विवाहेत्तर सम्बन्ध आज के जीवन की कटु सच्चाई
*वैवाहिक मूल्यों में घटती निष्ठा*
भारतीय संस्कृति आध्यात्मिकता पर आश्रित है। मानव जीवन का वास्तविक सुख, शांति और समृद्धि आध्यात्मिकता में निहित है। यहां जीवन का प्रत्येक कार्य व्यापार धर्म से आच्छादित है। धर्म से मेरा आशय हिन्दू, मुस्लिम सिख, इसाई से न होकर मानव धर्म से है, जीवन के उन मूल्यों से है जो जीवन में धारण किये जाते है, आत्मसात किये जाते है। आत्मानुशासन का आदर्श भारतीय संस्कृति को विश्व की अन्य संस्कृतियों में विलक्षण स्थान प्रदान करता है । संस्कार, पुरूषार्थ और आश्रम यहां जीवन को पग-पग पर नियोजित करते है। यह एक मनोनैतिक व्यवस्था के रूप में मानव-जीवन में समाहित होकर जीवन पथ को आलोकित करते हैं। भारतीय संस्कृति में व्यवहृत सोलह संस्कारों का विधान जीवन को पशुता से उठाकर देवत्व की ओर अग्रसर करने के लिये हुआ है। ये संस्कार आत्मसंयम और इन्द्रिय निग्रह का पाठ सिखाते है।
वैवाहिक जीवन की कटुता के कारण वैवाहिक मूल्यों में निष्ठा कम हो रही है और विवाहेत्तर सम्बन्ध आज के जीवन की कटु सच्चाई बन गये है। इस प्रकार के सम्बन्ध आजादी और आधुनिकता के नाम पर ‘ स्टेटस सिम्बल ’ के रूप में भी देखे जाने लगे है। रिश्तों की पवित्रता को ‘ पिछडेपन ‘ की संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा है। हाई प्रोफाइल लोगों में वैवाहिक सम्बन्ध से इतर सम्बन्ध अब आम बात हो गई है।
हिमालयायूके- हिमालय गौरव उत्तराखण्ड www.himalayauk.org
Leading Digital Newsportal & DAILY NEWSPAPER)
भारतीय संस्कृति में विवाह एक संस्कार है। यहां यह समझौता न होकर सृष्टि चक्र को गति प्रदान करने वाला जीवन मूल्य है। विवाह का उद्देश्य काम वासना की पूर्ति न होकर जीवन की अपूर्णता को दूर करके एक दूसरे के व्यक्तित्व को निखारना और संवारना है। वैवाहिक सम्बन्ध में समष्टि हित में व्यष्टि तिरोहित हो जाता है। विवाह के पश्चात् वधू अपना सब कुछ त्यागकर शरीर, मन, आत्मापति को समर्पित करती है। अपना व्यक्तित्व ही पति में मिला देती है और उसकी खुशी में अपनी खुशी अनुभव करती है। पति भी उसे अपनाकर अपनी वृत्तियों, कामनाओं, इच्छाओं वासनाओं को नियन्त्रित और संयमित करता हुआ जीवन लक्ष्य की ओर अग्रसर रहता है और दोनो परस्पर एक दूसरे में अनुरक्त रहते हुये उन्नत राष्ट्र निर्माण के कार्यो में संलग्न रहते हैं।
परिवर्तन प्रकृति का शाश्वत नियम है। आज संचार क्रांति के कारण वैश्विक स्तर पर तेजी से स्थितियां बदल रही है। संचार साधनों की सुलभता के कारण सम्पूर्ण विश्व एक कुटुम्ब बनता जा रहा है तथा वैचारिक आदान-प्रदान हो रहा है। इक्कीसवीं सदी को वैचारिक क्रांति कीसदी कहना अनुपयुक्त न होगा। वैचारिक क्रांति से समाज और संस्कृति सर्वाधिक प्रभावित हुये। व्यक्ति और परिवार की निष्ठा भी विचलित हुई जीवन और नैतिक मूल्यों में भी परिवर्तन आया। स्त्रियों की स्थिति में आमूल चूल परिवर्तन हुआ है। सार्वजनिक जगत में तीव्रता से उनके कदम स्थापित हो रहे हैं वह समाज को नई दिशा देने के साथ-साथ स्वतन्त्रता व अपने अधिकारों का उपयोग भी कर रही है, जिसका सीधा प्रभाव भारत में सदियों से स्थापित परिवार नामक संस्था पर पड़ा है।
भारतीय समाज सदियों से पितृसत्ता प्रधान रहा है जिसमें स्त्रियों की स्थित सदैव से दोयम दर्जे की रही है। उन्हें या तो देवी समझा गया या दानवी। मानवी के रूप में उनकी मानसिक स्थिति को समझने का प्रयास कभी नहीं किया गया। जनजागृति के कारण आज स्त्रियों का चिन्तन और दृष्टि परिवर्तन हुई है। वह घर की चारदीवारी से बाहर आकर अपनी प्रतिभा और योग्यता का सफलतापूर्वक प्रदर्शन कर रही है। घर-बाहर दोनो जगह दोहरे दायित्व का निर्वहन करने के बाद भी समाज में गहराई से पैठ जमाये रूढ़ियां और मान्यतायें उसके इस रूप को स्वीकार नहीं कर पा रही है। पुरूष प्रधान समाज को उसे ‘ सार्वजनिक ‘ बोलने में जरा भी देर नहीं लगती। महिला अधिकारी को पुरूष वर्ग खुले मन से स्वीकार नहीं कर पाता। वह हमेशा स्त्री को दुर्बल और कमतर आंकता है। घर में पति पुरूष मानसिकता के कारण अपने बराबर या उच्च पदस्थ पत्नी को सहन नहीं कर पाता और तरह-तरह के उलाहनों से उसे सुशोभित करने लगता है।
‘ स्त्री ’ जिसे आज भी परिवार व समाज में ‘ समान अवसर ’ प्राप्त नहीं हुआ है वह कठोर संघर्ष करके उच्च पद प्राप्त करती है उसके बाद घर और कार्यस्थल के तनाव के कारण पति-पत्नी दोनों के बीच द्वन्द की स्थिति उत्पन्न हो जाती है जो आगे चलकर प्रतिद्वन्दिता का रूप धारण कर लेती है। प्रतिद्वन्द्धिता मृत्यु तुल्य है जो पति-पत्नी के माधुर्यपूर्ण सम्बन्ध को समाप्त कर देती है। परिणामतः दोनों अपने विवाहित जीवन से विमुख होकर विवाहेत्तर सम्बन्ध की ओर उन्मुख होने लगते हैं जहां वह सुकून का जीवन व्यतीत कर सकें ।
वैवाहिक जीवन की कटुता के कारण वैवाहिक मूल्यों में निष्ठा कम हो रही है और विवाहेत्तर सम्बन्ध आज के जीवन की कटु सच्चाई बन गये है। इस प्रकार के सम्बन्ध आजादी और आधुनिकता के नाम पर ‘ स्टेटस सिम्बल ’ के रूप में भी देखे जाने लगे है। रिश्तों की पवित्रता को ‘ पिछडेपन ‘ की संज्ञा से अभिहित किया जाने लगा है। हाई प्रोफाइल लोगों में वैवाहिक सम्बन्ध से इतर सम्बन्ध अब आम बात हो गई है। ऐसे सम्बन्धों के प्रति उनमें जरा भी संकोच नहीं है आत्मसंयम और पुरूषार्थ की कमी के कारण विवाहित जीवन दुःखमय और विवाहेत्तर सम्बन्ध सुखमय लगते है।
अध्यात्मिक और नैतिक मूल्यों के अभाव के कारण आज युवा पीढ़ी दिम्भ्रमित हो रही है। वह ऐसे दो राहे पर खड़ी है जहां उचित और अनुचित में भेद नहीं कर पा रही है। आज शिक्षा संस्कार विहीन मशीन मानव को निर्मित कर रही है। व्यक्ति के मानवीय संवेदनाओं औरजीवन मूल्यों का क्षरण होता जा रहा है। मात्र पुस्तकीय ज्ञान को सर्वोपरि मान कर अच्छी नौकरी प्राप्त कर लेना जीवन का लक्ष्य हो गया है। ऐसे परिवेश में वैवाहिक सम्बन्धों की गरिमा को अक्षुण्ण रख पाना कठिन होता जा रहा है। आधुनिकता, स्वतन्त्रता और विकास के नाम पाश्चात्य संस्कृति से आत्मसात किये गये विचार निश्चित ही मानवीय गौरव को न्यून करने वाले है।
वैवाहिक जीवन से विमुख होकर विवाहेत्तर सम्बन्ध को ओर अग्रसर होना मृगतृष्णा है। यह एक ऐसी मृगमारीचिका है। जिसके पीछे भागते हुये व्यक्ति अपना लौकिक और परलौकिक दोनों जीवन नष्ट करता है। आज समाज के समक्ष प्रश्न है यदि समाज की स्वीकृति से संस्कारित वैवाहिक सम्बन्ध से, जिसमें हर तरह का कल्याण निहित है, व्यक्ति को सुख नहीं दे पा रहा है तो भौतिकता और मांसलता के आधार पर बने सम्बन्ध कैसे सुखकर होेंगे। जहां एक दूसरे के प्रति कोई नैतिक दायित्व है ही नहीं। वफादारी और समर्पण की भावना से कोई साहचर्य नहीं है।
आज संक्रमण कालीन परिवेश में हम विलासिता का अंधानुकरण करते जा रहे है। जीवन के उच्च आदर्शो पर आश्रित भारतीय संस्कृति को विस्मृत करते जा रहे है जहां जग को लोक मर्यादा का पाठ पढ़ाने वाले शिव है, राम है। शिव यहां पत्नी की मृत्यु के बाद भी उनका पार्थिव शरीर साथ लेकर जग में विचरण करते हैं तो राम यज्ञ के अवसर पर यज्ञीय अनुष्ठान को पूरा करने के लिये स्वर्णमयी सीता की प्रतिमा का निर्माण करवाते हैं और एक पत्नी व्रत का पालन सम्पूर्ण निष्ठा के साथ करते हैं।
ऐसे उद्दात संस्कारों वाली भारतीय संस्कृति विश्व, समाज व राष्ट्र के लिये सर्वमान्य आदर्शमय वातावरण का निर्माण करने वाली है तथा सम्पूर्ण सृष्टि के हित के लिये मर्यादायुक्त जीवन मूल्यों को अंगीकार करने के लिये प्रेरित करती है। ऐसी संस्कृति में जन्म लेकर यदि हम समाज द्वारा स्वीकृत वैवाहिक संस्था से इतर वैवाहिक सम्बन्ध बनाते हैं तो निश्चित ही भावी पीढ़ी के लिये पशुता युक्त वातावरण का निर्माण करेगें। जीवन के उच्च आदर्शो को अपने अन्दर संजोने के कारण ही भारतीय संस्कृति का स्थान संसार की अन्य संस्कृतियों से ऊंचा रहा है।
हमें यह स्मरण रखना चाहिये जीवन का उद्देश्य आत्मशक्ति का ऊपादन और अभिवर्धन करना है और उन चारित्रिक पुरूषार्थ सम्बन्धी कमियों को दूर करना है जो जटिलताओं को जन्म देने वाली है। विवाहित जीवन की उपेक्षा कर अपनी चरित्रगत न्यूनताओं से अनभिज्ञ रहकर वास्तविक सुख के उपभोग का दावा करना मात्र भ्रम है। मानव जीवन के चार पुरूषार्थो में ‘ काम ‘ का महत्वपूर्ण स्थान है। सम्पूर्ण गृहस्थ जीवन इसी पर आश्रित है। विवाह ‘ काम ‘ को धर्म सम्मत बनाता है और गरिमायुक्त जीवन का मार्ग प्रशस्त करता है।
*डॉ कामिनी वर्मा*
एसोसिएट प्रोफेसर ( इतिहास )
काशी नरेश राजकीय महाविद्यालय , ज्ञानपुर
भदोही, ( उत्तर प्रदेश )
##############################
Presented by- हिमालयायूके- हिमालय गौरव उत्तराखण्ड www.himalayauk.org
Leading Digital Newsportal & DAILY NEWSPAPER)
उत्तराखण्ड का पहला वेब मीडिया-2005 से
CHANDRA SHEKHAR JOSHI- EDITOR
Publish at Dehradun & Haridwar, Available in FB, Twitter, whatsup Groups & All Social Media ;
Mail; himalayauk@gmail.com (Mail us)
Mob. 9412932030; ;
H.O. NANDA DEVI ENCLAVE, BANJARAWALA, DEHRADUN (UTTRAKHAND)
हिमालयायूके एक गैर-लाभकारी मीडिया हैं. हमारी पत्रकारिता को दबाव से मुक्त रखने के लिए आर्थिक सहयोग करें.
Yr. Contribution:
HIMALAYA GAURAV UTTRAKHAND
A/C NO. 30023706551 STATE BANK OF INDIA; IFS Code; SBIN0003137