं पाएगा#कई बड़े वरिष्ठ नेता भी पार्टी के कई फैसलों से नाराज हैं #ऐसे में चुनाव जीतना मुश्किल ही नहीं असंभव होगा#हिमालयायूके न्यूज पोर्टल लगातार लिख रहा है कि भाजपा यूपी की सत्ता से बहुत दूर- जबकि कांग्रेस सपा/बसपा के सहयोग से शामिल होने के कगार पर पहुंच चुकी है- -(www.himalayauk.org) Leading Digital Newsportal –
पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने एक बार फिर से राजनाथ सिंह का राग संघ के नेताओं के आगे अलापना शुरू कर दिया है. संघ के सह महासचिव दत्तात्रेय होसाबले के पास यूपी की कमान है. संघ की ओर से दत्तात्रेय होसाबले और सुरेश सोनी राजनाथ सिंह से बात करेंगे. संघ राजनाथ सिंह को इस बात के लिए राजी कर रहा है कि बीजेपी चुनाव हारे या जीते वो केंद्र सरकार में गृहमंत्री बने रहेंगे. राजनाथ सिंह के इशारे के बाद पार्टी यूपी पर फैसला लेगी और यूपी विधानसभा चुनाव की लड़ाई में सबसे आगे दिखने की कोशिश भी करेगी.
शीला दीक्षित को जब से कांग्रेस ने यूपी में मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है, पीएम नरेंद्र मोदी और बीजेपी अध्यक्ष अमित शाह की सारी चुनावी रणनीति पर पानी फिर गया है. यूपी चुनाव में समाजवादी पार्टी के चेहरे मुलायम सिंह यादव और मुख्यमंत्री अखिलेश यादव होंगे तो बहुजन समाज पार्टी सिर्फ मायावती के नाम पर चुनाव लड़ेगी तो कांग्रेस ने भी इस लड़ाई में अपनी भागेदारी दिखाने के लिए शीला दीक्षित को सीएम उम्मीदवार बनाकर बीजेपी को परेशानी में डाल दिया है. बीजेपी पीएम मोदी चेहरे के साथ यूपी के इस महासमर में जाना चाहती थी लेकिन अब मामला बदल रहा है. असल में बीजेपी के समस्या ये है कि यूपी में वैसे तो पार्टी के पास कई चहरे हैं जो मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार बनाए जा सकते है लेकिन मुलायम सिंह यादव और मायावती के चेहरे के सामने बहुत बौने लगते हैं. कांग्रेस ने भी एक बड़े चेहरे शीला दीक्षित को मैदान में उतारा है जो 15 साल दिल्ली की मुख्यमंत्री रही हैं और यूपी की कन्नौज से लोकसभा सांसद रहते हुए केंद्र सरकार में मंत्री भी रही हैं. बीजेपी के पास सिर्फ एक चेहरा है जो मुलायम सिंह यादव, मायावती और शीला दीक्षित जैसे बड़े चेहरों को टक्कर दे सकता हैं और वो हैं राजनाथ सिंह. लेकिन राजनाथ सिंह यूपी चुनाव में पार्टी का चेहरा बनने को तैयार नहीं हैं.
राजनाथ सिंह ने पीएम मोदी और अमित शाह को इलाहाबाद में कार्यकारणी की बैठक से पहले साफ कर दिया था कि वो चुनाव में पार्टी का चेहरा बनकर यूपी की राजनीति में वापस नहीं जाना चाहते है लेकिन शीला दीक्षित के आने से मुकाबला और भी ज्यादा कड़ा हो गया है इसलिए पीएम मोदी और अमित शाह चाहते हैं कि राजनाथ सिंह को यूपी की कैंपेन कमेटी का चेयरमैन बना दिया जाए. इन दोनों बड़े नेताओं को लगता है कि यूपी चुनाव में राजनाथ सिंह को चेहरा न बना कर सबसे बड़े नेता के तौर प्रोजेक्ट करने से पार्टी को फायदा मिलेगा.
राजनाथ सिंह के बारे में विस्तार से-
2014 में मोदी सरकार बनी तो राजनाथ नंबर 2 बन गए. पार्टी में वह खुद को किस विरासत का समझते हैं, इसे समझने के लिए बस उनकी सीट का चुनाव देख लीजिए. लखनऊ, जहां से अटल बिहारी वाजपेयी लोकसभा जाते थे. 2009 में यहां से लाल जी टंडन जीते थे. वह यूपी बीजेपी में राजनाथ के सीनियर थे. मगर 2014 तक आते आते टंडन की सियासी पूंजी खर्च हो चुकी थी. उन्हें आगे ध्यान रखा जाएगा का लॉलीपॉप थमा दिया गया. लाल जी बेटे अमित के सियासी करियर का ख्याल रख चुप रह गए. राजनाथ लखनऊ से चुनाव लड़े. शहर में उनके चेले किस्से सुनाते थे. कुछ इस तरह. बीजेपी को अपने दम पर बहुमत तो अटल जी के टैम भी न मिला था. इस बार कहां से मिलेगा. और मोदी जी के नाम पर दूसरे दलों के लोग बिदके रहेंगे. तब मोदी जी हो जाएंगे पीछे. करेंगे किसी और को आगे. और वो कौन होगा. आडवाणी खेमे का तो होने से रहा. अपने अध्यक्ष जी होंगे. वही बनेंगे पीएम. कुछ तुर्रेबाज इस पर एक भविष्यवाणी भी ले आए पत्रा के हवाले से. कि उनकी कुंडली में पीएम बनना लिखा है.
पार्टी राजनाथ सिंह को समझा रही है. 2017 का यूपी चुनाव आप भी निकाल सकते हैं. आपके कद का कोई नेता नहीं है. जाइए और 2002 का कौल अब 15 बरस बाद पूरा कर आइए. मगर राजनाथ हैं कि मान नहीं रहे. शायद उन्होंने हाथ की लकीरों में कुछ पढ़ लिया है.
1976. यूपी की एक जेल. इमरजेंसी का दौर. दो राजनीतिक कैदी. एक हाथ पसारे, दूसरा उस पर नजर टिकाए. टिकी नजर उठी. हाथ देखने वाला बुजुर्ग बोला. तुम एक दिन बहुत बड़े नेता बनोगे. हाथ जिस जवान का था. वो बोला. कितना बड़ा गुप्ता जी. बुजुर्ग ने कहा. यूपी के सीएम जितना बड़ा. नौजवान हंस दिया. 24 साल का था. उसकी पार्टी तीसरे चौथे नंबर पर रहती थी. ऐसे में सीएम बनना बहुत ज्यादा दूर की कौड़ी थी.
सच्चा किस्सा है. जो लखनऊ में सुनाया जाता था. 15 बरस पहले. नौजवान का नाम. राजनाथ सिंह. और वो बुजुर्ग थे, जनसंघी दौर के नेता रामप्रकाश गुप्त राम प्रकाश गुप्त इमरजेंसी के दौर में यूपी के सबड़े बड़े जनसंघी नेता थे. 1967 में जब यूपी में चौधरी चरण सिंह की सरकार बनी थी, तब वह डिप्टी सीएम थे. 1977 में जनता पार्टी के जीतने के बाद भी वह यूपी में काबीना मंत्री बने. 1989 में बीजेपी नए सिरे से मजबूत होकर उभरी. मगर अब तक पार्टी आलाकमान सोशल इंजीनयरिंग समझ चुका था. उसे पता था कि यूपी में उभरना है तो कमांडर किसी ओबीसी को बनाना होगा. राम प्रकाश गुप्ता पिछड़ गए इस दौड़ में. विजेता बने कल्याण सिंह. ओबीसी नेता. लोध जाति के. राम मंदिर आंदोलन के एक पोस्टर बॉय.
1991 में कल्याण सिंह की अगुवाई में बीजेपी की सरकार बनी. राजनाथ सिंह भी मंत्री बने. माध्यमिक शिक्षा के. उसके पहले राजनाथ संगठन की राजनीति कर रहे थे. युवा मोर्चा के राष्ट्रीय अध्यक्ष रहे थे. फिर विधान परिषद पहुंच गए थे. शुरुआत तो 77 में ही हो गई थी. जनता लहर में वह भी मिर्जापुर से विधायक बन गए थे. खैर, 91 में राजनाथ नकल अध्यादेश के चलते मशहूर हुए. इसमें नकलची विद्यार्थियों को एग्जाम हॉल से गिरफ्तार किया जाता था और जमानत कोर्ट से मिलती थी. पूरे प्रदेश में सनाका खिंच गया था. नकल का नामोनिशान नहीं. नतीजतन, पास का पर्सेंट बुरी तरह गिरा.
बाबरी मस्जिद गिराए जाने के बाद कल्याण सिंह ने 6 दिसंबर 1992 को इस्तीफा दे दिया. 1993 में यूपी में चुनाव हुए. सपा-बसपा गठबंधन ने बीजेपी को 213 के बहुमत आंकड़े से बहुत पीछे 177 पर रोक दिया. खुद राजनाथ सिंह भी लखनऊ के पास की महोना सीट से चुनाव हार गए. सब बोले कि राजनाथ को शिक्षकों और बच्चों की हाय लगी है.
मगर राजनाथ हाय के फेर में अटकने वालों में नहीं थे. दो साल में ही राज्यसभा सीट का बंदोबस्त कर लिया. संघ के दुलारे जो थे. और फिर पार्टी के प्रदेश अध्यक्ष बनकर लौटे. 1996 के चुनावों में किसी को बहुमत नहीं मिला. कुछ महीनों की सौदेबाजी के बाद बसपा-भाजपा सरकार बनी. छह-छह महीने मुख्यमंत्री वाला फॉर्मूला सामने आया. कुछ ही महीनों के बाद कल्याण सिंह की सरकार में राजनाथ के वफादार विधायक गदर काटने लगे. बयानबाजी शुरू हो गई. कल्याण सिंह अपनी ही सरकार में बेगाने होने लगे. संघ, संगठन, और आलाकमान उनकी शिकायतों पर ध्यान नहीं दे रहा था. लड़ाई कुछ ही बरसों में कल्याण सिंह बनाम अटल बिहारी वाजपेयी हो गई. 1999 के चुनाव में वाजपेयी को लखनऊ सीट से लोकसभा चुनाव जीतने के लिए डेरा डालना पड़ गया. लोग कहते हैं कि कल्याण सिंह कहते थे. अटल जी एमपी बनेंगे, तभी पीएम बनेंगे ना. अटल एमपी बने, पीएम भी. मगर कल्याण सिंह सीएम नहीं रहे. लोकसभा चुनाव में यूपी में हार का ठीकरा उनके सिर फूटा. पर पार्टी ने फौरन राजनाथ सिंह की ताजपोशी नहीं की. अटल ने बीच का रास्ता निकाला. और राम प्रकाश गुप्त को स्टोर रूम से झाड़ पोंछकर लाया गया.
सब चौंक गए. नई पीढ़ी ने उनका नाम तक नहीं सुना था. वह बीजेपी राज में एक राज्यमंत्री के समकक्ष पद पर आसीन हो रिटायरमेंट का सुख भोग रहे थे. जाहिर है कि नई राजनीति, नए विधायकों और नए संगठन पर उनकी कोई पकड़ नहीं थी. उन्होंने 11 महीने राज किया. और फिर उन्हें हटाकर राजनाथ सिंह को सीएम बना दिया गया.
24 साल बाद यूं भविष्यवाणी सच होगी, ये कोई शातिर स्क्रिप्ट राइटर भी नहीं सोच सकता था. मगर जो सब सोचा हो जाए तो फिर सच्चाई का मजा ही क्या.
राजनाथ सिंह मुख्यमंत्री रहे. खूब ऐलान किए. विपक्षी उन्हें घोषणा नाथ कहने लगे. इस दौरान उन्होंने अति पिछड़ों को आरक्षण में आरक्षण देने का सुरगा भी छोड़ा. उनके काबीना मंत्री और आजकल कैराना के सांसद हुकुम सिंह की सदारत में कमेटी बनी. उसकी रेकमंडेशन के आधार पर यह फैसला लिया गया. मगर कोर्ट में पेच फंस गया. राजनाथ सिंह ने अपने दौर में बड़े पैमाने पर ‘समूह ग’ की भर्तियां भी निकालीं. उसका भी आरक्षण सा हाल हुआ.
उनकी अगुवाई में 2002 में चुनाव हुए. बीजेपी बुरी तरह हारी. सैकड़ा तक भी नहीं पहुंच पाई. कुछ महीनों के बाद मजबूरन पार्टी को बीएसपी की मायावती को तीसरी बार मुख्यमंत्री बनाना पड़ा.
राजनाथ के सियासी कद पर इस हार से फर्क नहीं पड़ा. कुछ ही महीनों में अटल ने उन्हें अपनी कैबिनेट में ले लिया. कृषि मंत्री बना दिए गए राजनाथ. 2004 में अटल सरकार गई. आडवाणी की डिप्टी प्राइम मिनिस्टरी गई. और तब उन्होंने पार्टी का अध्यक्ष पद हथिया लिया. 2005 में आडवाणी पाकिस्तान गए. जिन्ना की तारीफ की वहां. यहां संघ के लोग नाराज हो गए. आडवाणी लौटे, इस्तीफा दिया और नए सिरे से पार्टी अध्यक्ष की तलाश शुरू हुई. और रुकी कहां. राजनाथ सिंह पर. संघ के दुलारे. सबको स्वीकार. 2009 तक अध्यक्ष रहे. दो टर्म. राष्ट्रीय नेता बन गए. 2009 में गाजियाबाद से चुनकर लोकसभा भी पहुंच गए. मगर पार्टी पीएम इन वेटिंग लाल कृष्ण आडवाणी के नाम से वेटिंग न हटा पाई. कांग्रेस ने 1991 के बाद पहली मर्तबा अपने दम 200 का आंकड़ा पार किया. आडवाणी दौर को रुखसत करने की जरूरत संघ को समझ आ गई. राजनाथ को भी विदा किया गया. संघ नागपुर के बालक नितिन गडकरी को राष्ट्रीय अध्यक्ष बना दिल्ली ले आई.
2013 में जब अगले लोकसभा चुनावों की हलचल जोरों पर थी. सब मान चुके थे कि संघ के आशीर्वाद से गडकरी दोबारा अध्यक्ष बन जाएंगे. मगर तभी एक स्कैंडल हवा में तैरने लगा. इल्जाम लगाए गए कि गडकरी जिस पूर्ति ग्रुप से जुड़े हैं, उसमें वित्तीय अनियमितताएं हैं. बाद में पार्टी की अंदरूनी जांच में वह बेदाग पाए गए. मगर तब तक अध्यक्षी जा चुकी थी. और एक बार फिर किसी और की बदकिस्मती पर सवार हो राजनाथ सिंह अध्यक्ष बन गए.