काले धन से लड़ने की कोशिश करने की कवायद बेकार ;सुप्रीम कोर्ट
शीतल पी. सिंह लिखते है कि
नैतिक आभा खो जाती है जब उसके अटॉर्नी जनरल श्री के. के. वेणुगोपाल ने सुप्रीम कोर्ट में सरकार के बचाव में कहा ‘वोटर को यह जानने की कोई ज़रूरत नहीं कि राजनैतिक दल चुनाव में जो पैसा खर्च करते हैं उसे लाते कहाँ से हैं।’
अटॉर्नी जनरल की दलीलों पर जस्टिस दीपक गुप्ता ने टिप्पणी की कि यह प्रणाली अपारदर्शी है। इसके परिणामस्वरूप काले धन को सफेद में परिवर्तित किया जा सकता है। इसके अलावा लोकतंत्र में मतदाता को यह जानने का अधिकार है कि राजनीतिक दलों द्वारा किससे दान प्राप्त किया जा रहा है लेकिन “आप इसे रोक रहे हैं।”
जस्टिस गुप्ता की टिप्पणी पर अटॉर्नी जनरल ने बड़ी अजीब दलील दी कि “मतदाताओं को दान के बारे में जानने का अधिकार नहीं है। उन्हें केवल उम्मीदवारों के बारे में पता होना चाहिए। मतदाताओं को यह जानने की जरूरत नहीं है कि राजनीतिक दलों का पैसा कहां से आता है।”
चीफ जस्टिस ने भी अटॉर्नी जनरल से सवाल पूछा, “हम जानना चाहते हैं कि जब बैंक X या Y द्वारा आवेदन पर चुनावी बॉन्ड जारी करता है, तो क्या बैंक के पास यह विवरण होगा कि कौन सा बॉन्ड X को जारी किया गया है और कौन सा Y को?” उन्होंने आगे कहा, “यदि ऐसा है तो काले धन से लड़ने की कोशिश करने की आपकी पूरी कवायद बेकार हो जाती है।”
सुप्रीम कोर्ट ने सभी राजनीतिक दलों को 30 मई तक इलेक्टोरल यानी चुनावी बॉन्ड का विवरण चुनाव आयोग को सौंपने का आदेश दिया है। बीजेपी समेत कई दलों ने इस फैसले पर चुप्पी साध ली है, हालांकि वामपंथी दलों समेत कुछ अन्य पार्टियों ने सुप्रीम कोर्ट के इस फैसले का स्वागत किया है। सुप्रीम कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई, जस्टिस दीपक गुप्ता और जस्टिस संजीव खन्ना की पीठ ने ये फैसला सुनाया। इस सिलसिले में केंद्र सरकार की ओर से अटॉर्नी जनरल के. के. वेणुगोपाल, चुनाव आयोग की ओर से वरिष्ठ वकील राकेश द्विवेदी और एसोसिएशन ऑफ डेमोक्रेटिक रिफॉर्म्स (ADR) की ओर से वरिष्ठ वकील प्रशांत भूषण पेश हुए। सभी की दलीलों को सुनने के बाद पीठ ने गुरुवार को अपना फैसला सुरक्षित रख लिय़ा था।
सुप्रीम कोर्ट में मौजूद हर इंसान सरकार का यह बयान सुन कर सन्न था। समझ से परे था कि कोई लोकतांत्रिक सरकार ऐसा दृष्टिकोण न सिर्फ रख सकती है, बल्कि उसको दलील के तौर पर सुप्रीम कोर्ट तक में पेश कर सकती है ! इस मामले के याचिकाकर्ता और एडीआर नामक स्वयंसेवी संगठन के फाउंडर मेंबर जगदीश चोकर ने कहा कि श्री वेणुगोपाल ने इसे दो बार दोहराया।
इसी सरकार का ऐसा ही अस्वाभाविक अलोकतांत्रिक बयान उस समय भी सामने आया था जब आधार प्रकरण पर सुप्रीम कोर्ट में बहस चल रही थी। सरकारी वकील ने कहा था कि आम लोगों को अपने शरीर पर भी कोई अधिकार तब नहीं है जब सरकार को उसकी जरूरत हो!
इस सरकार के हर नेता का ज़ोर शोर से दावा है कि मोदी सरकार देश की अब तक कि सबसे पारदर्शी सरकार है, लेकिन सरकार में शामिल और सरकार से बाहर आते लोग और फ़ैसले की दूसरी तसवीर पेश करते हैं ।
यह सरकार और इस दल की पूर्ववर्ती सरकारें और राज्य सरकारें ऐसे क़ानूनों को बनाने के लिए कुख्यात रही हैं, जिन्हें बाद में काला क़ानून कहा गया था। उन्होंने यूपीए सरकार के ज़माने में बनाये गए आरटीआई क़ानून को भी कमज़ोर करने के सारे प्रयास किये।आज तक देश के प्रधानमंत्री की शैक्षणिक योग्यता के घोषित दावों की जाँच नहीं की जा सकी है, जबकि दो-दो मुख्य सूचना आयुक्त बदले जा चुके हैं। सरकार ने लोकपाल के मामले को पूरे पांच साल लटकाए रखा और आम चुनाव घोषित होने के बाद ही नियुक्ति की। इसी सरकार के समय में सुप्रीम कोर्ट के चार सबसे वरिष्ठ जजों ने खुली प्रेस कॉन्फ्रेंस की और कहा कि लोकतंत्र ख़तरे में है ।
दरअसल बीते पाँच बरसों में मोदी सरकार ने जिस तरह से सरकार चलाई है उसने देश की स्वायत्त संस्थाओं की स्वायत्तता ख़तरे में डाल दी है । सबसे ताज़ा मामला चुनाव आयोग का है जिसके रवैये के बारे में रिटायर्ड प्रशासनिक सेवाओं के अफसरों के बहुत बड़े समूह ने गंभीर आरोपों का पत्र सार्वजनिक किया है।
इस दौरान हुए बहुत सारे फैसले अब सुप्रीम कोर्ट की स्क्रूटिनी में जा पहुँचे हैं । हालांकि मौजूदा सुप्रीम कोर्ट के रवैये से बहुत आशा बांधना भविष्य में भूल साबित हो सकता है, फिर भी रफ़ाल और इलेक्टोरल बॉन्ड के मामलों में उन्होंने लोगों को चौंकाया है और सरकार को कठिनाई में डाला है। सरकार ने अपने अलोकतांत्रिक आचरण को देशभक्ति का चोला डाल कर ढँकने की कोशिश की है।
कई लोगों को तो 130 करोड़ से ज़्यादा आबादी वाले देश के प्रधानमंत्री से निज़ी मुलाकात और सेल्फी खिंचवाने का गौरव प्राप्त है। यही गिरोह इस देश के अजीबोग़रीब बन चुके मीडिया के साथ बहुमत आबादी और उसके सामाजिक सांस्कृतिक राजनैतिक प्रतिनिधियों को देशद्रोही साबित करने के आपराधिक कारनामे को चौबीसों पहर प्रचारित करते रहते हैं।
2017 के बजट सत्र में फाइनेंस बिल में इलेक्टोरल बॉन्ड्स पेश किया गया था। इस पर कोई ब्याज नहीं लगना था।
एडीआर ने इस फ़ैसले को सुप्रीम कोर्ट में चुनौती देते हुए कहा था कि यह एक ऐसा मुक्ति द्वार है जिसके ज़रिये राजनैतिक दल और कॉरपोरेट जगत अपने काले धन के देश विदेश से राजनीति को प्रभावित करने में मनमाना स्तेमाल करेंगे।
सरकार का दावा था कि यह बॉन्ड चुनाव में काले धन को रोकेगा और चुनाव को पारदर्शी बनाएगा। साथ ही यह दानदाताओं की किसी तरह के प्रताड़ण से निजात दिलाने में मदद करेगा। इस धन को इनकम टैक्स फ्री भी रखा गया
चुनाव आयोग ने सुप्रीम कोर्ट में दायर अपने जवाब में इस बॉड सिस्टम पर आपत्ति जताई। अपने एफ़ीडेविट में आयोग ने कहा कि उसने अप्रैल 2017 में क़ानून मंत्रालय को पत्र लिख कर आपत्ति जताई थी कि इस बॉन्ड से चुनावों में खर्च होने वाले धन के बारे में पारदर्शिता ख़त्म हो जाएगी। मज़ेदार बात यह है कि देशभक्ति बेचने वाले गिरोह के कारकुन या तो इस सत्य से अनभिज्ञ हैं या जानबूझकर इसकी अनदेखी करते हैं।
फिलहाल सरकारी जवाब से असन्तुष्ट कोर्ट ने बंद लिफ़ाफ़े में अब तक मिले चंदे के दानदाताओं के विवरण 30 मई तक चुनाव आयोग में जमा करने के आदेश दिए हैं। सीलबंद लिफाफों की अलग कथाएँ हैं। अभी मोदी सरकार द्वारा एक लाख पंद्रह हजार करोड़ के अमीरों के कर्ज़माफ़ करने वाले लिफ़ाफ़े भी बंद पड़े हैं, रफ़ाल वाले लिफ़ाफ़े तो बंद पड़े रहे पर खबरें खुल ही गयीं। अब फिर से सुनी जाने का फ़ैसला आ चुका है।
अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति थिओडोर रूज़वेल्ट ने कहा था, ‘देशभक्ति का मतलब राष्ट्रपति के साथ खड़े होना नहीं होता देश के साथ खड़े होना होता है!’ ऐसा कहने वाले नेता फ़िलहाल इस देश के अगुआ नहीं हैं, इसीलिए हम ऐसे सवालों से जूझ रहे हैं जिन्हें दुनिया हल कर चुकी है।
वही दूसरी ओर सिद्धार्थ भाटिया लिखते है कि शाह पार्टी में सबसे ताकतवर व्यक्ति बन गए
मोदी के बाद सिर्फ शाह का ही सिक्का चलेगा.
लोकसभा चुनाव शुरू होने से कुछ रोज़ पहले 7 अप्रैल को भारतीय जनता पार्टी के चुनावी अभियान के लिए एक गाना रिलीज़ हुआ- जहां पार्टी ने इसके पुराने नारे को ही दोहराया है, ‘फिर एक बार, मोदी सरकार. इस गाने के साथ 3 मिनट 24 सेकेंड का एक वीडियो भी है, जिसमें केवल पार्टी के दो नेताओं के चेहरे नज़र आते हैं- नरेंद्र मोदी और अमित शाह
नरेंद्र मोदी और अमित शाह एक परफेक्ट टीम माने जाते हैं. मोदी भाजपा का चेहरा हैं. वे न सिर्फ अपने मूल समर्थकों- जो उनके प्रति इतनी श्रद्धा रखते हैं कि उनका सामूहिक नाम ही भक्त पड़ गया है- को अपील करते हैं, बल्कि और भी कई लोग, जिनमें शहरी पेशेवर लोगों से लेकर पहली बार के मतदाताओं तक शामिल हैं, को उनका संदेश प्रेरणादायक लगता है.
दूसरी तरफ शाह एक उस्ताद रणनीतिकार हैं, जो गठबंधन करते हैं, उम्मीदवारों को चुनते हैं. वे न सिर्फ बड़े फलक को नहीं देखते हैं, बल्कि छोटे-छोटे ब्यौरों का भी खयाल रखते हैं.
अपने नेता का दाहिना हाथ होने के साथ-साथ अपनी पार्टी के निर्विवाद नेता के तौर पर शाह एक ऐसी रश्क करने वाली कुर्सी पर हैं, जहां हर कोई उनका मातहत है, जो विद्रोहियों को काबू में रखते हैं और सिर्फ एक मकसद के लिए काम करते हैं- कि उनके सुपर बॉस की अपराजेय बरकरार रहे. निश्चित ही उनके लिए पार्टी महत्वपूर्ण है और विचारधारा भी, लेकिन आखिरकार शाह ‘साहेब’ की ही सेवा करते हैं.
इस व्यवस्था का अहम पहलू यह है कि दोनों में से एक व्यक्ति सुर्खियां बटोरता है, जबकि उसके बगल में खड़ा दूसरा व्यक्ति खुद को ज्यादा आगे नहीं करता. दोनों एक जैसी दमक से चमकनेवाला सितारा नहीं हो सकते.
हालांकि, शाह अक्सर मंचों पर मोदी के साथ दिखाई देते हैं, लेकिन आकर्षण का केंद्र मोदी ही हैं: उनके भाषणों को सुनने के लिए जनता आती है, उनके नाम पर ही वोट मिलते हैं. शाह जीत के सूत्रधार हो सकते हैं, लेकिन उनकी भूमिका मुख्य तौर पर परदे के पीछे रहकर काम करने वाली की है.
लेकिन इस व्यवस्था में बदलाव आता दिख रहा है. बीते काफी समय से शाह देशभर में एक जाना-पहचाना नाम बन गए हैं. सिर्फ गठबंधन करनेवाले के तौर पर नहीं- जैसा उन्होंने अन्य जगहों के अलावा बिहार और महाराष्ट्र में किया- बल्कि वे देशभर में चुनावी भाषण और इंटरव्यू भी दे रहे हैं. धीरे-धीरे उनका कद बढ़ रहा है, जहां वे किसी के बगल में नहीं, अकेले हैं.
किसी चुनाव के लिए पर्चा भरना अपनी ताकत दिखाने का एक अच्छा मौका होता है, खासकर हाई-प्रोफाइल उम्मीदवारों के लिए. पार्टी के कार्यकर्ता और स्थानीय नेता उम्मीदवार के साथ समर्थन दिखाने के लिए और साथ में फोटो खिंचवाने के लिए जाते हैं.
पिछले सप्ताह लोकसभा चुनावों के लिए पहली बार पर्चा भरते समय लगे जमावड़े में शाह के साथ सिर्फ उनकी ही पार्टी के बड़े नाम- राजनाथ सिंह, नितिन गडकरी और अरुण जेटली- नहीं थे, बल्कि रामविलास पासवान, प्रकाश सिंह बादल और सबसे अहम उद्धव ठाकरे भी थे, जो कुछ दिन पहले तक भाजपा के कटु आलोचक बने हुए थे.
नामांकन कार्यालय तक जाने के लिए शाह ने 4 किलोमीटर लंबा रोड शो किया. उनके साथ खुली कार में राजनाथ सिंह और पीयूष गोयल सवार थे
इस दृश्य के संदेश पर ध्यान दिया जाना चाहिए. शाह सिर्फ अपनी पार्टी और गठबंधन सहयोगियों के बीच ही अपनी पकड़ का प्रदर्शन नहीं कर रहे थे, बल्कि इस शक्ति प्रदर्शन के द्वारा वे यह संदेश भी देना चाहते थे कि अब वे उस गांधीनगर से पार्टी के उम्मीदवार हैं जिसका प्रतिनिधित्व लंबे समय तक लालकृष्ण आडवाणी ने किया, जो 1990 के दशक में जो अटल बिहारी वाजपेयी के बाद पार्टी के दूसरे सबसे बड़े नेता थे और जिनके नेतृत्व में पार्टी ने 2009 का चुनाव लड़ा था. हालांकि वे हार गए, लेकिन अगर भाजपा जीतती, तो वे ही प्रधानमंत्री बनते.
इन्हीं आडवाणी को शाह ने बाहर का रास्ता दिखाया और इस तरह से एक ऐसे व्यक्ति के राजनीतिक करिअर और उम्मीदों का अंत कर दिया, जो 1980 के दशक में भाजपा के संस्थापकों में से रहे और जिन्हें भाजपा को एक राजनीतिक ताकत के तौर पर स्थापित करने का श्रेय दिया जाता है.
ये आडवाणी ही थे, जिन्होंने उस वक्त मोदी की रक्षा की थी, जब दूसरे लोग उनके खिलाफ थे. आज उन्हीं आडवाणी को मोदी के सबसे करीबी के हाथों अपमान का सामना करना पड़ा है. इसका प्रतीकात्मक महत्व बिल्कुल साफ है.
शाह ने मीडिया में भी अपना कद काफी बड़ा कर लिया है. पिछले दिनों शाह इंडिया टीवी के आप की अदालत कार्यक्रम में थे, जहां उन्हें मोदी सरकार की कामयाबियों पर बात करने के लिए और कांग्रेस और नेहरू-गांधी परिवार की कटु आलोचना करने के लिए एक घंटे का वक्त मिला.
तब से उन्होंने नेटवर्क 18 को एक और इंटरव्यू दिया , जो मुकेश अंबानी के स्वामित्व वाली कंपनी है, जिसके तले अंग्रेजी और हिंदी चैनल के साथ-साथ कई क्षेत्रीय चैनल भी हैं. इसमें कोई शक नहीं होना चाहिए कि उनके ऐसे और कई इंटरव्यू आने वाले हैं.
भाजपा के किसी और नेता को इतनी तवज्जो नहीं मिल रही है. अरुण जेटली जिन्हें 2014 के बाद के भाजपा की जीत का तीसरा महत्वपूर्ण स्तंभ माना जाता था, वे अखबारों को इंटरव्यू दे रहे हैं, ब्लॉग लिख रहे हैं, लेकिन वे मोर्चे पर नहीं दिख रहे हैं.
सुषमा स्वराज ने स्वेच्छा से खुद को चुनावी राजनीति से दूर कर लिया है और नितिन गडकरी जब सार्वजनिक तौर पर दिखाई देते हैं, तब मोदी के प्रति अपनी पूर्ण निष्ठा की घोषणा करते हैं. उनके भाजपा को पूर्ण बहुमत न मिलने की स्थिति में मोदी के ‘स्वीकार्य’ विकल्प होने के क्षणिक विचार को कब का भुला दिया गया है.
एक समय तो ‘योगी’ आदित्यनाथ को भी मोदी के संभावित उत्तराधिकारी के तौर पर देखा जा रहा था. ऐसा माना जाता था कि अपने नफरत से भरे हुए भाषणों और सांप्रदायिक राजनीति के चलते वे संघ के अनुयायियों और नेतृत्व को काफी अपील करते हैं, लेकिन योगी की यह उड़ान औंधे मुंह जमीन पर आ गिरी.
इसमें न सिर्फ उनके स्पष्ट अल्पसंख्यक विरोधी नीतियों का हाथ रहा है, बल्कि प्रशासन के मामले में उनकी जबरदस्त अयोग्यता भी इसके लिए उत्तरदायी है.
शाह अब तक मोदी के विकल्प नहीं हैं- बल्कि ऐसा होने से वे बहुत दूर हैं. सच्चाई यह है कि शाह मोदी का बनाया हुआ शाहकार हैं, क्योंकि उन्होंने ही प्रधानमंत्री बनने के महज एक महीने के बाद जुलाई, 2014 में उन्हें भाजपा का अध्यक्ष चुना था.
इसके साथ ही शाह पार्टी में सबसे ताकतवर व्यक्ति बन गए. एक ऐसे व्यक्ति के लिए जो कभी हत्या, अपहरण, जबरन वसूली का आरोपी था और जिसे 2010 में, जब वे जमानत पर चल रहे थे, गुजरात से तड़ीपार कर दिया गया था, यह यात्रा आश्चर्यचकित करने वाली है.
शाह का राजनीतिक अस्तित्व भी नरेंद्र मोदी के कारण है
शाह को मिला पद ही नहीं, बल्कि उनका राजनीतिक अस्तित्व भी नरेंद्र मोदी के कारण है. शाह अपने इर्द-गिर्द उस तरह से अनुयायियों का कोई संप्रदाय भी खड़ा नहीं कर सकते हैं, जिस तरह से मोदी ने किया है- जिनकी न केतस्वीर सरकार के हर विज्ञापन, उत्पाद और फ्लाइट टिकटों पर है, बल्कि उनके नाम से एक टीवी चैनल भी चल रहा है.
लेकिन, शाह इसे अपने रास्ते में नहीं आने दे रहे हैं- उनकी योजनाएं दूरगामी हैं. सालों तक परदे के पीछे रहने के बाद शाह अब मंच पर कदम रख रहे हैं. चुनाव में जीत के साथ वे लोकसभा की अगली कतार में होंगे. उन्हें मंत्री पद भी मिल सकता है.
पुराने सांसदों को बाहर का रास्ता दिखाकर नए चेहरों को चुनाव के मैदान में उतारने की उनकी रणनीति उनके वफादार समर्थकों की एक सेना तैयार करेगी, जो अपने राजनीतिक करिअर के लिए उनके प्रति एहसानमंद होंगे. आगे बढ़कर गठबंधन सहयोगियों की तरफ मित्रता का हाथ बढ़ाना सहयोगियों के एक बड़े नेटवर्क को तैयार करेगा. वे एक बेहद ताकतवर व्यक्ति बन जाएंगे.
भाजपा इस चुनाव में अच्छा प्रदर्शन करे या खराब, शाह पार्टी के भीतर एक अहम ताकत होंगे. अगर पार्टी अपने दम पर बहुमत हासिल कर लेती है, तो गठबंधन बनाने के कारण इसका श्रेय उन्हें भी दिया जाएगा.
अगर ऐसा नहीं होता, तो नए सहयोगियों को तलाशने का जिम्मा उन पर ही आएगा. नैया पार लगाने के लिए मोदी उन पर निर्भर करेंगे. पार्टी के दूसरे चेहरों के डूबने और किसी अन्य विश्वसनीय और वरिष्ठ नेता की गैर-मौजूदगी में पार्टी में मोदी के बाद सिर्फ शाह का ही सिक्का चलेगा.