2019-दो साल बाद फिर होगे विधानसभा चुनाव ?
#सारी तैयारियां पूर्ण है# 2019 में लोकसभा तथा विधानसभा चुनाव होगे एक साथ #राष्ट्रपति, चुनाव आयोग, प्रधानमंत्री की हरी झण्डी मिल चुकी है# तैयारी काफी समय पहले ही शुरू कर दी गयी थी #Execlusive Report: हिमालयायूके की एक्सक्लूसिव रिपोर्ट #CS JOSHI- Editor Execlusive Report: for only www.himalayauk.org (Leading Didital Media & Print Media)
गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने चुनाव आयोग से आग्रह किया कि वह देश में एक साथ चुनाव कराने के प्रस्ताव पर राजनीतिक दलों से विचार-विमर्श करे.
वही चुनाव आयोग ने कहा कि आयोग इसके लिए तैयार है. पर इसके लिए संविधान में संशोधन करना होगा.
इसके अलावा प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने गत नवंबर में कहा था कि एक साथ चुनाव के विचार को आगे बढ़ाने की जरूरत है. इसे कोई थोप तो नहीं सकता, लेकिन भारत के एक विशाल देश होने के कारण चुनाव की जटिलताओं और आर्थिक बोझ के मद्देनजर सभी पक्षों को इस पर चर्चा करनी चाहिए. उन्होंने मीडिया से भी इस चर्चा को आगे बढ़ाने की अपील की.
संसद की स्थायी समिति ने भी एक साथ चुनाव कराने के पक्ष में अपनी राय दे दी है. पर कांग्रेस ‘व्यावहारिक समस्याओं’ का बहाना बना कर एक साथ चुनाव के लिए तैयार नहीं दिख रही है. हालांकि उसने कहा कि सैद्धांतिक रूप से यह एक सही सुझाव है.
इसकी तैयारी काफी समय पहले ही शुरू कर दी गयी थी
चन्द्रशेखर जोशी सम्पादक ने हिमालयायूके के लिए अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि केंद्र सरकार ने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश डॉ. बलबीर सिंह (बी.एस.) चौहान को विधि आयोग का नया अध्यक्ष नियुक्त किया था। यह पद पिछले वर्ष सितंबर से खाली पड़ा था। डॉ. बलबीर सिंह चौहान विधि आयोग के 21वें अध्यक्ष हैं। वह वर्तमान में कावेरी नदी जल विवाद ट्रिब्यूनल के अध्यक्ष हैं। वे मई, 2009 से जुलाई, 2014 तक सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीश रहे।
न्यायमूर्ति डॉ॰ बलबीर सिंह चौहान भारतीय विधि आयोग के 21 वें अध्यक्ष हैं। 10 मार्च, 2016 को केंद्र सरकार ने उन्हें इस पद पर नियुक्त किया।इसके पूर्व वे कावेरी नदी जल विवाद न्यायाधिकरण के अध्यक्ष थे। वे मई, 2009 से जुलाई, 2014 के मध्य भारत के उच्चतम न्यायालय के न्यायाधीश रह चुके हैं। वे 16 जुलाई 2008 से 10 मई 2009 तक उड़ीसा उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश रह चुके हैं।
*क्या 2019 में लोकसभा और सभी राज्यों की विधानसभा के लिए चुनाव एक साथ हो सकते हैं*?
2019 में लोकसभा के साथ राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी कराए जा सकते हैं. विधि आयोग के अध्यक्ष बीएस चौहान ने द टाइम्स ऑफ इंडिया से बातचीत में यह संभावना जताई है. चौहान ने कहा, ‘पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव निपट जाने के बाद निर्वाचन आयोग से तमाम संबंधित मसलों पर चर्चा की जाएगी. अगर सभी पक्षों में सहमति बनी तो कोशिश रहेगी कि कम से आधे राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव तो अगले लोकसभा चुनाव के साथ करा ही लिए जाएं.’
यह मुद्दा बीते कुछ समय से गर्म है. विधि एवं न्याय मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति में भी इस चर्चा हो चुकी है. उसने भी इस विचार के पक्ष में अपनी राय दी है. कुछ सुझावों के साथ दिसंबर 2015 में समिति अपनी रिपोर्ट भी संसद को सौंप चुकी है. चन्द्रशेखर जोशी सम्पादक ने हिमालयायूके के लिए अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि समिति के सुझावों में भी यह शामिल है कि आधे राज्यों के चुनाव अगले लोकसभा चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं. बाकी के आधे राज्यों में 2019 के ही अंत में चुनाव हो सकते हैं. निर्वाचन आयोग और विधि आयोग के बीच भी इससे पहले गहराई से इस मुद्दे पर चर्चा हो चुकी है. इस सिलसिले में नीति आयोग ने अध्ययन भी किया है. इसके मुताबिक, देश में करीब-करीब हर छह महीने…
2019 में लोकसभा के साथ राज्य विधानसभाओं के चुनाव भी कराए जा सकते हैं. विधि आयोग के अध्यक्ष बीएस चौहान ने द टाइम्स ऑफ इंडिया से बातचीत में यह संभावना जताई है. चौहान ने कहा, ‘पांच राज्यों के विधानसभा चुनाव निपट जाने के बाद निर्वाचन आयोग से तमाम संबंधित मसलों पर चर्चा की जाएगी. अगर सभी पक्षों में सहमति बनी तो कोशिश रहेगी कि कम से आधे राज्यों की विधानसभाओं के चुनाव तो अगले लोकसभा चुनाव के साथ करा ही लिए जाएं.’
यह मुद्दा बीते कुछ समय से गर्म है. विधि एवं न्याय मंत्रालय की स्थायी संसदीय समिति में भी इस चर्चा हो चुकी है. उसने भी इस विचार के पक्ष में अपनी राय दी है. कुछ सुझावों के साथ दिसंबर 2015 में समिति अपनी रिपोर्ट भी संसद को सौंप चुकी है.
समिति के सुझावों में भी यह शामिल है कि आधे राज्यों के चुनाव अगले लोकसभा चुनाव के साथ कराए जा सकते हैं. बाकी के आधे राज्यों में 2019 के ही अंत में चुनाव हो सकते हैं. निर्वाचन आयोग और विधि आयोग के बीच भी इससे पहले गहराई से इस मुद्दे पर चर्चा हो चुकी है. इस सिलसिले में नीति आयोग ने अध्ययन भी किया है. इसके मुताबिक, देश में करीब-करीब हर छह महीने में कहीं न कहीं चुनाव होते हैं. इससे प्रशासनिक और विकास कार्याें में बाधा पहुुंचती है क्योंकि केंद्र और राज्यों की सरकारें चुनाव आचार संहिता से बंध जाती हैं.
चन्द्रशेखर जोशी सम्पादक ने हिमालयायूके के लिए अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि विधि आयोग के अध्यक्ष के मुताबिक देश में लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ कराना कोई नई बात नहीं है. आजादी के बाद 1952, 1957 और 1962 में ये चुनाव साथ में ही हुए थे. यह सिलसिला 1968 में टूटा जब कुछ विधानसभाओं को कार्यकाल पूरा होने से पहले ही भंग कर दिया गया. इसी तरह 1970 में लोकसभा भी समय से पहले भंग कर दी गई. ऐसा कई बार हुआ. लिहाजा, लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक सााथ कराने का सिलसिला फिर बहाल नहीं हो पाया.
कांग्रेस सरकार ने 1971 में समय से एक साल पहले लोकसभा चुनाव करा कर विधानसभाओं के चुनाव से लोकसभा चुनाव को अलग कर दिया. उस समय यह काम कांग्रेस ने अपने राजनीतिक फायदे के लिए किया था. अब जब देश एक बार फिर एक साथ चुनाव कराने को तैयार हो रहा है तो कांग्रेस को सांप सूघ रहा है. एक साथ चुनाव कराने में कांग्रेस अब अपना राजनीतिक नुकसान देख रही है. चन्द्रशेखर जोशी सम्पादक ने हिमालयायूके के लिए अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे. अब इन चुनावों के अलग-अलग होने से इस गरीब देश की सरकार को भारी, अतिरिक्त और अनावश्यक खर्च उठाना पड़ रहा है. पूरी सरकारी मशीनरी चुनाव कार्य में लग जाती है और विकास के काम रुक जाते हैं. लगभग हर साल देश के किसी न किसी हिस्से में चुनाव होते ही रहते हैं. यानी जिसने दर्द दिया, वह अब भी दवा देने को तैयार नहीं है.
संभवतः उसे लगता है कि इससे बची खुची राज्य सरकारें भी उसके हाथों से निकल सकती है. गत लोकसभा चुनाव के बाद जितने राज्यों में चुनाव हुए, उनमें से अधिकतर राज्यों में भाजपा की जीत हुई है. 46 साल बाद अब इस पीढ़ी के लोगों को यह जानना जरूरी है कि इस देश में लोकसभा का पहला मध्यावधि चुनाव क्यों कराना पड़ा था? सन 1969 में कांग्रेस के महाविभाजन को इसका सबसे बड़ा कारण बताया गया.
इस विभाजन के साथ ही तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के सत्तारूढ़ दल इंदिरा कांग्रेस का संसद में बहुमत समाप्त हो चुका था. पर, वह तो सीपीआई और कुछ अन्य क्षेत्रीय दलों की मदद से चल ही रही थी.
तब इंदिरा गांधी ने ‘गरीबी हटाओ’ का नारा देते हुए आरोप लगाया था कि गरीबी हटाने के इस काम में संगठन कांग्रेस के नेतागण बाधक हैं. कांग्रेस के विभाजन को यह कह कर औचित्य प्रदान करने की कोशिश की गई थी.
क्या उन्होंने ‘गरीबी हटाओ’ के अपने नारे को कार्यरूप देने के लिए मध्यावधि चुनाव देश पर थोपा था? यदि सन 1971 के चुनाव में पूर्ण बहुमत पा लेने के बाद उन्होंने सचमुच ‘गरीबी हटाने’ की दिशा में कोई ठोस काम किया होता तो यह तर्क माना जा सकता था. पर ऐसा कुछ भी नहीं हुआ कि इस देश से गरीबी वास्तव में हटती. बल्कि चुनाव के बाद यह आरोप लगने लगा कि केंद्र सरकार संजय गांधी के मारूति कार कारखाने की स्थापना और विकास के काम में सहयोग कर रही है. ऐसे कुछ अन्य आरोप भी लगे. फिर क्यों मध्यावधि चुनाव थोपा गया? दरअसल कांग्रेस के विभाजन के बाद केंद्र सरकार के कभी भी गिर जाने के भय से वह चुनाव कराया गया था.
साल 1971 के मध्यावधि चुनाव के ठीक पहले देश में हो रही राजनीतिक घटनाओं पर गौर करें तो पता चलेगा कि तब कई राज्यों के मंत्रिमंडल आए दिन गिर रहे थे. इंदिरा गांधी को लगा कि कहीं उनकी सरकार भी किसी समय गिर न जाए! वह वामपंथियों के दबाव से मुक्ति भी चाहती थीं. एक बार केंद्र सरकार गिर जाती तो राजनीतिक व प्रशासनिक पहल इंदिरा गांधी के हाथों से निकल जातीं. यह उनके लिए काफी असुविधाजनक होता.
लोकसभा के मध्यावधि चुनाव के साथ एक और गड़बड़ी हो गई. 1967 तक लोकसभा और विधानसभाओं के चुनाव एक ही साथ होते थे. इससे सरकारों, दलों और उम्मीदवारों को कम खर्चे लगते थे. 1971 के बाद ये चुनाव अलग-अलग समय पर होने लगे. इससे खर्चे काफी बढ़ गए. इस कारण राजनीति में कालाधन की आमद भी बढ़ गई.
इंदिरा गांधी चाहतीं तो लोकसभा चुनाव को एक साल और आगे खींच सकती थीं. सन 1967 के बाद देश में 1972 में आम चुनाव होने ही वाले थे. लेकिन प्रधानमंत्री को जल्दीबाजी थी. उन्हें लगा था कि गरीबी हटाओ का उनका लुभावना नारा शायद एक साल बाद वोटों की बरसात न कर सके.
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