राज्यों में कमज़ोर होती जा रही है BJP
राज्य सरकारों में बीजेपी के लिए घटता समर्थन एक प्रकार से पार्टी के शीर्षस्थ नेतृत्व के लिये एक ख़तरे की घंटी के संकेत के रूप में होना चाहिए। जो असंतोष और ग़ुस्सा आज इनकी नीतियों को लेकर इनके राज्य के नेतृत्व के ख़िलाफ़ निर्देशित हो रहा है कल यह केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ भी एकजुट हो सकता है। अभी तक भाजपा नेतृत्व इस आसन्न संकट से अनजान अपने आप में मगन हैं। बीजेपी द्वारा संचालित राज्य सरकारों के प्रति मोहभंग को बढ़ा दिया है। Execlusive Report
अब विधानसभा के चुनावों से साफ़ है कि कम से कम राज्यों में बीजेपी कमज़ोर होती जा रही है। हरियाणा और महाराष्ट्र में बीजेपी की ‘कमज़ोर’ जीत का हर्ज़ाना अब उसे भुगतना पड़ रहा है। महाराष्ट्र में सरकार भी खो बैठी और तीस साल पुराना साथी भी। और देवेंद्र फडणवीस जिसे सब भारतीय राजनीति का सबसे चमकता सितारा मान बैठे थे उसकी बोलती बंद हो गयी। कर्नाटक में बीजेपी ख़ुद बहुमत नहीं ला पायी। मध्य प्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ के राज्य बीजेपी खो चुकी है। हरियाणा और महाराष्ट्र में भी उसकी हालत पतली रही। लिहाज़ा सहयोगी दलों में खलबली है। वे बीजेपी के इशारे पर तब तक नाचेंगे जब तक बीजेपी उन्हें जिताने में मददगार होगी, जब वह ऐसा करने में नाकाम होगी तो फिर सहयोगी दल भी विकल्प खोजने लगेंगे। झारखंड में यही हुआ। जनता दल युनाईटेड और अकाली भी जानते हैं कि यही वक़्त है जब बीजेपी को समझाया जा सकता है कि वे बीजेपी की दया पर राजनीति नहीं कर रहे हैं। उनका स्वतंत्र अस्तित्व है। और अगर उन्हें उचित सम्मान नहीं मिला तो मौक़ा मिलने पर नये रास्ते तलाश सकते हैं। बीजेपी को यह समझना होगा। पर क्या मोदी और शाह यह समझना चाहते हैं?
2014 में जब नरेंद्र मोदी ने केंद्र में बीजेपी को जीत दिलाई थी तो उस समय पार्टी के पास सिर्फ़ पांच प्रमुख राज्यों गुजरात, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, राजस्थान और हरियाणा में ख़ुद का पूर्ण बहुमत हासिल था। वह महाराष्ट्र के भीतर भी सत्ता में थी लेकिन शिवसेना के सहयोग के बल पर, और पंजाब में अकाली दल के नेतृत्व में उसकी भूमिका एक जूनियर पार्टनर से अधिक नहीं थी। लेकिन इसके बाद केंद्र सरकार की ताक़त और उसके द्वारा अथाह दौलत के सहारे एक प्रकार की ‘भगवा लहर’ को बढ़ावा दिया गया। नतीजे में इसे उत्तर प्रदेश, उत्तराखंड, हिमाचल प्रदेश और झारखंड में पूर्ण बहुमत से चुनाव जीतने में सफलता प्राप्त हुई।
बीजेपी ने 2019 के लोकसभा चुनावों में शानदार जीत दर्ज की, और इसके वोट शेयर और सीटों की संख्या में भी ज़बरदस्त बढ़ोत्तरी देखी गई। फिर भी, हर दूसरे राज्यों में यह हारती जा रही है। ऐसा कैसे हो रहा है? राज्य सरकारों के पास केंद्र सरकार की तुलना में चीज़ों को घुमाफिरा कर करने की गुंजाईश बेहद कम रहती है। काफ़ी हद तक उन्हें केंद्र सरकार से प्राप्त होने वाले फ़ंड पर निर्भर रहना पड़ता है, और बीजेपी शासन में यह और भी स्पष्ट तौर पर नज़र आता है। वे अधिकांश मुद्दे जो लोगों के दिन-प्रतिदिन के जीवन पर अपना सीधा प्रभाव डालते हैं, उन पर अब तक राज्य सरकारों द्वारा निर्णय लिया जाते रहे हैं, चाहे वह भूमि या क़ानून व्यवस्था का मामला हो, या स्कूली शिक्षा या प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा या श्रम सम्बन्धी मामले हों। यहां तक कि अब केंद्र सरकार की नीतियां आम जन के रोज़मर्रा के जीवन पर प्रभाव डालने की प्रत्यक्ष अभिव्यक्ति के रूप में सामने आ रही हैं, जिसकी अपेक्षा जनता राज्य सरकारों से करती है।
झारखंड में जहाँ अगले महीने चुनाव है, वहाँ भी एनडीए खंड-खंड हो गया। रामविलास पासवान की लोक जनशक्ति पार्टी ने बीजेपी से गठबंधन तोड़ने का एलान किया है और वह 81 में से 50 सीटों पर चुनाव लड़ेगी। लोक जनशक्ति पार्टी (लोजपा) के अध्यक्ष चिराग पासवान ने मंगलवार को ऐलान किया कि उनकी पार्टी झारखंड विधानसभा चुनाव में 50 सीटों पर अपने उम्मीदवार उतारेगी. झारखंड में 81 विधानसभा सीटों के लिए चुनाव 30 नवंबर से 20 दिसंबर के बीच पांच चरणों में होंगे. 23 दिसंबर को मतगणना होगी. पासवान ने कहा, ‘पार्टी की राज्य इकाई ने झारखंड विधानसभा चुनाव लड़ने का निर्णय किया है. तय किया गया है कि लोक जनशक्ति पार्टी 50 सीटों पर अपने बूते चुनाव लड़ेगी.’
उसी तरह ऑल झारखंड स्टूडेंट यूनियन ने कह दिया है कि वह बीजेपी से अलग चुनाव लड़ेगी। उसकी योजना 16 सीटों पर लड़ने की है। लोक जनशक्ति पार्टी की झारखंड में कोई ख़ास हैसियत नहीं है पर झारखंड स्टूडेंट यूनियन ने पिछली बार 5 सीटें जीती थीं और बीजेपी की रघुवर दास की सरकार में शामिल हुई थी। झारखंड में कोई भी पार्टी आज तक अपने बल पर बहुमत नहीं ला पायी है। सत्ता पक्ष और विपक्ष दोनों ही गठबंधन में लड़ते और साथ सरकार बनाते हैं। अब सवाल यह है कि अगर बीजेपी को हरियाणा और महाराष्ट्र में बंपर जीत मिली होती तो क्या बीजेपी के सहयोगी दल यह जुर्रत करते?
शिवसेना के टूटने के साथ ही जनता दल युनाईटेड और अकाली दल ने भी अँगड़ाई लेनी शुरू कर दी है। दोनों दलों को यह शिकायत है कि पुराने सहयोगी होने के बाद भी उनको वह सम्मान नहीं मिलता जिसके वे अधिकारी हैं या जो अटल-आडवाणी के समय में मिलता था। अकाली नेता नरेश गुजराल और जनता दल युनाईटेड के के. सी. त्यागी, दोनों ने ही ‘द इकोनॉमिक टाइम्स’ से बातचीत में कहा है कि एनडीए में कोई परस्पर बातचीत या सलाह-मशविरा नहीं होता। बीजेपी वही करती है जो उसे करना होता है। अकाली दल तब से बीजेपी के साथ है जब बहुत कम दल बीजेपी के साथ जुड़ना चाहते थे। जनता दल युनाईटेड का भी बीजेपी के साथ कम से कम ढाई दशक का रिश्ता है।
लोकसभा चुनाव के फ़ौरन बाद मोदी सरकार में जनता दल युनाईटेड के सिर्फ़ एक नेता को मंत्री बनाने का प्रस्ताव था जिसे नीतीश कुमार ने मना कर दिया। उन्होंने इतना अपमानित महसूस किया कि बिहार में मंत्रिमंडल गठन किया और बीजेपी को अतिरिक्त मंत्री पद देने से इनकार कर दिया। आगे चल कर अनुच्छेद 370 और तीन तलाक़ पर मोदी सरकार को समर्थन नहीं दिया। नीतीश कुमार के अटल-आडवाणी से बहुत अच्छे रिश्ते थे। नीतीश अटल की कैबिनेट में भी थे। 2005 में नीतीश का चेहरा आगे रख कर बीजेपी ने चुनाव भी लड़ा और लालू यादव के ‘जंगल राज’ का ख़ात्मा करने में मदद की। मोदी से उनकी कभी नहीं पटी। मोदी के प्रधानमंत्री पद के उम्मीदवार बनने की संभावना मात्र से वह एनडीए से अलग हो गये और आगे चल कर लालू यादव से गले मिल गये। हालाँकि, बाद में वह फिर बीजेपी के साथ हो लिये। नीतीश की चिंता और उद्धव ठाकरे की चिंता एक ही है। दोनों को लगता है कि मोदी और अमित शाह की जोड़ी दोनों को प्रदेश की राजनीति में पूरी तरह से ख़त्म कर देना चाहती है।
महाराष्ट्र में सरकार किसी की नहीं बनी है, लेकिन संकेत बीजेपी के लिए बहुत साफ़ हैं। न केवल विपक्ष के पैरों में थिरकन दिखाई देने लगी है, बल्कि उसके अपने सहयोगी, उसे आँख दिखाने लगे हैं। 24 अक्टूबर के पहले यही सहयोगी भीगी बिल्ली बने बैठे थे। और इस इंतज़ार में रहते थे कि कब मोदी और अमित शाह की नज़र उन पर पड़ जाए और वे अपने को उपकृत मानें। शिवसेना ने पहला वार किया। उसने 24 अक्टूबर के बाद बीजेपी की चकरघिन्नी बना दी है। उसने न केवल असंभव-सी शर्त सामने रखी बल्कि यह भी सुनिश्चित किया कि बीजेपी की सरकार न बन पाए। आज की तारीख़ में शिवसेना कांग्रेस और राष्ट्रवादी कांग्रेस के साथ सरकार बनाने जा रही है। यानी वह रिश्ता जो कभी अटल-आडवाणी के युग में अटूट लगता था वह मोदी-शाह के समय क्षणभंगुर साबित हो गया है। यह शिवसेना की जीत भले ही न हो, पर बीजेपी की हार ज़रूर है।
मात्र दो वर्षों के भीतर बीजेपी को पहले पहल मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़ और राजस्थान से राज-पाट गंवाना पड़ा और फिर उसके बाद उसे अपने सहयोगी अकाली दल के साथ पंजाब से बेदख़ल होना पड़ा। उत्तरपूर्व क्षेत्रों में इसे नए सिरे से सफलता प्राप्त हुई और त्रिपुरा में एक आदिवासी पार्टी के साथ गठबंधन कर, जिसका इतिहास अलगाववादी आंदोलन से जुड़ा रहा है, भारी सफलता हासिल की, और मेघालय और नागालैंड जैसे कुछ अन्य राज्यों में चुनावों के बाद नए गठजोड़ बनाकर, या विपक्ष में भितरघात के ज़रिये सफलता हासिल की। लेकिन यदि आप नक़्शे में 2019 पर नज़र डालें तो बीजेपी की गिरावट बेहद मायनेखेज़ है। स्पष्ट है कि पूरी तरह से पैरों तले ज़मीन खिसक रही है।
भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) और शिवसेना के बीच महाराष्ट्र में 35 वर्षों से चली आ रही दोस्ती में गतिरोध की वजह सिर्फ़ बेलगाम होती महत्वाकांक्षा और सत्ता की हनक ही नहीं है। यह संकट एक के बाद एक हर दूसरे राज्य में भाजपा के लगातार और न रुकने वाले समर्थन आधार में होने वाली गिरावट से उपजा है। जैसा की नीचे दिए गए तीन नक़्शों से प्रतीत होता है कि 2017 में अपने चरम बिंदु पर पहुंचने के बाद, राज्य सरकारों की सत्ता पर भाजपा की पकड़ उल्लेखनीय रूप से कमज़ोर हुई है। महाराष्ट्र में चुनाव पूर्व गठबंधन होने और हालिया विधानसभा चुनावों में स्पष्ट बहुमत हासिल करने के बावजूद, हालात 2014 की तुलना में बदतर हैं। बीजेपी की पतली हालत को देखते हुए शिवसेना अपने पूरे शबाब में है
हरियाणा में बीजेपी पहले ही अपना बहुमत गँवा चुकी है और राज्य में सत्ता में बने रहने के लिए उसे एक नौसिखिये जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के साथ खुद को जोड़ने पर मजबूर होना पड़ा है, जो दिखाता है कि बीजेपी के सितारे गर्दिश में हैं। कई अन्य राज्यों में यह सत्ता की ताक़त ही है जिसके बल पर वह दलबदल कराकर या अपने सहयोगी दलों को पीछे छोड़, दूसरे अन्य विजयी दलों के साथ जोड़-तोड़ कर किसी भी प्रकार सत्ता में बने रहने में सफलता प्राप्त कर रही है।