ग्रहण कभी भयानक दोष लेकर आ जाते हैं

ग्रहण कभी भयानक दोष लेकर आ जाते हैं #काल सर्प योग की अशुभता को बढ़ा देता है ग्रहण योग #हिमालय गौरव उत्तराखण्ड ब्यूरोः वेब एण्ड प्रिन्ट मीडिया – www.himalayauk.org (HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND) 

सूर्य ग्रहण हो या चंद्र ग्रहण; दोनों का प्रभाव हर व्‍यक्ति पर उसकी राशि, जन्‍मतिथि, जन्‍मकुंडली के अनुसार अलग-अलग पड़ता है। कई बार लोगों के ग्रहों की दशा के आधार पर उन्‍हें सूर्य या चंद्र ग्रहण का दोष लगता है। प्राचीन काल से ही ग्रहण को शुभ घड़ी माना जाता है और लोगों के जीवन पर इसका मंगल प्रभाव पड़ने की कामना की जाती रही है। लेकिन कई बार ये ग्रहण, व्‍यक्ति के जीवन में भयानक दोष लेकर आ जाते हैं।

साल का पहला ग्रहण 31 जनवरी, बुधवार को है। ग्रहण शाम 5 बजे से रात 9 बजे के बीच रहेगा। इससे पहले शास्त्रों में बताए गए उपाय कर लेंगे तो आपकी परेशानियां दूर हो सकती हैं। जिन लोगों को किस्मत का साथ नहीं मिल रहा है, उन्हें ग्रहण वाले दिन विशेष उपाय करने से लाभ मिलने की संभावनाएं बढ़ सकती हैं। ज्योतिष के अनुसार ग्रहण का दिन उपाय करने के लिए बहुत श्रेष्ठ माना जाता है। इस दिन किए गए उपाय जल्दी शुभ फल प्रदान करते हैं। जिन लोगों की कुंडली में दोष होते हैं, उन्हें ग्रहण के दिन विशेष उपाय जरूर करना चाहिए।

“ॐ श्रां श्रीं श्रौं स: चंद्रमसे नम:” अथवा “ॐ सों सोमाय नम:” का जाप करना अच्छे परिणाम देता है। ये वैदिक मंत्र हैं, इस मंत्र का जाप जितनी श्रद्धा से किया जाएगा यह उतना ही फलदायक होगा।

कुण्डली में ग्रहण दोष बनता कैसे है।  किसी भी व्यक्ति की जन्मकुण्डली में किसी भी भाव में जब  आत्मा कारक सूर्य या मन के कारक चंद्रमा के साथ राहू और केतु में से कोई भी एक ग्रह उपस्थित होता है तो  सूर्य ग्रहण और चन्द्र ग्रहण योग बनता है। इसके इलावा यदि जन्म कुण्डली के लग्न भाव में राहू आ जाये तो भी ग्रहण योग बनता है अर्थात सूर्य, कुण्डली के किसी भी अन्य भाव में  बैठा हो तो भी शुभ फल की प्राप्ति नहीं हो पाती। 

ज्योतिष का एक नियम है यदि किसी ग्रह के सामने उसका शत्रु ग्रह बैठ जाये तो वह ग्रह फ़लहीन हो जाता है । याने कि ना ही उसका शुभ फ़ल मिल पाता है और ना ही बुरा फ़ल। जैसे कई बार देखा जाता है कि किसी व्यक्ति की कुण्डली में राजयोग नजर नहीं आता परन्तु कुंडली में राजयोग उपस्थित होता है। 

ज्योतिष्य योग और ज्योतिष्य दोष ये दोनों अलग अलग प्रकार की ग्रहों की स्थितिया है जो आपस में उनके कुंडली में मिलने से उनके संयोग बनती है, जिसे हम ज्योतिष्य भाषा में ग्रहों की युति कह कर सम्बोधित करते है। जो कई प्रकार के शुभ और अशुभ योगो का निर्माण करती है। उन शुभ योगो में कुछ राजयोग होते है। हर व्यक्ति अपनी कुंडली में राजयोग को खोजना चाहता है जोकि ग्रहो के संयोग से बनने वाली एक सुखद अवस्था है। जिनकी कुंडली में यह सुन्दर राजयोग होते है वह अपनी ज़िंदगी अच्छी प्रकार से व्यतीत कर पाने में समर्थ होते है। लेकिन इसके विपरीत कुछ जातक ऐसे भी होते है जिनकी कुंडली में ग्रह कुछ दुषयोगो का निर्माण करते है। जिनका जातक को यथा सम्भव उपाय करवा लेना चाहिये। ज्योतिष शास्त्रों ने चंद्रमा को चौथे घर का कारक माना है. यह कर्क राशी का स्वामी है. चन्द्र ग्रह से वाहन का सुख सम्पति का सुख विशेष रूप से माता और दादी का सुख और घर का रूपया पैसा और मकान आदि सुख देखा जाता है.

ग्रहण से पहले खाने-पीने की जिन चीजों में कुश या तुलसी की पत्तियां डाल दी जाती हैं, वे चीजें ग्रहण के कारण दूषित नहीं होती। ग्रहण के समय अगर घर में पका हुआ खाना रखना है तो ग्रहण समाप्ति के बाद ये खाना गाय या कुत्ते को खिलाना चाहिए। अपने लिए ताजा खाना बनाना श्रेष्ठ रहता है।
आम दिनों की अपेक्षा चंद्र ग्रहण के समय किया गया पुण्यकर्म (जाप, ध्यान, तीर्थ स्नान और दान) कई गुणा ज्यादा फल प्रदान करता है। इस दिन ये चारों काम अवश्य करें।

 यदि यदि जन्म कुण्डली में सूर्य और शनि आमने सामने हो और लग्न भाव में राहू आ जाये तो गुप्त राजयोग का निर्माण हो जाता है ! ऐसी कुंडली में लग्न में बैठा हुआ राहू शुभ  फल देता है  और उस व्यक्ति के शत्रु कभी भी उस पर चाहते हुये भी हावी नहीं हो पाते। अर्थात उसके शत्रुओं का नाश हो जाता है। ऐसे व्यक्ति को अक्सर देखा जाता है कि इनकी पहुंच बहुत ऊंचे पद तक होती है और ये लोग प्रतिष्ठा भी बहुत पाते हैं। मान,  सम्मान, यश और कीर्ति की इन लोगों के पास कोई कमी नहीं होती। राजनीति में भी ये लोग बहुत अच्छी पहचान रखते है। 

 

 जब राहु या केतू की युति चंद्र के साथ हो जाती है तो चंद्र ग्रहण दोष हो जाता है। दूसरे शब्‍दों में, चंद्र के साथ राहु और केतू का नकारात्‍मक गठन, चंद्र ग्रहण दोष कहलाता है। ग्रहण दोष का प्रभाव, विभिन्‍न राशियों पर विभिन्‍न प्रकार से पड़ता है 

जिन लोगों ने गुरु मंत्र ले रखा है, उन्हें ग्रहण के समय गुरु मंत्र का जाप अवश्य करना चाहिए। ग्रहण काल में गुरु मंत्र का जाप न करने से मंत्र की शक्ति घटती है। जिन लोगों की कुंडली में राहु-चंद्रमा दोनों ग्रह एक साथ एक ही भाव में हैं तो उन्हें ग्रहण काल में ग्रहण योग की शांति अवश्य करवानी चाहिए। इससे कुंडली के दोष दूर हो ग्रहण वाले दिन अगर संभव हो सके तो किसी गरीब को काला कंबल और अनाज दान में अवश्य दें। 

 चंद्र ग्रहण दोष के कई कारण होते हैं और हर व्‍यक्ति के जीवन पर उसका प्रभाव भी अलग तरीके से पड़ता है। चंद्र ग्रहण दोष का सबसे अधिक प्रभाव, उत्‍तरा भादपत्र नक्षत्र में पड़ता है। जो जातक, मीन राशि का होता है और उसकी कुंडली में चंद्र की युति राहु या केतू के साथ स्थित हो जाएं, ग्रहण दोष के कारण स्‍वत: बन जाते हैं। ऐसे व्‍यक्तियों पर इसके प्रभाव अधिक गंभीर होते हैं।  राहु, राशि के किसी भी हिस्‍से में चंद्र के साथ पाया जाता है- जबकि केतू समान राशि में चंद्र के साथ पाया जाता है- राहु, चंद्र महादशा के दौरान ग्रहण लगाते हैं – चंद्र ग्रहण के दिन बच्‍चे को स्‍नान अवश्‍य कराएं।

सूर्य सिद्धांत के अनुसार सूर्य से 6 राशि के अंतर अर्थात 1800 अंश की दूरी पर पृथ्वी की छाया रहती है। पृथ्वी की छाया को भूच्छाया, पात या छाया ग्रह राहु, केतु भी कहते हैं। पूर्णिमा की रात्रि के अंत में जब चंद्रमा भूच्छाया में प्रवेश कर जाता है तो चंद्रमा का लोप हो जाता है। इस खगोलीय घटना को खग्रास (पूर्ण) चंद्र ग्रहण कहते हैं। चंद्र ग्रहण के समय पृथ्वी, सूर्य व चंद्रमा के मध्य में आ जाती है, इस कारण पृथ्वी की छाया चंद्रमा पर पड़ती है जिससे चंद्रमा आच्छादित हो जाता है। जब भूछाया से चंद्रमा का कुछ हिस्सा ही आच्छादित होता है तो इसे खंडग्रास चंद्र ग्रहण रहते हैं। पूर्णिमा तिथि के अंत में सूर्य व पात का अंतर 90 के भीतर रहने पर चंद्र ग्रहण अवश्य होता है। तथा 90 से 130 अंशों के बीच अंतर रहने पर भी कभी चंद्र ग्रहण होने की संभावना रहती है। दिनांक 15 जून 2011 को सूर्य व पात बिंदु (केतु) वृषभ राशि में 290 अंशों पर अर्थात् एक समान राशि अंशों पर रहेंगे तथा राहु 290 अंश व चंद्रमा 190 अंश पर वृश्चिक राशि में रहेंगे। अर्थात चंद्रग्रहण के समय राहु-चंद्र के मध्य सिर्फ 100 अंश का अंतर रहेगा। सूर्य ग्रहण : अमावस्या के दिन जब सूर्य की राहु या केतु से युति हो तथा सूर्य से राहु या केतु का अंतर 150 अंश से कम हो तो अवश्य ही सूर्य ग्रहण होता है। और 180 अंशों के अंतर पर कभी-कभी सूर्य ग्रहण संभावित रहता है। इससे अधिक अंतर पर ग्रहण नहीं होता है। सूर्य ग्रहण के समय सूर्य बिंब के आच्छादित होने का तात्पर्य यह लगाया जाता है कि राहु/केतु ने सूर्य को ग्रस लिया है।

पृथ्वी के जिस हिस्से में सूर्य ग्रहण दिखाई देता है, उस हिस्से पर राहु-केतु का अधिक कुप्रभाव पड़ता है। ग्रहण का शुभाशुभ प्रभाव : महर्षि वशिष्ठ के अनुसार जिनकी जन्मराशि में ग्रहण हो, उन्हें धन आदि की हानि होती है। जिनके जन्मनक्षत्र पर सूर्य या चंद्र ग्रहण हो, उन्हें विशेष रूप से भयप्रद रोग व शोक देने वाला होता है। महर्षि गर्ग के अनुसार अपनी जन्मराशि से 3, 4, 8, 11 वें स्थान में ग्रहण पड़े तो शुभ और 5, 7, 9, 12 वें स्थान में पड़े तो मध्यमफल तथा 1, 2, 6, 10 व स्थान में ग्रहण अनिष्टप्रद होता है।” इस प्रकार जन्म राशि में ग्रहण का होना सर्वाधिक अनिष्टप्रद होता है।

जन्मकुंडली में ग्रहण योग : 1. जिस जातक की जन्मकुंडली में चंद्रमा की राहु या केतु से युति हो उस जातक की कुंडली में ग्रहण योग होता है। 2. सूर्य, चंद्र और राहु या केतु यह तीन ग्रह यदि एक ही राशि में स्थित हों तो भी ग्रहण योग होता है। यह योग पहले वाले योग से अधिक अशुभ है क्योंकि इसमें चंद्र व सूर्य दोनों ही दूषित हो जाते हैं। 3. ग्रहणकाल में अथवा ग्रहण के सूतक काल में जन्म लेने वाले जातकों के जन्मस्थ सूर्य व चंद्रमा को राहु-केतु हमेशा के लिए दूषित कर देते हैं। 4. राहु-केतु की भांति सूर्य या चंद्रमा से शनि की युति को भी बहुत से आचार्य ग्रहण योग मानते हैं। प्रभावी ग्रहण योग : 1. तुला राशि को छोड़कर अन्य किसी भी राशि में यदि युवावस्था (100 से 220 अंश) का सूर्य हो तथा उसकी राहु या केतु से युति हो तो ऐसा ग्रहण योग प्रभावहीन होता है क्योंकि प्रचंड किरणों वाले सूर्य के सम्मुख छाया ग्रह (राहु-केतु) टिक ही नहीं सकते तो फिर ग्रहण क्या लगाएंगे? कृष्ण पक्ष की चतुर्दर्शी, अमावस्या और शुक्ल प्रतिपदा को ही राहु-केतु प्रभावी रहते हैं। 2. कर्क या वृषभ राशि में शुक्लपक्ष का बलवान चंद्रमा हो तथा ग्रहणकाल का जन्म न हो तो चंद्र+राहु या केतु की युति से बनने वाला ग्रहण योग अप्रभावी रहता है अर्थात अनिष्ट प्रभाव नहीं देता है।

ग्रहण योग का फल : 1. जिस व्यक्ति की जन्मकुंडली में ग्रहण योग होता है, वह व्यक्ति अपने जीवन में अनेक बाधाओं व कष्टों से दुखी रहता है। उसे शारीरिक, मानसिक या आर्थिक परेशानी बनी रहती है। 2. जिस भाव में ग्रहण योग होता है, उस भाव का शुभफल क्षीण हो जाता है। तथा ग्रहणशील सूर्य, चंद्र जिस भाव के स्वामी होते हैं, उस भाव से संबंधित वस्तुओं की हानि होती है। 3. यदि चंद्रमा राहु की युति हो तो जातक बहुत सी स्त्रियों के सेवन का इच्छुक रहता है। वृद्धा स्त्री और वैश्य से भी संभोग करने में नहीं हिचकिचाता है। ऐसा व्यक्ति चरित्रहीन, दुष्ट स्वभाव का, पुरुषार्थहीन, धनहीन व पराजित होता है। यदि चंद्र-केतु की युति हो तो जातक आचार-विचार से हीन, कुटिल, चालाक, प्रतापी, बहादुर, माता से शत्रुता रखने वाला व रोगी होता है। ऐसा जातक चमड़ा या धातु से संबंधित कार्य करता है। 5. जिनकी जन्म कुंडली में सूर्य, चंद्र, राहु एक ही राशि में बैठे हों वह पराधीन रहने वाला, काम-वासना से युक्त, धनहीन व मूर्ख होता हैं 6. सूर्य, चंद्र, केतु की युति हो तो वह पुरुष निम्न दर्जे का इंजीनियर या मैकेनिक होता है, लज्जाहीन, पाप कर्मों में रत, दयाहीन, बहादुर व कार्यकुशल होता है। ग्रहण योग व कालसर्प दोष का अशुभ फल राहु या केतु की दशा या अंतर्दशा में प्राप्त होता है अथवा राहु-केतु से संबंधित ग्रह की दशा या अंतर्दशा में प्राप्त होता है अथवा गोचरीय राहु-केतु जिस समय जन्मस्थ राहु-केतु की राशि में संचार करते हैं, उस समय कालसर्प व ग्रहण योग का फल प्राप्त होता है। इन अशुभ योगों की शांति में महामृत्युंजय मंत्र का जाप एवं श्री रुद्राभिषेक कारगर है।

ग्रहणयोग कालसर्प दोष को भयानक बनाता है : 1. यदि जन्मकुंडली में कालसर्प दोष है तथा राहु-केतु की अधिष्ठित राशियों में सूर्य चंद्र भी बैठे हों तो इस ग्रहण योग की स्थिति में कालसर्प दोष और भी भयानक अर्थात् अनिष्टप्रद हो जाता है। 2. कालसर्प दोष तभी मान्य होगा जब कुंडली में ग्रहण योग हो। एक ही राशि में चंद्रमा और राहु या केतु 130 अंश से कम अंतर पर बैठे हों। अथवा सूर्य की राहु या केतु से युति 18′ अंश से भी कम अंतर पर हो। 3. कालसर्प दोष में यह आवश्यक है कि उस कुंडली में ग्रहणयोग भी हो। कालसर्प योग में राहु-केतु अपने साथ स्थित ग्रहों को एवं उनकी वक्र गति में आने वाले (राहु-केतु से 12 वें स्थान में स्थित) ग्रहों को दूषित कर देते हैं। यह कालसर्प योग/दोष की सीमा है। 4. यदि किसी जन्मकुंडली में आंशिक कालसर्प योग हो किंतु पूर्ण ग्रहण योग हो तो राजयोग प्रदायक सूर्य या चंद्र के दूषित होने के कारण कालसर्प योग अशुभ फल देता है। 5. यदि राहु-केतु केंद्र स्थान में हो तथा ग्रहण योग हो और कालसर्प भी हो तो कालसर्प दोष सर्वाधिक अशुभ हो जाता है क्योंकि केंद्रीय भावों में सभी पापग्रहों के होने से प्राचीन सर्पयोग होता है। सर्पयोग में उत्पन्न जातक दुखी, दरिद्री, परस्त्रीगामी, कामी, क्रोधी व अदूरदर्शी होता है।

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