आर्थिक इन्डीकेटर संकेत – विश्व अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में

HIMALAYAUK BUREAU क्या विश्व अर्थव्यवस्था मंदी की चपेट में आने ही वाली है? क्या तमाम आर्थिक इन्डीकेटर यह संकेत दे रहे हैं कि बहुत जल्द अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मंदी की शुरुआत हो जाएगी? ऐसा होने की कितनी आशंका है और यदि ऐसा हो ही गया तो भारत की क्या स्थिति होगी? ये तमाम परेशान करने वाले सवाल मुँह बाए खड़े हैं। अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने मोदी सरकार को झटका दिया है. IMF ने भारत की वित्त वर्ष 2019-20 में रहने वाली विकास दर के लिए अनुमान घटा दिया है. आईएमएफ के ताजा अनुमान के मुताबिक भारत की जीडीपी इस साल 6.1 फीसदी की रफ्तार से विकास करेगी. जबकि IMF ने 2019 में वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान घटाकर 3 प्रतिशत कर दिया है.    पर जिस तरह यह बाज़ार सिकुड़ रहा है, उपभोक्ता वस्तुओं की बिक्री कम हो रही है, ग्रामीण अर्थव्यवस्था पर भी मंदी का असर दिखने लगा है, उससे चिंतित होना स्वाभाविक है। ख़ास कर कोर सेक्टर में शून्य से कम वृद्धि एक तरह से ख़तरे की घंटी है।

पर्यवेक्षकों का कहना है कि सबसे बड़ी चिंता की बात तो यह है कि सरकारी स्तर पर कुछ नहीं हो रहा है। सरकार खुले तौर पर यह मानने को तैयार ही नहीं है कि आर्थिक बदहाली है।

 अब अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) ने मोदी सरकार को झटका दिया है. IMF ने भारत की वित्त वर्ष 2019-20 में रहने वाली विकास दर के लिए अनुमान घटा दिया है. आईएमएफ के ताजा अनुमान के मुताबिक भारत की जीडीपी इस साल 6.1 फीसदी की रफ्तार से विकास करेगी.

हालांकि, राहत की बात यह है कि IMF ने 2020 में ग्रोथ रेट 7 फीसदी रहने का अनुमान लगाया है. वहीं IMF ने 2019 में वैश्विक आर्थिक वृद्धि दर का अनुमान घटाकर 3 प्रतिशत कर दिया है. पिछले साल यह 3.8 फीसदी थी. विशेषज्ञों का कहना है कि इसके बावजूद यह नहीं कहा जा सकता है कि मंदी आना तय है। इसकी पूरी संभावना है कि स्थिति सुधर जाए और मंदी टल जाए। 

इसके पक्ष में यह कहा जाता है कि अमेरिका में बेरोज़गारी लगातार कम हो रही है और अधिक से अधिक लोगों को नौकरी दी जा रही है। अमेरिका में श्रम स्थिति सुधरना एक बड़ा इंडीकेटर है कि स्थिति सुधर रही है।

अमेरिका फ़र्स्ट का नतीजा यह जरूर हुआ कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था में आत्मविश्वास बढ़ा है। वहां से कारोबार बाहर जाना कम हुआ है। यदि अमेरिकी बाज़ार में माँग की स्थिति सुधरती है तो पूरी दुनिया की अर्थव्यवस्था सुधर सकती है क्योंकि अब भी दुनिया की सबसे बड़ी अर्थव्यवस्था अमेरिका ही है। 

 दरअसल आईएमएफ ने इस साल जुलाई में भारत की विकास दर 7 फीसदी रहने का अनुमान जताया था, जबकि इसी साल अप्रैल में 7.3 फीसदी रहने का अनुमान लगाया गया था.

बता दें, 2018 में भारत की वास्‍तविक विकास दर 6.8 फीसदी रही थी. आईएमएफ ने अपनी ताजा विश्‍व आर्थिक परिदृश्‍य में अनुमान जताया है कि भारत की आर्थिक विकास दर 2019 में 6.1 फीसदी रहेगी. हालांकि IMF ने साल 2020 में भारत की आर्थिक विकास दर 7.0 फीसदी रहने का अनुमान लगाया है.

 इससे पहले क्रेडिट रेटिंग एजेंसी मूडीज ने भी भारत की विकास दर का अनुमान घटा दिया. ताजा रिपोर्ट में मूडीज ने वित्त वर्ष 2019-20 के लिए ग्रोथ रेट अनुमान घटाकर 5.8 फीसदी कर दिया है. पहले इसका जीडीपी ग्रोथ अनुमान 6.2 फीसदी था. बीते दिनों रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया ने वित्त वर्ष 2019-20 के लिए जीडीपी ग्रोथ अनुमान को घटा दिया था. वहीं विश्व बैंक ने अब भारत की विकास दर का अनुमान घटा दिया है. विश्व बैंक ने भारत की ग्रोथ रेट घटाकर 6 फीसदी कर दी है. हालांकि साउथ एशिया इकोनॉमिक फोकस के लेटेस्ट एडिशन में विश्व बैंक ने ये भी कहा कि साल 2021 में भारत ग्रोथ रेट को 6.9 फीसदी फिर से रिकवर कर सकता है.

ये सवाल भारत के नीति निर्धारकों को इसलिए भी घूर रहे हैं कि भारत अभी भी इस सच्चाई को मानने के लिए तैयार नहीं है कि अर्थव्यवस्था धीमी हो चुकी है। इसके साथ ही कोर सेक्टर में इसने शून्य से भी कम वृद्धि दर्ज की है, जिसे मंदी का सूचक माना जाता है। इसके पहले अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष ने कहा था कि ग्लोबल जीडीपी वृद्धि दर साल 2019 में 3.2 प्रतिशत रह सकती है। यह 2009 की मंदी के बाद से अब तक की न्यूनतम दर है। 

आईएमएफ़ की नव निर्वाचित प्रबंध निदेशक क्रिस्टलीना जॉर्जीवा ने कुछ दिन पहले ही कहा है कि आर्थिक विकास की दर और कम होगी और मंदी के पूरे आसार हैं। उन्होंने यह भी कहा था कि भारत जैसी अर्थव्यवस्थाओं में यह अधिक चिंता की बात है और यहाँ यह मंदी ज़्यादा है। 

आर्थिक मंदी के लिए सबसे बड़ी चिंता की बात अमेरिका-चीन व्यापार युद्ध है। हालाँकि सोमवार को अमेरिका ने चीनी उत्पादों पर नए आयात कर नहीं लगाए और चीन अमेरिका से अधिक कृषि उत्पाद खरीदने पर राजी हो गया है। इसे थोड़ी राहत मिलना कह सकते हैं, पर यह समस्या का अंत नहीं है। चीन-अमेरिका व्यापार युद्ध अभी और तेज़ हो सकता है। ज्यों-ज्यों अमेरिका में राष्ट्रपति चुनाव नज़दीक आते जाएंगे, डोनल्ड ट्रंप अमेरिका फ़र्स्ट का नारा तेज करते जाएंगे, जिससे दोनों देशों के बीच तल्ख़ी बढ़ेगी।  इसी तरह यूरोपीय संघ से ब्रिटेन के निकलने को लेकर यूरोपीय अर्थव्यवस्था संकट में है। ब्रिटिश प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन ने कह दिया है कि कोई समझौता हो या न हो , ब्रिटेन हर हाल में तय समय पर यूरोपीय संघ से बाहर निकल आएगा। अब तक किसी समझौते की रूपरेखा तक तय नहीं हुई, ब्रिटन यही तय नहीं कर पा रहा है कि समझौता किया जाए तो किन मुद्दों पर और कौन बातें जोड़ी जाए। ऐसे में किसी किसी समझौते की बात करना फिजूल है क्योंकि ब्रिटेन को 30 अक्टूबर तक संघ छोड़ देना है। 

पूरी दुनिया में उत्पादन में कटौती देखी गई है, जिसका मतलब साफ़ है कि खपत में भी कमी हो रही है। निर्यात आधारित अर्व्यवस्था, मसलन, जापान बुरी हालत में है तो ऑटो सेक्टर में मंदी के कारण जर्मनी जैसी अर्थव्यवस्था बदहाल है। अमेरिका में अनिवासी निवेश में कमी आई है। 

पूरी दुनिया की भौगोलिक-राजनीतिक स्थिति भी मंदी को बढाने वाले ही हैं। अमेरिका-ईरान संकट की वजह से ईरान पर आर्थिक प्रतिबंध लगा दिया गया है, ईरानी तेल कई नहीं खरीद सकता, भारत भी नहीं। इसी तरह सऊदी-अरब ईरान संकट का असर भी पड़ना तय है। इसे इससे समझा जा सकता है कि सऊदी अरब के दो तेल संयंत्रों पर ड्रोन हमले हुए तो कच्चा तेल बाजा़र में कीमतें 20 प्रतिशत तक उछल गईं। इसके बाद बीते हफ्ते लाल सागर में ईरान के एक तेल टैंकर पर मिसाइल हमला हुआ और ढेर सारा तेल बह गया। 

इससे ईरान बौखलाया हुआ है। इससे तेल संकट गहरा हो सकता है और तेल की कीमत तुरन्त न भी बढे तो आगे चल कर बढ़ सकती है। हांग कांग में चल रहे राजनीतिक संकट और बीजिंग के ख़िलाफ़ हो रहे विरोध प्रदर्शन का असर वित्तीय बाज़ार पर पड़ सकता है। हांग कांग शेयर बाज़ार का इनडेक्स हैंग सैंग टूटता है तो इसका असर बंबई स्टॉक एक्सचेंज समेत तमाम पूरी दुनिया पर पड़ेगा। 

पूरी दुनिया के कारोबार में मुनाफ़ा में कमी आ रही है। लगभग हर देश में ऐसा हो रहा है। जिस कंपनी का मुनाफ़ा घटेगा वह पूंजीगत खर्च में कटौती करेगी, निवेश कम होगा। मुनाफ़ा और कम होने से ये कंपनियाँ कर्मचारियों को निकाल सकती है, जिससे उपभोक्ता खपत और कम हो सकता है। यह एक तरह का च्रक होता है और यह चक्र बनता जा रहा है। 

पूरी दुनिया के तमाम केंद्रीय बैंकों का बुरा हाल है। अमेरिका के फ़ेडरल रिज़र्व ने 2009 की मंदी के बाद से अब तक 500 बेसिस प्वाइंट की कटौती की है। उसके बावजूद बैंकों से कर्ज लेना कम हो गया है। दूसरी ओर, ब्याज दर में कटौती लगातार हो रही है। 

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