नागरिकता विधेयक- जनता दल यूनाइटेड और बीजेपी के रिश्ते ख़राब
क्या एक बार फिर जनता दल यूनाइटेड और बीजेपी के रिश्ते ख़राब हो रहे हैं? यह सवाल इसलिए उठ खड़ा हुआ है कि क्योंकि जद (यू) ने कहा है कि वह राज्यसभा में नागरिकता विधेयक का विरोध करेगी। इसके अलावा जद (यू) अपने दो वरिष्ठ नेताओं को असम में इस विधेयक के विरोध में होने वाले प्रदर्शन में शामिल होने के लिए भी भेजेगी। बता दें कि लोकसभा में भी जद (यू) ने नागरिकता विधेयक के लिए हुई वोटिंग में हिस्सा नहीं लिया था और उससे पहले तीन तलाक विधेयक का भी विरोध किया था। जनसंख्या के अनुपात के हिसाब से असम में जम्मू-कश्मीर के बाद सबसे ज़्यादा मुसलिम आबादी है। असम के बाहर त्रिपुरा, जहाँ पर बीजेपी की सरकार है। मेघालय और नागालैंड, जहाँ बीजेपी सत्ता में शामिल है और मिज़ोरम, जहाँ बीजेपी सरकार में एक घटक दल के तौर पर है, ये सभी राज्य सिटिज़नशिप विधेयक का विरोध कर रहे हैं। असम गण परिषद ने इसी मसले पर बीजेपी से गठबंधन तोड़ लिया है। मेघालय में नैशनल पीपल्स पार्टी ने भी कहा है कि वह गठबंधन में रहने के फ़ैसले पर विचार कर रही है। त्रिपुरा में सरकार में शामिल इंडिजिनस पीपल्स फ़्रंट भी इसी राह पर जाती दिख रही है। मिज़ोरम में स्थानीय लोगों को इस बात का डर है कि इस विधेयक की आड़ में बांग्लादेश से भारी संख्या में बुद्धिस्ट चकमा निवासी राज्य में प्रवेश कर सकते हैं।
असम समेत उत्तर-पूर्व के राज्यों में अतिरिक्त लोकसभा सीट जीतने का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी का सपना चकनाचूर हो सकता है। बीजेपी को लगता है कि हिंदी भाषी प्रदेशों में इस बार उसकी लोकसभा की सीटें कम हो सकती हैं। उसे उम्मीद थी कि इन सीटों की भरपाई वह उन राज्यों से करेगी जहाँ पिछली बार उसे कम सीटें मिली थीं। असम और उत्तर-पूर्व के राज्यों को वह इसी नज़र से देख रही थी लेकिन पिछले दो दिनों से सिटिज़नशिप विधेयक को लेकर जिस तरह असम और उत्तर-पूर्व के राज्यों में हालात बिगड़े हैं, उससे उसके मंसूबों पर पानी फिर सकता है सिटिज़नशिप विधेयक मंगलवार को ही लोकसभा में पास हुआ है।
अप्रवासी नागरिकों का मसला उत्तर-पूर्व के राज्यों में लंबे समय से विवाद का मुद्दा बना हुआ है। 70 और 80 के दशक में इस विवाद ने काफ़ी उग्र रूप धारण कर लिया था। असम के लोगों का कहना है कि असम के बाहर के लोगों के राज्य में आने से जनसंख्या संतुलन तो बिगड़ा ही है, उनकी संस्कृति और रोज़गार को भी भारी नुक़सान हुआ है।
सिटिज़नशिप विधेयक की वजह से असम और उत्तर-पूर्व के राज्यों में बीजेपी के ख़िलाफ़ काफ़ी गुस्सा है। इस विधेयक के ख़िलाफ़ लोग लामबंद हैं और सड़क पर आंदोलन कर रहे हैं। मंगलवार को 11 घंटे के बंद के दौरान असम में 6 लोग घायल हो गए जिसमें से 3 की हालत गंभीर है। ये आंदोलनकारी असम-अगरतला राष्ट्रीय राजमार्ग को बंद करने की कोशिश कर रहे थे। आंदोलनकारियों को रोकने के प्रयास में पुलिस को गोली चलानी पड़ी। आंदोलनकारियों ने असम के कई जिलों में भारतीय जनता पार्टी के ऑफ़िस को भी निशाना बनाया है। इसी तरीके से त्रिपुरा, मिज़ोरम, अरुणाचल प्रदेश, मणिपुर और मेघालय में छिटपुट हिंसा और बंद की ख़बर है।
ये आंदोलन नॉर्थ ईस्ट स्टूडेंट ऑर्गनाइजेशन और ऑल असम स्टूडेंट्स यूनियन (आसू) की अगुवाई में चल रहा है। आंदोलनकारियों ने गुवाहाटी में जगह-जगह पर चक्काजाम किया और वाहनों में तोड़फ़ोड़ की। शहर में ऩकाब लगाए मोटरसाइकिल सवार आंदोलनकारी देखे गए, जिन्होंने चौपहिया वाहनों पर पथराव किया। इस मामले में 44 लोगों को गिरफ़्तार भी किया गया है।
डिब्रूगढ़ में आंदोलनकारियों ने बीजेपी ऑफ़िस को तहस-नहस करने की कोशिश की। वहाँ के एसपी के भी हिंसा में घायल होने की ख़बर है। इसी तरीक़े से गोलाघाट और जोरहट जिलों में भी बीजेपी के दफ़्तरों पर हमले किए गए। आंदोलन की वजह से भारतीय जनता पार्टी को उस वक़्त तगड़ा झटका लगा, जब असम, मेघालय, नागालैंड और मिज़ोरम में उसके सहयोगी दलों ने सिटिज़नशिप विधेयक का समर्थन करने से इनकार कर दिया। इस बीच ख़बर ये भी है कि भारतीय जनता पार्टी के प्रवक्ता मेहंदी आलम बोरा ने पार्टी से इस्तीफ़ा दे दिया है। उधर, त्रिपुरा में बीजेपी की सरकार को समर्थन दे रही इंडिजिनस पीपल्स फ़्रंट ने आंदोलन का समर्थन किया है।
नागरिकता विधेयक का विरोध करने का फ़ैसला पटना में हुई जद (यू) की एक बैठक में लिया गया। जद (यू) के राष्ट्रीय प्रवक्ता के. सी. त्यागी ने इंडियन एक्सप्रेस से कहा कि यह विधेयक असम के लोगों की अस्मिता के ख़िलाफ़ है, इसलिए हमने इसका विरोध करने का फ़ैसला किया है। पार्टी ने त्यागी और राष्ट्रीय उपाध्यक्ष प्रशांत किशोर को 27 जनवरी को गुवाहाटी भेजने का फ़ैसला किया है। अहम बात यह है कि इस बैठक में मुख्यमंत्री नीतीश कुमार भी मौजूद थे। जद (यू) प्रवक्ता त्यागी ने कहा कि हमने इस बारे में अभी फ़ैसला नहीं लिया है कि हम असम में उम्मीदवार उतारेंगे या नहीं। उन्होंने साफ़ कहा कि हम एक आज़ाद दल हैं और अपना स्टैंड ख़ुद ले सकते हैं।
इस ख़बर के सामने आने के बाद से ही राजनीतिक गलियारों मे यह सवाल पूछा जा रहा है कि क्या बीजेपी और जद (यू) के रिश्तों में खटास आ चुकी है? यहाँ एक बात और अहम है कि आख़िर जद (यू) इस मामले में इतना सख़्त रवैया क्यों अपना रही है। असम में उसका कोई जनाधार नहीं है, नागरिकता विधेयक से उसकी बिहार की राजनीति पर कोई ख़ास असर नहीं पड़ने । बावजूद इसके इस मामले में खुलकर विरोध और अपने दो वरिष्ठ नेताओं को असम भेजने का यही मतलब है कि जद (यू) और बीजेपी के रिश्तों में खटास आ चुकी है। इससे पहले साल 2013 में जद (यू) ने बीजेपी के साथ कई सालों से चला आ रहा गठबंधन तोड़ दिया था। तब जद (यू) को यह आशंका थी कि बीजेपी, गुजरात के तत्कालीन मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी को 2014 में होने वाले लोकसभा चुनाव में प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित कर सकती है। इसके बाद जद (यू) ने राजद के साथ गठबंधन किया और 2017 का विधानसभा चुनाव दोनों पार्टियों ने साथ लड़ा। लेकिन राजद प्रमुख लालू प्रसाद यादव के साथ भी नीतीश कुमार की दोस्ती ज़्यादा नहीं चली और दो साल से कम समय में ही यह गठबंधन टूट गया। एक बार फिर नीतीश, बीजेपी के साथ आए और वर्तमान में दोनों दल बिहार में मिलकर सरकार चला रहे हैं। लेकिन नागरिकता विधेयक पर कड़ा स्टैंड लेते हुए जद (यू) ने बीजेपी को एक तरह से चेतावनी दी है। लोकसभा में नागरिकता विधेयक 8 जनवरी को पास हो चुका है और इसे अभी राज्यसभा में पेश किया जाना है। लेकिन जद (यू) का इसे लेकर कड़ा स्टैंड और पूरे पूर्वोत्तर में इस विधेयक के विरोध में हो रहे आंदोलन से 2019 के लोकसभा चुनाव में बीजेपी की सियासी राह ज़रूर मुश्किल होने जा रही है।
बता दें कि सिटिज़नशिप विधेयक की वजह से असम और उत्तर-पूर्व के राज्यों में बीजेपी के ख़िलाफ़ काफ़ी गुस्सा है। इस विधेयक के ख़िलाफ़ लोग लामबंद हैं और उग्र प्रदर्शन कर रहे हैं।
1971 में बांग्लादेश की लड़ाई के दौरान भारी संख्या में बांग्लादेशी असम में भागकर आए थे। जिसका वहाँ के स्थानीय नागरिकों ने काफ़ी विरोध किया था। बाद में असम विश्वविद्यालय के छात्रों ने ज़बरदस्त आंदोलन किया और आगे चलकर असम गण परिषद के नाम से राजनीतिक दल बनाकर चुनाव भी लड़ा और उन्हें भारी जीत भी हासिल हुई। आंदोलनकारियों के सरकार बनाने के बाद, भारत सरकार के साथ उनका असम एकॉर्ड के नाम से 1985 में एक समझौता भी हुआ। इस समझौते के मुताबिक़, 24 मार्च 1971 तक असम में आने वाले लोगों को नागरिकता प्रदान करने का फ़ैसला किया गया। यानी 25 मार्च 1971 के बाद आने वाले लोगों को विदेशी मानकर देश से बाहर निकाला जाएगा। केंद्र में सरकार बनाने के बाद बीजेपी ने बांग्लादेश, पाकिस्तान, अफ़गानिस्तान, म्यांमार जैसे देशों से असम में आने वाले ग़ैर मुसलिम, ख़ासकर हिंदू आप्रवासियों को नागरिकता देने की बात की। इसके पीछे बीजेपी का कहना था कि इन देशों में हिंदुओं समेत दूसरे अल्पसंख्यकों का काफ़ी उत्पीड़न होता है, जिसके कारण वे भागकर भारत में शरण लेते हैं और मानवीय आधार पर ऐसे शरणार्थियों को भारत की नागरिकता दी जानी चाहिए। इन देशों से आए मुसलिम शरणार्थियों को इस नागरिकता क़ानून से बाहर रखने के पीछे तर्क यही है कि इन मुसलिम देशों में धर्म के आधार पर मुसलमानों का उत्पीड़न नहीं हो सकता। इसीलिए सिटिज़नशिप विधेयक लाया गया, जिसमें इन देशों से आए हिंदू, सिख, जैन, पारसी, ईसाईयों को नागरिकता देना तय किया गया और नागरिकता पाने की पात्रता की अवधि बढ़ाकर 31 दिसंबर 2014 कर दी गई। बीजेपी का तर्क है कि इस विधेयक के क़ानून बनने के बाद असम में बाहर के मुसलमानों के आने की वजह से जो संकट पैदा हुआ, उससे निपटने में मदद मिलेगी और बाहर से आई ग़ैर मुसलिम आबादी की वजह से जनसंख्या संतुलन भी नहीं बिगड़ेगा।
लेकिन असम के लोगों का कहना है कि असली मुद्दा धर्म के आधार पर आने वाले आप्रवासियों का नहीं है। मुद्दा, ग़ैर क़ानूनी तरीके से बांग्लादेश को लांघकर असम आने वाले आप्रवासियों का है। इन आप्रवासियों में बड़ी संख्या हिंदुओं की भी है। असम के लोग हिंदू और मुसलमान, दोनों आप्रवासियों का विरोध कर रहे हैं।