ठेका मजदूरों की हालत बेहद खराब
देश में सार्वजनिक क्षेत्र में 50 प्रतिशत और निजी क्षेत्र में 70 प्रतिशत ऐसे इंप्लाई हैं जो कांट्रैक्ट पर काम करते हैं। इन कांट्रै्क्ट कर्मियों यानि ठेका मजदूरों की हालत बेहद खराब है। 1990 के बाद ठेका मजदूरों को स्थायी काम में नियोजित करने और इसके जरिए अपने मुनाफे में बेइंतहा वृद्धि करने की दिशा में देश में कारपोरेट घराने बढ़े। कार्य की प्रकृति स्थायी होने के बाबजूद ठेका मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम की धारा 10 का उल्लंघन करते हुए इन कामों में ठेका मजदूरों को नियोजित किया जाता रहा। सरकार के संरक्षण में सारे श्रम कानूनों को दरकिनार कर यह प्रक्रिया चलायी गयी।
इन ठेका मजदूरों की मजदूरी बेहद कम है, उसमें भी न्यूनतम मजदूरी तक इन्हें नहीं मिलती। यहीं नहीं इनके हितों के लिए बने श्रम कानूनों का लाभ भी इन्हें नहीं प्राप्त होता है। मोदी सरकार के डेढ़ वर्ष के कार्यकाल में इन मजदूरों पर हमला और भी बढ़ा है। ‘मेक इन इंडिया’ और विदेशी दौरों के जरिए देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों को देश में पूंजी लगाने के लिए आकर्षित करने के लिए यह सरकार लम्बे संघर्षों द्वारा हासिल श्रमिकों के अधिकारों के खात्मे में लगी हुई है।
भाजपा की राजस्थान सरकार द्वारा ठेका मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम में संशोधन कर 20 की जगह 49 मजदूरों तक को काम पर रखने वाले ठेकेदारों को इस कानून के प्रावधान से बाहर करने के प्रस्ताव पर यह सरकार भी बढ़ चली है। इसका मतलब होगा कि अब इससे कम मजदूरों से काम कराने वाले ठेकेदारों को श्रम कार्यालय से पंजीकरण कराने की आवश्यकता नहीं रह जायेगी और इस प्रकार जो थोड़ा बहुत भी संरक्षण श्रम कार्यालय से ठेका श्रमिकों को प्राप्त होता था, वह भी उन्हें नहीं मिलेगा।
इतना ही नहीं सरकार ने अप्रेंटिसशिप एक्ट, कारखाना कानून और श्रम कानून (कुछ संस्थानों को विवरणी जमा करने तथा रजिस्टर तैयार करने में छूट) संशोधन अधिनियम 2011 पारित किया है। जहां अप्रेंटिसशिप एक्ट में संशोधन कर अब अप्रेंटिस के साथ ठेका मजदूर, कैजुअल मजदूर और दैनिक मजदूरों को भी शामिल कर प्रतिष्ठान में कुल मजदूरों के 30 प्रतिशत के अनुपात से इस तरह के मजदूरों को रखने की इजाजत दे दी गयी है। साथ ही कानून के उल्लघंन पर जेल भेजने के प्रावधान को समाप्त कर अब सजा के तौर पर आर्थिक दण्ड 500 रू0 तक सीमित कर दिया है।
श्रम कानून (कुछ संस्थानों को विवरणी जमा करने तथा रजिस्टर तैयार करने में छूट) संशोधन अधिनियम 2011 में किसी भी संस्थान को लघु औद्योगिक संस्थान घोषित होने के लिए मजदूरों की संख्या 19 से बढ़ाकर 40 कर दी गयी है। इन प्रतिष्ठानों को विवरणी जमा करने और रजिस्टर रखने से मुक्त करके ठेका मजदूर (विनियमन एवं उन्मूलन) अधिनियम, न्यूनतम वेतन कानून, समान वेतन कानून, वेतन भुगतान अधिनियम, कारखाना कानून, बोनस भुगतान अधिनियम आदि 16 श्रम कानूनों के दायित्वों से मुक्त किया गया है।
सरकार ने कारखाना अधिनियम के अनुच्छेद 56 में संशोधन कर भोजनावकाश के साथ 8 घण्टे काम की अवधि को बढ़ाकर 10.5 से 12 घण्टे तक करने का प्रावधान कर दिया है। इस अतिरिक्त काम को ओवरटाइम नहीं माना जायेगा और इसके लिए सामान्य वेतन ही देय होगा। इसी प्रकार अनुच्छेद 64-65 में संशोधन करके वर्तमान ओवरटाइम को 50 घण्टे प्रति तिमाही से बढ़ाकर सीधे 100 घण्टे करने और जनहित के नाम पर राज्य सरकार द्वारा छूट देने पर 125 घण्टे तक किया जा सकता है।
अनुच्छेद 66 में संशोधन कर महिलाओं को रात्रि पाली में काम करने पर लगी रोक समाप्त कर दी गयी है। सबसे महत्वपूर्ण बात इस संशोधन में यह है कि इसमें राज्य सरकारों को कारखाना कानून का दायरा तय करने के लिए नियोजित मजदूरों की संख्या तय करने का अधिकार दे दिया गया है जो अधिकतम 40 मजदूरों की सीमा के अंदर कोई भी सीमा तय कर सकती है।
सरकार ने कई श्रम कानूनों को मिलाकर पांच संहिताएं बनाने का प्रस्ताव रखा है। जिसमें से वेतन विधेयक श्रम संहिता और औद्योगिक सम्बंधों पर श्रम संहिता विधेयक का प्रारूप सरकार ने पेश किया है। वेतन विधेयक श्रम संहिता में न्यूनतम वेतन अधिनियम, बोनस भुगतान अधिनियम, वेतन भुगतान अधिनियम, समान वेतन अधिनियम आदि चार अधिनियमों को मिलाकर यह संहिता बनायी गयी है। इस संहिता में श्रम कानूनों को लागू कराने के लिए निरीक्षण की व्यवस्था को समाप्त कर निरीक्षकों की भूमिका मददकर्ता की बना दी गयी है।
##ट्रेड यूनियन एक्ट 1926, स्थायी आदेश कानून 1946, औद्योगिक विवाद अधिनियम 1947 को मिलाकर औद्योगिक सम्बंधों पर श्रम संहिता बनायी गयी है। इस संहिता के अनुसार ट्रेड यूनियन पंजीकरण के लिए अब कुल मजदूरों का 10 प्रतिशत या 100 मजदूर जो भी कम हों के बराबर सदस्य होने चाहिए। रजिस्ट्रार को यह विवेकाधीन अधिकार दिया गया है कि वह चाहे तो यूनियन को रजिस्टर करे या निरस्त कर दे, साथ ही यह भी अधिकार दिया गया है कि वह चाहे जिस टेªड यूनियन को रद्द कर दे। संगठित क्षेत्र की यूनियन में कोई भी बाहरी व्यक्ति न तो पदाधिकारी होगा और न ही कार्यकारणी सदस्य। असंगठित क्षेत्र की यूनियन में मात्र दो व्यक्ति ही पदाधिकारी हो सकते है। यह संहिता ‘रखो और निकालो‘ का अधिकार 300 मजदूरों तक की संख्या में रोजगार देने वाले सभी प्रतिष्ठानों को देती है।
इसका सीधा असर होगा कि उद्योगों में कार्यरत ठेका मजदूर इसके दायरे में आ जायेंगे। स्थायी आदेश कानून में संशोधन करके सेवा शर्तें बदलने की छूट दी जा रही है। प्रस्तावित संहिता में हड़ताल का नोटिस 6 सप्ताह पहले देना होगा और नोटिस देने की तिथि से ही समझौता कार्यवाही प्रारम्भ मान ली जायेगी चाहे समझौता कार्यवाही प्रारम्भ हुई हो या नहीं। समझौता वार्ता जारी रहने और इसके समाप्ति के सात दिन बाद तक हड़ताल नहीं की जा सकती।
इस संहिता के अनुसार गो स्लो/प्रदर्शन तक प्रतिबंधित रहंेगे। यहां तक कि यदि आधे से ज्यादा श्रमिक आकस्मिक अवकाश लेते हैं तो भी हड़ताल मान लिया जायेगा। गैर कानूनी हड़ताल में शामिल होने पर मजदूरों पर 20,000 रू0 से लेकर 50,000 रुपये तक अर्थदण्ड या एक माह की जेल का प्रावधान है और हड़ताल के लिए उकसाने पर 25,000 रुपये से लेकर 50,000 रुपये तक अर्थदण्ड और जेल का प्रावधान किया गया है। यही नहीं अब मजदूर अपने मुकदमे में वकील की सहायता नहीं ले सकता है। मजदूर की बर्खास्तगी के मामले में जो कुछ भी सबूत रिकार्ड में हैं उन्हीं को आधार बनाया जायेगा, नए गवाह/सबूत प्रतिबंधित रहेंगे।
ठेका मजदूरों की जीवन सुरक्षा के लिए बने ईपीएफ (भविष्य निधि) और ईएसआई (कर्मचारी राज्य बीमा) दोनों में परिवर्तन करने में मोदी सरकार लगी हुई है। ऐसे ही देश में ठेका मजदूरों का करोड़ों रूपया भविष्य निधि का ठेकेदारों और प्रबंधन के द्वारा लूट लिया गया है। ठेका मजदूरों से पैसा काटकर उनके भविष्य निधि खाते में जमा नहीं किया गया और जो जमा है उसे सरकार लूटने में लगी है। बिना कर्मचारी भविष्य निधि संगठन के साथ बातचीत किए सरकार ने ईपीएफ के 6000 करोड़ रूपए आम वृद्धावस्था पंेशन में इस्तेमाल करने की धोषणा कर डाली।
यहीं नहीं ईपीएफ की जमा राशि का 5 प्रतिशत से लेकर 15 प्रतिशत तक को शेयर बाजार में लगाने की अधिसूचना जारी कर दी है। इसी प्रकार ईएसआई, जो बीमार मजदूर को बीमारी की हालत में नगद लाभ, बीमा और आश्रितों को पेंशन, बीमित महिता को प्रसूति हितलाभ मुहैया कराता है, को चिकित्सा बीमा के पक्ष में वैकल्पिक बनाने की मंशा के साथ ईएसआई अधिनियम में संशोधन करने की दिशा में सरकार प्रयासरत है।
पिछले दिनों जब संसद नहीं चल पा रही थी तो मोदी जी ने कहा कि हम मजदूरों के हितों के लिए बोनस कानून बना रहे थे, श्रम संहिताएं ला रहे थे जिसे विपक्ष लाने नहीं दे रहा है। जबकि सच साफ दिखाई दे रहा है कि कारपोरेट के बूते बनी यह सरकार कारपोरेट हितों के लिए श्रमिकों की जीवन सुरक्षा और प्रदत्त कानूनी अधिकारों को छीनने में लगी हुई है। समाज में यह तर्क प्रणाली चलायी जाती है कि श्रम कानूनों को लचीला करके ही पूंजी निवेश बढ़ाया जा सकता है और रोजगार सृजन किया जा सकता है। तीन दशकों के दौरान बनी सभी सरकारों ने इसी दिशा में कदम भी बढ़ाए। पर वास्तविकता इसके उलटी ही दास्तान पेश करती है। पिछले तीन दशकों के दौरान रोजगार सृजन की वृद्धि दर न के ही बराबर रही है। 2000-05 के दौरान 2.7 प्रतिशत से घटकर रोजगार वृद्धि दर 2005-10 के दौरान मात्र 0.7 प्रतिशत ही रह गयी है। जिस निर्माण क्षेत्र में रोजगार सृजन की बड़ी बातें की जा रही थीं, वहां भी यह नकारात्मक स्तर पर पहुंच गयी है। दिनकर कपूर